Author : Satish Misra

Published on May 16, 2019 Updated 0 Hours ago

राजनीतिक संवाद का वर्तमान स्तर समाज में न केवल तनाव को बढ़ा रहा है, बल्कि लोगों का नेताओं से मोहभंग भी कर रही है.

आम चुनाव 2019: मतदान के अंतिम दौर से पहले क्या नेताओं की बहस का गिरता स्तर सुधरेगा?

2019 का आम चुनाव स्वतंत्र भारत में अब तक के सबसे विवादास्पद, घृणापूर्ण एवं कड़वे अनुभवों वाले आम चुनावों में से एक है, जिसमें राजनीतिक दलों द्वारा की जाने वाली चुनावी बहस का स्तर अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच चुका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित विभिन्न राजनीतिक नेताओं द्वारा अशोभनीय निजी हमलों और उसके जवाबी हमलों को सात चरणों में होने वाले चुनावी अभ्यास के पहले छ: चरणों में देखा गया है और बाकी अंतिम चरण में भी इस शर्मनाक प्रवृत्ति के बदलने के आसार नहीं के बराबर है.

हालांकि, इस तरह की गिरावट का संभावित कारण राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए ‘हिंदुत्व’ और गांधी-नेहरू सम्मत उदारवादी ताकतों के बीच चल रही वैचारिक लड़ाई को माना जा सकता है, फिर भी यह चुनाव जिस तरह से हो रहा है वह लोकतांत्रिक राजनीति के भविष्य के लिए गंभीर साबित हो सकता है.

भारत की चुनावी राजनीति में मौजूदा गिरावट के स्तर को समझने के लिए, चुनावी बहसों के दौरान राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा दी जाने वाली गालियां और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के कुछ उदाहरणों को करीब से देखा जाना ज़रूरी है.

पांच साल के दूसरे कार्यकाल के लिए जनादेश प्राप्त करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे प्रधानमंत्री मोदी ने, इसी महीने की चार मई को प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में एक रैली को संबोधित करते हुए कांग्रेस प्रमुख़ राहुल गांधी पर निशाना साधा जिससे कि एक और राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया. प्रधानमंत्री ने कहा कि “आपके पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जिसने ‘मिस्टर क्लीन’ के रूप में अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की, वह भ्रष्टाचारी नं.01 के रूप में मरे.” संभवतः यह राहुल गांधी के उस चुनावी अभियान का मुकाबला करने का प्रधानमंत्री का तरीका है, जिसमें उन्होंने मोदी पर फ्रांस से राफेल जेट लड़ाकू विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार में शामिल होने का आरोप लगाया था और बराबर लगाते चले आ रहे हैं.

भारत की चुनावी राजनीति में मौजूदा गिरावट के स्तर को समझने के लिए, चुनावी बहसों के दौरान राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा दी जाने वाली गालियां और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के कुछ उदाहरणों को करीब से देखा जाना ज़रूरी है.

प्रधानमंत्री मोदी 1980 के मध्य के कथित बोफोर्स अदायगी घोटाले की ओर इशारा कर रहे थे जिसमें स्वर्गीय राजीव गांधी पर रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था. बोफोर्स तोप घोटाला 1989 के आम चुनावों का प्रमुख मुद्दा था जिसमें कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर हो गई थी. लंबी जांच के बाद, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने अदालत में एक आरोप-पत्र दायर किया था जिसमें राजीव गांधी को पैसे लेने के लिए अभियुक्त बनाया गया था.

लंबे समय तक चली अदालती कार्रवाई के बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में पूर्व प्रधानमंत्री को यह कहते हुए क्लीन चिट दे दी थी कि , “जहां तक लोक सेवक राजीव गांधी और एस के भटनागर का संबंध है, 16 साल की लंबी जांच के बाद सीबीआई को इनके खिलाफ़ लेशमात्र भी साक्ष्य नहीं मिल सका जिससे यह साबित किया जा सके कि पूर्व प्रधानमंत्री ने एबी बोफोर्स के पक्ष में अनुबंध देने के लिए रिश्वत या अवैध लाभ को स्वीकार किया था.”

हालांकि, यह अपनी तरह का पहला मामला नहीं था जब मौजूदा प्रधानमंत्री ने लगभग तीन महीने के लंबे चुनावी अभियान के दौरान कोई अभद्र टिप्पणी की है, फिर भी उनके इस बयान पर आपत्ति जताई गई क्योंकि यह एक पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ़ था, जिनकी आतंकवादी संगठन द्वारा हत्या कर दी गई थी.

विपक्षी दलों में से, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सबसे प्रमुख हैं जिन्होंने इस चुनावी तापमान बढ़ाने में एक अहम भूमिका निभाई है. उन्होंने अपने नारे “चौकीदार चोर है,” के माध्यम से भाजपा नेताओं को सामान्य रुप से विपक्ष और विशेष रुप से देश की सबसे पुरानी पार्टी के खिलाफ़ आक्रामक होने का अवसर प्रदान किया है. यह नारा अप्रत्यक्ष तौर पर मोदी की तरफ इशारा करता है, जिस पर कांग्रेस प्रमुख़ ने राफेल सौदे में भ्रष्टाचार करने का आरोप लगाया है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और प्रधानमंत्री के बीच चल रही जुबानी लड़ाई, इस बात का एक सटीक उदाहरण है कि सत्ता पर काबिज़ होने के बावजूद राजनीतिक नेताओं ने राजनीति में गिरते हुए नैतिक स्तर को और भी अधिक गिराने के लिए कितने कुकृत्य किए हैं.

जबकि, प्रधानमंत्री और बीजेपी प्रमुख अमित शाह मिलकर ममता बनर्जी पर सीधा हमला करने के साथ-साथ पश्चिम बंगाल में लोकसभा सीटों में पार्टी की संख्या बढ़ाने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, वहीं प्रदेश की मुख्यमंत्री भी मोदी को अपमानित करने में पीछे नहीं हैं.

बनर्जी ने एक रैली में दर्शकों को संबोधित करते हुए कहा — “देश में आपातकाल जैसी स्थिति है. कोई भी सार्वजनिक रूप से कुछ बोल नहीं सकता है क्योंकि वे उनसे डरते हैं. इस फासीवाद और आतंक को रोकें,” इससे पहले, उन्होंने मोदी के कॉल का जवाब नहीं दिया. मोदी चक्रवात के कारण हुई क्षति का जायजा लेने के लिए राज्य का दौरा करना चाहते थे.

संसदीय लोकतंत्र प्रणाली में, सत्ताधारी दल या सत्ताधारी गठबंधन और विपक्षी दल दोनों ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और दोनों की समान ज़िम्मेदारी है, जिससे कि उनके बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बनीं रहे. जबकि, प्रत्येक राजनीतिक पार्टी का प्रमुख उद्देश्य होता है कि वो सत्ता में बनी रहे या सत्ता हासिल करे.

यह भी उतना ही सच है कि पिछले दो आम चुनावों से चुनावी बहस का स्तर नीचे गिरा है. 1989 के आम चुनावों में जब बोफोर्स घोटाला एक प्रमुख़ मुद्दा था, बीजेपी द्वारा अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले नारों में से एक था —“बोफोर्स के दलालों को, जूते मारो सालों को” (बोफोर्स के बिचौलियों की जूतों से पिटाई की जाए) बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी, जो उस समय के सबसे प्रमुख विपक्षी नेताओं में से एक थे, उन्होंने रायपुर हवाई अड्डे पर उक्त नारे को उठाने के लिए अपने पार्टी के समर्थकों की खिंचाई की और इस प्रकार इस नैतिक पतन को रोकने की दिशा में ईमानदार प्रयास करके एक उदाहरण पेश किया था.

इसके बाद के हर आम चुनाव या राज्य विधानसभा चुनावों में, शामिल किए गए मानदंडों में काफी कमी आई है. राष्ट्रीय राजनीति स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शों से दूर हो गई है और यथार्थपरक एवं आत्मकेंद्रित राजनीति ने इसका स्थान ले लिया है.

जबकि, मोदी, बाकी भारतीय नागरिकों की तरह, अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर हमला करने की अभिव्यक्तिगत स्वतंत्रता रखते हैं. लेकिन, क्या देश के प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें ऐसे किसी अपराध के लिए किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने का अधिकार है, जिसके लिए अदालत ने उसे निर्दोष करार दिया है? यह एक ऐसा नैतिक और मूल्यपरक प्रश्न है जिस पर आज बहस जरुरी है.

संसदीय लोकतंत्र प्रणाली में, सत्ताधारी दल या सत्ताधारी गठबंधन और विपक्षी दल दोनों ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और दोनों की समान ज़िम्मेदारी है, जिससे कि उनके बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बनीं रहे. जबकि, प्रत्येक राजनीतिक पार्टी का प्रमुख उद्देश्य होता है कि वो सत्ता में बनी रहे या सत्ता हासिल करे. परंतु, सत्ताधीन पार्टी से यह विशेष रुप से अपेक्षा की जाती है कि वह बेहतरीन उदाहरण पेश करते हुए देश का नेतृत्व करे.

एक नेता को नेतृत्व करते हुए ऐसे उदाहरणों को पेश करना चाहिए जिसका लोग अनुसरण करें लेकिन दुर्भाग्यवश राजनीतिक संवाद का वर्तमान स्तर समाज में केवल तनाव को बढ़ा रहा है. लोगों की बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा करने में नेता और राजनीतिक दल दोनों ही विफल हो रहें हैं. सुशासन की बढ़ती उम्मीदें राजनीति और लोकतंत्र में लोगों के विश्वास को आघात पहुंचा रही हैं और देशभर में मौजूदा मोहभंग को और व्यापक बना रही है.

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