Published on May 24, 2019 Updated 0 Hours ago

कोई भी जनादेश एक ख़ास तरह की राजनीतिक विचारधारा के हाथ में सत्ता देता है. इसका मतलब चीन जैसी तानाशाही बिल्कुल नहीं है, जहाँ देश को एक व्यक्ति या कुछ गिने-चुने लोगों के इशारों पर नचाया जाता है.

आम चुनाव: 2019 के जनादेश की 6 बड़ी बातें

अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का तिरस्कार और राष्ट्रीय सुरक्षा को बड़ा मुद्दा बनाना. 2019 के जनादेश के वो 6 बड़े सबक़ जिन्होंने मोदी को दोबारा सत्ता में पहुँचाने का काम किया है.

 1. उम्मीदवार का अंत आख़िरकार,

2019 का चुनाव दो बड़े उम्मीदवारों के बीच सीधी लड़ाई थी. दो बिल्कुल अलग विचारधाराओं की टक्कर थी. ये चुनाव असल में सियासत के दो बड़े और ताक़तवर ब्रैंड के बीच मुक़ाबला था. एक तरफ़ थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, तो उनके मुक़ाबले में थे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी. ऐसा नहीं है कि इस चुनाव में और बड़े चेहरे नहीं थे. मसलन, यूपी में बीएसपी अध्यक्ष मायावती और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी थे. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख़ ममता बनर्जी भी थीं. ओडिशा में बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल भी इस चुनाव के बड़े चेहरों में से एक थे. लेकिन, 2019 के चुनाव में सबसे ज़्यादा चर्चा नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की हुई. राजनीतिक संवाद और टकराव इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द घूमता रहा

. इस चुनाव में राजनीतिक दल और विचारधाराएं अहम रहीं. नतीजा ये हुआ कि उम्मीदवार अप्रासंगिक हो गए. हालांकि, देश की आज़ादी के बाद के कई चुनाव में भी ऐसा ही देखने को मिला था. देश में एक ही बड़ी पार्टी थी — कांग्रेस. देश की राजनीति पर उसका एकाधिकार था. इस वजह से चुनाव में उम्मीदवारों की कोई ख़ास अहमियत नहीं होती थी. 1960 के दशक के आख़िर में कुछ क्षेत्रीय दल ताक़तवर बनकर उभरे. इन दलों ने कुछ राज्यों में अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की. 1977 में पहली बार देश में गठबंधन सरकार बनी. लेकिन, ये सरकार अपने विरोधाभासों और नेताओं की महत्वाकांक्षाओं की शिकार हो गई. सही मायनों में तो 1991 में शुरू हुए उदारीकरण के बाद देश की राजनीति में नए दल और नेता उभरे. तब से भारत में नेताओं और पार्टियों की तादाद बढ़ती ही चली गई है.

 आज देश में राजनीतिक प्रयोग करने वालों की कमी नहीं है. इसकी सबसे हालिया मिसाल हैं अरविंद केजरीवाल. पर, आज अगर हम एक उम्मीदवार की बात करें, तो वो बस वोट जुटाने की मशीन बन कर रह गए हैं. ये उम्मीदवार सिर्फ़ अपनी पसंद/नापसंद के हिसाब से किसी पार्टी में शामिल होते हैं या उससे अलग होते हैं. लेकिन, बड़ी राजनीतिक तस्वीर में एक उम्मीदवार बेमानी हो चला गया है. हम राजनीति के चेहरों और वोटिंग के बीच संबंध तलाशें, तो एक ही बात दिखती है. आज लोग प्रधानमंत्री पद के लिए वोट दे रहे हैं. आज राजनीतिक दलों के प्रत्याशी चुनावी प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी करने का ज़रिया भर रह गए हैं.

 2. राजनीतिक निरंतरता के 8 प्रमुख स्तंभ मोदी इस बार ज़्यादा बड़े बहुमत से सत्ता में लौटे हैं. जबकि, चुनाव से पहले या इस दौरान मीडिया में बहुत से लोग ये अटकलें लगाते रहे कि उन्हें शायद बहुमत न मिले. इस जनादेश का संदेश यही है कि देश को राजनीतिक स्थिरता चाहिए. इसकी आठ बुनियादी बातें हैं. बीजेपी, कांग्रेस के विकल्प के तौर पर और मज़बूत हुई है. आज वो भारतीय राजनीति में अव्वल पायदान पर खड़ी है. गांधी परिवार की वंशवादी राजनीति को जनता ने पूरी तरह से नकार दिया है. अब लोग किसी ख़ास परिवार के होने की वजह से किसी को प्रधानमंत्री पद का हक़दार मानने को तैयार नहीं. इसके बजाय वो नरेंद्र मोदी जैसे आम परिवार से आने वाले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना चाहते हैं. मोदी की जीत आम जनता की उम्मीदों की जीत है. बीजेपी की दोबारा जीत एक ऐसी पार्टी की जीत है, जिसकी ज़बान हिंदुस्तानी है. जो देसी तरीक़े से राज-पाट चलाती है. पूरी दुनिया में मौजूद भारतीय मूल के लोग उभरते हुए भारत के विचार को गर्व से देखते हैं. उन्हें अपने देश के बढ़ते सम्मान से ख़ुशी मिलती है. राष्ट्रवाद और देशभक्ति की राजनीति का पुनर्जन्म हुआ है. अब राजनीति किसी एक परिवार, समुदाय या क्षेत्र तक सीमित नहीं है. बल्कि अब राजनीति असल में राष्ट्रनीति है. टुकड़े-टुकड़े की सोच अब खंड-खंड में बदल गई है.

इस चुनाव में सबसे बड़ा फैक्टर (संभवत:जिसने चुनाव का गेम बदल दिया) रहा राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा. लोगों ने इस बात को बहुत पसंद किया कि ज़रूरत पड़ने पर भारत अपनी हिफ़ाज़त के लिए सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं हटेगा. सुरक्षा अब राजनीतिक संवाद का अहम हिस्सा बन गई है. (इस पर आगे और विस्तार से चर्चा करेंगे) इस बार विपक्षी दलों ने बेरोज़गारी को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की. इससे जुड़े आंकड़ों पर भी सवाल उठे. लेकिन, नतीजों से एक बात साफ़ है कि कम महंगाई का सियासी अर्थशास्त्र, इस मुद्दे पर भारी पड़ा. यानी महंगाई का मुद्दा ही वोटर को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है. भ्रष्टाचार से बेदाग़, परिवार और दूसरी बाधाओं के बोझ से मुक्त नरेंद्र मोदी इस चुनाव के सबसे बड़े ब्रांड बने रहे और पार्टी को ज़बरदस्त जीत दिलाई. ये सिलसिला 2024 तक जारी रहेगा. 3. वो 6 बातें, जिसके चलते जनता ने राजनीतिक स्थिरता को चुना हम ये सोचते हैं कि केवल कंपनियों और बाज़ार को ही राजनीतिक स्थिरता चाहिए.

 2019 का जनादेश दिखाता है कि भारत के लोकतंत्र की हमारी समझ अधूरी है. देश की आम जनता को भी राजनीतिक स्थिरता चाहिए. मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में देश को आर्थिक सुशासन देने की कोशिश की. इसके लिए उन्होंने देश की जनता से जो संवाद स्थापित करने की कोशिश की, उसके 6 अहम पहलू हैं. प्रधानमंत्री जन-धन योजना से 35.5 करोड़ से ज़्यादा लोगों के बैंक खाते खुले. ये वो लोग थे, जिनकी बैंकों तक पहुंच ही नहीं थी. स्वच्छ भारत मिशन के तहत देश भर में 9.27 करोड़ शौचालय बने. आज देश के 5 लाख 60 हज़ार से ज़्यादा गांव और 617 ज़िले खुले में शौच के श्राप से मुक्त हो चुके हैं. प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना के ज़रिए देश के 10 करोड़ सबसे ग़रीब लोगों को स्वास्थ्य सेवा की सुविधा मिली. इसके पहले 18 लाख लाभार्थी, योजना के ब्रैंड एम्बेस्डर बन गए. ऐसा लगता है कि नोटबंदी का असर जनता के बजाय उनके नाम पर राजनीति करने वालों पर ज़्यादा हुआ. 714 ज़िलों के 7.2 करोड़ घरों को प्रधानमंत्री उज्जवला योजना से घरेलू गैस कनेक्शन मिले. इससे महिलाओं को चूल्हे के धुएं से निजात मिली. प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत 10 करोड़ से ज़्यादा लोगों को 50 हज़ार से लेकर दस लाख़ तक का क़र्ज़ कारोबार शुरू करने के लिए मिला. मोदी सरकार ने इन योजनाओं का ख़ूब प्रचार किया और जनता से लगातार संवाद किया. इसका नतीजा ये हुआ कि सरकार की इन योजनाओं का फ़ायदा पाने वाले लोग, मोदी के राजनीतिक दूत बन गए. स्वच्छ प्रशासन का संदेश इनके ज़रिए दूर-दूर तक पहुंचा. ये उम्मीद की जानी चाहिए कि अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार सुशासन की इन योजनाओं को और तेज़ी से आगे बढ़ाएगी.

 4. अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का दौर ख़त्म हो गया लोकतंत्र में इस बात पर अक्सर आशंका जताई जाती रही है कि बहुसंख्यक वर्ग, अल्पसंख्यकों को दबाकर रखेगा. अल्पसंख्यकों की उम्मीदों का गला घोंट देगा. लेकिन, 2019 के नतीजों ने ऐसी आशंकाओं को निराधार साबित किया है. कोई भी जनादेश एक ख़ास तरह की राजनीतिक विचारधारा के हाथ में सत्ता देता है. इसका ये मतलब नहीं होता कि चीन की तरह किसी एक इंसान या गिने-चुने लोगों की तानाशाही कायम हो जाएगी. किसी भी तजुर्बेकार लोकतांत्रिक देश में क़ानून और संस्थाएं होती हैं, जो अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त करती हैं. अमेरिका इसकी मिसाल है. इसकी तुलना पाकिस्तान या तुर्की से करें, तो वहां के हालात आप को अलग दिखेंगे. भारत में बहुसंख्यकवाद का डर असल में एक हौव्वा था. लगातार ये शोर मचाया जाता रहा कि अल्पसंख्यक, ख़ास तौर से मुसलमान निशाने पर हैं. प्रताड़ित हैं. लेकिन, जनादेश ने इस आरोप को सिरे से नकार दिया है. लिंचिंग का कोई मज़हब नहीं होता. इसके बरक्स वामपंथी सोच वाली बहुसंख्यक विचारधारा को कांग्रेस, वामपंथी दलों और टीएमसी ने बरसों तक पाला-पोसा और राज करने के लिए इस्तेमाल किया. इस ने देश को धार्मिक आधार पर बांट रखा था. आज अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति ने राहुल गांधी को हाशिए पर धकेल दिया है. हालांकि, राहुल गांधी ने मंदिर-मंदिर जाकर ख़ुद को जनेऊधारी ब्राह्मण साबित करने की पुरज़ोर कोशिश की. लेकिन, जनता ने उनके फ़रेब को समझा और नकार दिया. देश ने देखा कि राहुल गांधी ने चुनाव लड़ने के लिए जो दूसरी सीट चुनी वो मुस्लिम बहुल थी. भारत में कभी भी लोग बहुसंख्यक सोच नहीं रही. 2019 के जनादेश ने इस झूठ को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया है.

 5. विपक्ष को नए राजनीतिक मुद्दे तलाशने होंगे विपक्ष को देना तो चाहिए था, नई राजनीतिक सोच का विकल्प..लेकिन, हक़ीक़त में विपक्ष ने पूरी ताक़त सिर्फ़ ‘मोदी हटाओ’ की राजनीति करने में झोंक दी. सही मायनों में विपक्ष ने देश के सामने कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं रखा. देश में बढ़ती मोदी लहर को देखते हुए विपक्षी दलों ने उनके ख़िलाफ़ महागठबंधन बनाने की कोशिश की. कांग्रेस ने न्याय (NYAY) के ज़रिए लोगों को नया लॉलीपॉप पकड़ाने का लालच दिखाया. लेकिन, वो जनता पर कोई असर छोड़ने में नाकाम रहे. अलग-अलग क्षेत्रों, परिवारों और सियासी विचारों के इस घालमेल में टकराव होने तय थे. हालांकि, कुछ लोगों को लगता था कि तमाम दल मिलकर मोदी के ख़िलाफ़ मज़बूत मोर्चा बना लेंगे. लेकिन, विरोधी ख़ेमे में राहुल गांधी से लेकर ममता बनर्जी तक हर पार्टी का नेता प्रधानमंत्री बनने का ख़्वाब ही देखता रह गया. हो सकता है कि नतीजे आने के बाद कोई महागठबंधन बन सकता था. लेकिन, ऐसा तब होता जब विपक्षी दलों को ज़्यादा सीटें मिलतीं. लेकिन, विपक्षी दल सिर्फ़ ‘मोदी हटाओ’ का शोर मचाते रहे. आम जनता को इस शोर में अपने लिए कुछ भी नहीं दिखा. जिस तरह से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने 25 मिनट की मीटिंग में अपनी 25 साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर आपस में गठबंधन कर लिया उससे उत्तर-प्रदेश का वोटर और भ्रमित हो गया. दोनों दलों की सियासी दुश्मनी का इतिहास वोटर के मन में इस गठबंधन के प्रति दुश्मनी में बदल गया. पिछले 25 साल में दोनों दलों के समर्थकों के बीच टकराव की ख़ाई बहुत गहरी हो गई थी. अचानक इस दुश्मनी का नेताओं के स्तर पर ख़ात्मा, ज़मीनी स्तर पर बनी खाई को पाट नहीं सका. लोगों ने इसे सत्ता के लिए लालच के तौर पर देखा. कुल मिलाकर जनता को यूपी में बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्ष का मैदान ख़ाली दिखा. अब जबकि 2019 का जनादेश हमारे सामने है, तो विपक्ष को नई राजनीतिक कहानी गढ़नी होगी. आज देश में ऐसे मज़बूत विपक्ष की कमी है, जो सरकार को क़ाबू में रख सके. परिवार की राजनीति करने वाली पार्टियों का जो बुरा हाल हुआ है, उससे मज़बूत विपक्ष की मांग तेज़ हो गई है. उम्मीद है कि इस मांग का विकल्प अपने-आप उभरेगा. कुछ नए राजनीतिक प्रयोग होंगे. हम ये कह सकते हैं कि विपक्ष के लिए मैदान खुला हुआ है.

6. पुलवामा के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा बड़ा चुनावी मुद्दा बना पुलवामा की त्रासदी से देश शोक़ में डूब गया था. बदले की भावना से पूरा देश एकजुट हो गया. बालाकोट में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई से बदले की वो मांग पूरी हुई. हवाई हमले से पाकिस्तान की एटमी धमकी की हवा भी निकल गई. पिछले कई दशक से भारत इसी धमकी के साये में क़ैद था, उसे आज़ाद हवा में सांस लेना अच्छा लगा. दुनिया ने भी राहत की सांस ली. आम चुनाव से बमुश्किल दो महीने पहले हुई पुलवामा की घटना से साफ़ हो गया था कि मोदी सरकार के पास पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. जब सरकार ने एक्शन लिया, तो ये राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी मुद्दा बन गया. वहीं दूसरी तरह, विपक्षी दलों ने पहले तो बालाकोट के हवाई हमले को मामूली बताने की कोशिश की. फिर, मोदी सरकार से उसका श्रेय छीनने की कोशिश की. फिर विपक्षी दल ये कहने लगे कि ये कोई बड़ी बात नहीं थी. ऐसा पहले भी हुआ था. लेकिन, पहले इसका इतना प्रचार नहीं हुआ. आख़िरकार, विपक्ष ने थक-हार कर इस मुद्दे को हाथ से जाने दिया. लेकिन, ख़ुद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने मोदी को बालाकोट हवाई हमले को चुनावी मुद्दा बनाने का मौक़ा दे दिया. जब इमरान ख़ान ने ये कहा कि — मोदी के दोबारा सत्ता में आने पर दोनों देशों के बीच अमन की संभावना ज़्यादा होगी. इमरान ख़ान के इस बयान के पीछे की पाकिस्तान की मंशा साफ़ थी. वहां की असली सरकार यानी पाकिस्तान की फ़ौज ऐसा ख़ुद चाहती थी. अगर हम पूरी घटना पर सिलसिलेवार ढंग से नज़र डालें, तो साफ़ होता है कि बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद पाकिस्तान की आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली नीति अब उसे बहुत महंगी साबित होने वाली है. पाकिस्तान से समर्थन पाने वाले आतंकी हो सकता है कि फिर हमला करें, भारतीयों की जान लें. लेकिन, अब उन्हें इस बात का डर होगा कि भारत इसका बदला लेगा. आतंकवादी देश पाकिस्तान के लिए ये हक़ीक़त अब एकदम साफ़ हो चुकी है. अब भारत का बदला सिर्फ़ पाकिस्तानी इलाक़े में बमबारी तक सीमित नहीं होगा. बल्कि, भारत उसे ताक़तवर कूटनीति के ज़रिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अलग-थलग कर देगा. भारत की इस रणनीति का ही नतीजा है कि पाकिस्तान के नए आक़ा चीन को ना-नुकुर के बाद भी आख़िरकार मसूद अज़हर को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का समर्थन करना पड़ा. इसका नतीजा ये हुआ कि राष्ट्रीय सुरक्षा इस चुनाव में बड़ा मुद्दा बन गई. अब पाकिस्तान अमन के लिए बेक़रार है. लेकिन, भारत को पाकिस्तान के दिल में छुपे बैर को लेकर सजग रहना होगा. कुल मिलाकर अब राष्ट्रीय सुरक्षा एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन गई है. आगे चलकर इस पर होने वाली चर्चा में ज़्यादा से ज़्यादा नागरिक शामिल होंगे. ये एक सही दिशा में उठा क़दम है. 2019 के जनादेश की अहम बातों की ये फ़ेहरिस्त पूरी नहीं है. हम जैसे-जैसे इस जनादेश को समझेंगे, इसका गहराई से विश्लेषण करेंगे. अलग-अलग राज्यों, क्षेत्रों के जनादेश को समझेंगे. महिला और पुरुष मतदाता, पहली बार वोट देने वालों की पसंद क्या रही, ये जानेंगे. तो इस जनादेश को समझने में हमें और मदद मिलेगी. तब 2019 में मोदी की विराट विजय वाले इस जनादेश के और सबक़ सामने आएंगे. तब हम ये समझ सकेंगे कि 2019 के जनादेश में 2024 के लिए क्या सबक़ छिपे हुए हैं.

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