Published on Feb 04, 2021 Updated 0 Hours ago

देश में ग्रीन और समावेशी रिकवरी के लिए भारत को घरेलू स्तर पर सभी सेक्टरों में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच मजबूत और व्यापक सहयोग बनाने की ज़रूरत है.

भारत के लिए ग्रीन रिकवरी का रास्ता!

जैसा कि भारत में घरेलू स्तर पर विकसित किए गए वैक्सीन के साथ देशव्यापी टीकाकरण अभियान शुरू हो चुका है तो यह अभियान कोरोना महामारी के आर्थिक और सामाजिक परिणामों के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहा है. महामारी और लॉकडाउन के चलते विकास की योजनाओं से होने वाले फायदों में भारी कमी आई है जिसने कम आय और कमजोर वर्ग के लोगों को काफी प्रभावित किया है. भारत के लिए कोरोना महामारी का असर काफी गंभीर रहा वो भी तब जबकि अर्थव्यवस्था में इस महामारी के शुरू होने से पहले ही मंदी के साफ संकेत दिखने लगे थे.

भारत सरकार ने राहत और सुधार पैकेज के तौर पर पहले ही 397 बिलियन अमेरिकी डॉलर, जो जीडीपी का 15 फ़ीसदी है, उसे भारत को स्वास्थ्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए आवंटित कर दिया है. इतना ही नहीं, इस भारी भरकम आर्थिक पैकेज में कई सकारात्मक बातें भी शामिल हैं. ख़ास कर ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार पैदा करने और वनरोपण (792 मिलियन अमेरिकी डॉलर) में सहयोग करने के साथ साथ घरेलू मैन्युफैक्चरिंग क्षमता को बढ़ाने के लिए मध्यम अवधि की नीतियां जैसे बैटरी स्टोरेज (2.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर) इसमें शामिल है. इसके साथ ही यह आर्थिक पैकेज कोयले की ढांचागत सुविधाओ पर ख़र्च (6.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर) पर भी केंद्रित है जिसमें कोयले की व्यवसायिक खनन का भी काम शामिल है. इस लिहाज़ से इसके संकेत काफी मिश्रित हैं और यह आर्थिक पैकेज ब्राउन के बदले ग्रीन रिकवरी के प्रति ज्यादा प्रयासरत नज़र आता है.

महामारी ने इस बात पर जोर दिया है कि आर्थिक विश्लेषण और विकास के मॉडलों में पर्यावरण और बायोडायवरसिटी के सुस्त शुरुआत की क्या महत्ता होती है. भारत को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में आर्थिक विकास और पर्यावरण सुरक्षा के बीच कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए. 

वैश्विक स्तर पर इस बात को लेकर सहमति बनी हुई है कि एक मज़बूत, समन्वित और ग्रीन पब्लिक इन्वेस्टमेंट सुधारों की शुरुआत संबंधी निवेश के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकता है और मानवीय तथा आर्थिक आपदाओं (जिसमें पर्यावरण बदलाव और वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल जैसे महामारी भी शामिल हैं) की आशंकाओं को भी कम कर सकता है. मौज़ूदा सामाजिक, आर्थिक और सियासी परिप्रेक्ष्य की वज़ह से ग्रीन रिकवरी पैकेज़ के कई शुरुआती बिंदू हो सकते हैं. हालांकि इस बात को लेकर स्वीकार्यता है कि प्रोत्साहन पैकेज़ से निम्नलिखित चीजें प्राप्त की जा सकती हैं : (1) फिजिकल क्लीन इन्फ्रास्ट्रक्चर और रोज़गार बढ़ाने में निवेश कर दीर्घकालिक आर्थिक गुणक की प्राप्ति (नए अवसरों के साथ साथ री स्कीलिंग) (2) साल 2008 में आए वित्तीय संकट के मुक़ाबले हर क्षेत्र में पूरी तरह से तैयार प्रोजेक्ट को अमल में लाना (3) कार्बन उत्सर्जन को शून्य की तरफ ले जाना. नीतियों को डिज़ाइन करना बेहद गंभीर मसला है क्योंकि ग़लत तरीक़े से डिज़ाइन किए गए रिकवरी पैकेज़ सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण नतीज़ों को सौंपने में अप्रभावी साबित होते हैं.

साल 2030 तक भारत सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक देश की अर्थव्यवस्था को 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर बनाने की है. इस लिहाज़ से आने वाले दशक में बड़े पैमाने पर भारत के विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर की शुरुआत होने वाली है जिसमें ग्रीन रिकवरी के सिद्धान्तों का समावेश काफी फ़ायदेमंद रहने वाला है. भारत के लिए ग्रीन रिकवरी पैकेज़ जो नौकरी, विकास और निरंतरता जैसी तिकड़ी के साथ पर्यावरण बदलाव के असर को भी रेखांकित कर सके एक बेहतरीन मौक़ा होगा. लचीलापन और लोग ये वो दो आधार स्तम्भ होने चाहिए जिस पर ग्रीन रिकवरी की अवधारणा को अमल में लाया जा सके.

भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह एक मौक़ा प्रदान करता है कि लोगों की अपेक्षाओं के मुताबिक़ सुविधाएं विकसित की जा सके . इसके साथ ही राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें इस बात में शामिल किया जा सके जिससे विकास से जुड़े मामलों में सामाजिक और पर्यावरण संबंधी नीतियों को एक साथ जोड़ा जा सके.   

महामारी ने इस बात पर जोर दिया है कि आर्थिक विश्लेषण और विकास के मॉडलों में पर्यावरण और बायोडायवरसिटी के सुस्त शुरुआत की क्या महत्ता होती है. भारत को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में आर्थिक विकास और पर्यावरण सुरक्षा के बीच कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए. खास तौर पर लघुकरण की कीमत जो नीति निर्माताओं को अभी काफी ज़्यादा महसूस हो रही है, लेकिन इसे भविष्य में आने वाली कुदरती आपदाओं (पर्यावरण और गैर पर्यावरण) की भारी कीमत के मुक़ाबले देखे जाने की ज़रूरत है. विकास की नई संरचना को अधिक मज़बूत, ज़्यादा व्यापक और समावेशी होनी चाहिए – इस प्रकार लचीलेपन की ज़रूरत पर ज़्यादा दबाव बन जाता है. अब जबकि ग्रीन रिकवरी के तुरंत ध्यानाकर्षण के लिए रिन्यूवेबल एनर्जी और एनर्जी की क्षमता से संबंधित परियोजनाओं को पूरी तरह तैयार करना आवश्यक है तो इन समाधानों को पर्यावरण बदलाव के प्रति मज़बूती प्रदान और क़ुदरत आधारित समाधानों में निवेश कर आगे बढ़ाने की ज़रूरत भी है.

समाधान वज़ूद में है लेकिन इनकी पहचान कर इन्हें अमल में लाने और बढ़ाने की ज़रूरत है, मसलन, ज़मीन, मिट्टी और पानी के प्रबंधन द्वारा ग्रामीण बुनियादी सुविधाओं को अतिरिक्त निवेश के ज़रिए पैदा करना जो महात्मा गांधी नेशनल रूरल इमप्लॉयमेंट गारंटी एक्ट की मदद से कम समय में नौकरियों की निरंतरता और दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संबंधी फ़ायदों को सुनिश्चित करने का हिस्सा है. हालांकि भविष्य में ग्रामीण और शहरी इलाक़ों में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में पूर्ण रूप से सेक्टर संबंधी मौक़ों की पहचान कर उन्हें जोड़ने की ज़रूरत है. स्वास्थ्य, आजीविका और सामाजिक सुरक्षा के ज़रिए लचीलापन लाना बेहद अहम है जिससे कोविड 19 महामारी के बाद की स्थिति और जलवायु परिवर्तन के लिए वैश्विक रुख़ का बेहतर प्रबंधन किया जा सके और जो पेरिस जलवायु समझौते के अनुकूल भारतीय जवाब का प्रतिनिधित्व करता हो. सके साथ ही लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा कवच तैयार करने पर जोर देना भी महत्वपूर्ण है. लॉकडाउन के दौरान और बाद में शहरी/औद्योगिक इलाक़ों से भारी तादाद में पलायन की तस्वीरें इस बात की गवाही है कि लोगों को उस वक़्त कितना झेलना पड़ा और यही बातें नीति निर्माताओं को लोगों के लिए नीति बनाते वक़्त केंद्र में रखना चाहिए.

व्यक्तिगत कल्याण को आर्थिक और वातावरण से जुड़ी स्थितियां प्रभावित करती हैं. उच्च स्तर का प्रदूषण, साफ पानी तक लोगों की पहुंच का अभाव और दुश्वारियों के साथ रहने की स्थिति लोगों के स्वास्थ्य पर असर डालती हैं. ग़रीबी भी व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को ऐसे विकल्पों को चुनने के लिए मज़बूर करती है जो पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाती है. अब भारत में जैसे एक अतिरिक्त आर्थिक पैकेज से विकास की नई यात्रा की शुरुआत हो चुकी है तो ऐसे में यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि लोगों की आजीविका सुरक्षित रह सके और उन्हें साफ हवा, पानी, ईंधन, स्वास्थ्य और शिक्षा की पहुंच मिल सके. भारत के पेरिस समझौतों से संबंधित लक्ष्य तभी पूरा हो सकेगा जब टिकाऊ विकास के मक़सद पूरे हो सकें. भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह एक मौक़ा प्रदान करता है कि लोगों की अपेक्षाओं के मुताबिक़ सुविधाएं विकसित की जा सके . इसके साथ ही राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें इस बात में शामिल किया जा सके जिससे विकास से जुड़े मामलों में सामाजिक और पर्यावरण संबंधी नीतियों को एक साथ जोड़ा जा सके.

ग्रीन इकोनॉमी के लिए बदलाव

अब जहां कि केंद्र और राज्य सरकारें अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की कोशिशों में जुट गई है तो यह एक ऐसा अहम मौक़ा है जब मौज़ूदा अप्रभावी, उच्च उत्सर्जन वाले मॉडल को छोड़कर निम्न कार्बन उत्सर्जन, लचीला और पुनरुत्पादक अर्थव्यवस्था पर शिफ्ट किया जा सकता है. भारत और दूसरी जगहों पर चिल्ड्रन्स इनवेस्टमेंट फंड फ़ाउंडेशन (सीआईएफएफ) के अनुभवों को देखते हुए पुरानी चीजों को बेहतर बनाने के लिए निम्नलिखित बदलावों को अमल में लाना बेहद ज़रूरी है – 1. अतीत के तक़नीक़ों और प्रक्रियाओं (जैसे, कोयले पर आधारित ईंधन) को समय के साथ बदल कर उसकी जगह रिन्युवेबल ईंधन के द्वारा क्लीन एनर्जी को बढ़ावा देना 2. भविष्य के ईंधनों (जैसे, व्हीकल, बैटरी स्टोरेज, पुनरुत्पादक कृषि जिसमें पारिस्थिकी बदलाव भी शामिल है) का विस्तार करना और 3. वो क्षेत्र जो बदलाव की प्रक्रिया में है (डिक़ॉर्बनाइजेशन के लिए जो उद्योग जैसे स्टील और सीमेंट और शहरीकरण/शहर इसके लिए अनुकूल हैं) उनमें बदलाव लाना. इसमें दो राय नहीं कि भारत ऐसी स्थिति में है कि आने वाले समय में बदलाव के लिए मध्यम से लेकर दीर्घकालीन सुधारों की कोशिशों के लिए नीतियों की फ्रेमवर्क को तैयार कर पाए.

क्लीन एनर्जी को लेकर बदलाव

साल 2022 तक भारत ने अपने लिए 175 जीडब्ल्यू रिन्युएबल एनर्जी का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है जिसे साल 2030 तक आगे बढ़ाकर 450 जीडब्ल्यू क्षमता का विकास करना शामिल है. अनुमान बताते हैं कि साल 2030 तक भारत की 60 फ़ीसदी एनर्जी जेनरेशन का ज़रिया नॉन-फॉसिल फ्यूल होगा. सोलर जैसे रिन्युएबल एनर्जी के विकल्प पहले से ही भारत में सस्ते उपलब्ध हैं और महामारी की तमाम नकारात्मक प्रभावों के बावजूद सोलर प्रोजेक्ट में निवेश निरंतर स्थायी बना रहा है. साल 2020 में सोलर टैरिफ़ ने नया बेंचमार्क तय किया और हाल में हुई नीलामी में टैरिफ़ ने 1.99-2.00 रु./केडब्ल्यूएच दर्ज़ की जो मौज़ूदा घरेलू इस्तेमाल में आने वाले कोयला आधारित ईंधन के मारजिनल फ्यूल की क़ीमतों से कहीं कम थी. इसका मतलब यह हुआ कि अर्थव्यवस्था बेहद ज़रूरी तेजी और रिन्युएबल एनर्जी से जुड़ने के लिए तैयार है. इसके अलावा लॉकडाउन के दौरान एनर्जी की मांग में आई कमी कोयले आधारित ईंधन की क़ीमत पर हुई जिसकी वज़ह लोअर ऑपरेटिंग क़ीमत और रिन्युएबल एनर्जी का विस्तार था. यह रिन्युएबल के ज़्यादातर हिस्से के साथ ग्रीड की स्थायी स्थिति को भी दर्शाता है. इसी तरह के ट्रेंड दूसरे हिस्सों में देखी गई. साल 2020 में पहली बार यूरोप में फॉसिल फ्यूल आधारित उत्पादन को रिन्युएबल ने बदला. अब जबकि भारत संकट से उबरा है और एनर्जी की मांग में फिर से तेजी आई है, तो भारत को बेहद ज़रूरी पावर सेक्टर सुधारों को ग्रीड के स्तर पर आवंटन के अंत तक अमल में ले आना चाहिए. इसके साथ ही ग्रीन ट्रांसमिशन कॉरिडोर बनाए जाने के लिए निवेश और विकेंद्रित किए जा सकने वाले रिन्युएबल एनर्जी के लिए नीति और नियामक के ज़रिए सहयोग करना भी शामिल है. सोलर (सब स्टेशन स्तर पर) के डिस्ट्रीब्यूशन ग्रीड (महाराष्ट्र) का विस्तार और सोलर से सिंचाई (तमिलनाडु और महाराष्ट्र) के लिए नीति और नियंत्रक फ्रेमवर्क ही गारंटी देने वाले हैं.

आने वाले 15 से 18 महीनों में इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के दीर्घकालीन फ़ायदों को लागू करने के लिए ज़रूरी है कि राष्ट्र और राज्य स्तर पर इसे लेकर निरंतर और समन्वयिक नीतियां बनाने की ओर इशारा किया जाता रहे.

भविष्य के बदलाव

ट्रांसपोर्ट सेक्टर को डिकार्बनाइज़ करने के लिए भारत सरकार ने इलेक्ट्रिक मोबिलिटी को प्रमुखता से आगे बढ़ाया है और दो मत नहीं कि भारत में बदलाव के संकेत अभी से दिखने लगे हैं. हालांकि अभी भी इस दिशा में कई अंतर और अवरोध अस्तित्व में हैं. भारत का मक़सद इलेक्ट्रिक व्हीकल के क्षेत्र में मैन्युफैक्चरिंग हब बनने का है और यही वज़ह है कि यहां बैटरी तक़नीक़ को लेकर घरेलू मैन्युफैक्चरिंग क्षमता को विकसित किया जा रहा है. आर्थिक सुधार पैकेज के तहत 2.6 बिलियन अमेरिकी डॉलर राशि का प्रावधान सिर्फ बैटरी मैन्युफैक्चरिंग क्षमता को बढ़ाने के लिए किया गया है. आने वाले 15 से 18 महीनों में इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के दीर्घकालीन फ़ायदों को लागू करने के लिए ज़रूरी है कि राष्ट्र और राज्य स्तर पर इसे लेकर निरंतर और समन्वयिक नीतियां बनाने की ओर इशारा किया जाता रहे. क्लीनर ट्रांसपोर्ट को प्रोत्साहन देना एक तरीक़ा हो सकता है जिससे आर्थिक मांग और नौकरियां पैदा की जा सके, और नीतियों और नियंत्रक हस्तक्षेप द्वारा निजी निवेश को विस्तार दिया जा सके. सीआईएफएफ के अनुदेयी राष्ट्रीय और राज्य स्तर (दिल्ली और महाराष्ट्र) पर तक़नीकी और नीति/नियंत्रक मदद पहुंचा रहे हैं जिससे जीरो इमिशन वाले व्हीकल मुहैया की जा सके और सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट की निर्भरता बढ़ाई जा सके साथ ही मालढुआई सड़क के बदले रेल मार्ग के ज़रिए हो सके.

भारत सरकार के साथ ही कुछ राज्य सरकारों ने इस बात को माना है कि कृषि क्षेत्र में बदलाव की ज़रूरत है और कुदरती खेती या फिर पुनरुउत्पादक खेती की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता है जिससे पारिस्थितिकी में सुधार को प्रकृति आधारित समाधान से जोड़ा जा सके. 

भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख अधार कृषि क्षेत्र है क्योंकि करीब 60 फ़ीसदी ग्रामीण आबादी की आजीविका का यह अहम श्रोत है. हालांकि इस सेक्टर की राजनीतिक अर्थव्यवस्था इसे ज़्यादा पेचीदा और चुनौतीपूर्ण बनाती है. यहां तक कि इस बात को लेकर स्वीकार्यता लगातार बढ़ती जा रही है कि कृषि का मौज़ूदा तरीक़ा भूमि और मिट्टी के अवकर्षण की वज़ह बनता जा रहा है, और रासायनिक खाद समेत दूसरी चीजों पर बढ़ती निर्भरता, अपर्याप्त पानी का इस्तेमाल किसानों की उत्पादन क्षमता को कम कर रहा है जिससे किसानों की आय कम हो रही है. भारत सरकार के साथ ही कुछ राज्य सरकारों ने इस बात को माना है कि कृषि क्षेत्र में बदलाव की ज़रूरत है और कुदरती खेती या फिर पुनरुउत्पादक खेती की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता है जिससे पारिस्थितिकी में सुधार को प्रकृति आधारित समाधान से जोड़ा जा सके. भारत के लिए ज़रूरी है देश में वैसे संरचनात्मक सुधारों की शुरुआत हो जो पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा और उसमें सुधार के लिए कृषि और खाद्य व्यवस्था की भूमिका को पहचान सके. भारत के लिए ज़रूरी है कि सुधार की कोशिशों में सप्लाई चेन की मज़बूती जो कृषि उत्पादों में समावेशी, निरंतरता और लचीली प्रक्रियाओं को शामिल करेगा, खेत से लेकर टेबल तक कृषि तक़नीक़ की नवीनीकरण और सुधारात्मक कोशिशों की बहाली पर जोर देगा जिससे नौकरियां पैदा हो सके. सीआईएफएफ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात के सहयोग से किसानों द्वारा पुनरुत्पादक कृषि पद्धति को अपनाने और ट्रांसफर करने पर ध्यान केंद्रित किया हुआ है. इतना ही नहीं इसमें पुनरुत्पादक कृषि के साथ बाज़ार को जोड़ने, सबूत आधारित नीतियों में बदलाव, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में आई कमी के लिए खेत के स्तर पर गवाहों का निर्माण करना और पुनरुत्पादक कृषि को अपना कर पर्यावरण और आर्थिक फ़ायदों को किसानों तक पहुंचाना शामिल है.

बदलाव के लिए परिवर्तन

आर्थिक सुधार भारत को यह अवसर प्रदान करते हैं कि जिन्हें बंद करना नामुमकिन है उस औद्योगिक क्षेत्र जैसे स्टील और सीमेंट, लघु, छोटे और मध्यम वर्ग के(एमएसएमई) क़ारोबारों को बदला जा सकता है. एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) का एक विश्लेषण इस ओर इशारा करता है कि स्टील सेक्टर को उस रास्ते पर धकेला जा सकता है जहां साल 2050 तक इससे होने वाले कार्बन उत्सर्जन को करीब करीब शून्य के स्तर पर लाया जा सकता है और भारत को ऐसा पहला देश बनाया जा सकता है जहां औद्योगिकीकरण तो होगा साथ ही स्टील उत्पादन बगैर कार्बन उत्सर्जन के मुमकिन हो सकेगा. प्रभावी ग्रीन परिस्थितियों के समावेश और व्यापक सुधारों के पैकेज (घरेलू स्क्रैप के इस्तेमाल को अधिकतम करना, एनर्जी और संसाधन क्षमताओं को मुहैया कराना) को जोड़कर स्टील उद्योग को प्रतिस्पर्द्धी बनाया जा सकता है और इसके पर्यावरण पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों को भी कम किया जा सकता है. इसके अलावा अनुदेयी के विश्लेषण से भी यह बात सामने आती है कि डिकार्बनाइजेशन तकनीकों और फ़्यूल के इस्तेमाल में बदलावों जैसे ग्रीन हाइड्रोजन – जिसके व्यावसायिक उपलब्धता को बढ़ाने पर निवेश करने की आवश्यकता है. जिस गति और स्तर पर एनर्जी में बदलावों को साकार किया जा रहा है उससे बतौर क्लीन एनर्जी प्राइज, ग्रीन हाइड्रोजन से काफी उम्मीदें बंधती दिख रही हैं क्योंकि यह कार्बन शून्य अर्थव्यवस्था के लिए फॉसिल फ्यूल में बदलाव को एक विकल्प के तौर पर पेश करता है. ग्रीन रिकवरी पैकेज का हिस्सा बनकर भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह ऐसी नीतियों का फ्रेमवर्क तैयार करे जो ग्रीन बिज़नेस मॉडल के विकास को हवा दे सके जिससे नए क्लीन एनर्जी उद्योगों के विकास के लिए ग्रीन हाइड्रोजन को एक प्रमुख अवसर के रूप में अपनाया जा सके. सीआईएफएफ अनुदेयियों के साथ इस दिशा में काम कर रहा है जिससे एमएसएमई सेक्टर और जिन क्षेत्रों को बंद करना नामुमकिन है वहां औद्योगिक डिकार्बनाइजेशन की रणनीति विकसित की जा सके.

ग्रीन रिकवरी पैकेज का हिस्सा बनकर भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह ऐसी नीतियों का फ्रेमवर्क तैयार करे जो ग्रीन बिज़नेस मॉडल के विकास को हवा दे सके जिससे नए क्लीन एनर्जी उद्योगों के विकास के लिए ग्रीन हाइड्रोजन को एक प्रमुख अवसर के रूप में अपनाया जा सके.

भारत में बहुत तेजी से शहरीकरण हो रहा है, साल 2030 तक 40 फ़ीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी और शहरी क्षेत्र का देश की जीडीपी में करीब 70 फ़ीसदी योगदान बढ़ने की उम्मीद है. शहर आर्थिक विकास और रोजगार सृजन के केंद्र हैं जिसे केंद्र सरकार भी पहचानती है और यही वज़ह है कि इसे लेकर सरकार की स्मार्ट सिटी मिशन के तहत नीतियों को विकसित भी किया जा रहा है. शहरों में समुदायों की आर्थिक गतिविधियां शामिल होती है जो निरंतर विकास को सुनिश्चित करती है. हालांकि भारतीय शहर बेहद ही अनियोजित तरीक़े से आगे बढे हैं जहां लगातार बढ़ रही आबादी के लिए बुनियादी सुविधाएं जैसे घर, पानी और साफ सफाई तक मौज़ूद नहीं है. यही वज़ह है कि ज़्यादा आर्थिक विकास होने के बावजूद भारतीय शहर उच्च स्तर के आय में असमानता और जीवन की ख़राब स्थितियों की केंद्र के रूप में जानी जाती हैं. महामारी ने यह भी बता दिया कि मौजूदा शहरीकरण मॉडल स्थायी नहीं है और शहरों को ज़्यादा लचीला बनाने के लिए सरकारी फ्रेमवर्क को बदलने की ज़रूरत है. जैसे कि ज़्यादातर आर्थिक गतिविधियां शहरों में शुरू होती है लिहाज़ा यह मुमकिन है कि पर्यावरण नीतियों में लचीलापन और निम्न कार्बन समाधान को जोड़ा जा सके. लॉकडाउन के दौरान ज़्यादातर शहरों और नगरों में लोगों ने नीले रंग का आसमान देखा, साफ हवा में सांसें लीं, इसलिए लोगों में अब इस बात की भूख बढ़ गई है कि निम्न कार्बन उत्सर्जन वाली रणनीति अपनाई जाए जिसके लिए ये सियासी मौक़ा भी साबित हो रहा है. कई शहरों को भविष्य में मौसम की चुनौतियों से निपटने के लिए ग्रीन, बेहतर रहने योग्य, समान और ज्यादा लचीला बनाने के लिए प्रोजेक्ट तैयार हैं. इन परियोजनाओं में सभी के लिए घर ( शहरी ग़रीबों के लिए 20 मिलियन घर का निर्माण ) के तौर पर बिल्डिंग एनर्जी क्षमताओं को जोड़ना, रिन्यूएबल एनर्जी और एनर्जी समृद्ध सड़क की लाइटिंग को जोड़ना, इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के लिए चार्जिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर, कुदरत आधारित पानी की सप्लाई, सीवरेज प्रबंधन, अर्बन ग्रीन कवर, और सार्वजनिक वाहनों को अपग्रेड करने के साथ ही बिजलीकरण की तरफ मोबिलिटी मॉडल की ओर बढ़ना भी शामिल है. भारत सरकार ने क्लाइमेट स्मार्ट सिटिज अससमेंट फ्रेमवर्क (सीएससीएएफ) को लॉन्च किया था जिसने शहरों के मौजूदा पर्यावरण परिस्थितियों की समीक्षा के लिए एक ज़रिया प्रदान किया था, और शहरों को प्रासंगिक पर्यावरण कदम उठाने और उन्हें लागू करने के लिए रूपरेखा बताया. सीआईएफएफ सहयोगियों के साथ अब एक नए कार्यक्रम की शुरुआत कर रहा है जो तक़नीकी सहायता और नीतियों की वक़ालत में मदद करेगा जिससे सीएससीएएफ के तौर पर शहरों में क्षमताओं का विकास हो और टियर 2 और 3 शहरों को तकनीकी सहयोग मिल सके जिससे वो पर्यावरण एक्शन प्लान को विकसित, डिज़ाइन और लागू कर सकें.

आगे का रास्ता

जैसा कि भारत सुधारों के प्रति काफी गंभीर है और नीतियों को उसी दिशा में तैयार कर रहा है तो ग्रीन रिकवरी को बढ़ावा देने के लिए दो महत्वपूर्ण तरीके हैं – वित्त और न्यायप्रिय/सामाजिक बदलाव. वित्तीय मदद क्लाइमेट एक्शन की मांग बढ़ाने और निरंतर और लचीले इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी है. उदाहरण के तौर पर रिन्युएबल और निम्न कार्बन समाधानों में लगने वाली पूंजी को कम करने की प्रक्रिया इसमें शामिल है. साल 2021 में बज़ट के तौर पर भारत ने आर्थिक और वित्तीय क्षेत्र में तेजी लाने के लिए नए प्रोत्साहन पैकेज़ की शुरूआत की है तो ऐसे में ज़रूरी है कि यह पेरिस समझौते के लाइन पर वित्तीय इंस्ट्रूमेंट और साफ वित्तीय संकेत भी जारी करे. हालांकि यह सियासी रूप से मुश्किल है, एनर्जी और कृषि क्षेत्र में सब्सिडी में सुधार लाना भी एक अवसर है जिसे आगे बढ़ाना चाहिए. सब्सिडी (या फिर ग़रीबों को टारगेटेड सब्सिडी प्रदान करना) में सुधार लाने पर बचत को निम्न कार्बन समाधान और लचीलापन बनाने की गतिविधियों को आगे बढ़ाने की दिशा में बदला जा सकता है. भारत के लिए संदर्भ विशेष नवीन वित्तीय मॉडल जो निम्म कार्बन रणनीति को सहयोग करते हैं उसकी ज़रूरत है. इसके साथ ही जंगल और पारिस्थितिकी को संरक्षित करने में सहयोग की दरकार है.

सीआईएफएफ सहयोगियों के साथ अब एक नए कार्यक्रम की शुरुआत कर रहा है जो तक़नीकी सहायता और नीतियों की वक़ालत में मदद करेगा जिससे सीएससीएएफ के तौर पर शहरों में क्षमताओं का विकास हो और टियर 2 और 3 शहरों को तकनीकी सहयोग मिल सके जिससे वो पर्यावरण एक्शन प्लान को विकसित, डिज़ाइन और लागू कर सकें.

इसके अलावा जो दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है वो न्यायप्रिय/सामाजिक बदलाव के सिद्धांत हैं जिससे ग्रीन रिकवरी को सफल बनाया जा सके. भारत में न्यायप्रिय/सामाजिक बदलाव भारत में विघटन की कार्र्वाई के चलते अवसरों को कम करती है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर समाज के लोगों के तेजी से बढ़ते जीवन स्तर को लेकर कोई समझौता नहीं करता. भारत में न्यायप्रिय/सामाजिक बदलाव के तत्व और इससे संबंधित फ्रेमवर्क के लिए ज़रूरी है कि बुनियादी रूप से अलग धारणाएं मिलें क्योंकि ग्रीन बदलावों के चलते औपचारिक रोज़गार में कोई भारी कटौती नहीं देखी जाती है. लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि बदलावों के कारकों में परिवर्तन हो और अनौपचारिक वर्कफोर्स में बदलाव लाई जा सके. इसी प्रकार ग्रीन बदलाव के चलते उपभोग में भी कमी नहीं आती है बावज़ूद इसके इसमें शुद्ध कीमत होती है जिसकी गणना प्रतितथ्यात्मक तौर पर होनी चाहिए.

निष्कर्ष के तौर पर ग्रीन, लचीला और समावेशी रिकवरी को बढ़ावा देने के लिए भारत को घरेलू स्तर पर केंद्र और राज्य सरकारों के साथ सभी सेक्टरों में मज़बूत और व्यापक सहयोग बढ़ाने की ज़रूरत है. इतना ही नहीं इसके लिए दूसरे देशों, वैश्विक संस्थानों और समुदायों से भी सहयोग को विस्तार देने की ज़रूरत है. भविष्य में ग्रीन और लचीले रिकवरी रणनीति को तैयार करने के लिए सीखने में खुलापन होना, अनुभवों को साझा करना आवश्यक होगा.


ये लेख  कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.

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