Published on Aug 25, 2021 Updated 0 Hours ago

ये राहत की बात है कि दुनिया में निवास करने के लिए सबसे अयोग्य 10 शहरों में भारत का कोई शहर शामिल नहीं है. वैसे हमारे देश के महानगरों में रहने वाले लोगों को ये लग सकता है कि 2022 का इंडेक्स सामने आने तक कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी.

राजनीतिक और आर्थिक तौर पर घिसी-पिटी सोच के शिकार हैं ‘भारत के शहर’

किसी शहर की मानवीय जीवन जीने के लायक होने की योग्यता पिछले 18 महीनों में काफ़ी हद तक वहां कोविड-19 वायरस की मार से प्रभावित हुई है. फ़रवरी में हुए द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) के सालाना सर्वेक्षण “द लिवेबिलिटी इंडेक्स”  में शहरों की रैंकिंग के सिलसिले में महामारी के प्रभावों पर ज़ोर दिया गया है. हालांकि, ये राहत की बात है कि दुनिया में निवास करने के लिए सबसे अयोग्य 10 शहरों में भारत का कोई शहर शामिल नहीं है. वैसे हमारे देश के महानगरों में रहने वाले लोगों को ये लग सकता है कि 2022 का इंडेक्स सामने आने तक कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी.

जैसा कि पहले से ही ज़ाहिर था सूची के टॉप 10 शहरों में भी भारत का कोई शहर शामिल नहीं है. इसमें चौंकाने वाली बात ये है कि चीन का भी कोई शहर शीर्ष के 10 शहरों में स्थान नहीं बना सका है. ग़ौरतलब है कि चीन आज दुनिया की सबसे आक्रामक ताक़त है और बाक़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए मिसाल बन गया है. जीवन की गुणवत्ता से जुड़े संकेतक- जिनमें नागरिकों और प्रेस की आज़ादी शामिल है- चीनी सत्ता और राजनीतिक ढांचे को दर्शाते हैं. ये तमाम संकेतक मुक्त उदारवाद के प्रति इकोनॉमिस्ट के झुकाव के ठीक विपरीत हैं. शायद चीन के किसी भी शहर को इस इंडेक्स में स्थान न मिलना इसी का नतीजा है. बहरहाल भारत के शहरों (जो भारत के उदारवादी लोकतंत्र का नतीजा हैं) को निवास के लिहाज़ से सबसे सस्ते शहरों के हिसाब से ही इंडेक्स में जगह मिली है. भारतीय शहरों को ये रैंकिंग ईआईयू की “कॉस्ट ऑफ़ लिविंग इंडेक्स” 2019 में हासिल हुई है.

जैसा कि पहले से ही ज़ाहिर था सूची के टॉप 10 शहरों में भी भारत का कोई शहर शामिल नहीं है. इसमें चौंकाने वाली बात ये है कि चीन का भी कोई शहर शीर्ष के 10 शहरों में स्थान नहीं बना सका है. ग़ौरतलब है कि चीन आज दुनिया की सबसे आक्रामक ताक़त है और बाक़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए मिसाल बन गया है. 

शहरों की गलियां सुनहरी नहीं है

10 लाख से ज़्यादा आबादी वाले (2011-12 की जनगणना के हिसाब से) भारत के 53 सबसे बड़े महानगरों की समस्याएं भी वित्तीय संसाधनों की कमी से कहीं आगे की हैं. ग़ौरतलब है कि इन शहरों में भारत की कुल 32 प्रतिशत आबादी (2011-12) निवास करती है, जबकि देश की जीडीपी का 53 से 63 प्रतिशत हिस्सा यहीं पैदा होता है. ऐसे में वित्तीय बाधाएं समझ से परे हैं. भारत सरकार के स्तर पर जीडीपी में शहरों के हिस्से पर निगरानी रखने की कोशिशें लगातार जारी हैं. शहरों की औसत प्रति व्यक्ति आय गांवों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है. यही वजह है कि ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी इलाक़ों से प्रवासियों की भीड़ रोज़गार, मेडिकल सुविधाओं और बेहतर शिक्षा से जुड़े अवसरों की तलाश में शहरों की ओर पलायन करती है.

इसके नतीजे के तौर पर सस्ते प्रवासी मज़दूरों की आपूर्ति के मिश्रित परिणाम सामने आते हैं. दूसरे शब्दों में ये वरदान के साथ-साथ अभिशाप भी है. दरअसल, शहरों में लगातार बढ़ती भीड़ तक ज़रूरी सार्वजनिक सुविधाएं पहुंचाने में शहरों के संसाधन हमेशा कम पड़ जाते हैं. दिल्ली के मास्टर प्लान 2041 के मसौदे के मुताबिक योजनाबद्ध तरीक़े से बसाए गए शहर के इलाक़ों में यहां के 85 फ़ीसदी निवासी अपना आशियाना बसाने की आर्थिक क्षमता नहीं रखते. आज भी ये आबादी अनधिकृत या अनियोजित बस्तियों में रहती हैं. ऐसे में योजनाबद्ध विकास सिर्फ़ खानापूरी बनकर रह गया है.

यही वजह है कि 2015-16 में केंद्र सरकार ने 1.12 करोड़ “सस्ते” शहरी मकानों (निजी वस्तु) के निर्माण का लक्ष्य रखा था. इसके लिए 7.35 खरब रुपयों का प्रावधान करने किया गया था. इनमें से 50 लाख मकान अब तक बनकर तैयार भी हो चुके हैं. मकान के कुल खर्चे में से एक चौथाई हिस्सा भारत सरकार और पांचवा हिस्सा राज्य सरकारें वहन करती हैं. इसके साथ ही लाभार्थियों को बाक़ी का 55 प्रतिशत खर्च उठाना होता है. इसके लिए उन्हें सस्ते, दीर्घ-अवधि वाले कर्ज़ उपलब्ध कराए जाते हैं. इतना ही नहीं निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी (पीपीपी) के ज़रिए रकम जुटाकर शहरों में सस्ते किराए के मकानों (सार्वजनिक वस्तु) के निर्माण की संभावनाएं भी तलाशी जा रही हैं. इसका मकसद नगरीय क्षेत्रों में आकर बसे आप्रवासियों की ज़रूरतों को पूरा करना है.

अनिच्छुक शहरी

भारत के 7,935 नगरों (2011-12 की जनगणना के मुताबिक) में से करीब आधे (3894) नगरों के तौर पर वर्गीकृत किए जाने के प्रति अनिच्छुक हैं. उनकी ये अनिच्छा शहरी आबादी के लिए ज़रूरी अतिरिक्त ख़र्चों से उभर कर आती है. इन ख़र्चों में संपत्ति कर, जायदाद के हस्तांतरण के लिए ज़्यादा फ़ीस, आम सुविधाओं के ऊंचे शुल्क, भूमि के इस्तेमाल को हदों में बांधने वाले नियमों और बिल्डिंग कोड से जुड़े ख़र्च शामिल है. इसके साथ ही शहरों के तौर पर वर्गीकृत किए जाने से ग्रामीण इलाक़ों को मिलने वाली भारी-भरकम सब्सिडी से भी हाथ धोना पड़ता है. शहरी क्षेत्र करार दिए जाने से किसी इलाक़े को सार्वजनिक सुविधाओं की गुणवत्ता में ख़ास सुधारों के बिना ही इन सुविधाओं से महरूम होने का डर रहता है. ग़ौरतलब है कि बड़े गांवों में मुख्य इलाक़ों को सब्सिडी के साथ ऐसी सुविधाएं हासिल होती हैं.

इतना ही नहीं 4,041 मान्यता प्राप्त शहर भी वित्तीय खोखलेपन का सामना कर रहे हैं. आयात शुल्क, आयकर, वस्तु और सेवा कर (जीएसटी यानी मूल्य वर्धित बिक्री कर) और उत्पाद शुल्क (चुनिंदा वस्तुओं के उत्पादन पर टैक्स) केंद्र और राज्य सरकारों के लिए आरक्षित हैं. इतना ही नहीं “जायदादों के लिए दीवाने” हिंदुस्तान में संपत्ति के हस्तांतरण पर लगने वाला शुल्क भी संबंधित राज्य सरकारों के ख़ज़ाने में जाता है. ये शुल्क उस शहर को हासिल नहीं होता जहां ये जायदाद स्थित है. शहरों को केंद्रीय कर भंडार से पंचवर्षीय वित्त आयोग या राज्यों के स्तर पर ऐसे ही वित्त आयोगों के ज़रिए कर राजस्व का एक निश्चित हिस्सा ज़रूर मिलना चाहिए. ज़ाहिर है आसानी से मान जानेवाले या किसी तरह की ज़िद न करने वाले ग्रामीण वोटों पर ध्यान टिकाए राज्य, शहरों की वित्तीय ज़रूरतों को ठेंगा दिखा देते हैं.

दिल्ली के मास्टर प्लान 2041 के मसौदे के मुताबिक योजनाबद्ध तरीक़े से बसाए गए शहर के इलाक़ों में यहां के 85 फ़ीसदी निवासी अपना आशियाना बसाने की आर्थिक क्षमता नहीं रखते. आज भी ये आबादी अनधिकृत या अनियोजित बस्तियों में रहती हैं. ऐसे में योजनाबद्ध विकास सिर्फ़ खानापूरी बनकर रह गया है. 

शहरी प्रशासन को भी भारतीय संविधान (भाग IXA, धारा 243 W से ZA) के तहत कोई मौलिक शक्ति हासिल नहीं है. ऐसे में अलग-अलग राज्यों पर शहरों को हक़ दिलाने वाले क़ानूनी उपाय करने की ज़िम्मेदारी है. संविधान की 12वीं अनुसूची में शहरी प्रशासन के लिए 18 चुनिंदा कार्यक्षेत्र तय किए गए हैं.

बहरहाल, संवैधानिक तौर पर  विभाजित इकाइयों (संघीय, राज्य और शहरों) में ऊपर से नीचे की ओर कार्य अधिकारों का इस तरह का बंटवारा स्थानीयता के सिद्धांत के साथ मेल नहीं खाता. पर्याप्त वित्तीय सुविधाएं प्राप्त और पेशेवर तौर-तरीक़ों से संचालित महानगर दूर स्थित संघ या राज्य सरकारों की अपेक्षा बेहतर रूप से और बड़े पैमाने पर सार्वजनिक सुविधाएं मुहैया करवा सकते हैं. संघ और राज्यों की सरकारों के सामने पूरा करने के लिए कई लक्ष्य होते हैं. इसके साथ ही क्षेत्रीय, ग्रामीण और शहरी तबकों में फैले विभिन्न वर्गों तक उनका ध्यान बंटा होता है. दुर्भाग्य की बात ये है कि हमारा शहरी प्रशासन राजनीतिक संजीदगी के अभाव से पीड़ित है.

शहरी राजनीति की कोई पूछ नहीं

ये बात अपने आप में बेहद ग़ौर करने लायक है कि भारतीय राजनेता और नौकरशाह सार्वजनिक सेवाओं (बड़े महानगरों के शहरी प्रशासन तक को) अपने करियर के हिसाब से दोयम दर्जे का विकल्प समझते हैं. इसके मुक़ाबले उनका ज़ोर राज्य या केंद्र सरकार की सेवाओं में जाने का होता है. भारत में फ़्रांस, यूनाइटेड किंगडम या फिर अमेरिका की तरह आजतक किसी भी शहर का मेयर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सका है. संसद के मौजूदा सदस्यों में भी केवल कुछ मुट्ठीभर सदस्यों ने ही शहरी प्रशासन के हिस्से के तौर पर अपने राजनीतिक जीवन या कार्यकौशल को आगे बढ़ाया है. नगरीय स्तर के अनुभव को हमारी राजनीतिक व्यवस्था में हिकारत भरा दर्जा हासिल है. ये तौर-तरीक़ा हमें आगे ले जाने की बजाए पीछे धकेलता है. आज से एक दशक पहले भी (2011-12) में भारत का सबसे बड़ा नगरीय क्षेत्र मुंबई महानगर दिल्ली समेत देश के 13 छोटे राज्यों से आकार में बड़ा था. उस वक़्त इसकी आबादी 1.84 करोड़ थी. इस सिलसिले में एक और दिलचस्प आंकड़ा केरल के शहर कोझिकोड का है. ये देश के 18 सबसे बड़े नगरों की सूची में सबसे छोटा शहर है. यहां की आबादी 20.03 लाख है. फिर भी ये अकेला शहर देश के पांच सबसे छोटे राज्यों (गोवा समेत) के मुक़ाबले कहीं बड़ा है.

अपने-आप ही हुआ विकास

दशक के हिसाब से शहरी विकास की रफ़्तार पर ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि 1991 से 2001 के दौरान शहरों में आर्थिक वृद्धि की गति राष्ट्रीय विकास की रफ़्तार की डेढ़ गुणा थी. 2001 से 2011 के दशक में ये रफ़्तार बढ़कर राष्ट्रीय विकास की 1.8 गुणा हो गई. यही रुझान 2021 तक भी जारी है. 2045 तक अगले दो दशकों के दौरान भी यही प्रवृति जारी रहने की संभावना है. ऐसे में शहरों के राजनीतिक और कार्यकारी प्रबंधन से जुड़ी व्यवस्था को सब से निचले पायदान पर रखना चुनौतियों से आंख मूंद लेने जैसा है.

शहरों से कई तरह की जटिलताएं जुड़ी हुई हैं. इन जटिलताओं में यहां की घनी आबादी, शहरी लोगों की ऊंची आकांक्षाएं, आपात स्थितियों से निपटने में अपेक्षाकृत कम मोहलत, आपदाओं और हड़ताल या बंदियों से होने वाला अपेक्षाकृत अधिक नुकसान शामिल है. इतना ही नहीं, शहरों का मिज़ाज “अलग-अलग तरह की परिस्थितियों और विचारों के मिश्रण” वाला होता है. ऐसे में प्रत्येक नगर का अपना, प्रतिस्पर्धी तरीक़े से नियुक्त, स्थायी कार्यबल होना बेहद ज़रूरी है. इसके साथ ही हर नगर में व्यवस्थाओं के संचालन के लिए शहरी प्रशासन में कुशल राजनीतिक प्रबंधक भी नियुक्त होने चाहिए.

लैंगिक समानता चाहने वाले और जाति या मजहब से जुड़ी पारंपरिक पहचानों के आगे निकलने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए भी शहर ही सबसे मुनासिब स्थान होते हैं. ज्ञान के विशाल नेटवर्क तक पहुंच बनाने और अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ों का रास्ता साफ़ करने में भी शहरों में ही मदद मिलती है.

अंतरराष्ट्रीय अनुभवों से ये बात ज़ाहिर हो चुकी है कि शहरी जमावड़ा विकास की ऊंची दरों का वाहक होता है. शहरी इकाइयां निवेश, नवाचार और समावेशी विकास को आकर्षित करती हैं. इसके साथ ही भारत के शहर एक अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक लक्ष्य भी पूरा करते हैं. दरअसल, ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ऊंचा स्तर चाहने वालों के लिए सुरक्षित पनाहगाह की तरह काम करते हैं. लैंगिक समानता चाहने वाले और जाति या मजहब से जुड़ी पारंपरिक पहचानों के आगे निकलने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए भी शहर ही सबसे मुनासिब स्थान होते हैं. ज्ञान के विशाल नेटवर्क तक पहुंच बनाने और अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ों का रास्ता साफ़ करने में भी शहरों में ही मदद मिलती है.

नगरों और उनकी परिधि वाले इलाक़ों के बीच की कड़ी को मज़बूत बनाना

यक़ीनन शहरों को अपने आसपास के अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण इलाक़ों के साथ अपना इको-सिस्टम साझा करना चाहिए. प्राकृतिक संसाधनों के “अंधाधुंध इस्तेमाल” पर लगाम लगाने और पर्यावरण के कुशल प्रबंधन के लिए पारस्परिक लाभ वाली ये भागीदारी आवश्यक है. राज्यों की सरकारें ही ग्रामीण क्षेत्रों और शहरों का प्रशासन चलाती हैं. ऐसे में क्षेत्रीय इकोसिस्टम को फ़ायदा पहुंचाने के लिए शहरों की आर्थिक क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल बेहद ज़रूरी है. इनके अनुकूल माहौल बनाने और उत्पादकता बढ़ाने वाले करारों के लिए राज्य सरकारों के बीच सीधा संवाद बेहद ज़रूरी है.

बात चाहे कृषि क्षेत्र के अनुपयोगी उत्पादों या कचरे के इस्तेमाल से बिजली पैदा करने की हो या ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा हुई सौर ऊर्जा की ख़रीद की, शहर इनके लिए ज़रूरी वित्तीय प्रोत्साहन मुहैया करवा सकते हैं. इतना ही नहीं आसानी से नष्ट न होने वाले कचरे को सड़क निर्माण के लिए प्रयोग में लाने और जैविक खेती के तौर-तरीक़ों को सस्ता और सुलभ बनाने में भी शहर अपनी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ-साथ स्वच्छ, टिकाऊ और क्षेत्रीय पर्यावरण के पोषण के लिए “साझा नीले-हरित भंडार” सुनिश्चित करने में भी शहरी क्षेत्र ग्रामीण इलाक़ों की मदद कर सकते हैं. ऐसे द्विपक्षीय करारों और पारस्परिक लाभ वाले समझौतों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य सरकारों के सामने शहरी प्रशासन के राजनीतिक रुतबे को बढ़ाना बेहद ज़रूरी है.

नगरीय प्रशासन में जुगाड़तंत्र से परहेज़ करना

आज के समय में बड़े महानगरीय जमावड़ों (10 लाख से अधिक आबादी वाले) का संवैधानिक दर्जा ऊंचा उठाने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं. 2030 तक 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की तादाद 69 हो जाएगी. 2011 में बड़े राज्यों की राजधानियों के साथ-साथ गुजरात का सूरत और महाराष्ट्र का पुणे 50 लाख की आबादी वाले नगरों में शुमार हो चुका था.

प्रति व्यक्ति जीडीपी के हिसाब से चीन का स्थान विश्व की सबसे ऊपर की एक तिहाई अर्थव्यवस्थाओं में है. इसके बावजूद चीन का सिर्फ़ एक शहर शंघाई ही ऊपर बताई गई शहरों की सूची में 30वें से 40वें स्थान के बीच आता है. इस सूची में चीन की राजधानी बीजिंग का स्थान मध्यम दर्जे के क़रीब है. 

अतीत में नगरों को सीधे तौर पर आधे-अधूरे राज्य का दर्जा देने की प्रवृति दिखाई दी है. ऐसी रणनीति से अक्सर परस्पर विरोधी और टकराव वाले जनादेश सामने आए हैं. राज्य के भीतर राज्य वाले इस मॉडल की झलक दिल्ली और पुडुचेरी में मिलती है. ज़ाहिर तौर पर ऐसी व्यवस्था अपनाने से यथासंभव बचने की कोशिश होनी चाहिए. इसकी बजाए अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के लिए मेयर की कार्यकारी और वित्तीय शक्तियां बढ़ाते हुए नगरों के स्थानीय प्रशासन के रुतबे में इज़ाफ़ा करने की नीति ज़्यादा कारगर साबित हो सकती है.

अगर शहरों को रुकावटी राज्य सरकारों से मुक्त रखते हुए वित्तीय रूप से स्थिर बनाए रखना है तो शहरी प्रशासन का एक नया ढांचा खड़ा करना आवश्यक है. इसके लिए शहरी प्रशासन की मूल संवैधानिक कार्यकारी क्षमताओं और वित्तीय शक्तियों को ऊंचा उठाना होगा. इन्हें राज्य सरकारों के मुख्य जनादेश के हिसाब से सुसंगत बनाना होगा.

साझा और टिकाऊ विकास के मॉडल के तौर पर शहर

2101 अमेरिकी डॉलर की मौजूदा प्रति व्यक्ति जीडीपी (2019) के साथ भारत का स्थान नाईजीरिया और घाना के ठीक नीचे है. ज़ाहिर है कि आईईएसई 174 शहरों के वैश्विक सर्वेक्षण “सिटीज़ इन मोशन” में मुंबई, दिल्ली और कोलकाता का स्थान सबसे नीचे के दस शहरों में है. इस सूची में बेंगलुरु का स्थान थोड़ा बेहतर है. तियानजिन (चीन), कुवैत और केपटाउन (दक्षिण अफ़्रीका) के साथ बेंगलुरु सबसे निचले पायदान वाले दस शहरों से ठीक ऊपरी पायदान वाले दस शहरों में शामिल है.

हालांकि, सिर्फ़ आर्थिक प्रदर्शन ही किसी शहर को श्रेष्ठ नहीं बनाता. प्रति व्यक्ति जीडीपी के हिसाब से चीन का स्थान विश्व की सबसे ऊपर की एक तिहाई अर्थव्यवस्थाओं में है. इसके बावजूद चीन का सिर्फ़ एक शहर शंघाई ही ऊपर बताई गई शहरों की सूची में 30वें से 40वें स्थान के बीच आता है. इस सूची में चीन की राजधानी बीजिंग का स्थान मध्यम दर्जे के क़रीब है. दो और शहर- गुआंगझोऊ और शेंझेन तो और भी नीचे के पायदान पर आते हैं. इन शहरों का स्थान शीर्ष से सातवीं दहाई में है.

अपेक्षाकृत निम्न प्रति व्यक्ति आय के स्तर के बावजूद भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इस नाते भारत का स्थान फ़्रांस के बराबर है. 2020 की मौजूदा दर पर भारत की जीडीपी 2.6 खरब अमेरिकी डॉलर के बराबर है. हो सकता है कि तेज़ी से बढ़ती वृद्धों की आबादी वाले देश जर्मनी और आगे चलकर जापान को भी जल्दी ही पीछे धकेल कर एक दशक में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाए. दस लाख से अधिक आबादी वाले हमारे शहरों को क्षेत्रीय विकास के स्वायत्त वाहक के तौर पर नए सिरे से खड़ा करना इस मकसद की प्राप्ति के लिहाज़ से बेहद अहम है. इसके साथ ही टिकाऊ और न्यायपूर्ण विकास की तलाश में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच नुक़सानदेह द्वंद या दोहरेपन के भार को कम करना भी बेहद ज़रूरी है.

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