Author : Maya Mirchandani

Published on May 13, 2019 Updated 0 Hours ago

साल 2014 में संसद पहुंची एनडीए की सरकार का कुल वोट शेयर सिर्फ़ 31% था, ऐसे में सवाल ये उठता है कि 69% बहुसंख्यक आबादी की कौन सुनेगा?

आम चुनाव 2019: लोकतंत्र बनाम बहुसंख्यकवाद

यदि एक उदार लोकतंत्र में समायी हुई ताकत को इस नज़रिए से आंका जाता है कि वहां समालोचना एवं असंतोष व्यक्त करने की कितनी आजादी है, और वहां के सभी नागरिकों को, चाहे वे किसी भी जाति या पंथ के हों अथवा महिला या पुरुष हों आख़िरकार कितनी सुरक्षा मिली हुई है, तो उस लिहाज़ से भारतीय लोकतंत्र निश्चित रूप से इस समय एक खतरनाक मोड़ पर है.

मामला, चाहे अपने साथी को चुनने के लिए केरल की एक युवा लड़की के अधिकार का था या फ़िर 12वीं शताब्‍दी में एक राजपूत रानी से एक मुस्लिम आक्रमणकारी के मोह का चित्रण करने वाली फि‍ल्‍म को थिएटरों में दिखाना सुनिश्चित करने का था; चाहे भारत की ग़रीब से ग़रीब जनता के पक्ष में आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का मसला हो, या एक विश्वविद्यालय परिसर की सुरक्षा को लेकर सरकार से सवाल करने वाले विद्यार्थियों का मामला था; चाहे वह मवेशी व्यापारियों, जो आमतौर पर या तो मुसलमान होते हैं, या गायों के शवों से हमें मुक्ति दिलाने वाले दलित, जिनकी पीट-पीट कर हत्या करने वाले गौ-रक्षा दलों को दंड मुक्ति के लिए मिली सामाजिक स्वीकृति के खिलाफ़ बोलने का मामला था; अथवा देश के नागरिकों को व्यक्तिगत निजता के अधिकार से वंचित करने के सरकारी प्रयासों पर लगाम लगाने का मामला था, इन सभी मामलों में पिछले पाँच वर्षों के दौरान अनगिनत आम भारतीयों को यह मांग करते देखा गया है कि उनके लोकतांत्रिक, संवैधानिक अधिकारों को एक सत्तावादी सरकार और एक जटिल सरकारी मशीनरी से सुरक्षा मुहैय्या करायी जाए.

हो सकता है कि कुछ लोग ये दलील दें कि यह कोई नई बात तो नहीं है. मोदी सरकार बनने से पहले भी तो धर्म, जाति, वर्ग और महिला-पुरुष के आधार पर भेदभाव बदस्तूर हो रहे हैं. दरअसल, जब धर्मनिरपेक्ष सरकारों के हाथों में देश की बागडोर थी, तब भी इसी तरह का माहौल था. वे ये भी दलील देंगे कि राजद्रोह एवं अवमानना से निपटने वाले कानूनों का व्यापक दुरूपयोग एक के बाद एक कई सरकारों द्वारा किया गया है, चाहे वे सरकारें किसी भी राजनीतिक दल की हों. इसके साथ ही एक और दलील यह दी जाएगी कि सरकार ने भले ही अलग-अलग साधनों का उपयोग किया होगा, लेकिन उसने सदैव ही सुरक्षा के नाम पर अपने नागरिकों की जासूसी करने की कोशिश की है.

अत: ऐसे में यह सवाल जेहन में उठना लाजिमी ही है कि ये पांच वर्ष आख़िरकार किस तरह से एकदम अलग हैं? शायद यह एक ऐसे अधिनायकवादी राजनेता का आगमन है जो ख़ुद को बड़ी ही साफ़गोई से एक तुच्छ सेवक एवं एक प्रजानायक मसीहा दोनों ही रूपों में पूरी तरह से खुलकर प्रस्तुत करता है.

इसके साथ ही वो अपने फायदे के लिए खंडित राजनीति का भरपूर इस्तेमाल भी करते हैं. हो सकता है कि ये सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच का ही नतीजा है कि इसके ज़रिए नफ़रत भरे एवं विभाजनकारी माहौल को ‘भड़कने के लिए ज़रूरी ऑक्सीजन’[i] मिलती है और ऐसे में कोई भी अफवाह एवं भ्रामक सूचना बिना संपादकीय अंकुश के ही चारों ओर बड़ी तेज़ी से फैल जाती है, जबकि एक समय ऐसा था कि कोई भी संभावित भड़काऊ सूचना पूरी संपादकीय कांट-छांट के बाद ही आम लोगों तक पहुंच पाती थी.

इसकी एक और वजह ये कड़वी सच्चाई भी हो सकती है कि उदार लोकतंत्र के मायने ही अब बदल दिए गए हैं और यह ‘बहुसंख्यकवाद राजनीति’ पर आम जनता की मुहर का पर्याय बन गया है. आख़िरकार, यदि लोकतंत्र बहुमत की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है, तो ये ही उनके चुने हुए प्रतिनिधि हैं.[ii] इन सारे सवालों का जवाब काफ़ी जटिल है और ये सरकारी ताक़त के इस्तेमाल, आम जनता की सोच में जानबूझकर बदलाव लाने, लोक-लुभावन राजनीति का ढोल पीटे जाने और मीडिया द्वारा डाले जा रहे प्रभाव के सावधानीपूर्वक आकलन में छिपा हुआ है.

किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली में कई हिस्से समाहित होते हैं. लोकतंत्र के अपने सबसे बुनियादी रूप में सभी नागरिकों की समानता और व्यापक समावेशी नागरिकता बहुत ही ज़रूरी होता है. वैसे तो यह ‘प्रतिनिधि राजनीति’ के मूल सिद्धांत पर काम करता है, लेकिन बहुमतवाद और उदार लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के बीच समुचित संतुलन, संवैधानिक सिद्धांत, कानून के शासन, मानवाधिकारों की रक्षा, अभिव्यक्ति, किसी जगह इकट्टा होने एवं धार्मिक प्रथा की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी और भेदभाव से मुक्ति के ज़रिए ही स्थापित हो पाता है. फि‍र भी, पिछले पाँच वर्ष अल्पसंख्यकों, विपक्षी राजनेताओं, शेष बचे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मीडिया और उन असंख्य उदार नागरिकों की इन स्वतंत्रताओं पर बार-बार हमले किए जाने के गवाह हैं, जिन्होंने नफ़रत और विभाजनकारी भाषा के खिलाफ़ आवाज उठाई है. सार्वजनिक मंचों पर सम्मानित नागरिकों के बीच होने वाली बहस का स्थान अब हर रोज़ सोशल एवं मुख्य़धारा की मीडिया, विशेषकर समाचार या न्यूज़ टीवी चैनलों पर होने वाली फूहड़ एवं अपमानजनक चर्चाओं ने ले ली है. इतिहासकार मुकुल केसवन[iii] दलील देते हैं कि — सियासी बहुसंख्यकवाद एक ‘सर्वोच्चतावादी परियोजना’ का दूसरा नाम है, जो जातीय या धार्मिक बहुसंख्यकों को देश के वास्तविक मालिकों के रूप में परिभाषित करता है. जो इस वर्ग में शामिल नहीं हैं वे सभी, चाहे वे राजनीतिक दल हीं क्यों न हों जिनका जनादेश या तो अल्पसंख्यकों के समर्थन पर निर्भर हैं या जो कमोबेश समान आधारों पर प्रतिस्पर्धा करने के लिए उन्हें अदृश्य बना रहे हैं, महज़ दूसरे दर्जे के नागरिक हैं. अपनी नीतियों, रणनीतियों और युक्ति की आलोचना करने वालों से संवाद करने की मोदी सरकार की अनिच्छा, पिछले पांच सालों की एक विशिष्टता बन गई है. तीख़ी प्रतिक्रियाएं विभिन्न सवालों से ध्यान हटाती हैं और इसके बजाय सवाल करने वालों को निशाना बनाती हैं. संविधान के सिद्धांतों और कानून के शासन दोनों को ही बनाए रखने के लिए अक्सर देश के सर्वोच्च न्यायालय से हस्तक्षेप करने की गुज़ारिश की जाती है.

विलियम गैल्सटॉन[iv] ने उदार लोकतंत्रों को मिलने वाली आंतरिक चुनौतियों के बारे में दमदार दलील देते हुए कहा है कि, यह चुनौती लोकलुभावन सियासी राजनेताओं की ओर से मिल रही है जो आम बहुसंख्यक नागरिकों के मन में लोकतंत्र और उदारवाद के विचारों की अलग व्याख़्या कर, उन्हें एक-दूसरे से अलग-थलग करने की कोशिश में रहते हैं. ये लोग उत्पीड़न और अलग-थलग किए जाने से जुड़े बयानों को हवा देकर उसे बहुसंख्यक आबादी की ‘रीति-रिवाजों और धर्म से मेल न खाने वाला परिपाटी साबित करना चाहते हैं. ऐसा करते हुए वे सांस्कृतिक उदारवाद के प्रसार के साथ लोकतांत्रिक मानकों को भी भ्रमित करते हैं. इस भ्रम का इस्तेमाल यह समझाने के लिए किया जाता है कि अन्य लाभार्थी समूहों की कीमत पर उन्हें समृद्धि से किस तरह वंचित किया जा रहा है.

लेकिन भारत भी कई हिस्सों का समूह है. भारत में 1.4 अरब की बड़ी आबादी है जिनमें से 60 प्रतिशत से अधिक लोग 15 से 59 वर्ष की आयु के हैं. यह कामकाजी लोगों की आबादी है जिसे भारत को ‘आबादी के मामले में मिली बढ़त’ के रूप में भी जाना जाता है.[v] इनसे यह उम्मीद की जाती है कि ये देश को नई आर्थिक ऊंचाइयों पर ले जाएंगे. वैसे तो यह साल 2060 तक की पाँच दशकों की लंबी अवधि के लिए एक दीर्घकालिक अनुमान हो सकता है, लेकिन फ़िलहाल इनमें से ज्य़ादातर लोग, जो साक्षर तो हैं, पर यह जरूरी नहीं कि शिक्षित भी हों और जो कठिन दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्था में नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वे ही असल में ‘बहुसंख्यसकवाद राजनीति’ की रीढ़ हैं जो ‘उदारवादियों’ पर हो रहे हमले के बीच हिंदू पुन: उत्थान या नवजागरणवाद पर फलती-फूलती है. साल 2014 में मोदी के विकास एवं समृद्धि के ‘अच्छे दिन’ वाले वादे ने लोगों में बे‍हतर भविष्य की उम्मीदें जगाईं और इसके साथ ही उन्हें वोट देकर सत्ता में लाने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया. लेकिन वादे धरे के धरे रह जाते हैं और इस बारे में सवाल करने पर सरकार की ओर से तीख़ी एवं शत्रुतापूर्ण प्रतिक्रियाएं भी आती हैं. इतना ही नहीं, एनएसएसओ द्वारा इकट्ठा किए गए अब तक मूल्यवान एवं विश्वसनीय समझे जाने वाले उस डेटा को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया गया है जिसमें साल 2019 की शुरूआत में भारत में रोजगार सृजन के 45 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर रहने का संकेत दिया गया था.[vi] ऐसे समय में जब रोज़गार मुश्किल से मिलता हो, अर्थव्यवस्था डगमगा रही हो, किसान मुश्किलों से जूझ रहे हों और अमीरों एवं गरीबों तथा गांवों व शहरों के बीच की खाई पाटना काफ़ी कठिन हो, तब पहचान के आधार पर लोगों को रैली में शामिल होने के लिए प्रेरित करके, उत्पीड़न की भावना को भड़का कर और एक लक्ष्य की पहचान कर उस पर खूब गुस्सा निकाल कर यदि मतदाताओं का ध्यान वास्तविक मुद्दों से भटका दिया जाए तो इससे बेहतर ख़्याल क्या हो सकता है.

नफ़रत और ध्रुवीकरण के लिए दुश्मन की आवश्यकता होती है. वैसे तो कई जाति और धार्मिक समूहों को नौकरियों एवं उच्च शिक्षा में सरकारी कोटा मिलता है, लेकिन तक़रीबन 180 मिलियन भारतीय मुसलमानों को जो दिया गया उस पर राजनीतिक दृष्टि से तिकड़मी उन हिंदू नेताओं का ध्यान केंद्रित हो गया, जो ख़ासकर उच्च जाति की हिंदू बहुसंख्यक आबादी की सरकारी ‘उपेक्षा’ के खिलाफ़ लामबंद हो रहे हैं. भाजपा ने इसका मुकाबला करने के लिए वर्ग/आय के आधार पर कोटा देने की पेशकश की है, भले ही इसने सामाजिक दृष्टि से और भी अधिक विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को ही आरक्षण देने का रास्ता साफ़ कर दिया हो. नफरत एवं ध्रुवीकरण के लिए ईधन की जरूरत पड़ती है जो पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ राजनेताओं द्वारा दी जाती है. ये राजनेता लोकलुभावन बयानबाज़ी के ज़रिए लोगों के गुस्से एवं आक्रोश का लाभ उठाते हैं, अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ मौजूदा पूर्वाग्रहों की पुष्टि करते हैं और इन अवधारणाओं को हवा देते हैं कि उन्हें यानि मुसलमानों को बहुत ‘लाड़-प्यार’[vii] किया जाता है. नफरत और ध्रुवीकरण के लिए तैयार समर्थकों की फौज की जरूरत पड़ती है. भारत को आबादी के मामले में मिल रही बढ़त उनके नियंत्रण में है. नफरत और ध्रुवीकरण के लिए एक वाहन या माध्यम की जरूरत पड़ती है. झूठी सूचनाओं और राय को खबरों के रूप में फैलाने के लिए मक्कार नेताओं द्वारा बग़ैर छानबीन की सुविधा वाले जिस सोशल मीडिया का उपयोग किया जाता है उसे फैक्ट जांचने वाले विशेषज्ञ बार-बार ख़ारिज करते हैं.

जो भी व्यक्ति झूठी सूचनाओं को ख़ारिज करता है उसे चारों तरफ़ घेरकर लगातार परेशान किया जाता है — फ़िर चाहे वो कोई मुख़र पत्रकार हो, सेवानिवृत्तक नौकरशाह हों या सिविल सोसायटी से जुड़े लोग हों. इन हमलों को उन फॉलोअर्स के एक वफ़ादार नेटवर्क द्वारा और तेज़ कर दिया जाता है, जो सामान्य नागरिकों, सरकार एवं समाज और मुख़्यधारा की मीडिया के बीच जो कुछ भी बची-खुची आपसी विश्वास है उसे ध्वस्त करने के लिए लामबंद किया जाता है. कानूनी नोटिसों के साथ-साथ सरकार या राजनेताओं द्वारा दर्ज किए गए मानहानि के मामले ऐसे कुछ लोगों की मुश्किलें बढ़ा देते हैं, जो सरकार से उसके कामकाज का हिसाब मांगने का काम निरंतर जारी रखते हैं. लगाए गए आरोपों का सामना करने के लिए वे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष प्रेस का मुंह बंद करने या डराने की कोशिश करते हैं. इसके अलावा ऐसे ‘मित्र’ पत्रकारों को साक्षात्कार दिए जाते हैं, जो या तो वास्तव में सरकार के बताए रास्ते पर ही चलते हैं या अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर होते हैं. चेरियन जॉर्ज[viii] ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि नफ़रत भरे भाषणों का मुख्य उद्देश्य तब पूरा हो जाता है जब उसके जन-समर्थन आधार बढ़ जाता है, विभाजनकारी माहौल बन जाता है और लोगों को किसी विशेष राजनीतिक एजेंडे के पक्ष में लामबंद कर दिया जाता है. इस बीच, घटनाएं जब घटित होती हैं तो मीडिया उनकी रिपोर्टिंग के समय सजग हो जाता है, अन्यथा वे अनजाने में उन राजनेताओं के एक वाहन या माध्यम के रूप में अपनी सेवाएं देने लगते हैं जो पहचान की राजनीति के लिए एक साधन के रूप में नफ़रत भरे भाषणों का इस्तेमाल करते हैं. इस प्रक्रिया में मीडिया अक्सर शातिराना ढंग से गढ़े हुए नफ़रत से भरे भाषणों को समझने में चूक कर जाता है. इस तरह की चूक विशेषकर तब होती है जब नफ़रत से लैस भाषण और स्वच्छंद भाषण के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है. विभाजनकारी राजनेता पूर्वाग्रह को भड़काने, भ्रम पैदा करने और लोगों की अज्ञानता से लाभ उठाने के लिए मीडिया का इस्ते्माल करते हैं.

मुसलमानों के खिलाफ़ बार-बार मिले संकेत और भारत में या दुनिया में कहीं भी बहुसंख्यकों के साथ उनकी ‘मिल-जुलकर रहने में असमर्थता’ को कई तरीकों से यहां-वहां फैलाया जाता है. विशेषकर पुलवामा हमले के मद्देनज़र भारत के खिलाफ़ पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से जुड़ी तर्कसंगत बातचीत को घातक रूप से नया मोड़ दे दिया जाता है, ताकि भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाए जा सकें. बंगलुरू में चल रहे एक बेकरी फ्रेंचाईज़ी के मालिक जो मूल रूप से सिंधी हैं और विभाचन के दौरान पाकिस्तान छोड़ भारत में आ बस गए थे,[ix] जिनकी दुकान के नाम में पाकिस्तान के एक शहर का नाम जुड़ा है, उस दुकान में तोड़-फोड़ की गई, जिससे इस आउटलेट को अपने साइन बोर्ड को ढंकने के लिए मजबूर होना पड़ा. गोहत्या पर पीट-पीट कर हत्या करने एवं ‘सार्वजनिक अव्यवस्था’ फैलने की बढ़ती घटनाएं, ‘तीन तलाक’ को खत्म करने के लिए समर्थन जुटाना और इसके साथ ही उस पितृसत्ता एवं हिंसा की अनदेखी करना जिस वजह से विवाह करने वाली हिंदू महिलाओं को काफी ज़ुल्म सहना पड़ता है, दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी होने पर भारी बवाल मचाया जाना, ईसाइयों पर धर्मांतरण विरोधी हमले करना, सांप्रदायिक सद्भाव की बातें करने वालों पर ‘आतंकवादियों से सहानुभूति’ रखने का आरोप लगाना, म्यांमार से भागकर आए रोहिंग्या शरणार्थियों की दुर्दशा के बारे में व्यापक राष्ट्रवादी बयानबाज़ी करना और संघर्ष-ग्रस्त कश्मीर घाटी के नागरिकों से जुड़े मानवाधिकार उल्लंघन के बारे में कोई भी वार्ता करने से पूरी तरह इनकार करना इसके स्पष्ट उदाहरण है.

जैसे ही चुनाव अभियान ने ज़ोर पकड़ा, प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक जिसमें मुसलमानों को छोड़ कर, दूसरे देशों में प्रताड़ित किए गए सभी धार्मिक समूहों को भारत में शरण देने की बात कही गई है, या भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा सभी बांग्लादेशी अप्रवासियों को भारत में दीमक के रूप में बार-बार संदर्भित किया जाना, एक वर्तमान राज्यपाल द्वारा सभी कश्मीरी मुसलमानों के खुले बहिष्कार के लिए चिंताजनक आह्वान करना — ये सभी देश के भीतर दुश्मन के मौजूद होने, जैसा माहौल विकसित होने जैसा होता जा रहा है. इसे जानबूझकर फैलने दिया गया और इसपर अपने विचार व्यक्त करने में प्रधानमंत्री को एक सप्ताह का लंबा समय लगा. किसी भी घटना को मंजूरी दिए जाने के रूप में चुप्पी ओढ़ लेना इस सरकार की एक विशिष्टता रही है. दरअसल, चुप्पी से लोगों के बीच यह संदेश जाता है कि कट्टरता, संविधान पर सवाल उठाना और कलह़ फैलाना जायज़ है, स्वीकार्य है. नफ़रत की भाषा को सामान्य, यहां तक कि तर्कसंगत भी मान लिया गया है. आखिरकार, लव-जिहाद शब्द किसने ईजाद किया? आज ज्य़ादातर लोग बड़ी आसानी से इसकी तथाकथित परिभाषा प्रस्तुत कर देंगे. ‘एंटी-रोमियो’ स्क्वॉड, जो महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर एक चुनावी वादा रहा है, अविवाहित जोड़ों, ख़ासकर यदि वे विभिन्न धर्मों या जातियों के हों उनका उत्पीड़न किया जाता है. उत्तर प्रदेश में चुनावों के दौरान एक और मुद्दे ने तूल पकड़ा — कि हर गांव और कस्बे में उसी तरह से हिंदू श्मशान घाट भी होने चाहिए, जिस तरह से मुस्लिम कब्रिस्तान होते हैं, या लोगों को दीपावली पर भी बिजली अवश्य मिलनी चाहिए, न कि केवल रमज़ान के दौरान ही मिले. वैसे तो इन दोनों ही बयानों में सतही तौर पर कुछ भी समस्याग्रस्त नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों बयानों में समानता के नाम पर मुस्लिम बनाम हिंदू का मसला उठाया गया है.

यह पूछना कि क्या भारतीय लोकतंत्र खतरे में है,[x] वाकई असंगत लग सकता है क्योंकि यहां 900 मिलियन मतदाता सबसे बड़े लोकतांत्रिक चुनाव में भाग लेते हैं. हालांकि, यह एक ऐसा सवाल है जिस पर व्यापक चिंतन करने की ज़रूरत है क्योंकि विशेषकर कई बीजेपी नेता सार्वजनिक रूप से संविधान की धर्मनिरपेक्षता को कम आंकने की कोशिश करते हैं. साल 2014 में संसद में कुल वोट शेयर के 31 प्रतिशत और 282 सीटों के साथ प्रवेश करने वाली मोदी सरकार भारत की ‘पसंदीदा प्रत्याशी या पार्टी की स्पष्ट जीत वाली लोकतांत्रिक प्रणाली’ के भीतर के टकराव को दर्शाती है. यह एक ऐसा टकराव है जो कई सवाल पैदा करता है — आख़िर, उन अन्य 70 प्रतिशत के बारे में क्या सोच है, जो एक साथ मिलकर भारतीयों की अपेक्षाकृत अधिक बहुमत को दर्शाते हैं?[xi] एक प्रतिनिधि लोकतंत्र के बिना क्या इस तरह की सरकार वास्तव में अपनी देश के सभी नागरिकों की, सही प्रतिनिधि होने का दावा कर सकती है? यदि प्रतिनिधित्ववादी समता ही लोकलुभावन राजनेताओं, (जो एक सार्थक बहुमत के बिना ही बहुसंख्यकवाद की भावना को भड़काने का काम कर रहे हैं), उनसे उदार लोकतंत्र की रक्षा करने का एकमात्र तरीका है, तो क्या ऐसे में चुनावी खेल के नियमों को अब जाकर बदलने की मांग करने की दृष्टि से बहुत देर हो चुकी है?

अब तक भारत की अदालतें ही इस प्रतिनिधित्व की एकमात्र सुदृढ़ प्रभारी या रखवाला साबित होती आयी हैं. वैसे तो उच्चतम न्यायपालिका ने निजता के अधिकार, पूजा करने के अधिकार, स्वतंत्र रूप से प्रेम करने के अधिकार पर अपने हालिया निर्णयों के ज़रिए अधिकारों से जुड़ी हमारी धारणाओं का विस्तार किया है और कानून के शासन की प्रधानता को बरकरार रखा है, लेकिन भारत एक अनिश्चित मोड़ पर है. बेशक हमारी लोकतांत्रिक संरचनाएं मजबूत हो सकती हैं,[xii] लेकिन क्या हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में भी ठीक ऐसा ही कहा जा सकता है? शायद यही सबसे बड़ा सवाल है जिसे हम नागरिकों को अवश्‍य पूछना चाहिए और इसका जवाब भी हमें मिलना चाहिए क्योंकि हम अब आम चुनाव 2019 के नतीजों का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.[xiii]

है? शायद यही सबसे बड़ा सवाल है जिसे हम नागरिकों को अवश्यी पूछना चाहिए और इसका जवाब भी देना चाहिए क्योंकि हम अब आम चुनाव 2019 के नतीजों का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.


[i] Phillips, Whitney; The Oxygen of Amplification: Better Practices for Reporting on Extremists, Antagonists and Manipulators; Datasociety.net. 22 May 2018.

[ii] Galston, William; The Populist Challenge to Liberal Democracy; Journal Of Democracy. April 2018, Volume 29, Number 2, Brookings.

[iii] Kesavan, Mukul; False citizens: What does a nation do with a minority that it cannot purge?The Telegraph, 28 April 2019.

[iv] Galston, William; The Populist Challenge to Liberal DemocracyJournal Of Democracy. April 2018, Volume 29, Number 2, Brookings.

[v] Singh, Devender; India’s demographic dividend will play out over a longer span; LiveMint, 11 January 2019.

[vi] Jha, Somesh; Unemployment rate at 4 decade high at 6.1% in 2017-18: NSSO Survey; Business Standard, 6 February 2019.

[vii] Pai, Sudha & Kumar, Sajjan; Everyday Communalism; Oxford University Press, 2018.

[viii] George, Cherian; Hate Spin; MIT Press. 2016.

[ix] Bhat, Prajwal; Karachi Bakery in Bengaluru forced to cover name board after mob demands change in name; The News Minute; 23 February 2019.

[x] Dey, Sankalital; Amit Shah’s ‘termite’ jibe: Human Rights Watch draws Nazi Germany, Rwanda parallel; ThePrint.in; 26 September 2018.

[xi] Bhattacharjee, Purbasha; Kashmiris are Also Indians: Meghalaya Reminds Governor Tathagata Roy After Boycott Call; News18; 20 February 2019.

[xii] Lakshmi, Rama; The Modi playbook: Delay in PM condemning attacks on Kashmiris is part of a pattern; ThePrint.in, 24 February 2019.

[xiii] Editorial, PM Modi’s graveyard remark in Fatehpur is unfortunate; Indian Express, 21 February 2017.

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