Published on Mar 08, 2021 Updated 0 Hours ago

हमारी सबसे बड़ी चुनौती घरेलू राजनीति से खड़ी होगी, बीजेपी के लिए राजनीतिक ख़तरा बाहरी चीज़ नहीं है

2030 का भारत- राजनीतिक स्थिरता से होने वाली मामूली उपयोगिता की पड़ताल

जिस वक़्त भूराजनीतिक, तकनीकी और पर्यावरण संबंधी रुकावट अनिश्चितता को चिंताजनक स्तर तक धकेलती हैं, उस वक़्त एक दशक “आगे की तरफ़ देखना” किसी मूर्ख की दलील की तरह लगती है. लेकिन अच्छी बात ये है कि किसी भी दूसरे व्यक्ति की तरह इसके ठीक होने की संभावना उतनी ही है.

घरेलू राजनीति- स्थायित्व की चुप्पी

हमारी सबसे बड़ी चुनौती घरेलू राजनीति से खड़ी होगी. बीजेपी के लिए राजनीतिक ख़तरा बाहरी चीज़ नहीं है. असली ख़तरा ये है कि कोई ख़तरा ही नहीं है. ये थोड़ा-बहुत उसी तरह है जैसे कि भारत में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर टैरिफ की दीवार के पीछे पनाह लेकर मोटा-ताज़ा और बेपरवाह हो जाता है.

अच्छी ख़बर ये है कि दूसरे दर्जे के बीजेपी नेताओं के बीच मुक़ाबला उन्हें चुस्त और सावधान बनाए रखेगा. लेकिन एक बेहद केंद्रीकृत- लगभग राष्ट्रपति प्रणाली की तरह- व्यवस्था में उनकी कोशिशें सिर्फ़ उनके सालाना मूल्यांकन के लिए मायने रखती हैं. वो ऊपरी नेताओं द्वारा तैयार मास्टर स्ट्रोक के साथ जुड़कर चमकते हैं.

ये बात बीजेपी/राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और कांग्रेस/संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पुरानी सरकार के दौरान भी अलग नहीं थी- कम-से-कम जनहित में मंत्री बनने की व्यक्तिगत कोशिश के मामले में. लेकिन उस वक़्त दोनों सरकारें प्रतिस्पर्धी राजनीति की अच्छा बातों का आनंद उठा रही थीं. दोनों सरकारों ने सर्वसम्मति बनाने के गठबंधन धर्म के लिए भी मेहनत की.

नरेंद्र मोदी को इस पूरे दशक के दौरान प्रधानमंत्री बने रहना होगा तभी वो पंडित नेहरू के लगातार 17 साल प्रधानमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड तोड़ेंगे या इंदिरा गांधी के दो अलग-अलग कार्यकाल में 15 साल तक प्रधानमंत्री बने रहने के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ेंगे.

नरेंद्र मोदी को इस पूरे दशक के दौरान प्रधानमंत्री बने रहना होगा तभी वो पंडित नेहरू के लगातार 17 साल प्रधानमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड तोड़ेंगे या इंदिरा गांधी के दो अलग-अलग कार्यकाल में 15 साल तक प्रधानमंत्री बने रहने के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ेंगे.

इस बात की संभावना है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तर्ज़ पर बीजेपी अपनी देशव्यापी छवि हासिल करने के एजेंडे को आगे बढ़ाएगी. ऊपरी तौर पर ये सख़्त कार्यकर्ता अनुशासन, प्रतिभा के आधार पर करियर में प्रगति और काफ़ी महत्वाकांक्षा के साथ शायद संस्थागत दिखती है.

2030 तक लगातार देश भर में वर्चस्व नये सदस्यों को बीजेपी की तरफ़ आकर्षित करेगा. एक निर्धारित नंबर पर मिस्ड कॉल के ज़रिए सदस्यता देने की पुरानी चाल शायद 90 करोड़ वयस्क आबादी में से मौजूदा 18 करोड़ (चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से तीन गुना ज़्यादा हालांकि उस तरह के प्रतिस्पर्धी मानक के बिना) की सदस्यता के 30 करोड़ तक पहुंचने के लिए काफ़ी नहीं हो सकती है.

शासन व्यवस्था- उत्तराधिकार से पार्टी नेटवर्क तक

क्या पार्टी सदस्यता उस मौजूदा सिस्टम की जगह ले सकती है जिसके तहत ख़ास लोगों और उनके समर्थकों को उत्तराधिकार का फ़ायदा मिलता है? हां, ऐसा हो सकता है अगर सरकारी कर्मचारियों का उल्लेखनीय ढंग से विस्तार हो और पार्टी सदस्यों को सरकारी नौकरियों में “तैनात” कर दिया जाए. ये उस राजनीतिक स्क्रीनिंग से अलग नहीं है जो सरकार चरमपंथी वाम “माओवादी” राजनीति में सक्रिय लोगों को निकालने के लिए हमेशा करती आई है.

वर्तमान में सरकारी नौकरियों में 2 करोड़ लोग तैनात हैं जिन पर बजट का 12 प्रतिशत खर्च होता है. कर्मचारियों के बजट में ज़्यादा बढ़ोतरी लगातार राजकोषीय बोझ की वजह से मुश्किल है. इस बात की ज़्यादा संभावना है कि प्रोफशनल और वैज्ञानिकों के मुक़ाबले “सामान्य हुनर” वाले आधे अधिकारियों की जगह पार्टी से मंज़ूर कार्यकर्ताओं को तैनात किया जाएगा. लेकिन ये बेहद लंबी प्रक्रिया है जो स्वाभाविक रूप से कर्मचारियों के अलग होने पर निर्भर है. 2030 तक सिर्फ़ 30 लाख पार्टी सदस्यों को “राजनीतिक असर वाली लैटरल एंट्री” से फ़ायदा होगा.

आर्थिक आघात- सामंती से लेकर औद्योगिक विरासत तक

भारत ने आख़िरी बार अच्छा उस वक़्त किया जब स्वतंत्रता के ठीक बाद करिश्माई नेता, एक पार्टी का शासन था. उसके बाद राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण हर वर्ग के ख़ास लोगों को शासन व्यवस्था में एक औपचारिक भूमिका दी गई जो भारतीय लोकतंत्र को जोड़े रखने वाली चीज़ है.

अलग-अलग पार्टियों में साझा फ़ायदे के लिए ख़ास लोगों के सहयोग का सबसे अच्छा उदाहरण कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ पंजाब की अलग-अलग पार्टियों के बीच सर्वसम्मति है. कृषि क़ानूनों का मक़सद कंपनियों का विकल्प देना और कृषि उपज की ख़रीद में सरकार द्वारा तय दाम के एकाधिकार की जगह प्रतिस्पर्धी बाज़ार है.

इस बात की ज़्यादा संभावना है कि प्रोफशनल और वैज्ञानिकों के मुक़ाबले “सामान्य हुनर” वाले आधे अधिकारियों की जगह पार्टी से मंज़ूर कार्यकर्ताओं को तैनात किया जाएगा.

कृषि सुधार का सीधा आर्थिक फ़ायदा तो बस एक छोटा सा हिस्सा है (जीडीपी का 1 प्रतिशत). बड़ा फ़ायदा तो पानी के बेहतर इस्तेमाल, बिजली वितरण करने वाली कंपनियों के लिए पैसे का इंतज़ाम और हमारी जनसंख्या के 40 प्रतिशत- 10 करोड़ किसान परिवार- लोगों के वैश्विक तौर पर प्रतिस्पर्धी, बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था में घुलने-मिलने का है.

सुधार के ऐसे जल्दबाज़ी वाले कई क़दम होंगे. प्राइवेट बैंकों की संख्या और उनकी संपत्ति का आकार बढ़ेगा. इससे सरकार को समय-समय पर सार्वजनिक बैंकों के डूबे हुए कर्ज़ को खाते से हटाने से मुक्ति मिलेगी- वर्तमान में ये जीडीपी के 8 से 10 प्रतिशत के बीच है.

कारोबार में, बड़े “राष्ट्रीय चैंपियन”- पूर्वी एशियाई अंदाज़ में- धीरे-धीरे कम फंड वाले कारोबारियों को पीछे छोड़ देंगे. इस तरह वो बड़ी पारिवारिक कंपनियां बनाएंगी जिनका दखल वित्त, उद्योग और सेवा क्षेत्रों में होगा. नकद और “वितरित भ्रष्टाचार” के ख़िलाफ़ लड़ाई से छोटे और मध्यम उद्योग को नया रूप मिलेगा. वो ऐसे कारोबारियों की जगह ले लेंगे जो “टैक्स बचाकर” काम करना चाहते हैं. दूसरी तकनीकी रूप से प्रतिस्पर्धी इकाइयां घरेलू और वैश्विक सप्लाई चेन का हिस्सा हो जाएंगी.

उदार श्रम नियमन से कारोबार में आना और बाहर जाना आसान हो जाएगा. लेकिन इससे उन लोगों को दिक़्क़त होगी जो “लाइफटाइम जॉब” करना चाहते हैं. नियत काम पर केंद्रित शिक्षा और हुनर का विकास तकनीक आधारित, गिग इकोनॉमी में नौकरी के लिए ज़रूरी शर्त होगी. “अच्छी” नौकरियों की कमी बरकरार रहेगी. भारत कम लागत वाले हुनरमंद कामगारों का बड़ा निर्यातक बना रहेगा.

कारोबार के लिए राजनीतिक जोखिम का स्तर महत्वपूर्ण रूप से कम होगा. मौजूदा समय से कम राजनीतिक दल मुक़ाबले में रहेंगे. बोर्ड में नामांकित पार्टी कार्यकर्ता प्राइवेट सेक्टर और पार्टी के प्रोत्साहन को एक सीध में रखेंगे. ये सुनने में ख़तरनाक लगता है लेकिन ये विकेंद्रीकृत तरीक़े से पहले से हो रहा है जब टाटा मोटर्स पश्चिम बंगाल में गई तो उसे ये पता चला.

विकास- उच्च, इकाई अंक की वापसी

घरेलू राजनीतिक स्थिरता, चालू खाते और भारतीय रुपये के विनिमय दर को स्थिर करने के लिए विदेशी निवेश को बढ़ाने में विदेशी और घरेलू प्राइवेट निवेशकों के साथ क़रीबी सहयोग, प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन और मानवाधिकार को लेकर प्रासंगिक दृष्टिकोण- इन सबके मेल से विकास और साझा समृदधि के लिए महत्वपूर्ण अवसरों का निर्माण होगा.

कारोबार में, बड़े “राष्ट्रीय चैंपियन”- पूर्वी एशियाई अंदाज़ में- धीरे-धीरे कम फंड वाले कारोबारियों को पीछे छोड़ देंगे. इस तरह वो बड़ी पारिवारिक कंपनियां बनाएंगी जिनका दखल वित्त, उद्योग और सेवा क्षेत्रों में होगा

आयात पर ज़्यादा टैरिफ उपभोक्ताओं को परेशान करेगा. साथ ही घरेलू उत्पादन बढ़ाए बिना  निर्यात भी उपभोक्ताओं के लिए ठीक नहीं है. पिछले दशक के तीन साल और आने वाले दो साल की आर्थिक सुस्ती के बावजूद 2030 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की जीडीपी का लक्ष्य हमारी मुट्ठी में है.

सामाजिक सेवा- पिता के समान पहुंच

2030 तक नीचे की श्रेणी के 10 प्रतिशत (15 करोड़) लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा कवरेज में बढ़ोतरी होगी. उन्हें पेंशन, आमदनी में बढ़ोतरी के फ़ायदे, स्वास्थ्य देखभाल और अल्पकालीन रोज़गार मिलेगा.

दुख की बात ये है कि किफ़ायती दाम पर अच्छी सार्वजनिक शिक्षा पिछड़ जाएगी. स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम और पढ़ाई पीछे ले जाने वाली होगी. शिक्षकों की क्वालिटी ख़राब बनी रहेगी. इसकी वजह से सिर्फ़ सरकारी स्कूलों की पढ़ाई का ख़र्च उठा सकने वाले  60 प्रतिशत बच्चों के भविष्य पर असर पड़ेगा.

वैश्विक खाका- पश्चिमी देशों पर निर्भरता जारी

ख़राब बात ये है कि भारत ग़ैर-प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था बना रहेगा. भारत निर्यात करने वाले देश से ज़्यादा आयातित तकनीक और सामान वाला (अगर चीन का नहीं तो यूरोप और अमेरिका का) देश बना रहेगा. यहां तक कि सेवा के निर्यात में भी नौकरशाही का दखल नुक़सान करेगा.

जलवायु परिवर्तन एजेंडा के तहत हमारे राष्ट्रीय निर्धारित योगदान का लक्ष्य पूरा होगा और हो सकता है कि ये लक्ष्य के आगे भी चला जाए लेकिन शून्य के लिए हमें 2060 के आगे का इंतज़ार करना होगा.

दुख की बात ये है कि किफ़ायती दाम पर अच्छी सार्वजनिक शिक्षा पिछड़ जाएगी. स्कूलों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम और पढ़ाई पीछे ले जाने वाली होगी. शिक्षकों की क्वालिटी ख़राब बनी रहेगी. 

हमारी भूराजनीतिक स्थिति लड़ाकू बनी रहेगी. हम बेचैन होकर अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ रहेंगे. बाहरी और घरेलू सुरक्षा पर हमारा ख़र्च जीडीपी के 6 से 7 प्रतिशत के मौजूदा ख़र्च से बढ़ जाएगा. सैन्य उपकरणों के उत्पादन के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ख़रीद की लागत कम हो सकती है और ये आमदनी का ज़रिया भी हो सकता है.

हम राजनीतिक असंतोष के लिए कम होती जगह, सरकार की कम जवाबदेही और स्थानीय के बदले राष्ट्रीय लक्ष्य की जगह 2023 के आगे उच्च, इकाई अंक वाले विकास की तरफ़ लौटेंगे. ख़ास लोग इसको ग़ैर-ज़रूरी मोल-तोल समझ रहे हैं लेकिन आर्थिक रूप से कमज़ोर भारत के तीन-चौथाई लोगों को कोई भी अंतर नज़र नहीं आएगा.

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