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भारत की राजनीति में विविधता का मतलब ये है कि कोई भी चुनावी बहुमत स्थायी नहीं होता और न ही कोई वैचारिक दबदबा हमेशा क़ायम रहता है.
ये लेख हमारी सीरीज़, इंडिया @75: एसेसिंग की इंस्टीट्यूशंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी का एक हिस्सा है.
ये बात तो सबको मालूम है कि भारत के लोकतंत्र में एक बुनियादी परिवर्तन आ रहा है. ये बात कई बदलावों से ज़ाहिर होती है, जिसमें चुनावी मुक़ाबले के मिज़ाज में आया संस्थागत बदलाव, मध्यम वर्ग की तादाद में कई गुने का इज़ाफ़ा, सोशल मीडिया का बढ़ता दायरा और समाज के पुराने दर्ज़ों के पतन जैसी बातें शामिल हैं. 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी के सामाजिक और भौगोलिक विस्तार ने देश के राजनीतिक परिदृश्य को भी बदल डाला है. इसका नतीजा ये हुआ है कि कांग्रेस और हाशिए पर चली गई है. वाम मोर्चा लगभग ख़त्म हो गया है और राज्य स्तरीय पार्टियों की ताक़त लगातार कम होती जा रही है. बीजेपी ने चारों दिशाओं में अपना व्यापक विस्तार किया है. इससे मतदाताओं के उन समूहों में बहुत हेर-फेर देखा जा रहा है, पहले जिनका इस्तेमाल सामाजिक दरारें बढ़ाकर अपने पाले में लाने के लिए किया जाता रहा था. इसी तरह, पिछले दो दशकों के दौरान राज्य स्तर की वो विशेषताएं जो पिछले दो दशकों में चुनावी विश्लेषण की राजनीतिक परिचर्चा पर हावी थीं, अब वो कुछ हद कमज़ोर हो गई हैं. ख़ास तौर से राष्ट्रीय राजनीति की दशा दिशा को समझने में उन बातों की अहमियत ख़त्म हो गई है.
बिना राजनीतिक दलों के आधुनिक लोकतंत्र की परिकल्पना करना नामुमकिन है क्योंकि वो तीन अहम क्षेत्रों में जनता और हुकूमत के बीच कड़ी की भूमिका निभाते हैं.
आज जब भारत अपनी आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है, तो हम तेज़ी से बदल रहे इस राजनीतिक परिदृश्य में, देश के लोकतंत्र को उसका वर्तमान स्वरूप देने में राजनीतिक दलों की भूमिका का मूल्यांकन कर रहे हैं. बिना राजनीतिक दलों के आधुनिक लोकतंत्र की परिकल्पना करना नामुमकिन है क्योंकि वो तीन अहम क्षेत्रों में जनता और हुकूमत के बीच कड़ी की भूमिका निभाते हैं. सियासी दल, व्यक्तिगत शिकायतों की मतदान के ज़रिए अभिव्यक्ति, राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ाने का ज़रिया और राजनीतिक समाधान के लिए तमाम वर्गों के हितों के मंच का काम करते हैं.
राजनीतिक दलों के अपने संगठनात्मक जीवन होते हैं. लेकिन वो स्थायी पार्टी व्यवस्था भी होते हैं. सियासी दल, व्यवस्था का ‘अंग’ होते हैं. ऐसे में ज़ाहिर है कि जब व्यवस्था में बदलाव होता है, तो उसका असर ‘अंगों’ पर भी पड़ता है. ये बात सब मानते हैं कि भारत में दलगत व्यवस्था ने अपने आग़ाज़ के साथ अब तक कम से कम चार परिवर्तन होते देखे हैं. पहली दलगत व्यवस्था (1952-1967) में कांग्रेस सबसे ताक़तवर पार्टी थी जो राष्ट्रीय स्तर के चुनाव के साथ-साथ ज़्यादातर राज्यों में भी जीता करती थी और अन्य दलों पर हावी रहती थी. इसी वजह से उस दौर को ‘कांग्रेस व्यवस्था’ के तौर पर शोहरत हासिल हुई. दूसरे दौर में, कई राज्यों में कांग्रेस के ख़िलाफ़ विपक्ष का उभार देखा गया, जिससे राज्य की दलगत व्यवस्था (1967-1989) में ध्रुवीकरण होता देखा गया. इस दौर में, वैसे तो कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर के चुनाव जीतती रही. लेकिन, राज्यों में ग़ैर कांग्रेसी विपक्षी दल बड़े स्तर पर सीट और वोट जीतने लगे.
राजनीतिक दलों के अपने संगठनात्मक जीवन होते हैं. लेकिन वो स्थायी पार्टी व्यवस्था भी होते हैं. सियासी दल, व्यवस्था का ‘अंग’ होते हैं. ऐसे में ज़ाहिर है कि जब व्यवस्था में बदलाव होता है, तो उसका असर ‘अंगों’ पर भी पड़ता है.
तीसरे दौर में कांग्रेस के बाद की राजनीति का आग़ाज़ हुआ- एक प्रतिद्वंदी बहुदलीय व्यवस्था (1989-2014), जिसमें राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस का दबदबा नहीं बचा. इस दौर में हमने केंद्र में गठबंधन सरकारें बनती देखीं, क्योंकि कोई एक दल अपने बूते बहुमत हासिल नहीं कर सका था. इस चरण में, राष्ट्रीय राजनीति हो या फिर राज्यों की सियासत, दोनों में राज्य स्तर के दलों की ताक़त और बढ़ गई. देश की मौजूदा दलगत व्यवस्था की शुरुआत 2014 में हुई जब भारतीय जनता पार्टी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया. बीजेपी के 2019 में दोबारा अपने दम पर बहुमत हासिल करने और अपनी पहुंच और बढ़ाने से भारत ने अब एक दल के दबदबे वाले दूसरे दौर में प्रवेश कर लिया है. आज भारतीय राजनीति का पलड़ा दक्षिणपंथ की तरफ़ इस क़दर झुक गया है कि सियासी रणनीति और दांव-पेंच के मामले में विपक्ष या तो ख़ामोश बैठा है या उसका कोई भी दांव काम नहीं आ रहा है.
वो कौन सी वैचारिक रूप-रेखा है जिसके आधार पर भारत में चुनाव लड़े जाते हैं? और किस तरह ‘आइडियाज़ ऑफ़ इंडिया’ ने देश के राजनीतिक दलों, दलगत व्यवस्था और लोकतंत्र को आकार दिया है? इस मामले में पांच बड़े प्रचलन देखे जा सकते हैं:
ऐसे में सवाल ये है कि हम अपनी सियासत के उभरते विरोधाभासों को कैसे समझें: एक मज़बूत प्रतिद्वंदी राजनीतिक व्यवस्था जहां राज्य स्तर के दल विधानसभा के अहम चुनाव जीतें और एक सक्रिय नागिरक समूह जो बीजेपी के वैचारिक दबदबे के बीच सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करे? और हम उस विरोधाभास की व्याख्या कैसे करें, जहां एक तरह ज़्यादातर सियासी दलों का एक संगठन के तौर पर पतन होता जा रहा है और उन पर आलाकमान वाली केंद्रीकृत व्यवस्था हावी होती जा रही है. वहीं दूसरी ओर, यही राजनीतिक दल हाशिए पर पड़े समूहों की नुमाइंदगी करने जैसे लोकतांत्रिक परिणाम देने की अहम भूमिका भी निभा रहे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत का लोकतंत्र अपने आप में अनूठा है. ये संस्थागत ढांचे का एक नतीजा भी है और समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी विरोधाभासी ताक़तों के दबाव में अचानक पैदा हुआ परिणाम भी है. भारत के राजनीतिक दल इन सामाजिक ताक़तों के लिए एक मंच का काम करते हैं- हालांकि उनका रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा है. वो कुछ अपनी भूमिकाओं में तो सफल रहे हैं और कुछ में नाकाम भी रहे हैं. इन सियासी दलों का लचीलापन और फ़ुर्ती से ख़ुद को नए हालात के हिसाब से ढाल लेने की ख़ूबी रोज़मर्रा की राजनीति को ऊर्जावान बनाए रखती है. भारत में सियासत का रोज़मर्रा की बात होना और नेताओं की उद्यमिता वाली भावना किसी भी राजनीतिक संस्कृति का दबदबा स्थायी बनाने से रोकने का काम करेगी. इसके अलावा भारत की सभ्यता वाली विविधता का मतलब ये है कि कोई भी चुनावी बहुमत स्थायी नहीं है और न ही कोई वैचारिक दबदबा हमेशा क़ायम रहने वाला है. भारत के इस विविधता भरे ढांचे में लगातार होने वाले बदलावों से, एक दूसरे के विरोधाभासी नतीजे निकलते रहेंगे, और ये परिणाम ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संतुलन बनाए रखने का काम करेंगे.
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Rahul Verma is a Fellow at the Centre for Policy Research (CPR) and visiting assistant professor of political science at Ashoka University. His research interests ...
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