Published on Oct 08, 2022 Updated 0 Hours ago

पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन का समावेश नेट जीरो अर्थात शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में काफी सहायक साबित हो सकता है.

हरित लेखांकन: हमारे साझा भविष्य का मूल्यांकन

इकोलॉजिस्ट्स अर्थात पारिस्थितिक विज्ञानी और पर्यावरण अर्थशास्त्री इस बात का तिरस्कार करते हैं कि कैसे विभिन्न देश सतही रूप से अपने वित्तीय और राष्ट्रीय खातों को मेंटेन करते हैं. मानव कौशल के निर्माण, शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य, भूमि, वायु और पानी की गुणवत्ता या जंगलों की सुरक्षा पर खर्च की गई राशि को राष्ट्रीय खातों में खपत व्यय के रूप में वर्गीकृत किया जाता है. इसमें, इस से जुड़े निर्माण और खरीदे गए उपकरणों पर हुए खर्च को बाहर रखा जाता है. तुलनात्मक अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले इस तरह के सामाजिक समर्थन के लिए भारत में बजटीय आवंटन काफी कम है. जब बात आर्थिक विकास बनाम भौतिक बुनियादी ढांचे की आती है तो हम इस तरह के खर्च को दोयम दर्जे के खर्च रूप में देखते हैं. ऐसा रवैया पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन के सुझाव के विपरीत है, जिसमें कहा गया है कि यह खर्च मानव और अन्य प्राकृतिक पूंजी की सुरक्षा के लिए किया गया निवेश हैं.

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु पर कार्बन उत्सर्जन का बढ़ता प्रभाव अब वैज्ञानिक जांच का विषय बन गया है. इसकी वजह से अब हम सब ‘‘टिप्पिंग प्वाइंट’’ के अर्थ को भलीभांति समझने लगे हैं. लेकिन दुर्भाग्य से इकोसिस्टम किस प्रकार से काम करता है इस बात को उजागर करने और समझने की प्रक्रिया निरंतर चल ही रही है.

राष्ट्रीय खातों में उत्पन्न की गणना आय के सृजन के साथ जोड़कर देखी जाती है. पर्यावरणीय आर्थिक खातों में उत्पन्न की गणना प्राकृतिक पूंजी (यह भौतिक पूंजी – इमारतों, सड़कों, मशीनरी – से अलग हैं, जो प्राकृतिक पूंजी के मूल्य को घटाते हैं) में आने वाले बदलाव से की जाती है. पूंजी से हासिल होने वाले उत्पन्न पर ध्यान केंद्रित करने के राष्ट्रीय खातों के दृष्टिकोण में दोष यह है कि इसमें ‘‘स्थिरता’’ की जांच शामिल नहीं है.

इसके बजाय पर्यावरणीय अर्थशास्त्री, वार्षिक उत्पन्न के लिए आय अजिर्त करने की प्रक्रिया के दौरान प्राकृतिक मूल्य में आयी कमी को इसमें से घटाते हैं, ताकि यह आकलन किया जा सके कि आर्थिक विकास नकारात्मक हुआ है या सकारात्मक. नकारात्मक विकास अस्थिर ही होगा, क्योंकि यह आज की आय का आनंद लेने के लिए भविष्य से उधार लेता हैं – एक पोंजी स्कीम, जो निरंतर नहीं चलाई जा सकती – यह ठीक वैसा ही है जैसा कोई देश कर्ज लेता जाता है, लेकिन इसे लौटाने की क्षमता को विकसित नहीं करता. 

प्रतिस्थापन का त्रुटिपूर्ण तर्क और प्राकृतिक संसाधनों की अनंत आपूर्ति

दुनिया भर में स्वीकार की गई संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी आयोग (यूएनएससी) द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय खातों की प्रणाली, में प्राकृतिक संसाधनों के भंडार का लेखांकन नहीं करने का तर्क यह है कि हाल ही तक यह माना गया था कि प्राकृतिक संसाधन कभी खत्म ही नहीं होंगे. कुछ विशेष मामलों में माना गया कि प्राकृतिक संसाधन नहीं रहे तो उसकी जगह कोई और ले लेगा. मसलन, आवास निर्माण में लड़की की जगह चूने से बनी सीमेंट का या फिर लोहे का उपयोग कर लिया जाएगा. कोयले की जगह पेट्रोलियम तेल, प्राकृतिक गैस, जैव ईंधनों या नवीकरणीय ऊर्जा के नए स्त्रोतों से काम चलाकर हमारी ऊर्जा संबंधी सेवाओं को चला लिया जाएगा. संभवत: इसी वजह से प्राकृतिक संपदा या जैवविविधता के मूल्य के महत्व को समझने की आवश्यकता पर बल नहीं दिया गया. प्रकृति को इतना अधिक संपन्न मान लिया गया कि किसी एक संसाधन अथवा प्रजाति की कमी होने पर उसकी जगह लेने के लिए  कोई अन्य प्रजाति ‘‘पंख पसारे खड़ी है’’. फिर इस कमी को प्रौद्योगिकी का सहयोग लेकर किसी अन्य संसाधन अथवा प्रजाति से स्थानापन्न कर लिया जाएगा.

ऐसा लगने लगा था कि दुनिया अब बहुपक्षीय सहमति के आधार पर प्रबंधित एक ‘‘अंतरराष्ट्रीय  नियम आधारित व्यवस्था’’ की दिशा में बढ़ रही थी. बेहद जटिल समस्याओं के लिए बहुपक्षीय समाधान की मची यह होड़ 1992 में रियो डी जनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन अर्थात अर्थ सम्मिट में साफ दिखाई दी

इकोलॉजिस्ट्स यानी पारिस्थितिक विज्ञानी और पर्यावरण अर्थशास्त्री, प्राकृतिक संसाधनों की अनंत प्रतिस्थापन क्षमता की धारणा को अस्वीकार करते हैं. उनके अनुसार यह धारणा, प्रकृति कैसे काम करती है इसके पर्याप्त ज्ञान की कमी पर आधारित है. वे प्राकृतिक संसाधनों के भंडार को विशिष्ट संसाधनों के बीच असंख्य पूरक प्रक्रियाओं के परिणाम के रूप में जोड़कर देखते हैं, जिन्हें एक साथ व्यविस्थत रूप से जोड़ा गया हैं. संपूर्ण में से यदि एक हिस्सा भी निकाला गया तो संतुलन बिगड़ सकता है. और यह हमारे स्थायी इकोसिस्टम को ‘‘टिप्पिंग प्वाइंट’’ यानी खतरनाक मोड़ पर लाकर रख सकता है. ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु पर कार्बन उत्सर्जन का बढ़ता प्रभाव अब वैज्ञानिक जांच का विषय बन गया है. इसकी वजह से अब हम सब ‘‘टिप्पिंग प्वाइंट’’ के अर्थ को भलीभांति समझने लगे हैं. लेकिन दुर्भाग्य से इकोसिस्टम किस प्रकार से काम करता है इस बात को उजागर करने और समझने की प्रक्रिया निरंतर चल ही रही है. हालांकि कोई दुस्साहासी ही इस प्रस्ताव को खारिज कर सकता है कि प्रकृति की देखभाल हमें बेहद संभलकर करनी चाहिए.

यूएनएससी ने 2012 में आर्थिक लेखांकन को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए पर्यावरण आर्थिक खातों की प्रणाली (एसईईए) को सूत्रबद्ध किया. ‘‘एसईईए (केंद्रीय ढांचा) पर्यावरणीय जानकारी के लिए एसएनए की लेखांकन अवधारणाओं, संरचनाओं, नियमों और सिद्धांतों को लागू करता है. नतीजतन, यह एक ढांचे में आर्थिक जानकारी (जिसे अक्सर मौद्रिक शर्तों में मापा जाता है) के साथ पर्यावरणीय जानकारी (जिसे अक्सर भौतिक शब्दों में मापा जाता है) के एकीकरण की अनुमति देता है.’’ 

1990 के बाद का बहुपक्षीय उत्साह 

1990 के दशक की शुरुआत संभावनाओं से भरपूर थी. 1989 में तत्कालीन सोवियत संघ के विघटन से यह उम्मीद होने लगी थी कि खंडित वैश्विक क्षेत्र, एकजुट होकर एक एकीकृत बाजार को जन्म देंगे, जिसका लाभ सभी को मिलेगा. 1980 में चीन को वैश्विक अर्थव्यवस्था में जगह देने के बाद मिले चमत्कारिक आर्थिक परिणामों की सफलता ने यह दर्शाया था कि यह उम्मीद गलत नहीं थी. ऐसा लगने लगा था कि दुनिया अब बहुपक्षीय सहमति के आधार पर प्रबंधित एक ‘‘अंतरराष्ट्रीय  नियम आधारित व्यवस्था’’ की दिशा में बढ़ रही थी. बेहद जटिल समस्याओं के लिए बहुपक्षीय समाधान की मची यह होड़ 1992 में रियो डी जनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन अर्थात अर्थ सम्मिट में साफ दिखाई दी, जहां जलवायु परिवर्तन को लेकर ढांचागत समझौते की शुरुआत हुई. इसकी वजह से ही वैश्विक पर्यावरण प्रबंधन पर एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय समझौते को संस्थागत रूप दिया गया था. 

2015 में परिस में हुई कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टिज की बैठक ने विभिन्न देशों को स्वेच्छा से डीकार्बनाइजेशन की राह पर चलने के लिए प्रतिबद्ध होने का मार्ग दिखाया था. इसके बाद से ही विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी राष्ट्रीय डीकार्बनाइजेशन प्रतिबद्धताएं नियमित हो गई हैं. उदाहरण के तौर पर भारत ने 2021 में ग्लासगो सीओपी की बैठक में पेरिस में 2015 में तय अपनी प्रतिबद्धता के लक्ष्य को स्वेच्छा से बढ़ाया और तय किया कि वह 2070 तक नेट जीरो का स्तर हासिल कर लेगा. इसके मुकाबले चीन और इंडोनेशिया ने 2060 तक नेट जीरो बनने की प्रतिबद्धता जताई, जबकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने यह लक्ष्य पाने के लिए 2050 तक का वक्त तय किया. 70 देशों के नेट जीरो लक्ष्य अब 76 प्रतिशत कार्बन उत्सजर्न को समाविष्ट करते हैं.

हालांकि अब भी काफी कुछ किया जाना है. 2050 तक नेट जीरो के लक्ष्य को हासिल करने के लिए 2010 में जो वैश्विक कार्बन उत्सजर्न का स्तर था, उसमें 2030 तक कम से कम 45 प्रतिशत की कमी लानी होगी. लेकिन पेरिस समझौते में 193 देशों की राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं देखने पर पता चलता है कि इन देशों की वजह से 2030 तक कार्बन उत्सर्जन  में 14 प्रतिशत की वृद्धि होने वाली है.

एक अस्थायी हरा क़दम यानी ग्रीन फुट आगे बढ़ाएं

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल 2022) को जैवविविधता एवं पुराने घरेलू जंगल के संरक्षण की अगुवाई करने का निर्देश संघीय सरकार को दिया था. इसके तहत बजट प्रबंधन कार्यालय के निदेशक को ‘‘संघीय नियामक निर्णय लेने में इकोसिस्टम और पर्यावरण सेवाओं और प्राकृतिक संपत्तियों के मूल्यांकन’’ पर मार्गदर्शन जारी करना था. योजना यह है कि प्राकृतिक पूंजी लेखांकन-आधारित मैट्रिक्स प्रगति को समय के साथ मापना शुरू किया जाए. और संघीय सरकार इसके कार्यान्वयन को आगे बढ़ाने के लिए 15 साल की चरणबद्ध अवधि में अंतरराष्ट्रीय  समुदाय के साथ मिलकर काम करें.

यूरोपीय संघ (ईयू) ने 2013 में वायु उत्सर्जन खातों, पर्यावरण करों और सब्सीडी  के साथ सामग्री प्रवाह खातों को संकलित करना अनिवार्य बना दिया था. 2017 में इसके दायरे में विस्तार करते हुए यूरोस्टेट पर्यावरणीय वस्तुओं और क्षेत्र सेवाओं को खातों में संचारित करने का निर्णय लिया गया. ईयू ने 2026 से स्टील और एल्यूमिनियम जैसी कार्बन सघन वस्तुओं के आयात पर कार्बन टैक्स लगाने का निर्णय लेकर दिखाया है कि वह सक्रिय पर्यावरण रणनीति का अनुसरण कर रहा है अथवा इसे अपना रहा है. 2023 से 2025 के बीच संक्रमण काल में आयातकों को इस बात की सूचना देनी होगी कि वे जिन वस्तुओं का आयात कर रहे हैं, उनका कार्बन स्तर कितना है. उन्हें ईयू कार्बन बाजार की ओर से निर्धारित मूल्यों पर आयात पात्रता भी खरीदनी होगी. इसका उद्देश्य इस तरह के सामानों के लिए यूरोपीय संघ के उत्पादकों के लिए क्षेत्र में बराबरी का मौका उपलब्ध करवाना है. ऐसे आयातों पर विदेशों में भुगतान किए गए कार्बन करों को यहां समायोजित किया जा सकता है, जिससे निर्यातक देशों को भी अपने यहां घरेलू कार्बन कर को लागू करने का प्रोत्साहन मिलेगा. 

ईयू में कार्बन का बाजार मूल्य काफी बढ़ा है. 2022 में इसने 97 यूरो प्रति टन के उच्चतम भाव को हासिल किया था. इसकी तुलना लंबी अवधि -2009 से 2018- के बीच दामों में स्थिरता से की जाए तो पता चलता है कि उस दौर में दाम 20 यूरो प्रति टन से कम ही रहे थे, जबकि 2011 से 2017 के दौर में यह 10 यूरो प्रति टन से नीचे थे. यूएस की वित्त मंत्री यानी ट्रेजरी सेक्रेटरी जेनेट येलेन ने यूरोपीय संघ से यह स्वीकार करने का आह्वान किया कि कई देशों के नियमानुसार कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए कार्बन मूल्य के अलावा अन्य तरीकों का उपयोग किया जाता हैं और उन नियमों को मान्यता देने की भी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए.

भारत : हरित लेखांकन की दिशा में क्रमवधि रवैया

भारत में, केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) प्राकृतिक पूंजी स्टॉक और सेवाओं में पर्यावरणीय आर्थिक मूल्यांकन को लागू करने में अग्रणी है. 1992 के पृथ्वी सम्मेलन यानी अर्थ सम्मिट के बाद सीएसओ ने फ्रेमवर्क फॉर द डेवलपमेंट ऑफ इन्वाइरन्मेन्टल स्टैटिसटिक्स (एफडीईएस) तैयार किया. 1997 में पर्यावरण सांख्यिकी का एक संग्रह जारी किया गया, जिसे समय-समय पर अपडेट किया जाता था.  सांख्यिकी और योजना कार्यान्वयन मंत्रालय ने 2000 से 2006 के बीच भूमि, वन, वायु, जल और उप-मृदा संसाधनों का आकलन और मूल्यांकन करने के लिए अध्ययनों के सेट को शुरू किया. 

कार्बन उत्सर्जन को 2010 के स्तर से 45 प्रतिशत नीचे तक कम करने के 2030 के वैश्विक लक्ष्य को प्राप्त करना ही सरकारों, निजी क्षेत्र और नागरिकों को यह विश्वास दिलाने का एक तरीका है कि पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन एक उपयोगी उपकरण है.

2013 में डॉ. पाथो दासगुप्ता की अगुवाई वाले विशेषज्ञ समूह ने एक रिपोर्ट ‘‘भारत के हरित खाते’’ जारी की. इसमें एसईईए पर आधारित एक ढांचा तैयार करने की सिफारिश की गई. सीएसओ ने 2018 में चार भौतिक संसाधनों – भूमि, जल, गौन खनिज तथा वन – के भौतिक खातों को जारी किया. एन्वीस्टैट्स इंडिया 2019 ने दो संसाधनों – मिट्टी और पानी और दो मूल्यवान सेवाओं – क्रॉपलैंड इकोसिस्टम सर्विसेस और प्राकृतिक संसाधन – आधारित पर्यटन सेवाओं के लिए एक गुणवत्ता सूचकांक को जोड़ा है. 

सरकारी वित्तीय लेखों प्रणालियों को पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन के अनुकूल बनाने का काम नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के तहत आने वाले सरकारी लेखा मानक सलाहकार बोर्ड (जीएएसएबी) की ओर से किया जा रहा है, जिसने जून 2020 में ‘‘भारत में प्राकृतिक संसाधन लेखांकन’’ पर एक अवधारणा शोध पत्र प्रकाशित किया था. प्राकृतिक संसाधन लेखांकन को लेकर 1990 के बाद से ही काफी गतिविधियां चल रही हैं. लेकिन, हम अब भी पर्यावरणीय खातों का राष्ट्रीय खातों में एकीकरण करने के आसपास भी नहीं पहुंचे हैं.

सफर अभी लंबा है

 

पर्यावरण-आर्थिक लेखांकन के कार्यान्वयन के लिए 2020 में यूएनएससी की ओर से करवाए गए वैश्विक सर्वेक्षण में पाया गया कि 89 देशों ने पिछले पांच वर्षों में कम से कम एक खाता संकलित किया था – 2014 में सिर्फ 54 देश ऐसा कर रहे थे – जबकि 62 देश अब नियमित रूप से ऐसा कर रहे हैं. किसी कार्यक्रम को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता को परखने का एक तरीका यह है कि सरकार ने इस काम के लिए कितने संसाधन उपलब्ध करवाए हैं. 2020 में सरकारों ने औसतन 3.7 पूर्णकालिक कर्मचारियों को ही पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन के लिए आवंटित किया था. विकसित देशों ने औसतन पांच पूर्णकालिक कर्मचारियों को इस काम पर लगाया था. यह संख्या हरित लेखांकन को लेकर उनकी मामूली, लेकिन नियमित प्रतिबद्धता को दर्शाती है.

फिर भी, इस क्षेत्र में निर्णय लेने के लिए पारिस्थितिक तंत्र स्तर पर पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन (एसईईए ईए) बेहद महत्वपूर्ण है. कार्बन उत्सर्जन का मामला इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है. कार्बन उत्सर्जन को 2010 के स्तर से 45 प्रतिशत नीचे तक कम करने के 2030 के वैश्विक लक्ष्य को प्राप्त करना ही सरकारों, निजी क्षेत्र और नागरिकों को यह विश्वास दिलाने का एक तरीका है कि पर्यावरणीय आर्थिक लेखांकन एक उपयोगी उपकरण है. आखिर, जिस चीज को मापित किया जाता है, वही तो की जाती है.

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Author

Sanjeev Ahluwalia

Sanjeev Ahluwalia

Sanjeev S. Ahluwalia has core skills in institutional analysis, energy and economic regulation and public financial management backed by eight years of project management experience ...

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