Author : Gopalika Arora

Published on Nov 17, 2023 Updated 28 Days ago

जोख़िम से लचीलेपन तक: भारत में जलवायु असुरक्षा के आकलन पर एक नज़र…!

वैश्विक, राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तरों पर मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है और बार-बार सामने आ रही है. ऐसे में जलवायु अनुकूलन, पिछले दशक में संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ताओं में सबसे आगे रहा है. अनुकूलन से जुड़ी योजनाओं के लिए जलवायु संवेदनशीलता (वल्नरेबिलिटी) और जोख़िम आकलन (VRA) ज़रूरी हैं, क्योंकि इनसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के सबसे ज़्यादा जोख़िम में रहने वाले इलाक़ों, आबादियों और प्रणालियों की पहचान करने में मदद मिलती है. इन्हें अनुकूलन परियोजनाओं के विकास और बहुपक्षीय वित्त इकट्ठा करने के औज़ार के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है. हालांकि, भारत में शायद ही कोई ऐसी परियोजना या विकास कार्यक्रम है, जिसे जलवायु VRA के आधार पर क्रियान्वित किया जा रहा हो. इतना ही नहीं, जलवायु लचीलेपन का विचार भारत के निवेश प्रस्तावों में अब भी उप-खंडों में अपनी जगह बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है. ये पेपर भारत की मौजूदा संवेदनशीलताओं और जोख़िम आकलनों, उनके अलग-अलग क्षेत्रों और गणना-पद्धतियों का मूल्यांकन करते हुए वैश्विक स्तर पर बेहतरीन अभ्यासों से सूचित सिफ़ारिशें प्रस्तुत करता है, जिन्हें राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तरों पर आगे बढ़ाया जा सकता है.


एट्रीब्यूशन: गोपालिका अरोड़ा, जोख़िम से लचीलेपन तक: भारत में जलवायु असुरक्षा के आकलन पर एक नज़र…! , ओआरएफ ओकेज़नल पेपर नं. 498, अगस्त 2023.


परिचय

औद्योगिकीकरण से पहले वाले युग से लेकर अबतक तापमान में महज़ 1.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी के बावजूद जलवायु परिवर्तन का वैश्विक प्रभाव पड़ा है. विनाशकारी सूखे और झुलसाती गर्मी से लेकर अभूतपूर्व बाढ़ और समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी तक, जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली आपदाएं दुनिया भर के करोड़ों लोगों के सामने खाद्य सुरक्षा और आजीविका से जुड़े ख़तरे पेश कर रही है. धीमी रफ़्तार से सामने आने वाली प्रक्रियाओं जैसे, समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी, मरुस्थलीकरण, खारापन और जलवायु की चरम घटनाओं के प्रति विकासशील देश ख़ासतौर से संवेदनशील होते हैं.[i] इन घटनाओं की बढ़ती आवृति के नतीजतन दुनिया भर में जलवायु जोख़िम बढ़ते जा रहे हैं.[ii]

अपनी बड़ी जनसंख्या और भौगोलिक आकार के चलते भारत ऐसे विनाशकारी परिणामों के व्यापक दायरे से जूझ रहा है. पहले से ही यहां जलवायु से जुड़ी चरम घटनाओं की बढ़ती और तीव्र होती प्रवृति का अनुभव किया जा रहा है. इनमें भारी बरसात, बाढ़, सूखे जैसी स्थितियां और झुलसाती गर्मी शामिल है.[iii],[iv] वैश्विक जलवायु जोख़िम सूचकांक (CRI) में भारत को जलवायु घटनाओं के प्रति सबसे संवेदनशील शीर्ष 10 देशों में वर्गीकृत किया गया है. 2021 की CRI रिपोर्ट में भारत 7वें स्थान पर था.[v] भारत के लगभग 75 प्रतिशत ज़िलों को मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं के अड्डे या हॉटस्पॉट के तौर पर चिन्हित किया गया है, जबकि तक़रीबन 40 प्रतिशत ज़िलों में मौसम के रुझानों में भारी बदलाव देखा गया है.[vi] इस बदलाव में ऐतिहासिक प्रवृतियों का पलटना भी शामिल है, जिसके तहत अतीत में बाढ़ की आशंका और ज़द में रहने वाले इलाके अब पहले से गंभीर और बार-बार सामने आने वाले सूखे का सामना कर रहे हैं, जबकि कुछ क्षेत्रों में इसके ठीक विपरीत रुझान देखा जा रहा है. ठीक इसी समय, देश विकास से जुड़ी अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिनमें ग़रीबी, स्वास्थ्य सेवा और बुनियादी ज़रूरतों तक सीमित पहुंच और कमज़ोर प्रशासन शामिल हैं. इसने ना केवल जलवायु तनाव (स्ट्रेसर्स) पैदा करने वाले कारकों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा दी है, बल्कि जलवायु झटकों से निपटने या उससे उबरने की देश की क्षमता पर भी गंभीर असर डाला है.

जैसे-जैसे जलवायु अनुकूलन देश की जलवायु नीतियों और योजनाओं में अंतर्निहित होता जा रहा है, योजना से क्रियान्वयन की ओर बढ़ने की दरकार है. अनुकूलन के प्रयास व्यापक तौर पर क्रमिक रहे हैं और इस कड़ी में ज़्यादातर मौजूदा जलवायु जोख़िमों पर ध्यान केंद्रित किया जाता रहा है. इसके अलावा, जलवायु से संबंधित संसाधनों का टिकाऊपन और सहायक ढांचे की संवेदनशीलता चिंता पैदा करती है. जलवायु से प्रेरित ख़तरों से नुक़सान और क्षति की बढ़ती मात्राओं के चलते बड़े पैमाने पर संवेदनशीलता और जोख़िम आकलनों की सूचनाओं समेत लक्षित अनुकूलित उपायों को लागू करना आवश्यक है.

प्रणाली के भीतर ढांचागत कमज़ोरियों की पहचान करने, अनुकूलन को लेकर लोगों और प्रणालियों की क्षमता की पड़ताल करने, और अनुकूलन फंडिंग और क्रियान्वयन को प्राथमिकता देने के लिए संवेदनशीलता और जोख़िम आकलन एक महत्वपूर्ण उपकरण के तौर पर उभरे हैं. हाल ही में भारत में ऐसे अनेक आकलन प्रकाशित किए गए हैं जो प्रशासन के तमाम स्तरों पर जलवायु संवेदनशीलता और जोख़िम का मूल्यांकन करते हैं.[vii],[viii],[ix] हालांकि उनके परिकल्पनात्मक, पद्धतिगत और विषयात्मक आधारों और परिणामों की पड़ताल नहीं की गई है. प्रशासन के तमाम स्तरों पर नीति परिवर्तन लाने और इन आकलनों को आगे बढ़ाने के प्रयास किए गए हैं. 2008 में लॉन्च जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) राज्यों को जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजनाओं (SAPCCs) में जलवायु संवेदनशीलता आकलनों के परिणामों को शामिल करने के लिए प्रेरित करता है.[x] भारत का पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) भी राज्यों को अनुकूलन उपायों को प्राथमिकता देने और सबसे संवेदनशील समुदायों और क्षेत्रों के लिए संसाधनों को लक्षित करने को लेकर इन आकलनों के परिणामों का उपयोग करने का जनादेश देता है.

जलवायु ख़तरों की बेहतर समझ के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रति मानवीय आबादियों और प्रणालियों के जोख़िम, संवेदनशीलता और अनुकूलन क्षमता के लिए ये आकलन बेहद ज़रूरी हैं. इसके अलावा, ये मूल्यांकन निर्णयकर्ताओं को अनुकूलन योजनाओं के निर्माण में विभिन्न क्षेत्रों के बीच संबंधों को समझने और सह-लाभ और तालमेल के अवसरों की पहचान करने में भी मदद कर सकते हैं.[xi] हालांकि, संस्थागत, सामाजिक, तकनीकी और पर्यावरणीय संवादों की जटिल प्रकृति ने नीति-निर्माताओं द्वारा इन आकलनों का उपयोग सीमित कर दिया है. ग़ौरतलब है कि यही नीति-निर्माता जलवायु परिवर्तन के प्रति समुदायों और क्षेत्रों के लचीलेपन को प्रभावित कर सकते हैं. नीति पर वांछित प्रभाव के लिए इन आकलनों और रिपोर्टों के शोध निष्कर्षों का एक व्यापक जनसमूह तक पहुंचना निहायत ज़रूरी है.

ये पेपर भारत में मौजूदा जलवायु संवेदनशीलता और जोख़िम ढांचों का समीक्षा करता है ताकि उनके विविध दायरे और कार्यप्रणालियों को समझा जा सके. ये राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तरों पर इन आकलनों को आगे बढ़ाने के लिए विश्व स्तर के बेहतरीन अभ्यासों और इस विषय पर उपलब्ध साहित्य की समीक्षा पर आधारित सिफ़ारिशें मुहैया कराता है.

जलवायु संवेदनशीलता आकलनों का उभार

‘संवेदनशीलता’ की सार्वभौम रूप से स्वीकार्य कोई परिभाषा नहीं है; ये विचार बहुमुखी है, और शोध समुदायों के संदर्भ और धारणाओं के हिसाब से बदलती रह सकती है. इंजीनियरिंग विज्ञान और अर्थशास्त्र से लेकर मानव विज्ञान और मनोविज्ञान तक तमाम विषयों में इसका उपयोग किया जाता है.[xii] संवेदनशीलता की शुरुआती समझ ‘टिपिंग प्वाइंट्स’ के विचार से ली गई है, जिसे ‘थ्रेसहोल्ड’ के नाम से भी जाना जाता है. ये तत्काल हस्तक्षेप की ज़रूरत वाले ‘हॉटस्पॉट्स’ की पहचान करता है. जैव-भौतिक प्रभावों, भविष्य के अनुमानों या परिदृश्यों, और अनुकूलन हस्तक्षेपों की स्थापना के बाद परिणाम या प्रतिकूल परिस्थितियों के रूप में भी संवेदनशीलता की परिकल्पना की गई है. किसी ख़तरे के संपर्क में आने से पहले और बाद में इसका आकलन किया जाता है.[xiii] हालांकि जलवायु-परिवर्तन अनुकूलन के लिए एक अंतर्निहित स्थिति के रूप में संवेदनशीलता को सक्रिय और परिचालित करना ज़्यादा सटीक होता है. ये अंतर्निहित स्थिति कुछ सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाओं का परिणाम है, जो जलवायु झटकों के ख़िलाफ़ व्यक्तियों और समुदायों के लचीलेपन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है.[xiv]

जलवायु संवेदनशीलता आकलनों के प्रकार

किसी प्रणाली की संरचना में अंतर्निहित कमज़ोरियों की पहचान करने, इन असुरक्षाओं से निपटने के लिए प्रणाली के भीतर लोगों की क्षमता का मूल्यांकन करने, और अनुकूलन और रोकथाम उपायों को प्राथमिकता देने के साथ-साथ संसाधन आवंटन की ज़रूरतों का निर्धारण करने के लिए जलवायु संवेदनशीलता आकलन एक अहम उपकरण है.[xv] शुरुआत में ये आकलन भौतिक असुरक्षा पर केंद्रित थे. इनमें विशिष्ट ख़तरों (समुद्र के स्तरों में बढ़ोतरी और मौसम की चरम घटनाओं) के प्रति समुदायों और क्षेत्रों के संपर्क शामिल हैं. इन आकलनों में आम तौर पर सामान्य, आंकड़ों पर आधारित तौर-तरीक़ों का उपयोग किया गया, जिनमें असुरक्षित इलाक़ों और आबादियों की पहचान के लिए ख़ाका बनाना शामिल है.

अभी हाल के जलवायु संवेदनशीलता आकलनों में असुरक्षा के अनेक स्वरूपों को एकीकृत किया गया है, जिनमें सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक दायरों वाली असुरक्षाएं शामिल हैं. इन मूल्यांकनों में ज़्यादा जटिल तौर-तरीक़ों का उपयोग किया जाता है, जिनमें समुदायों और क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभावों की पहचान के लिए परिदृश्य-आधारित मॉडलिंग शामिल है.[xvi] हाल के वर्षों में जलवायु संवेदनशीलता आकलन प्रक्रिया में समुदायों और स्टेकहोल्डर्स को शामिल करने पर ज़ोर बढ़ता जा रहा है. सहभागी असुरक्षा आकलन के नाम से जाने जाने वाले इस रुख़ में समुदायों और स्टेकहोल्डर्स को जोड़ने की क़वायद शामिल है ताकि जलवायु परिवर्तन में उनके परिप्रेक्ष्यों को समझा जा सके, और उनकी विशिष्ट ज़रूरतों और प्राथमिकताओं की पहचान की जा सके.[xvii]

जलवायु संवेदनशीलता आकलनों में ताज़ा घटनाक्रम जलवायु जोख़िम आकलन हैं, जो न सिर्फ़ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति असुरक्षित समुदायों और क्षेत्रों की पहचान करते हैं बल्कि ऐसे प्रभावों के चलते सामने आ सकने वाले संभावित वित्तीय, सामाजिक और पर्यावरणीय नुक़सानों और क्षतियों की मात्रा भी तय करते हैं. ये रुख़ आगे अनुकूलन और रोकथाम उपायों को प्राथमिकता देने में मदद करता है और निवेश निर्णयों को सूचित करता है.[xviii]

जलवायु असुरक्षा के आकलन के लिए वैचारिक रूपरेखाएं

जलवायु परिवर्तन के सुधारक प्रभाव तमाम क्षेत्रों और प्रशासन के स्तरों, आर्थिक और विकास क्षेत्रों, सामाजिक समूहों और समुदायों, और प्रणालियों के प्रकारों में स्थान और अस्थायी तौर पर बदलते रहते हैं.[xix]

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) द्वारा जुटाई गए वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर असुरक्षा की समझ और उसके आकलन की पद्धतिगत रूपरेखाओं का उभार हुआ है. IPCC की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट में असुरक्षा को “भू-भौतिक, जैविक और सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों के असुरक्षित रहने की मात्रा और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों (जलवायु बदलाव और चरम) से निपटने में नाकामी की हद” के रूप में परिभाषित किया गया है.[xx] इस रूपरेखा के तहत असुरक्षा को संपर्क, संवेदनशीलता और अनुकूलन क्षमता की क्रिया के तौर पर परिभाषित किया गया है.

संभावित प्रभाव और अनुकूलन क्षमता के आधार पर सबसे असुरक्षित ज़िलों और राज्यों की पहचान के लिए राष्ट्रीय स्तर के आकलनों के साथ-साथ क्षेत्र-विशिष्ट अध्ययनों में इस रुख़ का व्यापक रूप से इस्तेमाल हुआ है. हालांकि इस रूपरेखा में भविष्य के जोख़िमों और ख़तरों का ध्यान नहीं रखा गया है, और इसमें प्रणाली के मौजूदा अंतर्निहित हालात पर ही ध्यान दिया जाता है.

मुख्य परिभाषाएं

असुरक्षा = क्रिया [ एक्सपोज़र या जोख़िम संपर्क (+), संवेदनशीलता (+), अनुकूली क्षमता (-)]

  • जोख़िम संपर्क या एक्सपोज़र: जलवायु-प्रेरित आपदा की वजह से प्रणाली में बाधा. जोख़िम संपर्क या एक्सपोज़र सीधे तौर पर जलवायु तनावों की भयावहता और अवधि से जुड़े होते हैं. विभिन्न भौगोलिक इलाक़े अलग-अलग जलवायु तनावों के साथ-साथ ख़तरों के अलग-अलग मियादों और भयावहता के संपर्क में आ सकते हैं. मिसाल के तौर पर तापमान में औसत बढ़ोतरी शहरी केंद्रों को जोख़िम के प्रति बेपर्दा कर सकती है, जहां शहरी ‘हीट आइलैंड’ प्रभाव हालात को बदतर बना देता है.
  • संवेदनशीलता: वो डिग्री या मात्रा जहां तक कोई ख़ास प्रणाली जलवायु-संबंधित तनावों से प्रभावित होती है. संवेदनशीलता किसी प्रणाली की अंतर्निहित विशेषताओं से पैदा हो सकती है और प्रत्यक्ष (तापमान रुझानों में बदलाव से फ़सल की पैदावार में परिवर्तन) या अप्रत्यक्ष (समुद्री जल स्तर में बढ़ोतरी के चलते बाढ़ से होने वाली क्षति) हो सकती है.
  • अनुकूली क्षमता: जलवायु-संबंधित मौसम की चरम घटनों के हिसाब से ढलने या उबरने की किसी प्रणाली की क्षमता. ये किसी तंत्र की पहले से मौजूद विशेषता है जो मौसमी गड़बड़ियों के हिसाब से ढलने की इसकी क्षमता का निर्धारण करते हैं.

स्रोत: IPCC AR4, WGII[xxi]

जलवायु जोख़िम का परिचय

आपदा प्रबंधन के सबक़ों से सीख लेकर IPCC की पांचवीं आकलन रिपोर्ट (AR5) में ‘जलवायु जोख़िम’ का विचार सामने रखा गया, और इसे संपर्क, संवेदनशीलता और ख़तरे के अंतर—खंड में डाला गया. ये ढांचा जलवायु जोख़िम की पहचान और प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करता है और असुरक्षा को जोख़िम के निर्धारक के रूप में स्थापित करता है.[xxii] जोख़िम को “परिणामों की ऐसी संभावना, जहां कुछ ना कुछ दांव पर लगा होता है और जहां परिणाम अनिश्चित होते हैं, जिसमें मूल्यों की विविधता की पहचान की जाती है. इसे अक्सर ख़तरनाक घटनाओं के उभार की संभावना के प्रतिनिधित्व के तौर पर सामने रखा गया है या अगर ये प्रवृतियां उभरे या ऐसी घटनाएं हों तो उनके प्रभाव कई गुणा हो जाते हैं” के रूप में परिभाषित किया जाता है.[xxiii] जलवायु जोख़िम अनिवार्य रूप से ख़तरे, जोख़िम से संपर्क और असुरक्षा की क्रिया है, जिसमें असुरक्षा को आगे संवेदनशीलता और अनुकूलन क्षमता की क्रिया के तौर पर परिभाषित किया गया है. IPCC AR5 रिपोर्ट ‘एक्सपोज़र यानी संपर्क’ को उन स्थानों और स्थापकों में व्यक्तियों, समुदायों, प्रणालियों, संसाधनों और परिसंपत्तियों की उपस्थिति के तौर पर परिभाषित करता है जो जलवायु परिवर्तन से प्रतिकूल तरीक़े से प्रभावित हो सकते हैं.[xxiv] इस परिभाषा में ख़तरे के प्रभाव को अंतर्निहित प्रणाली से परे स्थानिक परिकल्पना में शामिल किया जाता है.[xxv] ‘ख़तरा’ AR5 में एक नई शब्दावली है और जलवायु-प्रेरित प्रवृतियों और उनके भौतिक प्रभावों को संदर्भित करता है.[xxvi]

चित्र 1: जलवायु जोख़िम के योगदान कारक

स्रोत: IPCC AR5 से अनुकूलित[xxvii]

हाल के वर्षों में इस रूपरेखा को ढेरों जलवायु संवेदनशीलता और जोख़िम आकलनों (VRA) में अपनाया गया है. इन्हें पूरे भारत में ज़िला और क्षेत्रीय स्तरों पर आयोजित किया गया है (जैसे, साझा रूपरेखा[xxviii] के इस्तेमाल से विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग का राष्ट्रीय-स्तर का संवेदनशीलता आकलन और कृषि क्षेत्र के लिए सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ड्राइलैंड एग्रीकल्चर (CRIDA) का असुरक्षा और जोख़िम आकलन[xxix]). चिंताजनक क्षेत्रों में असुरक्षाओं और जोख़िमों के आकलन के लिए इस रूपरेखा को जलवायु परिवर्तन के लिए राज्य कार्य योजनाओं के ताज़ा-तरीन संस्करण में भी लागू किया जा रहा है, और अनुकूलन रणनीतियां तैयार की जा रही हैं.[xxx] नीतिगत परिप्रेक्ष्य से ये रूपरेखा ज़्यादा उपयुक्त है क्योंकि ये मौजूदा जलवायु परिवर्तनीयता के साथ-साथ भविष्य के जलवायु परिवर्तन के लिए अनेक पैमानों पर प्राकृतिक या एक सामाजिक-आर्थिक प्रणाली के जोख़िम आकलन की छूट देती है.

आकलन के आयोजन के लिए मौजूदा दृष्टिकोण

संवेदनशीलता आकलन के आयोजन को लेकर ज़रूरी संसाधनों के निर्धारण के लिए दृष्टिकोण का विकल्प आवश्यक है. इन आकलनों को आम तौर पर टॉप-डाउन (ऊपर से नीचे) या बॉटम-अप (नीचे से ऊपर) दृष्टिकोणों के तौर पर पहचाना जाता है. टॉप-डाउन दृष्टिकोण को ‘अंत-बिंदु विश्लेषण’ के रूप में भी जाना जाता है, ये भविष्य के हिसाब से स्पष्ट होता है और भविष्य के जलवायु प्रभावों को प्रदर्शित करने के लिए सिमुलेशन मॉडलों का उपयोग करता है. विश्लेषण प्राथमिक रूप से जलवायु परिवर्तन के जैव-भौतिक प्रभावों पर केंद्रित होता है जो नाप-योग्य होते हैं. ये रुख़ ठोस वैज्ञानिक विश्लेषण की मदद से जलवायु तनाव और उसके जैव-भौतिक प्रभावों के प्रत्यक्ष कारण-और-प्रभाव संबंधों को प्रस्तुत कर सकता है.[xxxi]

बहरहाल, बॉटम-अप दृष्टिकोण, जिसे ‘प्रारंभ बिंदु’ रुख़ भी कहा जाता है, आपदा-जोख़िम में कमी लाने, मानवीय मदद और सामुदायिक विकास के दृष्टिकोणों से सबक़ हासिल करता है. स्थानीय स्तर के आकलनों के लिए ये दृष्टिकोण ज़्यादा उपयुक्त है और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वाले स्टेकहोल्डर्स और लोगों पर ध्यान केंद्रित करता है.[xxxii] भले ही ये विशिष्ट स्थानों से आंकड़ों के संग्रहण का आह्वान करता है लेकिन इस दृष्टिकोण में मॉडल-निर्मित जलवायु डेटा की दरकार नहीं होती. डेटा संग्रह करने के लिए ये ज़्यादातर सहभागी ग्रामीण मूल्यांकन, केंद्रित सामूहिक परिचर्चाओं, विचार-मंथनों, संज्ञानात्मक मानचित्रण और सामुदायिक खाके तैयार करने पर निर्भर करता है. बॉटम-अप दृष्टिकोण की मज़बूती इसके लक्षित रुख़ पर टिकी होती है. इसका स्थानीयकृत दृष्टिकोण जलवायु अनुकूलन नीतियों में स्थानीय स्तर के क़ानून बनाने और उनको अमल में लाए जाने में भी मददगार होता है. ये वो ख़ासियत है जो विशाल स्थानिक पैमाने पर टॉप-डाउन सिमुलेशन दृष्टिकोण में नदारद रहता है.[xxxiii]

 

चित्र 2: असुरक्षा को समझने के लिए टॉप-डाउन और बॉटम-अप दृष्टिकोण

स्रोत: देसाई और हुल्मे (2004) से अनुकूलित

 

उपलब्ध पद्धतियां और उपकरण

संवेदनशीलता और जोख़िम आकलन का आयोजन बहु-चरणीय अभ्यास है. इसके लिए लक्ष्यों और उद्देश्यों के एक स्पष्ट समूह की पहचान किए जाने की दरकार होती है, जो स्वीकार किए जाने वाले संवेदनशीलता आकलन, पैमाने, क्षेत्र, स्तर, संकेतकों और तौर-तरीक़ों के प्रकार का निर्धारण करेंगे. भारत में ज़्यादातर आकलनों में संकेतक-आधारित गणना पद्धतियों का पालन किया जाता है; मिसाल के तौर पर DST की साझा रूपरेखा और CRIDA का जोख़िम और असुरक्षा आकलन अपनी-अपनी असुरक्षा और जोख़िम की गणना के लिए संकेतक-आधारित दृष्टिकोण का पालन करता है. इस तौर-तरीक़े में अनिवार्य रूप से सूचकांकों के इस्तेमाल से असुरक्षा के स्तर की माप की जाती है, जिसमें जैव-भौतिक और सामाजिक-आर्थिक संकेतकों, दोनों का इस्तेमाल किया जाता है.

तापमान और बरसात जैसे जैव-भौतिक संकेतक जलवायु परिवर्तन के भौतिक प्रभावों की माप करते हैं, जबकि सामाजिक-आर्थिक संकेतक (जैसे ग़रीबी और शिक्षा तक पहुंच) जलवायु परिवर्तन के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों की गणना करते हैं. इन संकेतकों के लिए आंकड़े तमाम साधनों के ज़रिए इकट्ठा किए जाते हैं, जिनमें डेटा की उपलब्धता और पहुंच के आधार पर सर्वेक्षण, प्रश्नावलियां, और रिमोट सेंसिंग शामिल हैं. एक बार डेटा संग्रहित कर लिए जाने पर, किसी समुदाय या क्षेत्र की असुरक्षा के स्तर के निर्धारण के लिए संकेतकों की गिनती की जाती है. ये स्कोर पूर्व-परिभाषित पैमाने (जैसे निम्न, मध्यम और उच्च) या संख्यात्मक पैमाने पर आधारित हो सकते हैं. संकेतक एक उपयोगी नीति उपकरण हो सकते हैं क्योंकि ये प्राथमिकता क्षेत्रों (जिन्हें संवेदनशीलता हॉटस्पॉट्स के तौर पर भी जाना जाता है) के स्पष्ट दृश्य मानचित्रण (मैपिंग) को सक्षम बनाते हैं.[xxxiv] हालांकि तमाम स्थानिक और अस्थायी पैमानों में संकेतकों की तुलना का ये तौर-तरीक़ा विश्लेषण की इकाइयों में गड़बड़ियों के चलते बाधित हो जाता है.[xxxv]

जलवायु जोख़िमों और असुरक्षाओं को बॉटम-अप उपकरणों जैसे CoDriVE और CRiSTAL, से भी आकलित किया जाता है, जो विभिन्न स्रोतों से सूचना को एकीकृत करते हैं. इसमें तमाम स्टेकहोल्डर्स की सक्रिय भागीदारी शामिल है. भारत में तैयार और प्रयोग में लाए जाने वाले सर्वाधिक आम इस्तेमाल वाले उपकरणों और मार्गदर्शक दस्तावेज़ों में- DST का सामान्य ढांचा,[xxxvi] CRIDA का जोख़िम और असुरक्षा आकलन,[xxxvii] GIZ का असुरक्षा सोर्सबुक और जलवायु प्रभाव श्रृंखलाएं,[xxxviii] GIZ के असुरक्षा सोर्सबुक में जोख़िम पूरक[xxxix] शामिल हैं. इनमें टॉप-डाउन (ऊपर से नीचे) संकेतक-आधारित गणना पद्धतियों का उपयोग किया जाता है. इनके अलावा कंप्यूटर-आधारित बॉटम-अप (नीचे से ऊपर) स्वचालित उपकरणों (CoDriVE)[xl] और CRiSTAL[xli] का भी प्रयोग होता है.

असुरक्षा और जोख़िम आकलन (VRA) के लिए एक उपयुक्त पद्धति और उपकरण का चुनाव अनेक कारकों से सूचित होता है. इनमें तमाम अन्य तत्वों के साथ-साथ आकलन का उद्देश्य, आकलन के लिए ज़रूरी उत्पाद और उनका स्थानिक विस्तार, और समय, बजट, डेटा और आकलन करने की विशेषज्ञता जैसे व्यावहारिक विचार भी शामिल हैं. टेबल 2, 3 और 4 पहले से मौजूद रूपरेखाओं और भारतीय संदर्भ में आमतौर पर इस्तेमाल में आने वाले अन्य उपकरणों और पद्धतियों की क्रियाशीलता का आकलन करते हैं.

टेबल 2: मूल्यांकन और उपकरणों का निर्धारण करने वाले कारक

Criteria/Indicator Top-Down Indicator-Based Approach Bottom-Up Automated Tools
IPCC AR4 Vulnerability Framework IPCC AR5 Vulnerability and Risk Framework
Policy Support
Identification of vulnerable communities, regions, sectors, etc. ✓✓ ✓✓ ✓✓
Analysis of the risk of a vulnerable system ✓✓
Sectoral assessments to provide more details and targets for strategic development plans ✓✓ ✓✓ ✓✓
Prioritising allocation of funds ✓✓
Identification of adaptation strategies that reduce climate vulnerability ✓✓ ✓✓ ✓✓
Identification of adaptation strategies that reduce climate risk ✓✓ ✓✓
Planning
Adaptation planning of developmental programs and projects ✓✓ ✓✓ ✓✓
Assess potential consequences of climate change scenarios on livelihood sectors ✓✓ ✓✓
Monitor and evaluation
Funding and Investment
Attract investment from certain multilateral, bilateral, and private or other organisations concerned with climate change ✓✓ ✓✓
Knowledge Generation
Informed research on climate change risk and vulnerability by sectors locally, regionally, nationally, or globally ✓✓ ✓✓ ✓✓
Considering traditional and empirical knowledge of local communities in responding to climate change ✓✓

नोटः ✓= संभावित रूप से उपयोग किया जा सकता है; ✓✓= संभावित रूप से उपयोग किया जा सकता है और मामले के अध्ययन उपलब्ध हैं

स्रोत: ख़ुद लेखक के

 

टेबल 3: उपकरणों द्वारा उत्पादित उत्पादों के प्रकार

Tools

Criteria/Indicator Top-Down Indicator-Based Approach Bottom-Up Automated Tools
IPCC AR4 Vulnerability Framework IPCC AR5 Vulnerability & Risk Framework  
Type of outputs that can be produced
Qualitative
Maps ✓✓ ✓✓
Impact Chains
Narrative Profiles ✓✓
Quantitative
Index, Scores ✓✓ ✓✓ ✓✓
Scale of application
Single Sector ✓✓ ✓✓ ✓✓
Multiple Sectors ✓✓ ✓✓ ✓✓
Spatial Scale
Community, watershed, household level ✓✓ ✓✓
Block level ✓✓ ✓✓
District level ✓✓ ✓✓
State level ✓✓ ✓✓
National level ✓✓ ✓✓

नोटः ✓= संभावित रूप से उत्पादन कर सकता है; ✓✓ = संभावित रूप से उत्पादन कर सकता है और मामले के अध्ययन उपलब्ध हैं

स्रोत: ख़ुद लेखक के

 

टेबल 4: हरेक उपकरण के लिए व्यावहारिक विचार

Tool

Criteria/Indicator Top-Down Indicator-Based Approach Bottom-Up Automated Tools
IPCC AR4 Vulnerability Framework IPCC AR5 Vulnerability & Risk Framework
Resources and skills required
Additional paid software licences
Use of Geographic information system (GIS) software
Modelling skills
Expertise in PRA techniques (surveys, focus group, discussions, expert interviews)
User support
Sector-specific knowledge
Stakeholder engagement
Stakeholder consultation, participatory workshops, surveys
Data/input requirements/demand
Current variability
Long-term future projections
Socio Economic data
Past disaster occurrences, including magnitude, frequency, location, returning period, and duration
Biophysical data
Primary data collection (e.g., surveys, soil or water sampling, stakeholder consultation, social surveys)
Data/input requirements/demand
Ability to get results without any user-provided data (e.g., desk-based research, population data, or other inputs) N
Ability for users to adapt the tool, provide their own data, or customise inputs
Cost/availability
Cost
Paid/licensed
Other requirements
Time
Additional capacity building (financial/technical)
Any additional specific frameworks to ease adoption
Institutional mechanisms adopted to integrate VR assessments

नोटः ✓ = मूल्यांकन के लिए आवश्यक

स्रोत: ख़ुद लेखक के

VRA की स्वीकार्यता में अड़चनें

संवेदनशीलता और जोख़िम ढांचों और उपकरणों की स्वीकार्यता में भारी प्रगति हुई है. हालांकि, अभी इनके पैमाने बढ़ाने और इनको व्यापक रूप से क्रियान्वित किए जाने का काम बाक़ी है. ऐसे दृष्टिकोणों में विविधता हो सकती है, लेकिन इन रूपरेखाओं में सामंजस्य का अभाव है. इन आकलनों को आगे बढ़ाने की मुख्य चुनौतियों का नीचे के पैराग्राफ में ब्योरा दिया गया है.

डेटा की अनुपलब्धता

जलवायु असुरक्षा आकलनों की विश्वसनीयता प्रस्तुत परिणामों की तकनीकी गुणवत्ता और समर्थन पर निर्भर करती है. उच्च-गुणवत्ता वाले डेटा का उपयोग विश्वसनीयता निर्माण की दिशा में प्राथमिक क़दम है. उच्च गुणवत्ता वाले निष्कर्षों को निर्णयकर्ताओं द्वारा जल्द स्वीकारे जाने की संभावना रहती है. इन आकलनों में डेटा की एक पूरी श्रृंखला की दरकार होती है, और सूक्ष्म स्तर पर डेटा की ग़ैर-उपलब्धता बड़ी चुनौती है. सरकार या नए ज़िलों के निचले स्तरों पर चुनिंदा जनसांख्यिकीय समूहों के साथ-साथ जलवायु-संबंधित संकेतकों के लिए डेटा आम तौर पर उपलब्ध नहीं होते हैं. इसके अतिरिक्त, डेटासेट्स को स्वचालित रूप से अपडेट करने और अनुकूलन क़वायदों पर निगरानी रखने वाली गतिशील प्रणाली का अभाव है. इतना ही नहीं, विभागों द्वारा किए गए अनुकूलन प्रयासों की भी किल्लत है. भविष्य के जलवायु अनुमानों और परिदृश्यों की गुणवत्ता और संकल्प को बढ़ाने की भी आवश्यकता है.

समय खपाने वाली और संसाधन-गहन प्रक्रियाएं

समय और कर्मियों के संदर्भ में निवेश की ज़रूरत प्रासंगिक डेटा और तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर करती है. हो सकता है कि सेकेंडरी डेटा का उपयोग करने वाले मूल्यांकनों में प्राथमिक डेटा के संग्रहण की तुलना में कम समय की ज़रूरत पड़े. कुछ बॉटम-अप उपकरणों, रूपरेखाओं, और पद्धतियों में प्रशिक्षित फील्ड स्टाफ और बेसलाइन डेटा की विशिष्ट समझ की भी आवश्यकता हो सकती है, जो निर्णय-कर्ताओं द्वारा इन आकलनों के धीमी रफ़्तार से स्वीकारे जाने की परिस्थिति बना सकती है. ये आकलन को समय खपाने वाला और जटिल बना सकता है.

क्षेत्रवार रूप से मूल्यांकनों का अभाव

हाल के अर्से में राष्ट्रीय स्तर पर अनेक जलवायु जोख़िम और असुरक्षा आकलन हुए हैं. इनमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा साझा रूपरेखा के उपयोग से भारत में अनुकूलन नियोजन के लिए जलवायु असुरक्षा मूल्यांकन शामिल हैं. हालांकि भारत की जलवायु कार्य योजना में विचारे गए हरेक क्षेत्र के लिए सूक्ष्म पैमाने पर जलवायु संवेदनशीलता और जोख़िम की समझ विकसित किए जाने की आवश्यकता है. इसके अतिरिक्त, क्षेत्रवार नियोजन में जलवायु परिवर्तन से जुड़े विचारों को शामिल करना ज़्यादातर क्षेत्रवार विभागों और श्रृंखला मंत्रालयों के लिए अब भी प्राथमिकता नहीं है; वो अब भी ऐतिहासिक बेसलाइनों पर ही निर्भर हैं और बदलती जलवायु व्यवस्था के नतीजे के तौर पर भावी जलवायु जोख़िमों पर विचार नहीं करते हैं. इतना ही नहीं, आकलनों के आयोजन में प्रासंगिक सूचना जुटाने के लिए अंतर-क्षेत्रीय और अंतर-विभागीय समन्वय का भी अभाव है.[xlii] CRIDA ने IPCC के AR5 फ्रेमवर्क के आधार पर अखिल भारतीय स्तर पर ज़िला-दर-ज़िला असुरक्षा और जोख़िम आकलन का विकास किया है.[xliii] अन्य आर्थिक और विकासात्मक क्षेत्रों में ऐसे ही आकलनों को उपलब्ध कराए जाने की दरकार है. इनमें शहरी निवास, जंगल, जल संसाधन, ऊर्जा, तटीय इलाक़े, और मानवीय स्वास्थ्य शामिल हैं.

प्रशिक्षण और क्षमता का अभाव

जलवायु असुरक्षा और जोख़िम आकलन सीधे-सीधे संकेतक-आधारित अध्ययनों से लेकर समग्र गुणवत्ता विमर्श परिदृश्यों तक होते हैं, जिसके लिए तकनीकी और क्षेत्रवार विशेषज्ञता की ज़रूरत हो सकती है. जलवायु जोख़िम और संवेदनशीलता की तकनीकी समझ सीमित है, और इन अपर्याप्तताओं का दीर्घकाल में अनुकूलन निर्णय-प्रक्रिया पर अहम प्रभाव होता है. जलवायु से संबंधित डेटा और सूचनाओं के विश्लेषण के लिए राज्य श्रृंखला विभागों के पास शायद ही कभी आंतरिक तौर पर विशेषज्ञता मौजूद होती है. आमतौर पर बजट पर ज़्यादा दबाव होने के चलते क्षमता का भी अभाव होता है.

सिफ़ारिशें 

पारिस्थितिकी तंत्रों (इकोसिस्टम), जल संसाधनों, खेतीबाड़ी, ऊर्जा उत्पादन, परिवहन और निर्भर आजीविकाओं को प्रभावित करके जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में अर्थव्यवस्थाओं पर कुप्रभाव डालने की क्षमता रखता है. आमतौर पर ग़रीब और कमज़ोर तबक़े ही जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं. किफ़ायती, मापनीय (स्केलेबल) समाधान संभव हैं और विकासशील देशों को जलवायु लचीलापन तैयार करने में सक्षम बना सकते हैं. जलवायु के बदलते स्वभाव, जलवायु ख़तरों, जोख़िम से संपर्कों, संवेदनशीलताओं के साथ-साथ इंसानों, उनके आवासों और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्रों की प्रचलित अनुकूलन क्षमताओं को समझने में जलवायु परिवर्तन VRA एक आवश्यक और पूर्व-अपेक्षित क़दम है. जलवायु परिवर्तन के हिसाब से अनुकूलन सुनिश्चित करने के लिए केंद्रित रणनीतियों की संरचना बनाने और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए VRAs को सरकारों के साथ-साथ निजी क्षेत्र द्वारा भी उपयोग में लाया जा सकता है. ये निम्नलिखित सिफ़ारिशों का आधार तैयार करता है, जो उन उपकरणों को दर्शाने वाले साहित्य की गहन समीक्षा पर आधारित है जिनको राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों पर जलवायु संवेदनशीलता के आकलन के लिए तमाम क्षेत्रों पर लागू किया जा सकता है.

आकलन प्रक्रिया को सरल बनाना

जलवायु असुरक्षा पर भविष्य की ओर उन्मुख आकलनों की संरचना के लिए मौजूदा और भावी जलवायु जोख़िमों के विस्तृत मूल्यांकन की ज़रूरत होती है. इस प्रक्रिया के लिए काफ़ी समय और कर्मियों की आवश्यकता होती है. लिहाज़ा आभासी तौर पर किसी भी पैमाने (स्थानीय से वैश्विक) पर पहले से घटाए गए जलवायु डेटा की व्यापक श्रृंखला के विश्लेषण के लिए एक ऐप्लिकेशन या साफ्टवेयर का विकास करके प्रक्रिया को सरल बनाए जाने की दरकार है. ये स्वचालन आगे तमाम जलवायु परिदृश्यों को तेज़ी से विकसित करने में मदद कर सकता है. वैसे तो आकलनों के आयोजन के लिए स्वचालित उपकरण मौजूद हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर लाइसेंसप्राप्त और भुगतान किए गए हैं. सहज-ज्ञान भरे और प्रयोगकर्ता के अनुकूल इंटरफेस के ज़रिए विभिन्न यूज़र्स की विशिष्ट सूचना ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक ओपन-एक्सेस स्वचालित उपकरण की ज़रूरत है. बुनियादी स्तर पर एक प्रयोगकर्ता को जलवायु और आर्थिक परिदृश्य चुनने, संकेतकों के समूह से चुनाव करने, मॉडलों को संचालित करने, और विश्लेषणों की पहचान करने में निश्चित रूप से सक्षम होना चाहिए. इसके अतिरिक्त, इंटरफेस को ज़्यादा पेशेवर उपयोगकर्ताओं के लिए उन्नत संवादों की अनुमति देनी चाहिए. यूज़र्स को डेटा को एडिट करने, उनके अपने संकेतकों का इस्तेमाल करने, और यहां तक कि संभावित रूप से मॉडलों के एल्गोरिदम्स में बदलाव करने में सक्षम होना चाहिए. इस ऐप्लिकेशन को उपयोगकर्ताओं को उपयुक्त पद्धति चुनने की भी छूट देनी चाहिए. किसी क्षेत्र के लिए निर्धारित क्षेत्राधिकार पैमाने पर आकलन के लिए डेटा और उपकरणों के बारे में निर्णय करने को लेकर एक सुविचारित मार्ग मुहैया कराकर इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है.

बॉक्स 1: जलवायु जोख़िम और संवेदनशीलता आकलनों के लिए स्वचालित उपकरण[xliv],[xlv]

जलवायु असुरक्षा और जोख़िम के मूल्यांकन को सुविधाजनक बनाने के लिए विकास के अभ्यासकर्ताओं और निर्णयकर्ताओं की मदद के लिए अनेक स्वचालित उपकरणों और सॉफ्टवेयर का विकास और अगुवाई की जा रही हैं. CoDriVE और CRiSTAL जैसे उपकरण जलवायु परिवर्तन के प्रति असुरक्षित लोगों के विशिष्ट समूहों और समुदायों की पहचान कर सकते हैं. ये उपकरण छोटे स्थानिक पैमानों पर मूल्यांकन की छूट देते हैं और परियोजनाओं की संरचना बनाने और उनके क्रियान्वयन में शामिल किसी भी पक्ष के लिए उपयोगी होते हैं. इनमें NGOs, ज़िला-स्तरीय अधिकारी, सरकार के श्रृंखला विभागों के साथ नज़दीकी से काम करने वाले सुविधा-प्रदाता, पंचायती राज संस्थान (PRIs), और ख़ुद समुदाय शामिल हैं.

जलवायु डेटा की उपलब्धता, पहुंच और गुणवत्ता में सुधार

इन आकलनों में विभिन्न प्रकार के डेटा का उपयोग होता है. इनमें पारिस्थितिकी बेसलाइनों से लेकर सामाजिक असुरक्षा, आर्थिक आजीविका, और जलवायु और मौसम अनुमानों तक के डेटा शामिल हैं. वैसे तो ज़्यादातर डेटा राज्य के विभागों और सरकारी कोष वाले शोध संस्थानों के पास उपलब्ध हैं, लेकिन और सूक्ष्म स्तर (जैसे प्रखंड या कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्र स्तर) पर डेटा की उपलब्धता सुनिश्चित करने की अब भी दरकार है. आकलन की प्रक्रिया को और आसान बनाने और ठोस और स्वीकार्य परिणाम सुनिश्चित करने के लिए उपकरणों और डेटा तक खुली पहुंच मुहैया कराना आवश्यक है. अतीत में किए गए राष्ट्रीय स्तर के आकलनों और अन्य प्रासंगिक जलवायु अध्ययनों में मौजूदा जलवायु डेटा और सूचना का भंडार पहले से उपलब्ध है. हालांकि, हो सकता है कि ये डेटा आवश्यक अस्थायी या स्थानिक पैमाने पर उपलब्ध ना हों, लिहाज़ा जलवायु संबंधित डेटा की पारदर्शी रिपोर्टिंग के लिए डेटा और सूचना प्रबंधन प्रणालियों के विकास की आवश्यकता है. जलवायु संबंधित डेटा और भावी अनुमानों के प्रसार के लिए एक साझा मंच की भी दरकार है. इस डेटा को नियमित रूप से अपडेट करने की भी ज़रूरत है, ख़ासतौर से ग्राम पंचायत, नगर, ज़िला, और राज्य स्तर पर ऐसी क़वायद ज़रूरी है. एक मौजूदा मंच (GIZ का जलवायु सूचना पोर्टल) जलवायु के ऐतिहासिक रुझान और भविष्य के अनुमान उपलब्ध कराता है. पारिस्थितिक, सामाजिक और आर्थिक संकेतकों पर अन्य प्रासंगिक आंकड़ों के प्रसार के लिए ऐसे और पोर्टलों की ज़रूरत है. इसके अलावा, अलग-अलग स्थानिक पैमानों पर मात्रात्मक मामलों के अध्ययनों और गुणवत्तात्मक विमर्श परिदृश्यों का एक संग्रह उपलब्ध कराने की आवश्यकता है. जलवायु-संबंधित डेटा की उपलब्धता को सक्षम बनाने के लिए मौसम की उन्नत निगरानी को लेकर बुनियादी ढांचे में निवेश भी बेहद ज़रूरी है.

विकासात्मक नियोजन में जलवायु जोख़िम विचारों को शामिल करना

जलवायु परिवर्तन, विकास के सभी क्षेत्रों पर असर डालने वाला एक व्यापक मुद्दा है. विकास नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों के निर्माण में जलवायु के नज़रिए को लागू करने में जलवायु असुरक्षा और जोख़िम आकलन उपयोगी हो सकते हैं. क्षेत्रवार कार्यक्रमों और नीतियों के ज़रिए जलवायु परिवर्तन चिंताओं पर एकाकी रूप से ध्यान दिए जाने की बजाए विकास योजनाओं में इन आकलनों को मुख्य धारा में शामिल करना आवश्यक है. जलवायु ख़तरों के ख़िलाफ़ लचीलापन तैयार करने के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्टों और ‘स्मार्ट सिटी’ प्रस्तावों के उप-खंडों में जलवाय संवेदनशीलता और जोख़िम आकलन को स्थान दिया जाना चाहिए. परियोजना प्रस्तावों के प्रदर्शन की पड़ताल के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मानदंडों में इन्हें एकीकृत किया जा सकता है. आगे ये बेहद जोख़िम भरी परियोजनाओं से बचे रहने, जलवायु-रोधी उपाय विकसित करने, और नाज़ुक परियोजनाओं के लिए वित्त इकट्ठा करने को लेकर एक अवसर उपलब्ध करा सकता है.

जलवायु जोख़िम रोकथाम में निवेश के लिए प्रोत्साहन उपलब्ध कराने को लेकर इन आकलनों को बीमा या वैकल्पिक नीति उपकरणों में भी शामिल किए जाने की आवश्यकता है. क्लाइमेट रिस्क होराइज़न्स द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में ज़्यादातर बैंकों ने अपने निवेश के जलवायु लचीलेपन की माप के लिए जलवायु-संबंधित परिदृश्य विश्लेषण या जोख़िम आकलन नहीं किए हैं. वैश्विक स्तर पर ये शुरुआती चरण में है; हालांकि भारत के वित्तीय क्षेत्र को इन आकलनों का आयोजन करने और तमाम भौतिक और संक्रमणकारी जलवायु जोख़िमों के ख़िलाफ़ लचीलापन तैयार करने में क्षमता निर्माण करने की ज़रूरत है.[xlvi]

बॉक्स 2: जर्मनी में जलवायु अनुकूलन को मुख्य धारा में लाना[xlvii]

जलवायु परिवर्तन असुरक्षा और अनुकूलन को राष्ट्रीय रूपरेखाओं और पर्यावरणीय प्रभाव आकलनों में शामिल किया गया है. प्रमुख भूमि उपयोग, स्थानिक नियोजन, शहरी योजनाओं और समुद्री स्थानिक नियोजन नीतियां जलवायु परिवर्तन प्रभावों के लिए ज़िम्मेदार हैं. इनके अतिरिक्त, अनुकूलन को बीमा और वैकल्पिक नीति उपकरणों में मुख्य धारा में जोड़ा गया है ताकि जलवायु जोख़िम रोकथाम में निवेशों के लिए प्रोत्साहन मुहैया कराए जा सकें.

राष्ट्रीय और राज्य बजटों को जलवायु-रोधी बनाना

जलवायु परिवर्तन से मुक़ाबले में राजकोषीय नीति सरकारों की रणनीति का एक अनिवार्य हिस्सा होती है. भारत के सार्वजनिक वित्त प्रबंधन तंत्र (ख़ासतौर से राष्ट्रीय और राज्य बजटों) में जलवायु परिवर्तन चिंताओं को एकीकृत करके इन नीतियों के प्रभाव को आगे और बढ़ाने की ज़रूरत है.[xlviii] हरेक क्षेत्रीय कार्यक्रम के तहत जलवायु अनुकूलन के लिए फंडिंग की अतिरिक्त ज़रूरतों को दर्शाने वाले बजटीय पत्र तैयार करने में ये मूल्यांकन मदद कर सकते हैं. जलवायु परिवर्तन पर अतिरिक्त कार्रवाई से जुड़े हरेक कार्यक्रम के लिए ये नए व्यय प्रस्ताव तैयार करने की क़वायदों में भी सहायता पहुंचा सकते हैं.

नवाचार और ज्ञान के सृजन को सक्षम बनाने के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण

जलवायु असुरक्षा को विकास अभ्यासों में एकीकृत करने की क्षमता और विशेषज्ञता का तमाम क्षेत्रों में अभाव है, और राज्य के अधिकारियों के पास शायद ही इन आकलनों को अंजाम देने की आंतरिक विशेषज्ञता या प्रशिक्षण मौजूद है. शब्दावलियों की परिभाषाओं में विविधता ने इस चुनौती को और बढ़ा दिया है; ‘संपर्क या एक्सपोज़र’ और ‘संवेदनशीलता’ जैसी तकनीकी शब्दावलियां स्थानीय किरदारों और निर्णयकर्ताओं के लिए बोझिल हो सकती हैं. प्रखंड, ज़िला और राज्य स्तर पर विभागीय नियोजन के लिए इन आकलनों की परिकल्पना और उपयोग पर जागरूकता बढ़ाने को लेकर राज्य जलवायु परिवर्तन सेल के अधिकारियों के सहयोग से समय-समय पर प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यशालाओं का आयोजन किया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन रुझानों और अनुमानों, प्रभावों, असुरक्षाओं, और जोख़िमों पर ठोस वैज्ञानिक सूचनाएं मुहैया कराने वाली प्रशिक्षण कार्यशालाओं के ज़रिए स्थानीय किरदारों (जैसे पार्षदों और राज्य के विधायकों) को संवेदनशील बनाने की भी आवश्यकता है.

ये स्थिति चुनिंदा मध्यस्थों से निर्णयकर्ताओं के साथ लगातार काम करने का आह्वान करती है, ताकि सूचना की पहचान, विश्लेषण और संचार हो सके. ये मध्यस्थ विश्वविद्यालय और थिंक टैंक्स हो सकते हैं, जो आकलन के लिए उपकरणों और तौर-तरीक़ों पर अनुसंधान और क्षमता निर्माण को बढ़ावा देते हैं. साथ ही तकनीकी शब्दजाल और अन्य सूचना का सरल भाषा में अनुवाद करते हैं. मध्यस्थ ग़ैर-सरकारी संगठन या NGOs भी हो सकते हैं, जो स्टेकहोल्डर्स के विविध समूह के साथ संचार के लिए प्रशिक्षणों और कार्यशालाओं का आयोजन करते हैं. इनमें ग्राम पंचायतों से लेकर युवा संगठन और स्थानीय महिलाओं के स्वयं-सहायता समूह और सरकारी अधिकारी शामिल हैं. इसके अतिरिक्त, निजी क्षेत्र के लिए जलवायु जोख़िमों और असुरक्षाओं से संबंधित क्षमता निर्माण बेहतर निवेश निर्णय लेने और अनुकूलन फाइनेंसिंग की ओर पूंजी इकट्ठा करने को लेकर धीरे-धीरे अहम हो गया है. लिहाज़ा, इन आकलनों को प्राथमिकता देने और इन्हें परिचालित करने के साथ-साथ अनुकूलन के लिए वित्त के बेहतर आवंटन में आकलनों की भूमिका के बारे में स्टेकहोल्डर्स को संवेदनशील बनाने की दिशा में क्षमताओं के निर्माण की आवश्यकता है.

बॉक्स 3: केन्या में क्षमता निर्माण पहल[xlix]

अनुकूलन को लेकर ठोस निर्णय लेने के लिए सूचना और सलाहकारी सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से केन्या ने कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के लिए एक परामर्शकारी मंच की शुरुआत की. इस मंच में शैक्षणिक संस्थान, अंतर-सरकारी शोध संगठन, और अन्य सरकारी संस्थाएं शामिल हैं. जलवायु परिवर्तन की संवेदनशीलता और अनुकूलन पर विविध प्रकार की सूचनाएं उपलब्ध करा कर इसने निर्णय लेने में सरकार की भारी सहायता की है..

संचार, प्रसार, और संपर्कों को आगे बढ़ाना

अगर निर्णयकर्ताओं ने जलवायु असुरक्षा और जोख़िम आकलनों को विश्वसनीय और वैध माना तो इनमें कायाकल्पकारी उपकरण साबित होने की पूरी संभावना मौजूद है. इसमें जलवायु असुरक्षा के आकलन की प्रक्रिया को पारदर्शी और समावेशी बनाना शामिल है. लिहाज़ा, जलवायु असुरक्षा और जोख़िम आकलन प्रक्रिया में समाज के विभिन्न खंडों का प्रतिनिधित्व करने वाले स्टेकहोल्डर्स को जोड़ना आवश्यक है. इसके साथ-साथ इन आकलनों के डेवलपर्स, प्रैक्टिसनर्स और अंतिम उपयोगकर्ताओं के बीच संवाद क़ायम करने की भी दरकार है. स्थानीय किरदारों और निर्णयकर्ताओं के व्यापक दायरे तक पहुंच बनाने के लिए संचार के अनेक मार्गों को अपनाकर इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है. अध्ययन की शुरुआत में राज्य जलवायु परिवर्तन सेल अधिकारियों के साथ सहयोग करके समय-समय पर कार्यशालाओं के आयोजन किए जा सकते हैं. इसके बाद क्षमता निर्माण और प्रसार कार्यशालाएं की जा सकती हैं. ये उपयुक्त संकेतकों और डेटा प्वाइंट्स के चयन, आकलन के ढांचे, क्रियान्वयन के तौर-तरीक़े, और आकलन के परिणाम के तौर पर उत्पादित होने वाले उत्पाद के प्रकार में विचार-मंथनों को सुविधाजनक बना सकता है. इसके अलावा, समय के साथ सूचना को और ज़्यादा निर्णय-प्रासंगिक बनाने के लिए इन मूल्यांकनों को विशिष्ट आबादियों के लिए सारांशित या तैयार किया जा सकता है.

निष्कर्ष

जलवायु अनुकूलन योजना के लिए जलवायु असुरक्षा और जोख़िम आकलन आवश्यक है, क्योंकि ये जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे ज़्यादा जोख़िम में रहने वाले क्षेत्रों, आबादियों और प्रणालियों की पहचान में मदद करते हैं. अनुकूलन परियोजनाओं के विकास और बहुपक्षीय वित्त जुटाने के लिए इन्हें उपकरण के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है. जलवायु प्रभावों, असुरक्षाओं, और जोख़िम का मूल्यांकन करके ये आकलन पेरिस समझौते के आर्टिकल 9 के तहत रिपोर्टिंग में भी योगदान देते हैं, और राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाओं के निर्माण में भी मदद करते हैं. ये प्रमाण-आधारित अध्ययनों से भी कहीं ज़्यादा हो सकते हैं, क्योंकि ये किसी इलाक़े के लिए तैयार अनुकूलन हस्तक्षेपों को शामिल कर सकते हैं.

हालांकि, भारत में, शायद ही ऐसा कोई विकास कार्यक्रम या परियोजना है, जिसे जलवायु असुरक्षा और जोख़िम आकलन (VRA) के आधार पर क्रियान्वित किया जा रहा हो. इसके साथ ही, जलवायु लचीलापन भारत में निवेश प्रस्तावों के उप-खंडों में जगह बनाने को लेकर अब भी जद्दोजहद कर रहा है. उप-राष्ट्रीय स्तर पर श्रृंखला विभागों द्वारा इन मूल्यांकनों को अपनाए जाने की रफ़्तार भी धीमी रही है.

ये पेपर भारत में सबसे ज़्यादा प्रचलित टॉप-डाउन और बॉटम-अप रूपरेखाओं, गणना पद्धतियों, और उपकरणों की समीक्षा के ज़रिए VRA अपनाने के रास्ते की बाधाओं के विश्लेषण के लिए तैयार किया गया है. जलवायु असुरक्षा और जोख़िम आकलन संसाधन-सघन हो सकते हैं. साथ ही इसमें डेटा के विश्लेषण और कार्रवाई योग्य सूचना के लिए विशेषज्ञता की ज़रूरत होती है. ये मूल्यांकन डेटा-गहन होते हैं, और सटीक और ताज़ातरीन डेटा पर निर्भर करते हैं जो प्रशासन के निचले स्तरों पर उपलब्ध नहीं है. इसके अतिरिक्त, निर्णयकर्ताओं में जागरूकता और तकनीकी क्षमता का अभाव होता है.

पार्षदों और राज्य के विधायकों जैसे स्थानीय किरदारों को संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की तत्काल आवश्यकता है. समय-समय पर जलवायु रुझानों और अनुमानों पर ठोस वैज्ञानिक सूचना मुहैया कराने वाली कार्यशालाओं के ज़रिए इस क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है. इन मूल्यांकनों को विकास योजनाओं की मुख्य धारा में शामिल करना भी ज़रूरी है. इसे जलवायु बजट निर्माण, विस्तृत परियोजना रिपोर्टों और निवेश प्रस्तावों का अनिवार्य हिस्सा बनाकर ऐसा किया जा सकता है. ये आकलन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के सबसे ज़्यादा ख़तरे में रहने वाले क्षेत्रों, आबादियों और प्रणालियों की पहचान करने में मदद कर सकते हैं. इसके साथ ही नीति और निवेश निर्णयों को सूचित करते हुए अनुकूलन और रोकथाम रणनीतियों के विकास का मार्गदर्शन भी कर सकते हैं. जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ाने में ये क़वायद मददगार साबित हो सकती है, जो भरोसा बनाने और सार्वजनिक जुड़ाव बढ़ाने में सहायता कर सकते हैं.


गोपालिका अरोड़ा ओआरएफ के सेंटर फॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ में एसोसिएट फेलो हैं.


Endnotes

[i] Hans-O. Pörtner, Debra C. Roberts, Elvira Poloczanska, Katja Mintenbeck, M. Tignor, A. Alegría, Marlies Craig, Stefanie Langsdorf, S. Löschke, Vincent Möller and Andrew Okem, IPCC 2022: Summary for Policymakers, Cambridge and New York, Cambridge University Press, 2022, https://www.ipcc.ch/report/ar6/wg2/downloads/report/IPCC_AR6_WGII_SummaryForPolicymakers.pdf

[ii] Global Programme on Risk Assessment and Management for Adaptation to Climate Change (Loss and Damage), Assessment of climate-related risks: A 6-step methodology, Bonn, Deutsche Gesellschaft für Internationale Zusammenarbeit (GIZ), 2021, https://www.giz.de/en/downloads/giz2021-en-climate-related-risk.pdf

[iii] India Meteorological Department, Annual Report 2021, New Delhi, Information Science & Knowledge Resource Development Division, Ministry Of Earth Sciences, 2022, https://mausam.imd.gov.in/imd_latest/contents/ar2021.pdf

[iv] Anil K. Gupta, Shashikant Chopde, Sreeja S. Nair, Swati Singh and Sonal Bindal, Mapping Climatic and Biological Disasters in India: Study of Spatial & Temporal Patterns and Lessons for Strengthening Resilience, New Delhi, Deutsche Gesellschaft für Internationale Zusammenarbeit (GIZ) GmbH India, 2021, https://nidm.gov.in/PDF/pubs/GIZNIDM_21.pdf

[v] David Eckstein, Vera Künzel and Laura Schäfer, Global Climate Risk Index 2021: Who Suffers Most from Extreme Weather Events? Weather-Related Loss Events in 2019 and 2000-2019, Berlin, Germanwatch e.V., 2021, https://germanwatch.org/sites/default/files/Global%20Climate%20Risk%20Index%202021_1.pdf

[vi] Abinash Mohanty and Shreya Wadhawan, Mapping India’s Climate Vulnerability: A District level Assessment, , New Delhi, India, Council on Energy, Environment and Water , 2021, https://www.ceew.in/sites/default/files/ceew-study-on-climate-change-vulnerability-index-and-district-level-risk-assessment.pdf

[vii] Indian Institute of Technology Mandi and Indian Institute of Technology Guwahati, Climate Vulnerability Assessment for Adaptation Planning in India Using a Common Framework, Department of Science and Technology, Government of India and Swiss Agency for Development and Cooperation (SDC), 2020 https://dst.gov.in/sites/default/files/Full%20Report%20%281%29.pdf

[viii] C. A. Rama Rao, B. M. K. Raju, Adlul Islam, A. V. M. Subba Rao, K. V. Rao, G. Ravindra Chary, R. Nagarjuna Kumar, M. Prabhakar, K. Sammi Reddy, S. Bhaskar and S. K. Chaudhari, Risk and Vulnerability Assessment of Indian Agriculture to Climate Change, Hyderabad, ICAR-Central Research Institute for Dryland Agriculture, 2019, http://www.nicra-icar.in/nicrarevised/images/publications/Risk%20&%20vulnerability%20assessment%20of%20Indian%20agriculture%20to%20climate%20change.pdf

[ix] Manoj Kumar et al., “Indicator-based vulnerability assessment of forest ecosystem in the Indian Western Himalayas: An analytical hierarchy process integrated approach,” Ecological Indicators, Volume 125 (2021), https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/S1470160X21002338

[x] Prime Minister’s Council on Climate Change, National Action Plan on Climate Change, Government of India, 2008, http://www.nicra-icar.in/nicrarevised/images/Mission%20Documents/National-Action-Plan-on-Climate-Change.pdf

[xi] Stephen H. Schneider, Serguei Semenov and Anand Patwardhan, Assessing key vulnerabilities and the risk

from climate change. Climate Change: Impacts, Adaptation and Vulnerability, Contribution of Working Group II

to the Fourth Assessment Report of the Intergovernmental Panel on Climate Change, Cambridge University

Press, Cambridge, UK, 2017, https://archive.ipcc.ch/pdf/assessment-report/ar4/wg2/ar4-wg2-chapter19.pdf

[xii] Chandni Singh et al., “How do we assess vulnerability to climate change in India? A systematic review of literature,” Regional Environmental Change, vol. 17 (2016), https://sci-hub.ru/10.1007/s10113-016-1043-y

[xiii] Alexandra Jurgilevich et. al., “A systematic review of dynamics in climate risk and vulnerability assessments,” Environmental Research Letters, vol. 12 (2017), https://iopscience.iop.org/article/10.1088/1748-9326/aa5508

[xiv] Erin Joakim et al., “Using Vulnerability and Resilience Concepts to Advance Climate Change Adaptation,” Environmental Hazards, vol. 14 (2015), https://www.researchgate.net/publication/272168184_Using_Vulnerability_and_Resilience_Concepts_to_Advance_Climate_Change_Adaptation

[xv] Chandni Singh et al., “How do we assess vulnerability to climate change in India? A systematic review of literature”

[xvi] Alexandra Jurgilevich et al., “A systematic review of dynamics in climate risk and vulnerability assessments”

[xvii] S. K. Maharjan et al., “Participatory vulnerability assessment of climate vulnerabilities and impacts in Madi Valley of Chitwan district, Nepal,” Cogent Food & Agriculture, (2017), https://www.tandfonline.com/doi/pdf/10.1080/23311932.2017.1310078?needAccess=true&role=button

[xviii] IPCC, Climate Change 2014: Synthesis Report, Contribution of Working Groups I, II and III to the Fifth Assessment Report of the Intergovernmental Panel on Climate Change, Geneva, IPCC, 2014, https://www.ipcc.ch/report/ar5/syr/

[xix] Jochen Hinkel, “Indicators of vulnerability and adaptive capacity: Towards a clarification of the science-policy interface,” Global Environmental Change, vol. 21 (2011), https://www.sciencedirect.com/science/article/abs/pii/S0959378010000750

[xx] “Assessing key vulnerabilities and the risk from climate change: Climate Change: Impacts, Adaptation and

Vulnerability”

[xxi] “Assessing key vulnerabilities and the risk from climate change: Climate Change: Impacts, Adaptation and

Vulnerability”

[xxii] Rama Rao et al., “Risk and Vulnerability Assessment of Indian Agriculture to Climate Change”, ICAR-Central Research Institute for Dryland Agriculture, Hyderabad, P.124, (2019), http://www.nicra-icar.in/nicrarevised/images/publications/Risk%20&%20vulnerability%20assessment%20of%20Indian%20agriculture%20to%20climate%20change.pdf

[xxiii] IPCC, Emergent risks and key vulnerabilities, Climate Change 2014: Impacts, Adaptation, and Vulnerability,

Contribution of Working Groups I, II and III to the Fifth Assessment Report of the Intergovernmental Panel on

Climate Change, Geneva, Switzerland, IPCC, 2014, https://www.ipcc.ch/site/assets/uploads/2018/02/WGIIAR5-Chap19_FINAL.pdf

[xxiv] IPCC, “Climate Change 2014: Synthesis Report”, Working Groups I, II and III to the Fifth

Assessment Report of the Intergovernmental Panel on Climate Change, Geneva, Switzerland, 2014, https://www.ipcc.ch/site/assets/uploads/2018/02/SYR_AR5_FINAL_full.pdf

[xxv] Indian Institute of Technology Guwahati and Indian Institute of Technology Mandi, Climate Vulnerability Assessment for the Indian Himalayan Region Using a Common Framework, Department of Science and Technology, Government of India and Swiss Agency for Development and Cooperation (SDC), 2019, https://dst.gov.in/sites/default/files/IHCAP_Climate%20Vulnerability%20Assessment_30Nov2018_Final_aw.pdf

[xxvi] “Emergent risks and key vulnerabilities, Climate Change 2014: Impacts, Adaptation, and Vulnerability”

[xxvii] Shouvik Das et al., “Linking IPCC AR4 & AR5 frameworks for assessing vulnerability and risk to climate change in the Indian Bengal Delta,” Progress in Disaster Science, vol. 7 (2020), https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/S2590061720300478

[xxviii] Indian Institute of Technology Guwahati and Indian Institute of Technology Mandi, Climate Vulnerability Assessment for the Indian Himalayan Region Using a Common Framework, Department of Science and Technology, Government of India and Swiss Agency for Development and Cooperation (SDC), 2019, https://dst.gov.in/sites/default/files/IHCAP_Climate%20Vulnerability%20Assessment_30Nov2018_Final_aw.pdf

[xxix] Rama Rao et al., “Risk and Vulnerability Assessment of Indian Agriculture to Climate Change”, ICAR-Central Research Institute for Dryland Agriculture, Hyderabad, P.124, (2019), http://www.nicra-icar.in/nicrarevised/images/publications/Risk%20&%20vulnerability%20assessment%20of%20Indian%20agriculture%20to%20climate%20change.pdf

[xxx] Prime Minister’s Council on Climate Change, National Action Plan on Climate Change, Government of India, 2008, http://www.nicra-icar.in/nicrarevised/images/Mission%20Documents/National-Action-Plan-on-Climate-Change.pdf

[xxxi] Sara Wolf et al., “Clarifying vulnerability definitions and assessments using formalisation”, International Journal of Climate Change Strategies and Management, Vol. 5 No. 1, pp. 54-70, (2013), https://www.emerald.com/insight/content/doi/10.1108/17568691311299363/full/html?skipTracking=true

[xxxii] Manoj Kumar et al., “Indicator-based vulnerability assessment of forest ecosystem in the Indian Western Himalayas: An analytical hierarchy process integrated approach.” Ecological Indicators 125 (2021) https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/S1470160X21002338

[xxxiii] Climate Change Adaptation in Rural Areas of India (CCA RAI), A Framework for Climate Change Vulnerability Assessments, New Delhi, Deutsche Gesellschaft für Internationale Zusammenarbeit (GIZ) GmbH India, 2014, https://www.adaptationcommunity.net/download/va/vulnerability-guides-manuals-reports/Framework_for_Climate_Change_Vulnerability_Assessments_-_GIZ_2014.pdf

[xxxiv] Ram A. Barankin et al., “Evidence-Driven Approach for Assessing Social Vulnerability and Equality During Extreme Climatic Events,” Frontiers in Water, vol. 2 (2021), https://www.frontiersin.org/articles/10.3389/frwa.2020.544141/full

[xxxv] “A Framework for Climate Change Vulnerability Assessments”

[xxxvi] Indian Institute of Technology Guwahati and Indian Institute of Technology Mandi, Climate Vulnerability Assessment for the Indian Himalayan Region Using a Common Framework, Department of Science and Technology, Government of India and Swiss Agency for Development and Cooperation (SDC), 2019, https://dst.gov.in/sites/default/files/IHCAP_Climate%20Vulnerability%20Assessment_30Nov2018_Final_aw.pdf

[xxxvii] Rama Rao et al., “Risk and Vulnerability Assessment of Indian Agriculture to Climate Change”, ICAR-Central Research Institute for Dryland Agriculture, Hyderabad, P.124, (2019), http://www.nicra-icar.in/nicrarevised/images/publications/Risk%20&%20vulnerability%20assessment%20of%20Indian%20agriculture%20to%20climate%20change.pdf

[xxxviii] Kerstin Fritzsche, Stefan Schneiderbauer, Philip Bubeck, Stefan Kienberger, Mareike Buth, Marc Zebisch and Walter Kahlenborn, The Vulnerability Sourcebook: Concept and guidelines for standardised vulnerability assessments, Deutsche Gesellschaft für Internationale Zusammenarbeit (GIZ) GmbH, 2014, https://www.adaptationcommunity.net/download/va/vulnerability-guides-manuals-reports/vuln_source_2017_EN.pdf

[xxxix] GIZ and EURAC, “Risk Supplement to the Vulnerability Sourcebook. Guidance on how to apply the Vulnerability Sourcebook’s approach with the new IPCC AR5 concept of climate risk”.

Deutsche Gesellschaft für Internationale Zusammenarbeit (GIZ) GmbH, 2017, https://www.adaptationcommunity.net/wp-content/uploads/2017/10/GIZ-2017_Risk-Supplement-to-the-Vulnerability-Sourcebook.pdf

[xl] Watershed Organisation Trust, A Handbook: CoDriVE – Visual Integrator for Climate Change Adaptation: Guiding Principles, Steps and Potential for Use, Pune, Watershed Organisation Trust (WOTR), 2013, https://wotr-website-publications.s3.ap-south-1.amazonaws.com/76_WOTR_CoDriVE_Visual_Integrator_0.pdf

[xli] Cristal, CRiSTAL User’s Manual Version 5: Community-based Risk Screening Tool – Adaptation and Livelihoods, Winnipeg, The International Institute for Sustainable Development, 2012, https://www.iisd.org/system/files/publications/cristal_user_manual_v5_2012.pdf

[xlii] OECD, Integrating Climate Change Adaptation into Development Co-operation: Policy Guidance, Paris, OECD Publishing, 2009, https://www.oecd.org/env/cc/44887764.pdf

[xliii] “Risk and Vulnerability Assessment of Indian Agriculture to Climate Change”

[xliv] “A Handbook: CoDriVE – Visual Integrator for Climate Change Adaptation: Guiding Principles, Steps and Potential for Use”

[xlv] “CRiSTAL User’s Manual Version 5: Community-based Risk Screening Tool – Adaptation and Livelihoods”

[xlvi] Sagar Asapur and Ashish Fernandes, Unprepared: India’s big banks score poorly on climate challenge, Bangalore, Climate Risk Horizons, 2022, https://climateriskhorizons.com/research/Unprepared.pdf

[xlvii] European Climate Adaptation Platform (Climate-ADAPT), “Country fiches on climate change 2018”, Germany: European Commission, 2018, https://climate.ec.europa.eu/system/files/2018-11/country_fiche_de_en.pdf

[xlviii] Gopalika Arora, “Climate budgeting: Unlocking the potential of India’s fiscal policies for climate action,” Observer Research Foundation, April 26, 2023, https://www.orfonline.org/expert-speak/climate-budgeting/

[xlix] Climate Action Transparency, “Kenya Capacity-building Needs Assessment Report”, United Nations Office for Project Services, 2022, https://climateactiontransparency.org/wp-content/uploads/2022/06/Kenya-Capacity-building-needs-assessment-report.pdf

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