Published on Aug 10, 2021 Updated 0 Hours ago

पिछले साल के आख़िर से ही भारत में लिंग-आधारित हिंसा में बढ़ोतरी हो रही है. इसमें महामारी ने आग में घी का काम किया है.

कोरोना की दूसरी विनाशकारी लहर का भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और महिलाओं पर प्रभाव

भारत ने 2020 में पहली लहर के बाद ही कोविड-19 पर विजय पाए जाने का एलान कर दिया. हम सब को यही लग रहा था कि महामारी अब काबू में है. ऐसे में कोविड-19 की दूसरी लहर अप्रत्याशित रूप से सामने आई. इसने हम सबको हक्काबक्का कर दिया. दूसरी लहर का प्रभाव अब धीरेधीरे कमज़ोर पड़ता जा रहा है. देश में कोविड-19 के दैनिक मामले अब 40 हज़ार से भी नीचे  गए हैं. लिहाज़ा दूसरी लहर के प्रभावों के आकलन का यही उपयुक्त समय है. कोरोना की पहली लहर के दौरान राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का एलान किया गया था. बहरहाल दूसरी लहर के दौरान सरकारों की प्रतिक्रिया उतनी सख्त नहीं थी. इतना ही नहीं लॉकडाउन जैसी पाबंदियां स्थानीय तौर पर ही लगाई गईं. दूसरी लहर की शुरुआत महाराष्ट्र से हुई. इसके बाद इसका असर दक्षिण की ओर फैला और आख़िरकार उत्तर भारत भी इसकी चपेट में  गया. कोरोना की पहली लहर की सबसे बड़ी मार शहरी अर्थव्यवस्था पर पड़ी थी. उस दौरान केवल कृषि क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था की नींव थामे रखी थी. नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस (एनएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक 2020-21 में अर्थव्यवस्था में 7.3 फ़ीसदी की सिकुड़न के बावजूद कृषि क्षेत्र ने सकारात्मक बढ़त दर्ज की.

अध्ययनों से ये बात सामने आई है कि कोविड-19 के चलते श्रम बाज़ार में आई विकृति का महिला श्रम उत्पादकता पर पुरुषों के मुक़ाबले कुप्रभाव अधिक रहा है. इससे आर्थिक विकास पर भी बुरा असर हुआ है.

चूंकि श्रम की उत्पादकता पर मानव स्वास्थ्य का सीधा असर होता है, लिहाज़ा स्वास्थ्य का आर्थिक विकास पर बड़ा प्रभाव पड़ता है. जब मानवीय स्वास्थ्य में सुधार होता है तब उत्पादकता में भी बढ़ोतरी होती है, जिससे प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है. इसकी वजह ये है कि अच्छे स्वास्थ्य की बदौलत श्रम की प्रत्येक इकाई के योगदान से ज़्यादा उत्पाद प्राप्त होता है. आर्थिक साहित्य में इस बात की वक़ालत की गई है कि लैंगिक समानता के ज़रिए भी आर्थिक विकास में तेज़ी आती है. विकास में महिलाओं की भूमिका से जुड़े विचार ने 1970 के दशक में ज़ोर पकड़ा था. विकास में लिंग की परिकल्पना (जीआईडी) 1980 के दशक में सामने आई. इन विचारों से राष्ट्रीय विकास को बढ़ावा देने के मकसद से महिलाओं के लिए अवसर पैदा करने की परिकल्पना पर ध्यान दिया जाने लगा.

लैंगिक असमानता की बढ़ती खाई

अध्ययनों से ये बात सामने आई है कि कोविड-19 के चलते श्रम बाज़ार में आई विकृति का महिला श्रम उत्पादकता पर पुरुषों के मुक़ाबले कुप्रभाव अधिक रहा है. इससे आर्थिक विकास पर भी बुरा असर हुआ है. महिलाओं पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक अति निर्धनता वाले हालातों का सामना करने वाले प्रति 100 पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं का आंकड़ा 118 है. इन आंकड़ों से महामारी का महिलाओं और विकास पर पड़ने वाला प्रभाव आसानी से समझा जा सकता है

लैंगिक अंतर पर 2021 की वैश्विक रिपोर्ट से राजनीतिक और आर्थिक भागीदारी से जुड़े मसलों में दुनिया भर में लिंग के आधार पर व्याप्त बड़े अंतर का पता चलता है. इस रिपोर्ट में महामारी के दौरान लैंगिक समानता को लेकर भारत समेत कई देशों की रैंकिंग में गिरावट दर्ज की गई है. रिपोर्ट में लगाए गए अनुमानों के मुताबिक वैश्विक स्तर पर राजनीति में महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता लाने में औसतन 145.5 वर्षों का समय लगने वाला है. वहीं दुनिया भर में आर्थिक अवसरों में लैंगिक समानता हासिल करने में अभी औसतन 267.6 वर्ष लगेंगे.

कोविड-19 महामारी के लैंगिक प्रभावों पर ओआरएफ़ के एक आलेख के मुताबिक एसडीजी5 की दिशा में भारत ने जो तरक्की की थी, वो काफ़ी हद तक ज़ाया हो गई है. महिला श्रम भागीदारी को लेकर भारत में गिरावट की प्रवृति देखने को मिल रही है. महामारी ने हालात को और बदतर बना दिया है

दूसरी लहर का प्रभाव पहली लहर के मुक़ाबले अलग था. दूसरी लहर में गांवों में संक्रमण फैला, जिसने तबाही मचा दी. ग्रामीण महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और केरल सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्यों में से रहे हैं. स्वास्थ्य सुविधाओं के कमज़ोर ढांचे, टीके के प्रति बड़े पैमाने पर दिखाई दे रही झिझक और आपूर्ति पक्ष से जुड़ी पाबंदियों ने ग्रामीण आबादी की ज़िंदगी और आजीविका में काफ़ी ज़्यादा रुकावटें डालीं

शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को और भी ज़्यादा चुनौतियों से दो-चार होना पड़ता है. को-विन पोर्टल में ख़ुद को रजिस्टर कराने में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. स्वास्थ्य सुविधाओं के लचर ढांचे और डिजिटल मोर्चे पर व्याप्त असमानताओं ने समस्या को और विकराल बना दिया है. 

इसके साथ ही, ख़ौफ़नाक नतीजों वाली दूसरी लहर और उससे जुड़ी अनिश्चितताओं ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव डाला. शहरों और महानगरों से प्रवासी मज़दूर अपनेअपने गांव वापस लौटे. उन्होंने वहीं ज़िंदा रहने और कमाई करने के नए तौरतरीक़े ढूंढकर अपना डेरा जमाने का फ़ैसला कर लिया. दूसरी लहर में मृत्यु दर काफ़ी ऊंची रही. इसका ग्रामीण क्षेत्रों की आजीविका पर बड़ा असर हुआ. ग्रामीण अंचलों में बेरोज़गारी बढ़ गई. लोगों की बचत ख़त्म होने लगी और उनकी माली हालत पहले से ज़्यादा पतली हो गई. मई 2021 में ग्रामीण भारत में बेरोज़गारी दर 10.63 प्रतिशत थी

शहरी  बनाम  ग्रामीण महिलाओं की चुनौतियां

गांवों के कई परिवार स्थायी या मौसमी प्रवासियों द्वारा घर भेजी जाने वाली रकम पर निर्भर होते हैं. ऐसे में आमदनी में गिरावट आने पर घर लौट रहे आप्रवासियों और उनके परिवारों पर सीधा कुप्रभाव पड़ता है. पिछले साल (जून और अगस्त 2020 के बीच) किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि अपने गांव वापस लौटने पर प्रवासी मज़दूरों की आमदनी में औसतन 85 प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई थी. ऐसे परिवारों की जमाबचत कम होती चली गई. कई मामलों में परिवारों को अपने मौजूदा कर्ज़ चुकाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा. इतना ही नहीं अपनी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने के लिए भी उन्हें दूसरों के आगे हाथ फैलाना पड़ा. शहरों से गांव लौटने वाले परिवार के प्रवासी सदस्यों के भरणपोषण के लिए महिलाओं पर कर्ज़ का बोझ बढ़ गया. दूसरी लहर में दो नई शब्दावलियां सामने आईं: कोविड के चलते विधवा हुई महिलाएं और कोविड के चलते अनाथ हुए बच्चे. ग्रामीण इलाक़ों में कोविड के चलते विधवा हुई महिलाओं की तादाद में बढ़ोतरी हुई

शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को और भी ज़्यादा चुनौतियों से दो-चार होना पड़ता है. को-विन पोर्टल में ख़ुद को रजिस्टर कराने में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. स्वास्थ्य सुविधाओं के लचर ढांचे और डिजिटल मोर्चे पर व्याप्त असमानताओं ने समस्या को और विकराल बना दिया है. 

इतना ही नहीं, असंगठित क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को अपने बीमार परिजनों की देखभाल करने के लिए श्रम बाज़ार से पूरी तरह से बाहर निकलना पड़ा. उनकी बेरोज़गारी दर मई 2020 के बाद मई 2021 में दोबारा दहाई के अंक तक पहुंच गई. विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1 करोड़ 20 लाख से ज़्यादा लोग कंगाली की हालत में पहुंच गए हैं. शहरी और ग्रामीण दोनों तरह की महिलाओं पर इसकी चोट बढ़ती जा रही है

पिछले साल के आख़िर से ही भारत में लिंगआधारित हिंसा में बढ़ोतरी हो रही है. इसमें महामारी ने आग में घी का काम किया है. यौन हिंसा, ऑन लाइन उत्पीड़न और घरेलू दुर्व्यवहारों में इज़ाफ़ा हुआ है. राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) को 2020 में घरेलू हिंसा की 5,297 शिकायतें मिलीं, जबकि 2019 में ये आंकड़ा 2,960 था. पिछले साल राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान महिलाओं को बड़े पैमाने पर घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा. इस साल भी ये सिलसिला जारी है. 2021 में राष्ट्रीय महिला आयोग के सामने महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के 2000 मामले आए हैं. इनमें से क़रीब एक चौथाई केस घरेलू हिंसा के हैं. हालांकि ये आंकड़े हक़ीक़त को पूरी तरह से बयान नहीं करते क्योंकि हिंसा झेल रही कई महिलाएं ऐसे अपराधों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बजाए चुप रहना बेहतर समझती हैं

जैसे-जैसे दूसरी लहर कमज़ोर पड़ती जा रही है,तीसरी लहर का डर बढ़ता जा रहा है. इन परिस्थितियों में भारतीय अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए उसे एक बेहतर योजना के साथ लैंगिक तौर पर समावेशी रास्ते पर ले जाना होगा.

 लान्सेट के एक लेख में मातृ मृत्यु दर में बढ़ोतरी होने की जानकारी दी गई है. इससे ऐसे संकेत मिलते हैं कि दूसरी लहर ने वैश्विक स्तर पर गर्भवती महिलाओं पर विपरीत प्रभाव डाला है. भारत भी इसका अपवाद नहीं है. दूसरी लहर के दौरान मृत नवजातों के जन्म लेने और नईनई मां बनने वाली महिलाओं में अवसाद के मामलों में तेज़ी से बढ़ोतरी होती दिखाई दी

महामारी ने शहरी भारत में पेशेवर युवा महिलाओं के जीवन को और ज़्यादा अनिश्चित बना दिया है. उनके लिए हालात पहले से भी ज़्यादा नाज़ुक हो गए है. लिंक्डइन वर्कफ़ोर्स कॉन्फ़िडेंस इंडेक्स से पता चलता है कि महिला पेशेवरों के लिए व्यक्तिगत भरोसा सूचकांक (आईसीआई) मार्च 2021 में +57 था जो जून 2021 की शुरुआत में गिरकर +49 पर पहुंच  गया. इसी कालखंड में कामकाजी पुरुषों के लिए आईसीआई मार्च के +58 से दो पायदान खिसककर +56 पर  गया. साफ़ है कि पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं के सूचकांक में चार गुणा की गिरावट हुई है. पेशेवर जीवन के साथ निजी जीवन की अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों का संतुलन बिठाने की जद्दोजहद ने महामारी के दौरान पेशेवर महिलाओं के करियर की तरक्की को ठप कर दिया है. सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुमानों से पता चलता है कि जनवरी से अप्रैल 2021 के बीच ग्रेजुएशन और उससे अधिक की योग्यता रखने वाली 19.3 प्रतिशत महिलाएं बेरोज़गार थीं और सक्रिय तौर पर नौकरियों की तलाश में थीं.  

ग्रामीण समुदायों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए 2005 में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा कार्यकर्ताओं की नियुक्ति का दौर शुरू हुआ था. महामारी के दौरान उन्होंने बेहद अहम भूमिका निभाई. हालांकि ड्यूटी के दौरान कई आशा कार्यकर्ता कोविड की चपेट में आईं और उनमें से कइयों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी. भारत ने जीवट के साथ दूसरी लहर से मुक़ाबला किया. आशा कार्यकर्ता सुमन धेबे का प्रेरणादायी क़िस्सा इसी मज़बूती की एक जीतीजागती मिसाल है. दूसरी लहर के दौरान उन्होंने रोज़ाना 12-13 किमी पैदल चलकर पांच गांवों को कोविड-19 से बचाकर उन्हें संक्रमण से मुक्त रखने की पुरज़ोर कोशिश की

तीसरी लहर का बढ़ता डर 

जैसे-जैसे दूसरी लहर कमज़ोर पड़ती जा रही है,तीसरी लहर का डर बढ़ता जा रहा है. इन परिस्थितियों में भारतीय अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए उसे एक बेहतर योजना के साथ लैंगिक तौर पर समावेशी रास्ते पर ले जाना होगा. किसी अर्थव्यवस्था के आगे बढ़ने के लिए श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी समान रूप से अहम है. सार्वजनिक खर्चे से चलने वाली योजनाओं और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून (मनरेगा) जैसे श्रमशक्ति से जुड़े कार्यक्रमों को नए सिरे से तैयार किए जाने की ज़रूरत है. अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र की भीड़ में शामिल ज़्यादा से ज़्यादा बेरोज़गार महिलाओं को रोज़गार दिलाने के लिए ये बदलाव बेहद आवश्यक हैं. ग्रामीण इलाक़ों में कोरोना टीके के प्रति झिझक की समस्या ज़्यादा गंभीर है. आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, आशा और सहायक नर्स मिडवाइफ़ (एएनएम) कार्यकर्ता के तौर पर ज़्यादातर महिलाएं ही काम कर रही हैं. उन्हें फ़्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मियों के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए. टीके के प्रति झिझक से जुड़े मांग पक्ष के मसलों के निपटारे के लिए उनकी सेवाओं का विस्तार किया जाना चाहिए. इसके लिए उनकी सेवाओं का नियमन किया जाना आवश्यक है. महिलाओं की अगुवाई वाले स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के ज़रिए ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं के वितरण से जुड़ी व्यवस्था को विस्तार देने और उन्हें मज़बूत बनाने के लिए सरकार को ठोस पहल करनी चाहिए. इसके अलावा कोरोना की संभावित तीसरी लहर से लड़ने के मकसद से डिजिटल साक्षरता में सुधार के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने की भी दरकार है

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.