Published on Jul 31, 2021 Updated 0 Hours ago

एमसीजीएम ने 1967 में ही विकास से जुड़ा अपना मास्टर प्लान तैयार किया था.इसमें बुनियादी ढांचे से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं के लिए भूमि आरक्षित रखने का विचार सामने रखा गया था

मुंबई में ट्रांसफ़रेबल डेवलपमेंट राइट्स का प्रभाव

मुंबई तरक्की के व्यापक अवसर मुहैया कराती है. लिहाज़ा पिछले दशकों में भारी तादाद में घरेलू प्रवासियों ने मुंबई का रुख़ किया है.साफ़ है कि इससे मुंबई महानगरपालिका (एमसीजीएम) पर मौजूदा और भावी आबादी को ध्यान में रखकर नागरिक सुविधाओं से जुड़ी सेवाओं के विस्तार और सुधार का दबाव बढ़ा है.इनमें से कई नागरिक सुविधाएं भूमि-केंद्रित हैं.इनके संचालन के लिए निजी ज़मीन के अधिग्रहण की आवश्यकता पड़ती है.इनमें नई सड़कों का निर्माण, पुरानी सड़कों का चौड़ीकरण,उद्यान और पार्क जैसे खुले और सार्वजनिक स्थान,स्कूल,अस्पताल,आवासीय परिसर, बाज़ार और सामुदायिक सेवाओं से जुड़ी व्यापक सुविधाएं शामिल हैं.

बहरहाल निजी ज़मीन के अधिग्रहण के लिए उनके मालिकों को मुआवज़ा राशि देनी होती है. चूंकि मुंबई में ज़मीन की पहले से ही भारी किल्लत है लिहाज़ा वहां उसकी क़ीमत काफ़ी ऊंची है. नतीजतन एमसीजीएम को ज़रूरत के हिसाब से भूमि अधिग्रहित करने में भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता का अधिकार, सुधार व पुनर्वास अधिनियम, 2013 (आरएफ़टीएलएआरआर) ने हालात को और बदतर बना दिया है. इस क़ानून के हिसाब से एमसीजीएम पर सालाना रेडी रेकनर रेट से दोगुनी रकम अदा करने की ज़िम्मेदारी आ गई है. ऐसे में महानगरपालिका के लिए ज़मीन अधिग्रहण को लेकर बजट में पर्याप्त धनराशि का प्रबंध कर पाना लगभग नामुमकिन हो गया है. ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि एमसीजीएम नए-नए साधनों के ज़रिए न केवल राजस्व में बढ़ोतरी के उपाय करे बल्कि बुनियादी ढांचे से जुड़ी शहरी परियोजनाओं के विकास के लिए आरक्षित ज़मीन का अधिग्रहण भी करे.

चूंकि मुंबई में ज़मीन की पहले से ही भारी किल्लत है लिहाज़ा वहां उसकी क़ीमत काफ़ी ऊंची है. नतीजतन एमसीजीएम को ज़रूरत के हिसाब से भूमि अधिग्रहित करने में भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

एमसीजीएम ने 1967 में ही विकास से जुड़ा अपना मास्टर प्लान तैयार किया था. इसमें बुनियादी ढांचे से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं के लिए भूमि आरक्षित रखने का विचार सामने रखा गया था. इसके बावजूद बुनियादी ढांचे के विकास को कुछ ख़ास गति नहीं मिल सकी. इसकी वजह ये है कि भूमि अधिग्रहण के पारंपरिक तौर-तरीकों को ऊपर बताई गई गंभीर समस्याओं से दो-चार होना पड़ा. महानगरपालिका ने इससे निपटने के लिए नए-नए उपाय किए हैं. ट्रांसफ़रेबल डेवलपमेंट राइट्स (टीडीआर) इनमें से एक अहम उपाय है.

शहरों के बेतरतीब फैलाव को रोकने और सुगठित शहरी विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए टीडीआर की परिकल्पना को अमल में लाने वाला अमेरिका पहला देश था. एशिया के शहरों में भी इस साधन का इस्तेमाल होता रहा है. एशिया में मुंबई इस परिकल्पना को अमल में लाने वाला पहला शहर था. नीचे दिए गए टेबल में अमेरिका और मुंबई में टीडीआर के विभिन्न लक्ष्यों का तुलनात्मक ब्योरा दिया गया है:

मापदंड मेरिलैंड न्यू जर्सी मुंबई
टीडीआर के लक्ष्य कृषि संरक्षण पर्यावरण संरक्षण नागरिक सुविधाओं के लिएभूमि-अधिग्रहण
ट्रांसफ़र लिमिट्स गांवों के भीतर राज्य भर में  एमसीजीएम के दायरे में
डेवलपमेंट राइट पाने वाले लोग कृषि क्षेत्र के किसान सभी किसान आरक्षित भूमि वाले तमाम ज़मीन मालिक

भारत सरकार के आवास और शहरी विकास मंत्रालय ने टीडीआर को “किसी भूखंड की क्षमताओं के हस्तांतरण से जुड़े विकास अधिकार, किसी योजना में सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए तैयार मालिक द्वारा स्वयं उपयोग में लाए जाने या मौजूदा स्थान से किसी विशिष्ट स्थान पर किसी दूसरे को हस्तांतरण के ज़रिए से मुआवज़े के बदले मंज़ूर किए गए हद के अतिरिक्त संबंधित भूखंड के समर्पण” के तौर पर परिभाषित किया गया है.

एमसीजीएम के मुताबिक, टीडीआर नीचे दिए गए उद्देश्यों के लिए जारी किए जा सकते हैं:

  1. नई सड़कों, सड़कों के चौड़ीकरण, स्कूल, अस्पतालों, पार्क जैसे सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए आरक्षण के तहत भूमि अधिग्रहण
  2. राज्य के किसी क़ानून के तहत आरक्षित समझी जाने वाली ज़मीन
  3. ऐतिहासिक धरोहर के तौर पर घोषित जायदाद के मामले में अब तक इस्तेमाल न हुई एफ़एसआई क्योंकि उसपर कुछ पाबंदियां लगी होती हैं.
  4. झुग्गी बस्तियों के पुनर्विकास और परियोजना से प्रभावित व्यक्तियों (पीएपी) के लिए उपयोग में लाई गई ज़मीन
  5. अगर कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी ज़मीन सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए देने की पेशकश करता है और अगर एमसीजीएम के म्यूनिसिपल कमिश्नर उस ज़मीन को योग्य समझते हैं तो टीडीआर प्रदान किया जाता है.
  6. इनके अलावा सरकार द्वारा समय-समय पर जारी अधिसूचनाओं में बताए गए उद्देश्यों के लिए भी टीडीआर जारी किए जा सकते हैं.

टीडीआर झुग्गी बस्तियों के पुनरुद्धार के लिए अहम है. ये झुग्गी पुनर्वास योजना के तहत झुग्गी बस्तियों के निवासियों के लिए मुफ़्त आवासीय सुविधाओं के विकास को लेकर डेवलपर्स की मदद करता है. स्लम टीडीआर तभी जारी होता है जब झुग्गी बस्ती का अधिकतम मंज़ूर किया गया क्षेत्र उसी भूखंड (मूल स्थान का विकास) में पूरा नहीं हो पाता या फिर जब परियोजना से प्रभावित लोगों (पीएपी टेनेंट्स) के लिए निजी डेवलपर्स आवासीय सुविधाएं खड़ी करने के लिए सामने आते हैं और उसे सरकार के हवाले कर देते हैं. इससे झुग्गियों के तेज़ पुनर्निर्माण में मदद मिलती है. इसकी वजह से बिल्डर आगे आने वाले टीडीआर को मुनाफ़े वाले अपनी दूसरी परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल करने को लेकर प्रोत्साहित होते हैं. शहर का हर बिल्डर स्लम टीडीआर के एक निश्चित हिस्से को मंज़ूर किए गए एफ़एसआई के हिसाब से खड़ा करने के लिए उपयोग में लाता है.

स्लम टीडीआर का विचार 1997 में सामने रखा गया था. नागरिक सुविधाओं से जुड़े कार्यकर्ता इसकी आलोचना करते रहे हैं. दरअसल उनका कहना है कि द्वीप की शक्ल में बसे मुंबई महानगर और उसके उपनगरीय इलाक़े पहले से ही सघन आबादी वाले हैं. स्लम टीडीआर इन्हें और घना बना रहा है. पिछले दो दशकों में डेवलपर्स ने उपनगरीय मुंबई में क़रीब 8 करोड़ वर्ग फ़ीट स्लम टीडीआर को टावरों और आवासीय सोसाइटियों के पुनर्विकास के मकसद से इस्तेमाल किया है.

पिछले दो दशकों में डेवलपर्स ने उपनगरीय मुंबई में क़रीब 8 करोड़ वर्ग फ़ीट स्लम टीडीआर को टावरों और आवासीय सोसाइटियों के पुनर्विकास के मकसद से इस्तेमाल किया है.

टीडीआर डेवलपमेंट राइट्स सर्टिफ़िकेट की शक्ल में जारी होते हैं. जारी होने के बाद खुले बाज़ार में नक़दी के बदले इनका व्यापार होता है. यहां डेवलपर्स इनकी ख़रीद करते हैं ताकि वो अपने भूखंड की पूरी क्षमता का इस्तेमाल कर सकें. इस तरह से टीडीआर के लिए स्थानीय या शहर के स्तर पर बाज़ार खड़ा होता है. उनका मूल्य पूरी तरह से उनकी मांग और आपूर्ति पर निर्भर करता है. मुंबई के लिहाज़ से देखें तो यहां टीडीआर किसी ब्लू-चिप स्टॉक से किसी मायने में कम नहीं होता है.एक आम शहरी को ये पता तक नहीं होता कि कब और कहां इस तरह के सर्टिफ़िकेट का कारोबार होता है.

ज़ाहिर है टीडीआर में किसी भी ज़मीन को उपयोग में लाने की काबिलियत होती है. महानगरों के संदर्भ में तो ये और भी अहम हो जाते हैं क्योंकि वहां ज़मीन की किल्लत होती है.हालांकि, आरक्षित और नागरिक सुविधाओं से जुड़े टीडीआर का इस्तेमाल नियमित तौर पर होता है, मगर विकास से जुड़ी किसी भी नीति के केंद्र में स्लम टीडीआर ही होता है. इसमें राजनीतिक जुड़ाव और जटिलताएं भी शामिल होती हैं.

दूसरी ओर हेरिटेज टीडीआर मोटे तौर पर बिना इस्तेमाल के ही रह जाता है. मुंबई में ये  ख़ास लोकप्रिय भी नहीं हैं क्योंकि इनके बदले पर्याप्त मुआवज़ा मुहैया नहीं कराया जाता. बहरहाल 2013 में आई नई हेरिटेज रेगुलेशन पॉलिसी ऐतिहासिक धरोहर वाली जायदादों के मालिकों को अतिरिक्त एफ़एसआई की उपलब्धता की स्थिति में टीडीआर के तौर पर बाज़ार दरों पर उनकी बिक्री करने की छूट देती है. इससे संपत्ति के मालिकों को उन इमारतों की ऐतिहासिक प्रासंगिकता को नुकसान पहुंचाए बिना पुनरुद्धार से जुड़ी आर्थिक तेज़ी का लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है.

ज़ाहिर है टीडीआर में किसी भी ज़मीन को उपयोग में लाने की काबिलियत होती है. महानगरों के संदर्भ में तो ये और भी अहम हो जाते हैं क्योंकि वहां ज़मीन की किल्लत होती है.

टीडीआर के इन सकारात्मक पहलुओं के बावजूद उनके कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं:

  1. उपनगरीय क्षेत्रों में टीडीआर के उपयोग के संदर्भ में असमानता दिखाई देती है. इन इलाक़ों में पहले से ही पर्याप्त बुनियादी ढांचे का अभाव होता है लिहाज़ा वो कोई अतिरिक्त बोझ उठा पाने की स्थिति में ही नहीं होते.
  2. टीडीआर के संपूर्ण इस्तेमाल को लेकर भी कई हदें लगाई गई हैं. एडिशनल डेवलपमेंट राइट का 50 प्रतिशत एमसीजीएम या सरकार से अतिरिक्त प्रीमियम एफ़एसआई के स्वरूप में ख़रीदना होता है. बाक़ी हिस्सा खुले बाज़ार से जुटाना होता है.
  3. टीडीआर जारी करते वक़्त विकास कार्यों की बदलती लागत को ध्यान में नहीं रखा जाता. मिसाल के तौर पर एक जैसी नागरिक सुविधाओं (स्कूल, अस्पताल, खेल के मैदान, सड़कें आदि) के निर्माण के लिए टीडीआर का समान मूल्य दिया जाता है. बहरहाल स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाओं के साथ ज़्यादा लागत जुड़ी होती है. इस लागत का टीडीआर के ज़रिए जुगाड़ करना ज़रूरी होता है.
  4. टीडीआर के लिए कुशल बाज़ार के विकास के लिए बेहद सीमित प्रयास किए गए हैं. एमसीजीएम या सरकार ने एक स्वस्थ बाज़ार सुनिश्चित करने के लिए टीडीआर बैंक विकसित करने या किसी तरह का ट्रेड हाउस तैयार करने के बारे सोचा ही नहीं है.
  5. टीडीआर के बाज़ार में शहर के बड़े डेवलपर्स की एक चौकड़ी शामिल रहती है. उनके पास इतनी वित्तीय ताक़त होती है कि वो मनचाही मात्रा में टीडीआर हासिल कर सकते हैं. इस वजह से टीडीआर के विनिमय की मात्रा बहुत थोड़ी रहती है. लिहाज़ा ये प्रक्रिया काफ़ी अपारदर्शी हो गई है. अमेरिका में ये कार्य अक्सर किसी पेशेवर थर्ड पार्टी के हवाले कर दिया जाता है.
  6. टीडीआर की वजह से रीयल एस्टेट की क़ीमतों में बढ़ोतरी देखी गई है. चूंकि परियोजना की लागत में टीडीआर अधिग्रहण की लागत भी जुड़ी होती है लिहाज़ा डेवलपर्स परियोजना की अंतिम क़ीमत में बढ़ोतरी कर देते हैं.

ऐसे में टीडीआर का पारदर्शी और सुचारू इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए कुछ सुधार बेहद ज़रूरी हो जाते हैं. मिसाल के तौर पर साधनों के इस्तेमाल से जुड़ी प्रक्रिया को और स्पष्ट तरीक़े से सामने रखा जाना चाहिए. इससे एक ही वक़्त में एफ़एसआई और टीडीआर के इस्तेमाल को लेकर छोटे डेवलपर्स के बीच बने भ्रम के वातावरण को दूर किया जा सकेगा. साथ ही परियोजनाओं को अमल में लाने में होने वाली देरी से बचने में मदद मिलेगी. संसाधनों की मौजूदगी के हिसाब से वैज्ञानिक उद्देश्यों को सामने रखा जाना चाहिए. क्षेत्रीय लक्ष्यों की भी स्पष्टता से पहचान किए जाने की ज़रूरत है. आम जनता के लिए टीडीआर बाज़ार उपलब्ध कराए जाने चाहिए. खरीदारों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने के लिए एक ऑनलाइन पोर्टल तैयार किया जाना चाहिए. टीडीआर बाज़ार के लिए सेबी की तर्ज़ पर एक नियामक प्राधिकार की भी ज़रूरत है. मौजूदा वक़्त की ज़रूरतों के हिसाब से टीडीआर से जुड़ी नीति को नए सिरे से तैयार करने और ढाले जाने की आवश्यकता है.

इसके साथ ही एक और सुधार की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है. दरअसल टीडीआर के इस्तेमाल को सिर्फ़ एमसीजीएम के दायरे तक सीमित करने की बजाए पूरे राज्य में अमल में लाए जाने की मंज़ूरी दी जानी चाहिए. इससे शहरों का और अधिक समान विकास सुनिश्चित हो सकेगा. इतना ही नहीं इस सुधार से नगर निगमों के संसाधनों पर पड़ने वाला बोझ भी कम होगा. टीडीआर की ये विशेषता अमेरिका के राज्यों मैरीलैंड और न्यू जर्सी में बेहद प्रभावी साबित हुई है.


लेखक ORF मुंबई में रिसर्च इंटर्न हैं.

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