Published on Apr 21, 2023 Updated 0 Hours ago
जेनेटिक इंजीनियरिंग से तैयार कीड़े: खेती के लिए नुक़सानदायक कीटों से लेकर कीड़ों के युद्ध तक

जनवरी 2023 में केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने पंजाब के मोहाली में नेशनल एग्री-फूड बायोटेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट (NABI) में नेशनल जीनोम एडिटिंग एंड ट्रेनिंग सेंटर (NGETC) का उद्घाटन किया था.

इस संगठन की शुरुआत करने के साथ साथ केंद्रीय मंत्री ने खाद्य एवं पोषण संबंधी सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का भी उद्घाटन किया था. इस सम्मेलन का आयोजन भारत द्वारा खाद्य पदार्थों को पोषक बनाने और सुरक्षा और जीनोम एडिटिंग पर परिचर्चा के लिए किया गया था. सम्मेलन को NABI, सेंटर फॉर इनोवेटिव एंड एप्लाइड बायोप्रॉसेसिंग (CIAB) और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ प्लांट बायोटेक्नोलॉजी ने मिलकर किया था.

इस सम्मेलन का आयोजन भारत द्वारा खाद्य पदार्थों को पोषक बनाने और सुरक्षा और जीनोम एडिटिंग पर परिचर्चा के लिए किया गया था. सम्मेलन को NABI, सेंटर फॉर इनोवेटिव एंड एप्लाइड बायोप्रॉसेसिंग (CIAB) और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ प्लांट बायोटेक्नोलॉजी ने मिलकर किया था.

हाल ही में लाई गई राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी विकास रणनीति के तहत भारत ने NABI जैसे संगठनों की स्थापना और जेनेटिक्स और एपिजेनेटिक्स पर ध्यान केंद्रित किया है. इस तरह अब देश बायोइंजीनियरिंग और जीनोम एडिटिंग पर अधिक ध्यान दे रहा है.

इन कार्यक्रमों के तहत जीनोम एडिटिंग का इस्तेमाल खाद्य पदार्थों को अधिक उपयोगी बनाने के लिए पौधों में बदलाव, जलवायु परिवर्तन का असर कम करने और खाद्य पदार्थों को लचीला बनाने में किया जा रहा है. जीनोम एडिटिंग का एक अहम उपयोग, ज़िंदा जीवों जैसे कि कीड़ों की जैविक बनावट में बदलाव करना है. इसका इस्तेमाल स्वास्थ्य सेवाओं समेत कई क्षेत्रों में किया जा सकता है.

कीड़ों की जेनेटिक इंजीनियरिंग

जेनेटिक इंजीनियरिंग, अनुसंधान का वो क्षेत्र है, जिसमें पौधों से लेकर जानवरों तक सभी जीवों के जीनोम का निर्माण किया जाता है. इंजीनियरिंग का ये स्वरूप, जीवों की जैविक बनावट में हेर-फेर पर निर्भरता है. इसमें ज़िंक फिंगर न्यूक्लिएजेस (ZFN), ट्रांसक्रिप्शनल एक्टिवेटर-लाइक इफेक्टेर न्यूक्लिएजेस (TALEN) और सबसे लोकप्रिय और ज्ञात क्लस्टर ऑफ़ रेगुलेटरी स्पेस्ड शॉर्ट पैलिंड्रोम रिपीट्स (CRISPR) शामिल हैं. ये सब तकनीक जीवों के गुणसूत्रों में बदलाव करने में सक्षम तकनीक के रूप में उभरे हैं, जिनसे जैविक बनावट एक ऐसी भरोसेमंद प्रक्रिया बन गई है, जिसके कई तरह के इस्तेमाल के लिए इस पर बार बार भरोसा किया जा सकता है.

CRISPR की शुरुआत बैक्टीरिया में माहौल के मुताबिक़ अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता में बदलाव के अध्ययन हुई थी. हालांकि, इसके उपयोग और सफलता की दर के चलते बायोइंजीनियरिंग का ये क्षेत्र कीटों जैसे बड़े जीवों पर भी कई बार लागू किया जा चुका है. ये उपयोग केवल जीन के काम करने पर रिसर्च तक ही सीमित नहीं है. बल्कि, व्यावहारिक विज्ञान में भी इसे लागू किया जा रहा है. मतलब ये है कि जैविक बनावट में बदलाव से तैयार किए गए कीड़ों का इस्तेमाल, नुक़सानदेह जीवों की रोकथाम, बीमारियों पर क़ाबू पाने, जैविक प्रभाव और मानवीय प्रभाव के क्षेत्रों में किया जा सकता है.

कीड़ों का युद्ध में प्रयोग

मानवीय दखल का एक और संभावित नतीजा, कीड़ों को युद्ध में इस्तेमाल करने की संभावना हो सकता है. पारंपरिक रूप से इसे कीड़ों के ज़रिए युद्ध कहा जाता है और इसे जैविक युद्ध के मौजूदा परिभाषा के दायरे में ही गिना जाता है.

लगभग एक दशक पहल अमेरिका की डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च एजेंसी (DAPRA) साइबोर्गकीड़ों से जुड़े प्रयोग कर रही थी. प्रयोगशाला में तैयार इन कीड़ों को दूर से नियंत्रित किया जा सकता था और इनका प्रयोग निगरानी करने वाले ड्रोन के रूप में भी हो सकता था. वैसे तो ये परियोजना बाद में रद्द कर दी गई. लेकिन, कीड़ों के ज़रिए युद्ध की संभावनाएं केवल प्रयोगशाला में विकसित उन्नत कीटों तक सीमित नहीं है. चूंकि अब जीवों के गुणसूत्रों में हेर-फेर संभव है. ऐसे में कीड़ों का इस्तेमाल बीमारियों के इलाज के बजाय इन्हें फैलाने के एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने की संभावना वापस गई है.

जैविक बनावट में बदलाव से तैयार किए गए कीड़ों का इस्तेमाल, नुक़सानदेह जीवों की रोकथाम, बीमारियों पर क़ाबू पाने, जैविक प्रभाव और मानवीय प्रभाव के क्षेत्रों में किया जा सकता है.

जैविक हथियारों की संधि (BMC) सूचीबद्ध ज़हरीले तत्वों और कुछ तय वाहकों के व्यापार पर प्रतिबंध लगाकर जैविक हथियारों का इस्तेमाल प्रतिबंधित करती है. इस संधि (BWC) के तहत ज़हरीले तत्वों की एक व्यापक सूची तैयार की गई है, जिसमें ऐसे कीड़े भी आते है, जिनका प्रयोग बीमारियां फैलाने के लिए हो सकता है; इसलिए ये प्रतिबंध कीड़ों के अंतरराष्ट्रीय और पता लगा सकने लायक़ प्रभाव पर भी लागू होता है. हालांकि, ऐसे हथियारों की संभावित प्रकृति के कारण, इसके प्रभाव की एक प्राकृतिक रूप से हुई घटना के रूप में ग़लत ढंग से पहचान भी हो सकती है. इस पहलू पर विचार करना और उसके लिए नियम बनाना अभी बाक़ी है.

इस बिंदु के इर्द-गिर्द पैदा होने वाली चिंताओं पर क़ाबू पाने के लिए अब अनुसंधान ने अपनी दिलचस्पी जैविक युद्ध से हटाकर कीड़ों के जीव विज्ञान से प्रेरणा लेने पर केंद्रित कर दी है, ताकि इनका असैन्य और युद्ध में प्रयोग किया जा सकते. सैन्य हथियार बनाने के लिए कीड़ों को प्रेरणा बनाने से ऐसे आविष्कारों का जन्म हुआ है, जिनका असैन्य इस्तेमाल भी हो सकता है. ये उपयोग अब जेनेटिक ताक़त बढ़ाने या ज़हर के विकास से आगे बढ़कर जैविक प्रेरणा की तरफ़ बढ़ गया है. इसके कुछ उदाहरणों में भंवरे की बाहरी त्वचा से प्रेरित होकर मिश्रित धातु से सैन्य वाहनों में वैसा ही ऊपरी ढांचा बनाना शामिल है, जो गोली को भेदने से रोक देमक्खियों और पतंगों की नक़ल करके छोटे ड्रोन बनाना और निगरानी के नए नए हथियारों का विकास हो रहा है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग

CRISPR तकनीक का उपयोग संभावित युद्ध के अतिरिक्त रिसर्च के कई अन्य क्षेत्रों में भी हो सकता है. इनमें कृषि से लेकर, खाद्य उत्पादन, जैव प्रौद्योगिकी, खाद्य वृद्धि और दवा तक के क्षेत्र सम्मिलित है. हाल ही में रेशम के उत्पादन में आर्थिक फ़ायदे के लिए पतंगों और तितलियों समेत कीड़ों में CRISPR का प्रयोग बढ़ता जा रहा है. इसका प्रयोग कीड़ों के जीनोम में वृद्धि करके खेती के लिए नुक़सान पहुंचाने वाले कीड़ों को प्रभावित किए बग़ैर नुक़सानदेह कीड़ों पर क़ाबू पाने के लिए भी हो रहा है. ख़ास तौर से मच्छरों की जैविक बनावट में बदलाव किया जा रहा है, क्योंकि वो कीड़ों से पैदा होने वाली बीमारियों को निशाना बना सकते है.

ऑक्सीटेक नाम के एक अनुसंधान संस्थान ने मच्छरों के ज़रिए पैदा होने वाली बीमारियों के शिकार इलाक़ों में मच्छरों की आबादी कम करने के लिए जैविक रूप से परिवर्तित मच्छरों का इस्तेमाल करने का सफल परीक्षण कर लिया है. ये उपलब्धि मच्छरों के जीन में बदलाव करके हासिल की गई है, जिससे नर मच्छर, बच्चे पैदा कर पाने लायक़ शुक्राणु का उत्पादन नहीं कर पाते हैं. इससे प्रभावित क्षेत्रों में धीरे-धीरे मच्छरों की तादाद कम होने लगती है. दक्षिण अमेरिका में इस तरह की जीनोम एडिटिंग के परीक्षण के बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी इसका समर्थन किया है. इस सफलता के बाद कीड़ों को डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया की बीमारियों पर क़ाबू पाने के लिए भारत भेजने पर भी विचार चल रहा है.

विश्व मच्छर कार्यक्रम ने अपना विस्तार ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कोलंबिया, फिजी, इंडोनेशिया, किरिबाती, लाओस, मेक्सिको, न्यू कैलेडोनिया, श्रीलंका, वानुआतु और वियतनाम तक कर लिया है और इसके ज़रिए क़ाबू पाई जा रही बीमारियों में पीत ज्वर का नाम भी जुड़ गया है.

दक्षिण अमेरिका में इस तरह की जीनोम एडिटिंग के परीक्षण के बाद, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भी इसका समर्थन किया है. इस सफलता के बाद कीड़ों को डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया की बीमारियों पर क़ाबू पाने के लिए भारत भेजने पर भी विचार चल रहा है.

आर्थिक हितों और दवाओं के क्षेत्र में जैविक इंजीनियरिंग से तैयार कीड़ों की सफलता की दर के बावजूद, अभी भी जीनोम में हेरा-फेरी करके तैयार किए गए जीवों का इस्तेमाल अभी भी विवादास्पद है. जिन कीटों की जैविक बनावट में संशोधन किया गया है, उनके कुछ लाभ तो है. बीमारी फैलने पर दवाओं या कीटनाशकों के ज़रिए इन पर क़ाबू पाने का विकल्प इस्तेमाल करने की तुलना में जैविक संपादन से तैयार कीटों के ज़रिए, वैज्ञानिकों को नतीजों पर अधिक नियंत्रण स्थापित करने में ज़्यादा मदद मिली है. क्योंकि इनके माध्यम से एक ही तरह के कीटों को निशाना बनाया जाता है. इस तरह पारिस्थितिकी में योगदान देने वाले कीटों को नुक़सान नहीं पहुंचता. दूसरा, चूंकि कीड़ों की प्रजनन दर बहुत अधिक होती है, तो जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्रजनन की अनियंत्रित दर पर भी क़ाबू पाया जा सकता है. तीसरा जैविक इंजीनियरिंग से तैयार कीड़ों से ऐसे कीटनाशकों पर निर्भरता कम होती है, जो जल आपूर्ति, पौधों या अन्य उपयोगी कीड़ों और जीवों के लिए ज़हरीले साबित हो सकते हैं. आख़िर में दवाओं के इस्तेमाल में सामाजिक-आर्थिक बाधाएं आती है.1] लेकिन जब हम जैविक इंजीनियरिंग से तैयार कीड़ों को बीमारियों को नियंत्रित करने में इस्तेमाल करते हैं, तो ये बाधा दूर हो जाती है.

वैसे तो ये उपयोग जैविक प्रौद्योगिकी के उपयोग के लिए काफ़ी उम्मीद जगाते हैं. लेकिन, इनसे किसी भी आविष्कार के दोहरे इस्तेमाल का डर भी पैदा होता है और इनके कुछ नुक़सान भी है. इनमें अप्राकृतिक तबादले [2] से पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव शामिल हैं. या फिर ऐसे प्रयोग के अन्य प्रजातियों अप्रत्याशित नकारात्मक परिणाम निकलने की भी आशंकाएं हैं. इस तबादले से पारिस्थितिकी पर ग़ैर इरादतन प्रभाव पड़ सकते हैं, जो अलग अलग तरह से प्रत्यावर्तित हो सकते हैं, जो उस जीव पर निर्भर होंगे, जिसमें इस तकनीक से बदलाव किए गए हैं. इसका एक उदाहरण कीटनाशकों से बच निकलने की क्षमता विकसित होने के रूप में दिख सकता है, जो जैविक रूप से बदले गए जीव जैसे कि रेशम पैदा करने वाले पतंगों से उन जीवों में चला जाए, जिनको कीटनाशकों से मारा जाता है. मसलन, पौधे खाने वाली इल्ली.

जैविक इंजीनियरिंग का दूसरा दुष्प्रभाव ये भी हो सकता है कि इन्हें वापस नहीं लिया जा सकता है. जैविक रूप से परिवर्तित जीव एक बार वातावरण में छोड़ दिए गए, तो इस बदलाव वाले जीवों को वापस ले पाना संभव नहीं होगा, ख़ास तौर से तब और जब ये ज़िंदा जीव कीड़े जैसे छोटे जीव हों, जो अधिक तेज़ी से प्रजनन कर सकते है, और सिर्फ़ एक जगह तक सीमित रहने के बजाय दूर दूर तक सफर करते है. इससे जैविक इंजीनियरिंग से तैयार जीव के किसी नमूने और स्थान को नियंत्रित कर पाने का विकल्प बेहद सीमित होगा. इसके अलावा, स्वास्थ्य की पारंपरिक सेवाओं के उलट ज़िंदा जीवों को वापस नहीं लिया जा सकता. जैसे जिन लोगों को किसी नई दवा की डोज़ दी गई है, उनका रिकॉर्ड रखा जाता है; मगर एक वाहक के तौर पर जैविक बनावट में बदलाव से तैयार कीड़ों को वापस ले पाना नामुमकिन होगा. ये ख़तरा इस हद तक जाता है कि इन कीटों के असर को सटीक संख्या के तौर पर माप पाना भी संभव नहीं होगा.

वैसे तो पूर्व में व्यक्त किए गए नुक़सानों को नकारात्मक बाह्य प्रभाव के दर्जे में रखा जा सकता है और इन्हें अधिक अनुसंधान और निगरानी से नियंत्रित किया जा सकता है. मगर, कीटनाशकों के युद्ध में इस्तेमाल और इसके किसी भी अनियंत्रित नतीजे, जैविक प्रौद्योगिकी के मौजूदा नियमों के दायरे में आते हैं, जिनमें विस्तार करने की आवश्यकता है.

जीनोम एडिटिंग को लेकर भारत का नज़रिया

कीड़ों से युद्ध की चिंताओं को देखते हुए भारत ने जैव सुरक्षा के कार्टागेना प्रोटोकॉल और जैविक युद्ध संधि पर हस्ताक्षर किए हुए है.

इसके अतिरिक्त, कीड़ों और अन्य जीवों की जेनेटिक बनावट में बदलाव करके तैयार किए गए जीवों को लेकर राष्ट्रीय उत्तरदायित्व तय करने के लिए भारत के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) क़ानून के तहत नियम बनाए हैं, जो जैविक परिवर्तन से तैयार किए गए जीवों के निर्माण, इस्तेमाल व्यापार और अनुसंधान पर लागू होते है. इन नियमों में सलाह, निगरानी और नियमन के लिए बनाई गई छह समितियां भी शामिल है. rDNA सलाहकार समिति (RDAC) एक सलाहकार संस्था के तौर पर काम करती है. इसके अलावा नियमन एवं प्रबंधन का काम इंस्टीट्यूशनल बायोसेफ्टी कमेटी (IBSC, रिव्यू कमेटी ऑन जेनेटिक मैनिपुलेशन (RCGM) और जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रेज़ल कमेटी (GEAC) भी है. इसके अतिरिक्त, स्टेट बायोटेक्नोलॉजी को-ऑर्डिनेशन कमेटी (SBCC) और ज़िला स्तरीय समितियां (DLC) भी निगरानी में मदद करती है.

जीनोम परिवर्तन से तैयार जीवों से जुड़े भारतीय नियमों के दायरे में अनुवांशिक और ग़ैर अनुवांशिक बदलाव भी आते हैं, जो यूरोपीय संघ (EU) के देशों के नियमों से भी आगे जाते है. भारत की राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी विकास रणनीति 2012-2025 में भी जीन एडिटिंग के नियमों में सुधार करके इन्हें वैश्विक मानकों के अनुरूप लाने की बात कही गई है, ताकि नई और उभरती हुई जीन एडिटिंग तकनीकों को लागू किया जा सके. हालांकि, अब तक जारी किए गए नियमों का मुख्य केंद्र बिंदु पौधों की जेनेटिक बनावट में बदलाव तक सीमित है और अन्य जीवों पर लागू नहीं होता.

आज जब CRISPR तकनीक विकसित हो रही है और इसके उपयोग के नए क्षेत्र सामने रहे हैं, तो तकनीक के अधिकतम उपयोग और इसकी मौजूदा सीमाओं को आगे बढ़ाने की कोशिशों का भी विस्तार होगा. इस तकनीक का इस्तेमाल करके कीड़ों की जैविक बनावट में कामयाबी से संशोधन पर सावधानी से ध्यान देने की आवश्यकता होगी. इसलिए, इन प्रयोगों से जुड़े नियमों को इनके मौजूदा नुक़सान जैसे कि वापस ले सकने और अनियंत्रित नतीजे निकलने जैसे मौजूदा नुक़सान पर भी डिज़ाइन, मूल्यांकन और उपलब्ध कराने की व्यवस्था को लेकर जागरूकता बढ़ाकर क़ाबू पाना होगा. इसमें उत्परिवर्तन के शिकार उपयोगी जीवों का पता लगाने के लिए पड़ताल करना शामिल होगा.

जोखिम का ये मूल्यांकन करने के बाद जैविक इंजीनियरिंग और जेनेटिक उत्परिवर्तन के साथ साथ मेडिकल दखलंदाज़ी, पारिस्थितिकी पर प्रभाव और सुरक्षा की परिभाषाओं का भी विस्तार करना होगा. आख़िर में, मौजूदा विज्ञान के आधार पर जैविक हेर-फेर से तैयार जीवों का नियमन कैसे होता है, ये बात CRISPR से संशोधित जीवों को पर्यावरण में छोड़ने की भविष्य की संभावनाओं में ज़रूरी भूमिका अदा करेगी.

मौजूदा और संशोधित नियमों के तहत, CRISPR जैसे आविष्कारों और अन्य जैविक तकनीकों से कीटों की वृद्धि ने बहुत से क्षेत्रों पर प्रभाव डालने वाली एक विशाल नई अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है. और, इनका भविष्य आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के जैविक समाधान के लिए अधिक उम्मीद जगाने वाला है.


[1] As insects are released in an area interact with humans indiscriminately and do not depend on who can afford medical treatment.

[2] new genes engineered into the insects may “jump” into other species.

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