Published on Nov 30, 2021 Updated 0 Hours ago

विकासशील देशों के ग्रीन भविष्य में विभिन्न वित्तीय क्षेत्रों को निवेश करने की अनुमति देने के लिए संरचनात्मक परिवर्तन लाए जाने की ज़रूरत है.

Climate Finance से जुड़ी भू-अर्थव्यवस्था

यह लेख हमारी निबंध श्रृंखलाशेपिंग आवर ग्रीन फ्यूचर: पाथवेज़ एंड पॉलिसीज़ फॉर नेट ज़ीरो ट्रांसफॉर्मेशन का हिस्सा है.


परिचय

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र अंतर सरकारी पैनल (The UN Intergovernmental Panel on Climate Change) यानी आईपीसीसी का अनुमान है कि 2035 तक केवल ऊर्जा क्षेत्र में 2.4 ट्रिलियन डॉलर के वार्षिक निवेश की आवश्यकता होगी, तभी तापमान में वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखा जा सकेगा.[1] दरअसल, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) के तत्वावधान में आयोजित हर वैश्विक जलवायु बैठक में जलवायु वित्त का मुद्दा चर्चा के केंद्र में रहा है. विकसित देशों ने साल 2020 तक विकासशील देशों को सालाना 100 अरब डॉलर का जलवायु वित्त देने का वादा किया है. 100 अरब अमेरिकी डॉलर की प्रतिबद्धता पहली बार 2009 में कोपेनहेगन समझौते में जताई गई, जिसे 2010 के कैनकन समझौते में औपचारिक रूप दिया गया और 2015 में पेरिस समझौते द्वारा इसकी पुष्टि की गई थी.[2]

विकासशील देशों को जलवायु वित्त मुहैया कराने में वास्तविक स्थिति के बजाय अनुचित तौर पर वादे गिनाए जा रहे हैं. इसलिए ‘नए और अतिरिक्त’ कोष को बढ़ा-चढ़ा और आवंटन को कम करके पेश किया जा रहा है. और इसमें गैर ज़रूरी तरीके से रियायती ऋणों को भी शामिल किया जा रहा है

जलवायु वित्त द्विपक्षीय रियायती ऋण, बहुपक्षीय रियायती ऋण, विकास वित्त संस्थानों और निजी संस्थानों यानी कई स्रोतों से आ सकता है. जलवायु वित्त में क्या-क्या आएगा, कितने की प्रतिबद्धता जताई गई और इसका इस्तेमाल कहां किया गया है… ये चीज़ें अब भी गंभीर चर्चा के विषय हैं. OECD का दावा है कि साल 2019 में विकसित देशों ने 79.6 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता जताई थी (अंतिम उपलब्ध आंकड़ें). हालांकि, भारत सहित कई विकासशील देशों ने इन आंकड़ों को चुनौती दी है. उनका कहना है कि विकासशील देशों को जलवायु वित्त मुहैया कराने में वास्तविक स्थिति के बजाय अनुचित तौर पर वादे गिनाए जा रहे हैं. इसलिए ‘नए और अतिरिक्त’ कोष को बढ़ा-चढ़ा और आवंटन को कम करके पेश किया जा रहा है. और इसमें गैर ज़रूरी तरीके से रियायती ऋणों को भी शामिल किया जा रहा है.[3] ओआरएफ के एक अध्ययन में इसकी पुष्टि हो चुकी है कि भारत ने 2018 में जलवायु वित्त की 21 अरब डॉलर की राशि में 85 फ़ीसदी का इंतज़ाम घरेलू स्तर पर किया. इसके साथ ओईसीडी की ओर से जलवायु वादे के तहत दिए गए 291 अरब डॉलर में से 60 फ़ीसदी को ओईसीडी देशों में ही फिर से निवेश किया गया. विकासशील देशों को जलवायु वित्त जुटाने, रिपोर्ट करने और इसका लाभ उठाने के बारे में वैश्विक हितधारकों के साथ मज़बूत के साथ बातचीत में शरीक़ होना चाहिए. यह लेख वैश्विक जलवायु वित्त के लिए नीति और नियामक ढांचे की जांच करता है जो बहुपक्षीय, द्विपक्षीय और निजी पूंजी को भारत जैसे विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त देने से रोकता है.

1.बहुपक्षीय विकास बैंक: जोख़िम प्रबंधन की अनिवार्यता

बहुपक्षीय विकास बैंक (MDB) जलवायु अनुकूलन और शमन के लिए ज़रूरी प्रेरक वित्त पोषण प्रदान कर सकते हैं. अब तक इस बात पर सहमति है कि विकासशील देशों के लिए अधिक से अधिक जलवायु वित्त उपलब्ध कराने के लिए MDB को फिर से उन्मुख बनाने, पुनर्गठित करने और पुनर्पंजीकृत करने की ज़रूरत है. क्या ये बैंक ऐसे मिशन के लिए तैयार हैं? दुनिया के सबसे बड़े 500 परिसंपत्ति प्रबंधक और संस्थागत निवेशक 100 ट्रिलियन डॉलर की परिसंपत्ति का प्रबंधन करते हैं, जबकि MDB के पास केवल 2 ट्रिलियन डॉलर की संपत्ति है, जो तुलनात्मक रूप से काफी कम है.[4]

अब तक MDB द्वारा जुटाए गए कुल निजी वित्त में गारंटियों का योगदान 45 प्रतिशत है. इसलिए इस उपाय का और अधिक लाभ उठाने की काफी गुंजाइश है.

MDB की भूमिका बढ़ाने के लिए इन्हें अंडरराइटर्स (underwriters) के रूप में कार्य करना होगा. इस तरह इन्हें निजी पूंजी की सुविधा के लिए रियायती ऋण देने से दूर किया जा सकता है. अंडरराइटर्स एक पक्ष होता है जो दूसरे पार्टी के भुगतान जोख़िम का मूल्यांकन और उसका आकलन करता है.  गारंटियां उभरती अर्थव्यवस्थाओं से जुड़े राजनीतिक और वित्तीय जोख़िमों के बारे में चिंतित निवेशकों और उधारदाताओं के लिए आवश्यक बचाव प्रदान करके बड़े पैमाने पर निजी वाणिज्यिक पूंजी  ‘जुटाने’ की अनुमति देती हैं.[5] अब तक MDB द्वारा जुटाए गए कुल निजी वित्त में गारंटियों का योगदान 45 प्रतिशत है.[6] इसलिए इस उपाय का और अधिक लाभ उठाने की काफी गुंजाइश है.

वैश्विक वित्तीय गवर्नेंस (Global Financial Governance) पर साल 2018 के जी-20 के प्रख्यात व्यक्ति समूह की रिपोर्ट में कुछ इसी तरह से सुझाव दिए गए थे. ये सुझाव निजी वित्त जुटाने, निजी पुनर्बीमा बाजारों का विस्तार करने और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए एक बुनियादी ढांचा परिसंपत्ति वर्ग के निर्माण के लिए MDB के काम को बढ़ाने के बारे में थे.[7] इसलिए MDB के पास अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को पूरा करने का मौका है. उसके पास निजी निवेशकों व प्राप्तकर्ता (recipient) अर्थव्यवस्थाओं के बीच एक सेतु के रूप में कार्य करने और ऋण देने से लेकर जोख़िम कम करने की भूमिका से आगे बढ़ने का मौका है. एमबीडी पूंजी के वास्तविक कोष (pools) और उस बचत के लिए सबसे अधिक उत्पादक गंतव्य के बीच मध्यस्थ के रूप में भी काम कर सकता है.

इस बारे में एक और वैकल्पिक सुझाव बैंक ऑफ इटली से आया है. उसका सुझाव है कि अगर संस्थाएं MDB की रेटिंग घटाकर डबल ए+ (AA+) कर दें तो वह अपनी अतिरिक्त उधार क्षमता को तीन गुना कर सकती है.

एक अन्य महत्वपूर्ण सुझाव MDB के लिए पूंजी आवश्यकताओं और कॉर्पोरेट प्रशासन दिशानिर्देशों का पुनर्मूल्यांकन करना है. धारणात्मक रूप से MDB का मूल्यांकन क्रेडिट-रेटिंग एजेंसियों द्वारा उसी तरह किया जाता है जैसे वाणिज्यिक बैंकों का. यह मूल्यांकन उधार देने पर अनावश्यक रोक लगाता है, जबकि MDB “पसंदीदा लेनदार उपचार” (preferred creditor treatment), “प्रतिदेय पूंजी” (callable capital) और “एकाग्रता जोख़िम” (concentration risk) पर वाणिज्यिक बैंकों से स्पष्ट रूप से अलग है.[8] एसएंडपी के 2016 के एक अध्ययन के निष्कर्ष के मुताबिक MDB अपनी एएए (ट्रिपल ए) रेटिंग को खतरे में डाले बिना भी “अधिक सुरक्षित रूप से उधार दे सकते हैं”. यह एक ऐसा क़दम होगा, जिससे ऋण में एक और ट्रिलियन डॉलर की क्षमता आ सकती है.[a] इस बारे में एक और वैकल्पिक सुझाव बैंक ऑफ इटली से आया है. उसका सुझाव है कि अगर संस्थाएं MDB की रेटिंग घटाकर डबल + (AA+) कर दें तो वह अपनी अतिरिक्त उधार क्षमता को तीन गुना कर सकती है.

फिर भी MDB अपने जोख़िम आकलन में रूढ़िवादी बना हुआ है. एक मानक जिस पर MDB और एसएंडपी अलग-अलग राय रखते हैं, वह है जोख़िम की गणना करते समय “कॉलेबल पूंजी” (पूंजी का वह हिस्सा जिसे कंपनी के शेयरधारकों ने अभी तक मंज़ूर नहीं किया है) का उपचार. कॉलेबल पूंजी को हिंदी में प्रतिदेय पूंजी कहा जाता है. कॉलेबल पूंजी संकट की स्थिति में MDB को सहयोग देने के लिए शेयरधारक की हिस्सेदारी से परे MDB के सदस्यों की ओर से व्यक्त की गई प्रतिबद्धता है. जैसा कि ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (ओडीआई) के एक पेपर में बताया गया है कि रेटिंग एजेंसियों ने MDB के रेटिंग आकलन में कॉलेबल पूंजी शामिल की है, जबकि MDB स्वयं अपने आंतरिक मॉडल में ऐसा नहीं करते हैं. MDB, प्रमुख शेयरधारकों के दबाव का सामना करते हैं. प्रमुख शेयरधारक कॉलेबल पूंजी की ज़रूरत पड़ने की दूरदूर तक की संभावना को भी स्वीकार करने को इच्छुक नहीं हैं. साल 2015 में जी-24 द्वारा किए गए एक संबंधित अध्ययन में पाया गया कि MDB का नकारात्मक मूल्यांकन उनके शेयरधारक देशों की सॉवरेन रेटिंग में गिरावट की स्थिति में भी किया जा सकता है, जो कॉलेबल पूंजी प्रदान करते हैं.[9] इसलिए, MDB अपने आकलन को कॉलेबल पूंजी के साथ जोड़ने के विचार के ख़िलाफ रहते हैं. यह एक ऐसी स्थिति है जिसे सदस्यों के बीच राजनीतिक सहमति से बदला जा सकता है.

2.अंतरराष्ट्रीय वित्तीय विनियम: रिपोर्टिंग की अनिवार्यता

साल 2008 के वित्तीय संकट ने बैंकिंग पर्यवेक्षी प्राधिकरणों (banking supervisory authorities) जैसे बेसल (Basel) को कुछ मैक्रो-प्रूडेंशियल नीतियों (macro-prudential policies) और अंतरराष्ट्रीय नियामक मानकों को निर्धारित करने के लिए मजबूर किया. वैसे इन विनियमों को ज़्यादातर विकसित देशों द्वारा विकसित किया गया है. कई उभरते बाजारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं ने धीरे-धीरे इन मानकों को अपनाया है.

विकासशील देशों (या विशेष रूप से भारत) को जलवायु वित्त पोषण पर बेसल मानदंडों के प्रत्यक्ष प्रभाव को निर्धारित करना मुश्किल है. एक ओर मानदंड मैक्रो-प्रूडेंशियल गवर्नेंस के लिए एक समान वैश्विक ढांचा प्रदान करते हैं, जिसका भारत सहित कई विकासशील देश स्वागत करते हैं. वहीं दूसरी ओर, रिसर्च से पता चलता है कि विशिष्ट नियमों का दीर्घकालिक वित्त पर अनजाने में दुष्प्रभाव हो सकता है. यह स्थिति जलवायु वित्त को भी प्रभावित कर सकती है.

साल 2021 में जी20 फ्रेमवर्क कार्य समूह[d] में पहली बार एजेंडे के हिस्से के रूप में जलवायु परिवर्तन से जुड़े बृहत अर्थशास्त्र (macroeconomic) के जोख़िम को शामिल किया गया. एफएसबी के नेतृत्व वाले टीसीएफडी की स्थापना जी20 के अनुरोध पर किया गया. इसका लक्ष्य जलवायु से जुड़े वित्तीय जोख़िम पर काम करना था.  

उदाहरण के लिए 2020 में फ्रांसीसी विकास एजेंसी के एक अध्ययन में पाया गया कि वाणिज्यिक बैंकों के लिए डिज़ाइन किए गए बेसल 3 मानक राष्ट्रीय विकास बैंकों के लिए कम प्रासंगिक थे. इनमें अलग-अलग संरचनात्मक और जोख़िम विशेषताएं थीं. विशेष रूप से पूंजी की आवश्यकता की मात्रा और पूंजी गुणवत्ता की मांग, जो एनडीबी को लंबी अवधि की परियोजनाओं को ऋण प्रदान करने से रोक सकती है, खासकर आर्थिक संकट के समय. इसी प्रकार तरलता अनुपात जैसे कि तरलता कवरेज अनुपात (एलसीआर) और शुद्ध स्थिर निधि अनुपात (एनएसएफआर), जिसे क्रमशः वित्तीय लचीलेपन को बढ़ावा देने और परिपक्वता बेमेल से बचने के लिए डिज़ाइन किया गया है, को एनडीबी द्वारा फिर से जांच करने की आवश्यकता है. इनके वित्त पोषण के स्रोत गैर-घरेलू जमा हैं.[10] इससे स्पष्ट होता है कि दीर्घकालीक वित्त पोषण की बेहद ज़रूरत को देखते हुए जलवायु से संबंधित जोख़िम के बारे में बेसल ढाचे की समीक्षा की ज़रूरत है.

हाल ही में संयुक्त राष्ट, जी20, अंतरराष्ट्रीय वित्त पर वैश्विक मानक-निर्धारण निकाय[b] और साथ-साथ स्वतंत्र पहल[c] जलवायु वित्त के लिए नियमों के खुलासे की जानकारी दे रहे हैं.

जलवायु वित्त को लेकर जी20 का काम टिकाऊ वित्त कार्य समूह (Sustainable Finance Working Group) के निर्देशन में चलता है. इस कार्य बल समूह की स्थापना 2021 में हुई. इसने 2018 में स्थापित टिकाऊ वित्त अध्ययन समूह और 2016 में स्थापित ग्रीन वित्त अध्ययन समूह की जगह लिया. कार्य समूह का एजेंडा जलवायु वित्त के लिए नियमों को व्यवस्थित करने के प्रयासों में आने वाली परेशानियों के बारे में बताना है.

. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इसकी पुष्टि की है कि भारत में ग्रीन वित्त में सुस्ती की मुख्य वजह स्तरीय वैश्विक टैक्सोनोमी (taxonomy) और स्तरीय वैश्विक रिपोर्टिंग का अभाव है. 

चुनौतियों में स्थायी लक्ष्यों के लिए निवेश लाने के तरीके तैयार करना, मानदंडों में असमानता को दूर करना, टैक्सोनॉमी और रेटिंग के तरीके विकसित करना, जैव विविधता जैसी प्रकृति की प्राथमिकताओं को मुख्यधारा में लाना, डेटा ठीक करना और कम कार्बन मार्ग की ओर बढ़ने के लिए अंतराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों को रोडमैप प्रदान करना शामिल है.

साल 2021 में जी20 फ्रेमवर्क कार्य समूह[d] में पहली बार एजेंडे के हिस्से के रूप में जलवायु परिवर्तन से जुड़े बृहत अर्थशास्त्र (macroeconomic) के जोख़िम को शामिल किया गया. एफएसबी के नेतृत्व वाले टीसीएफडी की स्थापना जी20 के अनुरोध पर किया गया. इसका लक्ष्य जलवायु से जुड़े वित्तीय जोख़िम पर काम करना था. इन वित्तीय जोख़िमों का खुलासा मुख्यधारा की कॉर्पोरेट फाइलिंग में होता है. ऐसा इस फील्ड में सबसे ज़्यादा देखा जाता है. पिछली स्थिति से जुड़ी रिपोर्ट, जिसे सितंबर 2020 में प्रकाशित किया गया था, के मुताबिक टीसीएफडी के पास वैश्विक स्तर पर 1500 से अधिक संगठनों का समर्थन प्राप्त था. इसमें 1340 से अधिक ऐसी कंपनियां हैं जिनकी बाज़ार पूंजी 12.6 ट्रिलियन डॉलर हैं और उनमें संस्थागत निवेशकों की करीब 150 ट्रिलियन डॉलर की परिसंपत्तियां हैं.[11]

एफएसबी के काम से पता चलता है कि बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियां की तुलना में खुलासे के मामले में बेहतर थीं. इससे यह भी पता चला कि ऊर्जा सेक्टर, बैंकिंग उद्योग से बेहतर है. उदाहरण के लिए 10 अरब डॉलर की बाज़ार पूंजीकरण वाली 42 फ़ीसदी कंपनियों ने जिन सूचनाओं के खुलासे किए वे साल 2019 के टीसीएफडी के अनुरूप थीं, जबकि 2.8 अरब डॉलर की बाज़ार पूंजी वाली कंपनियां के लिए औसत बेहद कम यानी 15 फ़ीसदी था.[12] इसी तरह 54 अरब डॉलर के मध्यम परिसंपत्ति आकार के 289 बैंकों की समीक्षा से पता चला कि केवल 20 से 30 फ़ीसदी बैंक टीसीएफडी दिशानिर्देशों का पालन कर रहे थे. यह एक निराश करने वाला आंकड़ा था, क्योंकि ऊर्जा क्षेत्र की 40 से 60 फ़ीसदी कंपनियां खुशी-खुशी टीसीएफडी के दिशानिर्देशों के मुताबिक खुलासे कर रही थीं.

 मौजूदा वक्त में कई वैश्विक संस्थागत निवेशक यहां काम कर रहे हैं या काम करने के इच्छुक हैं. इसमें सिंगापुर की जीआईसी होल्डिंग्स, अबू धाबी इंवेस्टमेंट अथॉरिटी, सॉफ्टबैंक, ब्रूकफील्ड, कनाडा की सीपीपीआईबी और सीबीडीक्यू, ओआरआईएक्स (जापान), सेंमबकॉर्प और एपीजी (हॉलैंड), गोल्डमैन सैकस, जेपी मॉर्गन और मॉर्गन स्टेनली जैसे संस्थान शामिल हैं

अन्य क्षेत्र भी हैं जहां टीसीएफडी में निम्न कवरेज देखा जाता है. इसी में से एक है कार्बन उत्सर्जन पर खास तरीके (metrics) का खुलासा. ऐसा संभवतः गुणवत्ता पूर्ण आंकड़ों की कमी की वजह से है. द नेटवर्क फॉर ग्रीनिंग का फाइनेशियल सिस्टम (एनडीएफएस) ने बैंकों, बीमाकर्ताओं, परिसंपत्ति प्रबंधकों, सेंट्रल बैंकों, उधार देने वाली संस्थाओं और पेंशन कोष द्वारा इस्तेमाल मामलों (cases), मेट्रिक्स और आंकड़ों के बारे में विस्तृत काम किया है. इसके मूल्यांकन में उस उपलब्ध कार्बन डाटा को शामिल किया गया, जिसके आधार पर अधिकतर ग्रीन वित्त निर्भर है. यह कार्बन डाटा अपूर्ण था या उन्हें विषयगत रूप से अनुमानित किया गया था.[13]

खुलासे के दिशानिर्देश में असमानात और रिपोर्टिंग में विषयगतता ने जलवायु वित्त रिपोर्टिंग सूचना को अपूर्ण, असंगत और अतुलनीय बना दिया है. दरअसल, निवेशक, ऋणदाता और बीमा कंपनियां पूंजी आवंटन और जोख़िम के बारे में फैसले लेने के लिए डाटा पर भरोसा करती हैं. ऐसे खुलासे और रिपोर्टिंग के पूरे फ्रेमवर्क को स्तरीय बनाना विकासशील देशों के लिए काफी ज़रूरी है. तभी वे वैश्विक वित्तीय संस्थाओं में अपनी साख और मोलभाव की ताकत बढ़ाने में सफल होंगे.

जहां तक भारत की बात है तो उसे साल 2020 में टिकाऊ कोष के तहत वैश्विक परिसंपत्तियों में 0.05 फ़ीसदी की हिस्सेदारी मिली जो करीब 1.23 अरब डॉलर बनता है.[14] भारत में साल 2018-2019 में जारी कुल बॉन्ड्स में से ग्रीन बॉन्ड्स की हिस्सेदारी केवल 0.7 फ़ीसदी थी. यह आंकड़ा यूरोपीय संघ, चीन और अमेरिका की तुलना में काफी छोटा है. इन तीनों ने क्रमशः 196 अरब डॉलर, 63 अरब डॉलर और 35 अरब डॉलर के ग्रीन बॉन्ड्स जारी किए. इसी तरह मार्च 2020 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में ग्रीन ऋण कुल ऋण का केवल 0.5 फ़ीसदी यानी 5.4 अरब डॉलर था.[15]

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इसकी पुष्टि की है कि भारत में ग्रीन वित्त में सुस्ती की मुख्य वजह स्तरीय वैश्विक टैक्सोनोमी (taxonomy) और स्तरीय वैश्विक रिपोर्टिंग का अभाव है. आरबीआई ने पाया है कि सूचना विषमता (information asymmetry) वह मूल कारण है जिसके कारण बॉन्ड निर्गमन (issuance) में उच्च लागत आती है. मई 2021 में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने अपनी स्थिरता रिपोर्ट, बिज़नेस रेस्पॉन्सबिलिटी और सस्टेनेबिलिटी रिपोर्टिंग (बीएसबीआर) जारी की थी. इसमें टीसीएफडी के दिशानिर्देश शामिल थे. इसे वित्त साल 2022 के लिए बाज़ार पूंजी के हिसाब से देश की शीर्ष 1000 कंपनियों के लिए अनिवार्य किया गया है. इसके तहत बड़ी संख्या में कंपनियां आ रही हैं. साल 2012 में जब इसे शुरू किया गया था तब बीएसई और एनएसई की शीर्ष 100 कंपनियों पर इसे लागू किया गया था.

इसलिए अगर भारत एक कॉमन टैक्सोनोमी और रिपोर्टिंग सिस्टम अपना लेता है तो इसका दुनिया में स्वागत किया जाएगा. भले ही इसे किसी भी तरीके जैसे टीसीएफडी या फिर संयुक्त राष्ट्र या जी20 के जरिए हासिल किया जा रहा हो. इस तरह के टैक्सोनोमी निश्चित तौर पर विकासशील देशों के आचरण में दिखनी चाहिए. इसमें दोनों बीते समय और भविष्य को लेकर खुलासे होने चाहिए.

3.संस्थागत निवेशक: रिटर्न निर्गमन

बीते पांच साल से भारत के रिन्यूएबल ऊर्जा सेक्टर यानी नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में औसत वार्षिक निवेश करीब 11 अरब डॉलर है. मौजूदा वक्त में कई वैश्विक संस्थागत निवेशक यहां काम कर रहे हैं या काम करने के इच्छुक हैं. इसमें सिंगापुर की जीआईसी होल्डिंग्स, अबू धाबी इंवेस्टमेंट अथॉरिटी, सॉफ्टबैंक, ब्रूकफील्ड, कनाडा की सीपीपीआईबी और सीबीडीक्यू, ओआरआईएक्स (जापान), सेंमबकॉर्प और एपीजी (हॉलैंड), गोल्डमैन सैकस, जेपी मॉर्गन और मॉर्गन स्टेनली जैसे संस्थान शामिल हैं.[16]

जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ लड़ाई में संस्थागत निवेशक अहम हैं. विल्लिस टॉवर्स वाट्सन द्वारा इकट्ठा किए आंकड़ों (Willis Towers Watson) के मुताबिक साल 2019 में संस्थागत निवेशक 100 ट्रिलियन डॉलर के निवेश की देखभाल कर रहे थे. इस तरह इन संस्थागत निवेशकों की संपत्ति जलवायु परिवर्तन के प्रति वित्तीय सेवा उद्योग की प्रतिबद्धता का एक अहम संकेतक है.

 सरकार ने वृहद-आर्थिक लचीलापन (macro-economic resilience), मुद्रा जोख़िम, और राजनीतिक स्थिरता को लेकर निवेशकों की चिंताओं को दूर करने का भी प्रयास किया है. इसके बावजूद बड़े संस्थागत निवेशकों को ब्राउन निवेश (brown investments) यानी ऐसा निवेश जिसमें अधिक से अधिक रिटर्न की पूरी संभावना हो, से हटाने के लिए वित्तीय नियमन को सरल बनाने भर से काम नहीं चलेगा.

जलवायु वित्त को लेकर काम करने वाली संस्था इन्फ्लूएंसमैप (InfluenceMap) की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह पाया गया है कि सबसे बड़े परिसंपत्ति प्रबंधक समूह की इक्विटी होल्डिंग पेरिस जलवायु लक्ष्यों से मेल नहीं खाती है. उदाहरण के लिए कई कंपनियां जलवायु की दृष्टि के बेहद अहम चार सेक्टरों में ग्रीन तकनीक में पर्याप्त निवेश नहीं कर रही हैं. ये चार सेक्टर हैं- वाहन निर्माण, तेल और गैस उत्पादन, कोयला उत्पादन और बिजली उत्पादन. इसी संस्था द्वारा अगस्त 2021 में किए गए एक और खास अध्ययन के मुताबिक 723 इक्विटी फंड्स, जिनके पास कुल 330 अरब डॉलर की शुद्ध संपत्ति है, उनके बारे में देखा गया कि 71 फ़ीसदी ईएसजी कोष और 55 फ़ीसदी जलवायु कोष पेरिस प्रतिबद्धता से बिल्कुल मेल नहीं खाते हैं. इससे पता चलता है कि कई वित्तीय सेवा प्रदाता कंपनियां पेरिस समझौते से जुड़ी तक नहीं हैं. वे अकेले ही वित्त मुहैया कराती है.

यहां तक कि जिन कंपनियों ने क्लाइमेंट एक्शन 100+ की प्रतिबद्धता जताई थी वो भी इसका पालन नहीं कर रही हैं. क्लाइमेंट एक्शन 100+ एक अभियान है जिसमें दुनिया के 600 से अधिक संस्थागत निवेशक शामिल हैं. इनकी परिसंपत्ति करीब 55 ट्रिलियन डॉलर की है. ये कार्बन का उत्सर्जन करने वाली बड़ी कंपनियों के साथ काम करते हैं. 107 कंपनियों के बारे में संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वे में पाया गया है कि इसमें से 70 फ़ीसदी ने इस बात के सबूत नहीं दिए कि उन्होंने 2020 के अपने वित्तीय स्टेटमेंट में जलवायु से जुड़े खुलासे को शामिल किया है. जबकि इन 107 कंपनियों में से अधिकतर ने इस अभियान के प्रति प्रतिबद्धता जताई थी.[17]

भारत सरकार ने ग्रीन परियोजनाओं के लिए कई वित्तीय नियामकों की शुरुआत या फिर उनको मज़बूती दी है. इसमें एफडीआई को स्वतः मंज़ूरी, बिजली ख़रीद समझौते को मज़बूती, रिन्यूएबल एनर्जी पार्क व ग्रीन कॉरिडोर की स्थापना और बोली प्रक्रिया को सरल बनाना शामिल है. सरकार ने वृहद-आर्थिक लचीलापन (macro-economic resilience), मुद्रा जोख़िम, और राजनीतिक स्थिरता को लेकर निवेशकों की चिंताओं को दूर करने का भी प्रयास किया है. इसके बावजूद बड़े संस्थागत निवेशकों को ब्राउन निवेश (brown investments) यानी ऐसा निवेश जिसमें अधिक से अधिक रिटर्न की पूरी संभावना हो, से हटाने के लिए वित्तीय नियमन को सरल बनाने भर से काम नहीं चलेगा. उदाहरण के लिए उर्गेवाल्ड (Urgewald) की रिपोर्ट से पता चलता है कि करीब 4488 संस्थागत निवेशकों ने कोल वैल्यू चेन से जुड़ी कंपनियों में करीब 1.03 ट्रिलियन डॉलर का निवेश किया है. इस मामले में अमेरिका सबसे आगे हैं. वहां के कोयला उद्योग में 602 अरब डॉलर से अधिक निवेश किया गया है. इसके बाद जापान और इंग्लैंड का स्थान है. कोयला उद्योग में वाणिज्यिक बैंकों की भी बड़ी हिस्सेदारी है. इसमें मामले में जापान के बैंक सबसे आगे हैं. उसके बाद अमेरिका और इंग्लैंड के वाणिज्यिक बैंकों का स्थान आता है. इन सभी बैंकों ने मिलकर 166 अरब डॉलर का निवेश किया है.[18]

साल 2021 में जारी क्लाइमेट पॉलिसी इनिशिएटिव की एक दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे बड़े 60 में 38 वाणिज्यिक और निवेश बैंकों ने सीधे पर कोयला बिजली संयंत्रों को वित्त उपलब्ध कराने से बचने की बात कही है. इसके बावजूद इन्होंने दुनिया के सबसे बड़े 30 कोयला बिजली संयंत्रों में 52 अरब डॉलर की राशि लगाई है.[19] इससे स्पष्ट है कि वाणिज्यिक बैंक अब भी जीवाश्म ईंधन में निवेश को अपेक्षाकृत आसान पाते हैं. ग्रीन परियोजनाओं को प्रोत्साहन दिए बिना वित्तीय व्यवस्था को ग्रीन बनाने की आधी-अधूरी कोशिश अपर्याप्त साबित होगी.

अंत में शेयरधारकों के प्रस्तावों की उभरती ताकत का मूल्यांकन करना उपयोगी होगा. एक्सॉन एंड शेवरॉन (Exxon and Chevron) के शेयरधारकों ने इस साल वार्षिक बैठक में ‘रिबेलियन’ लॉन्च की है. सक्रिय निवेशकों ने शेयरधारकों की वोटिंग और प्रस्तावों के जरिए कंपनी को मजबूर किया है कि वे जलवायु चिंताओं पर ध्यान दें. कुछ ऐसी ही शेयरधारकों की भागीदारी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और विनिर्माण कंपनियों में भी देखी जा रही है. सीपीपी इंवेस्टमेंट्स ने जलवायु रणनीति के रूप में एक केस स्टडी को स्वीकार किया है. सीपीपी इंवेस्टमेंट कनाडा पेंशन योजना की संपत्तियों का निवेश करती है. इसने अपनी साथी कंपनियों से खुद को अलग कर लिया है और साल 2015 के बाद से जलवायु से जुड़े 130 प्रस्तावों का समर्थन किया है.[20] केवल साल 2021 में ही सीपीपी ने शेयरधारकों के 19 प्रस्तावों का समर्थन किया. इन प्रस्तावों में जलवालु परिवर्तन जोख़िम और अवसर पर और स्पष्टता की मांग की गई थी. इन्होंने 42 कंपनियों में जोख़िम कमेटी (या जलवायु जोख़िम के लिए जिम्मेदार कमेटी के बराबर की कमेटी) की पुनर्नियुक्ति के ख़िलाफ वोटिंग की. उनकी वोटिंग की बदौलत निदेशकों के ख़िलाफ 53 वोट पड़े. इसके साथ ही 17 कंपनियों में जलवायु से संबंधित खुलासे और तरीके में सुधार और प्रतिबद्धता के लिए वोट डाले गए.[21]

4.जलवायु वित्त के लिए राजनीतिक सहमति परः लामबंदी की अनिवार्यता

वैश्विक नेताओं की ओर से दर्शायी गई ग्रीन महत्वाकांक्षा केवल तभी लाई जा सकती है जब जलवायु से संबंधित वित्तीय नियमन के मसले पर एक वैश्विक राजनीतिक सहमति बने. वित्तीय नियमन से ही जलवायु के क्षेत्र में कदम उठाए जा सकेंगे. ये नीतियां सभी हितधारको के संदर्भ में बराबरी और प्रतिनिधित्व वाली होनी चाहिए. खासकर भारत जैसे विकासशील देश के संदर्भ में. ये देश जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ जंग में सबसे अहम है. वैश्विक नेताओं की ओर से छिटपुट कोशिश, वैश्विक जलवायु कार्य के लिए केवल एक असफलता साबित होगी. अकेले ग्रीन परिवर्तन हासिल नहीं किया जा सकता और यही वह चीज़ है जो जलवायु कार्य के लिए वैश्वित जलवायु वित्त की ज़रूरत को रेखांकित करता है.

जलवायु परिवर्तन पर व्यापक सहयोग के लिए अर्थव्यवस्था और वित्तीय बाज़ार के बीच एकीकरण की ज़ररूत है. खासकर विकासशील देशों में. इसके लिए वित्तपोषण, क्षमता निर्माण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में अतिरिक्त सहयोग की ज़रूरत पड़ेगी. तभी विकासशील देश अपनी अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास लक्ष्यों के साथ समझौता किए बिना उत्तरी दुनिया (ग्लोबल नॉर्थ) के साथ कदम मिला सकते हैं. एक निम्न कार्बन वाले भविष्य की ओर बढ़ने के लिए बराबरी और न्यायोचित व्यवस्था की ज़रूरत है. इसके साथ ही राजनीतिक रूप से प्रबुद्ध लोगों निश्चित रूप से एक वैश्विक कार्बन तटस्थ सुधार रणनीति की चुनौतियों को पूरा करना होगा.

 वैश्विक नेताओं की ओर से दर्शायी गई ग्रीन महत्वाकांक्षा केवल तभी लाई जा सकती है जब जलवायु से संबंधित वित्तीय नियमन के मसले पर एक वैश्विक राजनीतिक सहमति बने. वित्तीय नियमन से ही जलवायु के क्षेत्र में कदम उठाए जा सकेंगे. 

जलवायु परिवर्तन के लिए निजी निवेश में जल्द से जल्द जोश भरने की ज़रूरत है. साथ ही इन्हें सरकारी एजेंसियों से भी भरपूर सहयोग मिलना चाहिए. ग्रीन इनोवेशन में निवेश बढ़ाने के लिए नीति और नियामक ढांचे का फोकस जलवायु शमन (mitigation) और अनुकूलन होना चाहिए. इससे आर्थिक रूप से वहन योग्य प्रौद्योगिकियों का उत्पादन और वितरण हो सकेगा. इसके साथ क्षमता बढ़ेगी और जोख़िम कम किया जा सकेगा. इसके बदले सरकारों के पास उद्योग, रोजगार और आर्थिक आउटपुट बढ़ाने के अवसर पैदा होंगे.

एक केंद्रीकृत वैश्विक मंच की आवश्यकता है, जो वित्त पोषण, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षमता निर्माण में देशों के बीच सक्रिय सहयोग को बढ़ावा दे सके. साथ ही एक विकेद्रीकृत प्रक्रिया को भी अपनाने की ज़रूरत है, जिससे कि उप-राष्ट्रीय सरकारें और निकाय जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने की जवाबदेही से साथ स्थानीय लक्ष्य तय करें. एकीकृत संसाधन लामबंदी और विकेंद्रीकृत क्रियान्वयन की दोहरी व्यवस्था जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने में बेहद कारगर साबित हो सकती है.

इसके अलावा ग्राहक, हितधारक और जनता पर्याप्त रूप से जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरूर है और वह ज़्यादा टिकाऊ नीति और तरीके की मांग कर रहे हैं. ऐसे में जलवायु परिवर्तन का मसला लंबे समय तक निजी स्वार्थ के लिए एक छोटे हितधारक समूह का मुद्दा नहीं रह गया है. कंपनियों और निवेशकों द्वारा निवेश को लेकर फैसला लेने में ईएसजी मानकों का ध्यान रखने को लगातार बढ़ावा मिल रहा है. इसे उद्योगों के लिए जलवायु संबंधी खुलासे को बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन सूचना प्रसार को प्रोत्साहित करने में मदद करने के लिए केंद्रीय बैंक द्वारा संचालित जनादेश बनना चाहिए. इस तरह सरकारें जनता की चिंताओं का बेहतर तरीके से ध्यान रखेंगी और वैश्विक स्तर पर जलवायु शमन और अनुकूलन में सक्रिय रूप से योगदान मिलेगा.

fकंपनियों और निवेशकों द्वारा निवेश को लेकर फैसला लेने में ईएसजी मानकों का ध्यान रखने को लगातार बढ़ावा मिल रहा है. इसे उद्योगों के लिए जलवायु संबंधी खुलासे को बढ़ाने और जलवायु परिवर्तन सूचना प्रसार को प्रोत्साहित करने में मदद करने के लिए केंद्रीय बैंक द्वारा संचालित जनादेश बनना चाहिए. इस तरह सरकारें जनता की चिंताओं का बेहतर तरीके से ध्यान रखेंगी और वैश्विक स्तर पर जलवायु शमन और अनुकूलन में सक्रिय रूप से योगदान मिलेगा. 

खासतौर पर जलवायु वित्त को लेकर एक सहमति बनाने के लिए पक्षकारों का 26वां सम्मेलन (The 26th Conference of Parties) यानी कॉप-26 (COP26) एक मौका है. एक हरित सुधार पूंजी के सभी रूपों- भौतिक, मानव, प्राकृतिक और सामाजिक- पर सरकारात्मक असर डालेगी. यदि दुनिया कोविड-19 के ख़िलाफ 17 खरब डॉलर इकट्ठा कर सकती है और सबसे ज़रूरतमंद तक पूंजी पहुंचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे को अपने हिसाब से जोड़ सकती है तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय निश्चित तौर पर जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ लड़ाई के लिए ज़रूरी पूंजी इकट्ठा करने के लिए भू-राजनीतिक सहमति भी बना सकती है. जलवायु कार्य के लिए क्षमता निर्माण में निवेश का विकास में लाभ मिलेगा. इसके बदले एक बेहतर आर्थिक दुनिया बनेगी. इसी संदेश को आगे बढ़ाने और मज़बूती देने की ज़रूरत है.

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Endnotes

[a] Includes the Asian Development Bank (ADB), African Development Bank (AfDB), Asian Infrastructure Investment Bank (AIIB), European Bank for Reconstruction and Development (EBRD), International Bank for Reconstruction and Development (IBRD), and Inter-American Development Bank (IBD).

[c] Such as the Global Reporting Initiative (GRI), Carbon Disclosure Project (CDP), Climate Disclosure Standards Board (CDSB), International Integrated Reporting Council (IIRC), and Sustainability Accounting Standards Board (SASB).

[d] The working group is responsible for overall guidance on global macroeconomic policies, global financial imbalances, and global economic growth. It has been co-chaired by India since its inception.

[1] Delmotte et al. (eds.). Global Warming of 1.5°C. IPCC, 2018. pp 22.d

[2] The Independent Expert Group on Climate Finance. Delivering on the $100 Billion Climate Finance Commitment and Transforming Climate Finance. United Nations, 2020. pp 22.

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[4] The Rockefeller Foundation. Reimagining the Role of Multilateral Development Banks. The Rockefeller Foundation, 2021

[5] Humphrey, Chris, and Annalisa Prizzon. Guarantees for development: A review of multilateral development bank operations. ODI, 2014. pp 27.

[6] The Independent Expert Group on Climate Finance. Delivering on the $100 Billion Climate Finance Commitment and Transforming Climate Finance. United Nations, 2020. pp 22.

[7] G20 Eminent Persons Group on Global Financial Governance. Making the Global Financial System Work For All. Washington DC: Heinrich Böll Stiftung, 2018. pp 39.

[8] G20 Eminent Persons Group on Global Financial Governance. Making the Global Financial System Work For All. Washington DC: Heinrich Böll Stiftung, 2018. pp 39.

[9] Humphrey, Chris. Are Credit Rating Agencies Limiting the Operational Capacity of Multilateral Development Banks? G24, University of Zurich, Intergovernmental Group of Twenty Four, 2015. pp17.

[10] Gottschalk, Ricardo, Lavinia B. Castro, and Jiajun Xu. 2020. Financial regulation of national development banks – NDBs. AFD editions, 2020. pp 14.

[11] TCFD. Task Force on Climate-related Financial Disclosures. TCFD, 2020. pp 68.

[12] TCFD. Task Force on Climate-related Financial Disclosures. TCFD, 2020. pp 13.

[13] Network for Growing the Financial System. Progress report on bridging data gaps. Network for Greening the Financial System Technical document, NGFS, 2021. pp15.

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[18] Urgewald. Groundbreaking Research Reveals the Financiers of the Coal Industry. Embargoed release GCEL finance research. pp 2.

[19] Climate Policy Initiative. “Coal Power Finance in High-Impact Countries.” Energizing Finance Research Series, 2021. pp 11.

[20] FSB. Task Force on Climate-related Financial Disclosures, Status Report, 2020. pp 61

[21] CPP executives, interview over a virtual platform, October 2021.

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