Published on Jun 13, 2022 Updated 0 Hours ago

2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत के हाइड्रोजन मिशन को व्यवस्थित रूप से जलवायु एजेंडे के साथ क़रीबी रिश्ता बनाना होगा.

ग्रीन हाइड्रोजन: दूर की कौड़ी या सचमुच का बदलाव?

ऊर्जा कारोबार के भविष्य के तौर पर हाइड्रोजन इकॉनमी को लेकर दावोस में खूब हो-हल्ला रहा. इससे जुड़ी नियामक कार्रवाई में अपना हिस्सा जुगाड़ने को लेकर भारतीय मंत्रालयों में ज़बरदस्त रस्साकशी देखी गई. हालांकि, इन क़वायदों के बावजूद इससे संबंधित तमाम मंत्रालयों की सरकारी वेबसाइटों से ग्रीन हाइड्रोजन (GH) के मसले पर प्रामाणिक और सिलसिलेवार जानकारियां जुटाना बेहद मुश्किल है.   

किसके पास है प्रभार?

ऐसा लगता है कि फ़िलहाल नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय इस क्षेत्र की अगुवाई कर रहा है और उसी ने इस मसले पर बढ़त बना रखी है. इस दौड़ में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय पिछड़ गया है. हालांकि, इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन कई सालों से बायोमीथेन से हाइड्रोजन निर्माण पर शोध कार्य करता आ रहा है. पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ही गैस पाइपलाइनों की निगरानी करता है. इन्हीं पाइपलाइनों के ज़रिए हाइड्रोजन या उसके सहायक उत्पादों (derivates) का वितरण किया जाएगा. यही मंत्रालय प्राकृतिक गैस का भी नियमन करता है. इसी ईंधन के साथ हाइड्रोजन का मिश्रण किया जा सकेगा. कोयला मंत्रालय ने भी मौक़े की नज़ाक़त समझते हुए अपने उत्पादों को हरित बनाने की जुगत में एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया है. ये समूह कोयले से ब्लू हाइड्रोजन के उत्पादन से जुड़े विकल्पों का प्रस्ताव करेगा. कार्बन कैप्चर और इस्तेमाल/भंडारण (CCUS) के ज़रिए इस क़वायद को अंजाम दिए जाने के आसार हैं. ग़ौरतलब है कि जलवायु के मोर्चे पर कार्रवाई के चलते संकटग्रस्त कोयला मंत्रालय पर बीते ज़माने के मंत्रालय (sunset ministry) होने का ठप्पा लग गया है. ऐसे में ये क़वायद बेहद अहम है क्योंकि भारत में 2045 तक कोयला एक अहम ईंधन बना रहेगा.

ऐसा लगता है कि फ़िलहाल नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय इस क्षेत्र की अगुवाई कर रहा है और उसी ने इस मसले पर बढ़त बना रखी है. इस दौड़ में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय पिछड़ गया है. हालांकि, इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन कई सालों से बायोमीथेन से हाइड्रोजन निर्माण पर शोध कार्य करता आ रहा है.

ताज्जुब है कि सड़क परिवहन मंत्रालय मौजूदा हक़ीक़तों से बेपरवाह होकर सड़क परिवहन में ग्रीन हाइड्रोजन के प्रयोग का प्रचार कर रहा है. दरअसल. कारोबारी संभावनाओं के चलते निकट भविष्य में केवल बहुत भारी वाहनों में ही हाइड्रोजन का इस्तेमाल होने की संभावना है. इसके अलावा निर्माण से जुड़े साज़ो-सामानों और जहाज़रानी में इसका इस्तेमाल मुमकिन नज़र आता है. मंत्रालय की इस क़वायद से कारों, दोपहिया वाहनों और बसों को इलेक्ट्रिक ज़रियों से चलाने के मौजूदा कार्यक्रमों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है. ग़ौरतलब है कि ये पहल अभी बेहद शुरुआती दौर में है. उधर जहाज़रानी मंत्रालय ने उचित रूप से उत्साह बढ़ाने वाले बयान जारी किए हैं. दरअसल, जहाज़रानी क्षेत्र को व्यावहारिक और टिकाऊ बने रहने के लिए मुख्यधारा के वैश्विक मानकों की दरकार है. हालांकि दुनिया में कुल शिपिंग का महज़ 2.5 फ़ीसदी हिस्सा ही भारत में रजिस्टर्ड है. भारतीय रेल समझदारी के साथ 100 फ़ीसदी विद्युतीकरण की अपनी योजना के हिसाब से आगे बढ़ रहा है. इस क़वायद में आंतरिक रूप से या ठेकों के ज़रिए सहायक सौर क्षमता भी तैयार की जा रही है. 

इस बीच 2030 तक 50 लाख टन या उससे भी ज़्यादा GH के उत्पादन लक्ष्य का गाहे-बगाहे ज़िक्र किया जाता रहा है. ग़ौरतलब है कि 2021 के अंतराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ग्लोबल हाइड्रोजन रिव्यू के मुताबिक साल 2030 तक विश्व में 2.1 करोड़ टन GH के उत्पादन का पूर्वानुमान लगाया गया है. अमल में लाई जा रही परियोजनाओं के आधार पर लगाए गए पूर्वानुमान इससे भी नीचे हैं. इस तरह भारतीय लक्ष्य नामुमकिन रूप से वैश्विक लक्ष्य के 24 प्रतिशत हिस्से के बराबर हो जाता है. तमाम हिमायती किरदारों और समर्थकों के बूते हाइड्रोजन से जुड़ा क़िस्सा परवान चढ़ रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि महज़ क़िस्सागोई के अलावा इसमें कुछ ठोस भी है?  

सौर ऊर्जा के उत्पादक (मौजूदा और भावी) आगे चलकर GH के निर्माताओं के साथ संभावित एकीकरण के हिमायती हैं. वो इसे अपनी हरित ऊर्जा के लिए मुनाफ़ा देने वाले और विशाल बाज़ार के तौर पर देखते हैं. अब तक उन्हें (सभी ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं की तरह) तंगहाली के शिकार वितरण कंपनियों से अनिश्चित भुगतान का सामना करना पड़ता है.

हाइड्रोजन (ग्रीन और ब्लू) के लिए कारोबारी मसला

फ़रवरी 2021 में पेश बजट में “हाइड्रोजन मिशन” का ऐलान किया गया था. प्रधानमंत्री ने पिछले साल स्वतंत्रता दिवस पर देश के नाम संबोधन में इसकी ज़ोरदार हिमायत की. 17 फ़रवरी 2022 को ऊर्जा मंत्रालय ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की. हैरानी की बात है कि किसी व्यापक नीति की ग़ैर-मौजूदगी के बावजूद घरेलू निजी क्षेत्र ने इस सेक्टर में निवेश से जुड़ी योजनाओं का ऐलान किया है. कुछ घोषणाएं भ्रामक हैं जबकि बाक़ी GH उत्पादन से जुड़े आंकड़ों का सहारा लेते दिखाई देते हैं. यहां तक कि मुक्त पहुंच के लिए शर्तें (जो नवीकरणीय ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं और GH उत्पादकों के बीच एक प्रमुख कड़ी है) भी साफ़ नहीं हैं. अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ कि पूरी तरह से स्पष्ट “नीति” संभावित निवेश के वाहक के तौर पर कम अहमियत रखती रही हो.

इसकी प्राथमिक वजह ये है कि सौर ऊर्जा के उत्पादक (मौजूदा और भावी) आगे चलकर GH के निर्माताओं के साथ संभावित एकीकरण के हिमायती हैं. वो इसे अपनी हरित ऊर्जा के लिए मुनाफ़ा देने वाले और विशाल बाज़ार के तौर पर देखते हैं. अब तक उन्हें (सभी ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं की तरह) तंगहाली के शिकार वितरण कंपनियों से अनिश्चित भुगतान का सामना करना पड़ता है. बिजली आपूर्तिकर्ताओं का बक़ाया मई 2022 में 1 खरब रु के पार चला गया. निश्चित भुगतान का भरोसा देने वाले औद्योगिक उपभोक्ताओं को सीधे आपूर्ति की संभावना हरित ऊर्जा उत्पादकों को उत्साहित करने के लिए काफ़ी है.

ऐसा लगता है कि सरकार ने भी GH के लिए घरेलू मांग जुटाने में मदद की है. बताया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की रिफ़ाइनरियों को 2023-24 से 10 प्रतिशत GH जोड़ने के आंतरिक निर्देश दिए गए हैं. इसी तरह खाद उत्पादकों को 5 फ़ीसदी GH जोड़ने को कहा गया है. हालांकि सार्वजनिक तौर पर ऐसी कोई जानकारी मौजूद नहीं है. सरकार ने पिछले साल किसानों के लिए खाद की ख़रीद लागत को कम करने के लिए खाद उत्पादन सब्सिडी के तौर पर 1.4 खरब रु की रकम खर्च की. ये सरकार के कुल ख़र्च का 3.7 प्रतिशत है. शुरुआती दौर में “अनिवार्य रूप से” GH के इस्तेमाल के निर्देश के साथ इस ख़र्च में बढ़ोतरी से आसार हैं. फ़िलहाल GH की क़ीमत तक़रीबन 4 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम है, जबकि भविष्य में इसकी क़ीमत का लक्ष्य 1 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम है. ऐसा होने पर ही वो प्राकृतिक गैस के मुक़ाबले (जिसकी क़ीमत 6 अमेरिकी डॉलर प्रति MMBtu है) प्रतिस्पर्धी हो सकेगा. यूक्रेन संकट के बाद गैस की क़ीमत दोगुनी हो गई है, हालांकि ये आपूर्ति से जुड़ी दिक़्क़तों की वजह से अल्पकालिक परेशानी है.

हमारी असली ताक़त भू-भौतिकी और विविधता से भरा औद्योगिक विनिर्माण आधार है. इनमें इलेक्ट्रोलाइज़र विनिर्माण भी शामिल हैं. वैश्विक मांग को पूरा करने के मकसद से इसे नया स्वरूप दिया जा सकता है. सौर ऊर्जा क्षमता की भरमार और हिंद-प्रशांत में हमारी मौजूदगी से एशिया और अफ़्रीका में भविष्य की हरित विकास संभावनाओं में हमारा केंद्रीय स्थान स्पष्ट हो जाता है.  

सार्वजनिक क्षेत्र की रिफ़ाइनरियों के लिए आंतरिक आदेश (अगर कोई) कम चिंताजनक है. सरकार पेट्रोलियम ईंधनों पर कोई ख़ास सब्सिडी नहीं देती. इस फ़रमान के चलते ज़्यादा से ज़्यादा राष्ट्रीय तेल कंपनियों का मुनाफ़ा घट सकता है क्योंकि उनकी लागत बढ़ जाएगी. इससे सरकार को मिलने वाले डिविडेंड पर असर पड़ सकता है. शोध और विकास को आगे बढ़ाने और इलेक्ट्रोलाइज़र परियोजनाओं का स्तर ऊंचा उठाने के लिए अप्रत्यक्ष सब्सिडी के तौर पर इसका बोझ उठाया जा सकता है. 

इस सिलसिले में एक उपयुक्त विकल्प है कार्बन कैप्चर उपायों (CCUS) से ब्लू हाइड्रोजन के उत्पादन की प्रक्रिया में तेज़ी लाना. ये कोयला मंत्रालय की पहल से जुड़ जाएगी. ख़ास बात ये है कि IEA के आकलनों के मुताबिक वैश्विक स्तर पर 2030 तक निम्न कार्बन हाइड्रोजन के कुल उत्पादन में CCUS का योगदान 50 प्रतिशत रहेगा. यहां तक कि 2050 तक ये आंकड़ा तक़रीबन 15 फ़ीसदी के आसपास रहने का अनुमान जताया गया है. 

रोज़मर्रा के मसलों से इतर देखते हुए भारत के 2070 नेट-ज़ीरो लक्ष्य से तालमेल बिठाना

आमतौर पर GH से जुड़ी रणनीति हमारे जलवायु एजेंडे से मेल खाती हुई होनी चाहिए. ग्लासगो में भारत ने 2070 तक (चीन ने 2060 तक) नेट-ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करने की प्रतिबद्धता जताई. भारत को अनुचित रूप से प्रदूषण के उच्च स्तर वाली अर्थव्यवस्था के तौर पर पेश किया जाता है. प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के हिसाब से भारत वैश्विक औसत के आधे से भी कम कार्बन उत्सर्जित करता है. लिहाज़ा भारत के पास बदलते वैश्विक औसत से नीचे रहते हुए हुए अपना ऊर्जा उपभोग दोगुना करने का अवसर (जिसे अन्य देशों द्वारा खाली किए जाने की दरकार है) है. प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगो (2021) में कार्बन की रोकथाम से जुड़े प्रगतिशील उपायों का एलान किया. ये अर्थव्यवस्था को हरित बनाने को लेकर भारत की समयबद्ध और संदर्भों वाली प्रतिबद्धता का पुख़्ता प्रमाण है. 

ब्लू और ग्रीन हाइड्रोजन- दोनों गठजोड़ वाले शोध अभियान का हिस्सा होने चाहिए. इस क़वायद के लिए प्राथमिक रूप से निजी क्षेत्र को रकम मुहैया करानी चाहिए. विकसित अर्थव्यवस्थाओं की सरकारों ने भी तकनीक के विकास और वाणिज्यिकरण पर होने वाले कुल ख़र्च के 10 फ़ीसदी से ज़्यादा का योगदान करने की प्रतिबद्धता नहीं जताई है. हमारी असली ताक़त भू-भौतिकी और विविधता से भरा औद्योगिक विनिर्माण आधार है. इनमें इलेक्ट्रोलाइज़र विनिर्माण भी शामिल हैं. वैश्विक मांग को पूरा करने के मकसद से इसे नया स्वरूप दिया जा सकता है. सौर ऊर्जा क्षमता की भरमार और हिंद-प्रशांत में हमारी मौजूदगी से एशिया और अफ़्रीका में भविष्य की हरित विकास संभावनाओं में हमारा केंद्रीय स्थान स्पष्ट हो जाता है.  

इस रास्ते पर आगे बढ़ने के तौर-तरीक़ों के लिए हमें चिली, मोरक्को, सऊदी अरब और ऑस्ट्रेलिया द्वारा GH का इस्तेमाल करने वाली प्रमुख ताक़तों यूरोपीय संघ, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ स्थापित अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ों पर ध्यान देना चाहिए. इसके अलावा हमें अमेरिका और कनाडा के साथ भी नज़दीकी से काम करना चाहिए. चिली कोयले से जुडे CCUS में काफ़ी निवेश कर चुका है. ये हमारे मध्यम कालखंड के लक्ष्यों के अनुरूप है. ऑस्ट्रेलिया ने जापान को समुद्री जहाज़ों के ज़रिए 4.3 अमेरिकी डॉलर प्रति किलो की दर पर तरल ग्रीन हाइड्रोजन की आपूर्ति करने का ठेका लिया है. हाल में वस्तुओं की क़ीमतों में आई महंगाई से लागतों में बढ़ोतरी तय है. इससे GH उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं. बहरहाल ये पूरी क़वायद प्राकृतिक गैस की लागत में आए उछाल को भी दर्शाती है क्योंकि हाइड्रोजन को इसी ईंधन का स्थान लेना है. एक और बात ये है कि वस्तुओं के बाज़ार चक्र के हिसाब से संचालित होते हैं. दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा के हिसाब से भुगतान की क्षमता रखने वाले परिपक्व उपयोगकर्ताओं के लिए अपेक्षाकृत लंबी अवधि का नज़रिया मुनासिब होता है. 

आंतरिक संदर्भों की अनदेखी भविष्य में लागत बढ़ाती है

भारत मूल्यों को लेकर संवेदनशील बाज़ार है. यहां ऊर्जा से जुड़े भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए अपेक्षाकृत कम वित्तीय क्षमता मौजूद है. 2000 के दशक में उत्साह के साथ गैस उत्पादन क्षमता स्थापित की गई थी. हालांकि उसके बाद ऊंची लागतों को स्वीकार करने की वैसी इच्छा कभी नहीं दिखाई गई. इसका नतीजा ये है कि निजी गैस उत्पादन की 10 गीगावाट क्षमता एक तरह से रुकी पड़ी है, दूसरी ओर गर्मियों में बिजली की बेतहाशा मांग को पूरा करने के लिए कोयले का आयात बढ़ रहा है. वितरण कंपनियां कोयला आधारित बिजली आपूर्ति के मुक़ाबले LNG के लिए आपूर्ति की ऊंची लागत का भुगतान नहीं कर सकतीं. इसके अलावा उनको नवीकरणीय ऊर्जा आपूर्ति के “अनिवार्य हिस्से” की लागत भी उठानी होती है. 

तमाम संबंधित मंत्रालयों को दायरे में लेने वाला साझा संस्थागत ढांचा (मसलन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में अधिकारप्राप्त ऊर्जा परिवर्तन परिषद) मंत्रालयों और राज्यों की तमाम विकास योजनाओं को एकीकृत करने में मददगार साबित होगा. भारत को अगले 2 दशकों में कार्बन की रोकथाम का ऊंचा स्तर हासिल करने की दिशा में काम करना है. इससे 2070 तक नेट ज़ीरो हासिल करने की क़वायद अग्रिम तौर पर चरणबद्ध रूप से परिभाषित हो सकेगी. ग़ौरतलब है कि 2040-45 से कोयला आधारित बिजली उत्पादन में निरंतर गिरावट का दौर रहने वाला है. 

यहां अच्छी ख़बर ये है कि ऊर्जा को लेकर उद्यमिता के एक बड़े हिस्से की गतिविधियां ऊर्जा से जुड़े बदलावों के मौलिक क्षेत्रों के इर्द-गिर्द शुरू की गई हैं. इसका मक़सद कार्बन के निम्न स्तर वाला भविष्य सुनिश्चित करना है. ऊर्जा के क्षेत्र में बदलावों का अहम खंड होने के नाते ग्रीन हाइड्रोजन इस पूरी क़वायद का एक केंद्रीय आधार है. विकसित अर्थव्यवस्थाओं द्वारा 2050 तक उत्सर्जन से जुड़े लक्ष्य पूरे करने के लिए ज़रूरी संसाधन मुहैया कराने की क़ाबिलियत भारत के पास मौजूद है. इनमें ग्रीन हाइड्रोजन के लिए अतिरिक्त सौर ऊर्जा, कुशल इंजीनियरिंग क्षमता, निर्यात के लिए बंदरगाह-आधारित औद्योगिक ठिकाने और  तेज़ रफ़्तार से मंज़ूरियां देने का सिंगल विंडो विकल्प शामिल हैं. 

हाइड्रोजन मिशन को इस संक्रमणकारी दौर से आगे निकलना होगा ताकि भारत ज़्यादातर ग्रीन हाइड्रोजन के आपूर्ति पक्ष में हिस्सा ले सके. बहरहाल 2070 तक नेट-ज़ीरो हासिल करने के लिए हमें 2050 के बाद के कालखंड के लिए ख़ुद को तैयार करना होगा. उस वक़्त हम ग्रीन हाइड्रोजन के मांग पक्ष के एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभर चुके होंगे. इस सिलसिले में हमारी दोहरी अर्थव्यवस्था के हिस्सों द्वारा उनकी आपूर्ति श्रृंखलाओं में ग्रीन हाइड्रोजन जोड़ने की त्वरित योजनाएं तैयार करने में रुकावट नहीं आनी चाहिए. इनमें बड़े शहर और निर्यात-आधारित औद्योगिक समूह शामिल हैं. अर्थव्यवस्था के ये तमाम खंड हरित विश्व के लिए ज़रूरी ख़र्च वहन कर सकते हैं. उन्हें आगे आकर इस राष्ट्रीय क़वायद में शामिल होना चाहिए. 

 

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