Author : Manoj Joshi

Published on Oct 29, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत ने अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग के सभी चार बुनियादी समझौतों पर दस्तख़त कर दिए हैं. अब सवाल ये है कि भारत के इस क़दम से आगे उसे क्या हासिल होगा?

भारत-अमेरिका संबंध 2020: पुराने रिश्तों में नई जान डालने की कोशिश

मंगलवार, 27 अक्टूबर को भारत और अमेरिका ने बेसिक एक्सचेंज को-ऑपरेशन एग्रीमेंट (BECA) पर हस्ताक्षर कर दिए. दोनों देशों के बीच ये समझौता तब हुआ, दिल्ली में जब भारत और अमेरिका के बीच 2+2 संवाद की तीसरी बैठक हुई. जिसमें भारत और अमेरिका के विदेश और रक्षा मंत्रियों ने आमने सामने बातचीत की. इस समझौते से भारत को अमेरिका के गोपनीय जियो स्पैटियल और GIS डेटा हासिल करने का रास्ता साफ़ हो गया है.

आज अमेरिका और भारत के बीच सामरिक मसलों पर काफ़ी समान विचार देखने को मिल रहे हैं. इस रक्षा सहयोग की बुनियाद काफ़ी पहले रख दी गई थी. इसकी शुरुआत 1990 के दशक के आख़िरी दिनों में हुई थी, जब भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह और अमेरिकी राजनयिक स्ट्रोब टालबॉट के बीच संवाद हुआ था. जिसके बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने साल 2000 में भारत का दौरा किया था. बल्कि सच तो ये है कि भारत और अमेरिका के रक्षा संबंध तो उससे भी पुराने हैं. जब 1984 से 1989 के बीच, राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे, तब दोनों देशों ने रक्षा तकनीक में सहयोग के संबंध विकसित करने की कोशिश की थी.

आज अमेरिका और भारत के बीच सामरिक मसलों पर काफ़ी समान विचार देखने को मिल रहे हैं. इस रक्षा सहयोग की बुनियाद काफ़ी पहले रख दी गई थी. इसकी शुरुआत 1990 के दशक के आख़िरी दिनों में हुई थी, जब भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह और अमेरिकी राजनयिक स्ट्रोब टालबॉट के बीच संवाद हुआ था.

भारत ने अमेरिका के साथ सामरिक सहयोग बढ़ाने के लिए ज़रूरी जिस पहले बुनियादी समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, उसका नाम था GSOMIA. ये सैन्य सूचनाओं के आदान-प्रदान का एक समझौता है, जिस पर दोनों देशों के बीच वर्ष 2002 में उस समय सहमति बनी थी, जब तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस अमेरिका के दौरे पर गए थे. इस समझौते से इस बात की गारंटी मिल गई थी कि जब भी दोनों देशों के बीच किसी तकनीक संबंधी जानकारी का आदान-प्रदान होगा, तो वो इसे गोपनीय रखेंगे. इस समझौते का मक़सद, दोनों देशों के बीच हथियारों और अन्य सैन्य संसाधनों की ख़रीद फ़रोख़्त को बढ़ावा देना था. और इसी संधि की बुनियाद पर आगे चलकर भारत को अमेरिका से हथियार ख़रीदने में आसानी हुई.

हालांकि इस संधि के बाद अमेरिका और भारत के बीच रक्षा सहयोग बढ़ाने के लिए ज़रूरी अन्य बुनियादी समझौतों को लेकर बातचीत का लंबा दौर चला. जब तक UPA सरकार सत्ता में रही, तो अमेरिका और भारत के बीच किसी अन्य बुनियादी समझौते पर सहमति नहीं बन सकी. इस दिशा में प्रगति की शुरुआत तब से ही हो सकी, जब साल 2014 में नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने. उस समय अमेरिका के रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर थे, जो असाधारण प्रतिभा के धनी और संवेदनशील व्यक्ति थे. उन्हीं के कार्यकाल में भारत और अमेरिका के बीच संसाधनों के आदान-प्रदान के समझौते (LEMOA) पर अगस्त 2016 में उस समय हस्ताक्षर किए गए, जब एश्टन कार्टर भारत के दौरे पर आए थे. भारत और अमेरिका के बीच सामरिक साझीदारी का रिश्ता जोड़ने के लिए ज़रूरी चार फाउंडेशनल एग्रीमेंट में से ये दूसरा समझौता था, जिस पर सहमति बनाने के लिए दोनों ही देशों के बीच लंबी बातचीत चली. इसकी वजह ये थी कि इस समझौते के दूरगामी नतीजे निकलने वाले थे, जो उस समय तक भारत और अमेरिका के रिश्तों के दायरे से बाहर जाने वाले थे. LEMOA पर दस्तख़त होने के बाद, दोनों ही देश एक दूसरे के सैन्य संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं. जैसे कि, एक दूसरे के जहाज़ों और विमानों को ईंधन की आपूर्ति या अन्य ज़रूरी सामान मुहैया कराना. भारत और अमेरिका ने रक्षा सहयोग के तीसरे बुनियादी समझौते COMCASA यानी संचार सुरक्षा समझौते पर वर्ष 2018 में समझौता किया. जब सितंबर में दोनों देशों ने 2+2 डायलॉग की शुरुआत की थी. COMCASA असल में ख़ास भारत के हितों को ध्यान में रखकर किया गया समझौता है. जो अमेरिका के अन्य रक्षा सहयोगी देशों के साथ होने वाले Communication and Information Security Memorandum of Agreement (CIMCOSA) का ही परिवर्तित रूप है. COMCASA संधि के बाद अमेरिका, भारत को गोपनीय संदेश वाले उपकरण मुहैया करा सकता है. इन मशीनों के माध्यम से भारत शांति या युद्ध के समय अपने बड़े सैन्य अधिकारियों और अमेरिका के सैन्य अधिकारियों के बीच सुरक्षित गोपनीय संवाद कर सकता है. इसके अलावा, इस समझौते से भारतीय विमानों और जहाज़ों में लगे अमेरिका में बने उपकरणों के माध्यम से दोनों ही देश निर्बाध रूप से बात कर सकते हैं. इस समझौते के न होने के कारण ही भारत कोने अमेरिका में बने C-17, C-130 और P8I विमानों को बाज़ार में उपलब्ध उपकरणों के सहारे क़रीब आधे दशक तक संचालित करना पड़ा था.

LEMOA पर दस्तख़त होने के बाद, दोनों ही देश एक दूसरे के सैन्य संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं. जैसे कि, एक दूसरे के जहाज़ों और विमानों को ईंधन की आपूर्ति या अन्य ज़रूरी सामान मुहैया कराना. भारत और अमेरिका ने रक्षा सहयोग के तीसरे बुनियादी समझौते COMCASA यानी संचार सुरक्षा समझौते पर वर्ष 2018 में समझौता किया.

और अब दोनों देशों ने जो समझौता (BECA) किया है, इससे भारत को किसी पर निशाना लगाने या आने जाने की सटीक जानकारी के लिए अमेरिकी सिस्टम से मदद मिल सकेगी. जैसा कि सबको पता है कि मिसाल के तौर पर GPS, जिसे अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने विकसित किया है, उसमें एक गोपनीय वर्ग भी है, जो हमारी कारों में उपलब्ध अमेरिकी GPS सिस्टम से कई गुना अधिक सटीक जानकारी देता है. इसके अलावा मिसाइलों और इनसे जुड़े सिस्टम को, दुश्मन के ठिकाने पर सटीक निशाना लगाने के लिए भौगोलिक स्तर पर चुंबकीय और गुरुत्वाकर्षण संबंधी जानकारी की भी ज़रूरत होती है. ऐसा नहीं है कि ये डेटा मिलते ही एकदम सटीक निशाना लगाना आसान हो जाएगा. आपके पास ऐसी मिसाइलें और सिस्टम होना चाहिए, जो बेहद सही जानकारी वाले डेटा का इस्तेमाल भी कर सके.

वैसे, अगर इन समझौतों को देखें, तो ये बेहद सामान्य सी संधियां हैं, और इन्हें लेकर बहुत अधिक शोर-शराबा करने की ज़रूरत नहीं है. असल में ये समझौते दोनों देशों के बीच विश्वास मज़बूत करने की एक कड़ी हैं. जिनके आधार पर भारत और अमेरिका अपने रिश्तों के भविष्य की इमारत खड़ी कर सकेंगे. ये समझौते कोई मंज़िल नहीं, बल्कि तय सफ़र को आसान बनाने वाले हैं. फिलहाल तो इन समझौतों से दोनों देशों के बीच कई संवेदनशील मोर्चों पर सहयोग बढ़ सकेगा. हालांकि, इन समझौते के तहत दोनों ही देश इस बात के लिए बाध्य नहीं होंगे कि कुछ ख़ास ज़रूरतें पूरी करें या सुविधाएं उपलब्ध कराएं.

यहां एक और बात जो ध्यान देने वाली है, वो ये है कि LEMOA को छोड़ दिया जाए, तो इन समझौतों से भारत को ही लाभ होगा. अमेरिका को कुछ हासिल नहीं होगा. दोनों देशों के बीच सामरिक और तकनीकी तौर पर फ़ासला इतना लंबा है कि असल में अमेरिका से भारत को जो तकनीक मिलेगी, वो बहुत उच्च स्तर की होगी और उसकी गोपनीयता सुनिश्चित करनी ज़रूरी होगी. फिर चाहे वो सैन्य तकनीक हो, एनक्रिप्शन संदेशों के आदान-प्रदान की बात हो या GIS का डेटा हो. पर चूंकि, भारत हिंद महासागर क्षेत्र की एक बड़ी शक्ति है. ऐसे में LEMOA की अहमियत काफ़ी बढ़ जाती है. इससे भारत की ये चिंता ज़रूर बढ़ जाएगी कि जब वो अपने सैन्य सिस्टम को अमेरिका के साथ जोड़ देगा, तो फिर भारत के फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में अमेरिका भी शामिल हो जाएगा. ये एक ऐसी बात है, जो किसी भी संप्रभु राष्ट्र को स्वीकार नहीं होती. ख़ास तौर से तब और जब पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान जैसे मसलों पर भारत की राय, अमेरिका से बिल्कुल नहीं मिलती. और हिंद महासागर क्षेत्र के कई मुद्दों पर भी दोनों देशों के विचार अलग-अलग हैं. यहां तक कि चीन के मसले पर भी दोनों देशों के बीच ऐसे मतभेद हैं, जिससे भारत और अमेरिका के बीच खुले दिल से संवाद की संभावनाएं कम ही हैं.

ये जो बुनियादी समझौते भारत और अमेरिका के बीच हुए हैं, ये असल में अमेरिका की अफ़सरशाही वाली संस्कृति का नतीजा हैं. दुनिया के हर कोने में अमेरिका की अलग-अलग तरह की प्रतिबद्धताएं हैं. ऐसे में वहां के अफ़सर इस बात पर बहुत ज़ोर देते हैं कि हर समझौता क़ानूनी पहलू से बेहद मज़बूत पाये पर खड़ा हो.

ये एक ऐसी बात है, जिसका अंदाज़ा लगाने में पाकिस्तान को भी काफ़ी वक़्त लग गया था. पाकिस्तान को ये लगता था कि उसने

, उसके बाद जब भी भारत के साथ उसका युद्ध छिड़ेगा, तो समझौते के तहत अमेरिका उसको हथियार मुहैया कराने को बाध्य होगा. लेकिन, हक़ीक़त ये थी कि वो एक कार्यकारी समझौता मात्र था. पाकिस्तान और अमेरिका के बीच हुआ वो समझौता कोई ऐसी संधि नहीं थी, जिसे अमेरिकी सीनेट ने मंज़ूरी दी हो. भले ही 1971 के युद्ध के दौरान अमेरिका के पास ये मौक़ा था कि वो इस समझौते के नाम पर पाकिस्तान की मदद कर सके. लेकिन, तब भी अमेरिका ने ऐसा नहीं किया, जबकि उस समय रिचर्ड निक्सन के रूप में अमेरिका में ऐसे राष्ट्रपति की हुकूमत थी, जो पाकिस्तान से हमदर्दी रखता था.

पाकिस्तान को ये लगता था कि उसने 1959 में अमेरिका के साथ जो रक्षा समझौता किया है, उसके बाद जब भी भारत के साथ उसका युद्ध छिड़ेगा, तो समझौते के तहत अमेरिका उसको हथियार मुहैया कराने को बाध्य होगा. लेकिन, हक़ीक़त ये थी कि वो एक कार्यकारी समझौता मात्र था.

इसीलिए, हमारे दिमाग़ में कोई गफ़लत नहीं होनी चाहिए कि इन समझौतों के बाद, अमेरिका की ओर से भारत को ऐसी तकनीक मिल सकेगी, जो हम GSOMIA के तहत पाने की चाहत रखते हैं. न ही इन समझौतों से अमेरिका इस बात के लिए बाध्य होगा कि वो हर परिस्थिति में भारत को जियो स्पैटियल डेटा उपलब्ध कराए. तय है कि पाकिस्तान के ख़िलाफ़ तो अमेरिका, भारत को ऐसे आंकड़े या तकनीक नहीं ही उपलब्ध कराएगा. हां जहां तक चीन की बात है, तो मौजूदा अमेरिकी सरकार, इस क्षेत्र में भारत के साथ सहयोग कर सकती है. लेकिन आने वाले समय में अमेरिका में जो सरकार बने, वो भी ऐसा करे, ये ज़रूरी नहीं. कुल मिलाकर हक़ीक़त तो यही है कि अमेरिका देने वाला देश है और भारत तलबगार देश है.

ठीक इसी तरह, भारत भी अमेरिका के जहाज़ों को अपने यहां रुकने और ज़रूरी सामानों की आपूर्ति करने के लिए बाध्य नहीं है. अगर हम मिसाल के लिए भी ये मान लें कि अमेरिका, ईरान या किसी अन्य देश के साथ युद्ध में फंस जाए और भारत से ऐसी मदद मांगे, तो भी भारत इसके लिए बाध्य नहीं हो. मुझे मेरे पीएचडी रिसर्च के सुपरवाइज़र ने एक बार कहा था कि समझौते तो महज़ काग़ज़ के टुकड़े होते हैं. उनमें जान तभी आती है, जब दोनों देशों के हित एक जैसे हों. और, एक ही समय पर उन हितों की पूर्ति भी हो रही हो

मार्च 2016 में रायसीना डायलॉग के दौरान उस वक़्त अमेरिका की पैसिफिक कमान के प्रमुख एडमिरल हैरी हैरिस ने दोनों देशों से अपील की थी कि उन्हें अपने संबंधों को और ऊंचाई पर ले जाना चाहिए और शायद समय आ गया है कि दोनों देशों को साउथ चाइना सी में आपसी तालमेल से गश्त लगानी चाहिए.

मगर, भारत और अमेरिका के बीच हुए इन समझौतों से एक बड़ा फ़ायदा ये है कि दोनों देशों के संबंध अब एक नई दिशा में बढ़ चले हैं. और ये शायद किसी नई मंज़िल तक भी पहुंच जाएं. हो सकता है कि भारत और अमेरिका के बीच सैन्य गठबंधन भी हो जाए. लेकिन, अभी वो मंज़िल बहुत दूर है. जैसा कि पाकिस्तान के उदाहरण से स्पष्ट है कि, जो देश औपचारिक रूप से भी अमेरिका के सहयोगी हैं, उन्हें भी मुसीबत के वक़्त अमेरिका से मदद मिलने की कोई गारंटी नहीं होती.

लेकिन, कोई इस बात से भी इनकार नहीं कर सकता कि भले ही भारत और अमेरिका के बीच औपचारिक रूप से सैन्य गठबंधन न बने, मगर दोनों देश रक्षा क्षेत्र में सहयोग को काफ़ी बढ़ा सकते हैं. मार्च 2016 में रायसीना डायलॉग के दौरान उस वक़्त अमेरिका की पैसिफिक कमान के प्रमुख एडमिरल हैरी हैरिस ने दोनों देशों से अपील की थी कि उन्हें अपने संबंधों को और ऊंचाई पर ले जाना चाहिए और शायद समय आ गया है कि दोनों देशों को साउथ चाइना सी में आपसी तालमेल से गश्त लगानी चाहिए. लेकिन, यहां हमें एक बात का ध्यान रखना होगा कि साउथ चाइना सी में भारत को अमेरिका की पैसिफिक कमान के दायरे में गश्त लगानी होगी, जिसकी सीमा भारत के पश्चिमी तट से मिलती है. जबकि भारत की सामरिक चुनौती मुख्य रूप से हिंद महासागर की पश्चिमी और उत्तरी पश्चिमी सीमा की ओर से आती है. ऐसे में अभी ये देखना बाक़ी है कि इन समझौतों की बुनियाद पर भारत और अमेरिका अपने संबंधों को कितना मज़बूत बनाते हैं कि दोनों देशों के हित सध सकें.

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