Published on Apr 27, 2024 Updated 0 Hours ago

ऐसा लगता है कि भारत की राजनीति केवल दो हालात में बड़े सुधारों को स्वीकार करती है राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक संकट

नाज़ुक राजनीतिक हालात: सुधारों के लिए एक ज़रूरी मगर पर्याप्त शर्त
घरेलू राजनीति और शासन, भारत, भारतीय अर्थव्यवस्था, राजनीतिक अर्थव्यवस्था आर्थिक संकट, कर सुधारडॉ. मनमोहन सिंह, पीवी नरसिम्हा राव,

भारत में तीस साल पहले हुए बड़े आर्थिक सुधारों का मूल्यांकन तब तक अधूरा रहेगा,बल्कि दोषपूर्ण रहेगा,जब तक हम देश में उस वक़्त के राजनीतिक हालात का विश्लेषण न करें.1991 के आर्थिक सुधार किसी राजनीतिक ख़ालीपन में नहीं हुए थे. उस वक्त की आर्थिक सोच और नीतिगत ज़रूरतों के साथ साथ उस दौर की राजनीति ने भी आर्थिक सुधारों के स्वरूप और रफ़्तार को तय करने में अहम भूमिका अदा की थी.सुधारों ने जिस तरह के आर्थिक बदलावों को जन्म दिया,वो उस समय के राजनीतिक समीकरणों का अटूट अंग थे.इस लेख में हम 1991 के आर्थिक सुधारों का मूल्यांकन उस दौर की राजनीतिक शक्तियों के हवाले से करने की कोशिश करेंगे और ये देखेंगे कि वो भारत में सुधारों के भविष्य के लिहाज़ से किस तरह प्रासंगिक हैं

आर्थिक सुधारों की शुरुआत के ठीक पहले उस समय देश के हालात कैसे थे,इस पर एक नज़र डाल लेना ठीक रहेगा.मईजून 1991में तीन चरणों में आम चुनाव पूरे होने के बाद कांग्रेस लोकसभा में केवल 232 सीट ही जीत सकीं थी.कांग्रेस,संसद के निचले सदन में सबसे बड़ी पार्टी तो थी,लेकिन,सरकार बनाने के लिए ज़रूरी बहुमत के आंकड़े से बहुत दूर थी.उस वक़्त देश के सामने इतना बड़ाराजनीतिक और आर्थिकसंकट था कि किसी भी दूसरी राजनीतिक पार्टी (120 सीट के साथ भारतीय जनता पार्टी दूसरे नंबर पर थी)ने सरकार बनाने का दावा नहीं किया.ऐसे में नई सरकार के गठन की ज़िम्मेदारी कांग्रेस पर ही आ गई और उसने अल्पमत सरकार बनाई.

भारत की विदेशी मुद्रा का भंडार ख़त्म हो रहा था और अप्रवासी भारतीय अपने पैसे निकाल रहे थे.इससे देश पर भुगतान के संकट का दबाव और बढ़ गया था.सरकार भी अपने ख़र्च के लिए पैसे का इंतज़ाम नहीं कर पा रही थी.

कांग्रेस के नेता के तौर पर उभरने और आख़िर में प्रधानमंत्री बनने वाले पीवी नरसिम्हा राव ने तो लोकसभा का चुनाव तक नहीं लड़ा था.सच तो ये है कि 20 जून को जब लोकसभा चुनाव के नतीजों का ऐलान हो रहा था,उस समय नरसिम्हा राव ने दिल्ली में अपना बोरिया-बिस्तर बांध लिया था और वो राजनीति से संन्यास लेने की सोच रहे थे.लेकिन,जब कांग्रेस ने उन्हें अपना नेता चुना,तो राव ने अल्पमत की सरकार की कमान संभाली.तब नरसिम्हा राव ने अभूतपूर्व साहस दिखाते हुए एक चौंकाने वाला फ़ैसला किया और आर्थिक मामलों का लंबा तजुर्बा रखने वाले टेक्नोक्रेट मनमोहन सिंह को अपना वित्तमंत्री बनाया.सरकार के पहले 100 दिनों के दौरान हुए बड़े आर्थिक सुधारों ने देश में बड़ा बदलाव लाने का काम किया.लेकिन,वो राजनीतिक उठापटक भी कम नहीं थी,जिसकी चपेट में देश उस वक़्त था.

जुलाई 1991 से पहले की राजनीतिक उठापटक

निश्चित रूप से इस राजनीतिक उथलपुथल के बीज जुलाई 1991से कई महीने पहले बोए जा चुके थे.पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षा और अंदरूनी झगड़े के चलते वीपी सिंह की अगुवाई वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का पतन हो चुका था;वीपी सिंह की सरकार नवंबर 1990 में गिरी थी और उस समय देश बड़ी तेज़ी से एक भयंकर आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा था राजीव गांधी की कांग्रेस का बाहर से समर्थन लेकर चंद्रशेखर की सरकार बनी.लेकिन,राजीव गांधी की मौक़ापरस्ती वाली राजनीति के चलते ये सरकार भी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी.राजीव गांधी केवल चुनावी फ़ायदा देख रहे थे.उन्होंने इस बात की पूरी तरह अनदेखी कर दी थी कि उनके फ़ैसलों से भारत की आर्थिक स्थिरता के लिए कितना बड़ा ख़तरा पैदा होगा.

कांग्रेस और चंद्रशेखर के बीच मतभेद,फरवरी 1991 में ही सामने आने शुरू हो गए थे. इन मतभेदों से सरकार गिरने का ख़तरा मंडराने लगा था. कांग्रेस ने ये भी सुनिश्चित किया कि वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा फरवरी के अंत में 1991-92 का वार्षिक बजट न पेश कर सकें.ये चंद्रशेखर के अर्थव्यवस्था को संभालने की कोशिश को बड़ा राजनीतिक झटका था.सरकार आर्थिक गिरावट को रोकने के लिए कोई नीतिगत फ़ैसला भी नहीं कर पा रही थी. न ही वो विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों से और आर्थिक मदद के पैकेज का जुगाड़ कर पा रही थी. भारत की विदेशी मुद्रा का भंडार ख़त्म हो रहा था और अप्रवासी भारतीय अपने पैसे निकाल रहे थे.इससे देश पर भुगतान के संकट का दबाव और बढ़ गया था.सरकार भी अपने ख़र्च के लिए पैसे का इंतज़ाम नहीं कर पा रही थी.

कांग्रेस और चंद्रशेखर सरकार के बीच रिश्ते तब और बिगड़ गए,जब 2 मार्च 1991 को दिल्ली पुलिस ने हरियाणा सरकार के दो ख़ुफ़िया अधिकारियों को गिरफ़्तार किया.इन पर राजीव गांधी की जासूसी करने का इल्ज़ाम लगाया गया.कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार पर अपना दबाव ये कहते हुए बढ़ा दिया कि राजीव गांधी की निगरानी केंद्र सरकार के कहने पर की जा रही थी.क्योंकि, उस समय हरियाणा में चंद्रशेखर सरकार का सहयोगी दल ही सत्ता में था. इन राजनीतिक हालात में यशवंत सिन्हा ने 4मार्च 1991 को अंतरिम बजट पेश किया.उन्होंने राजस्व बढ़ाने के लिए सरकार के ख़र्च में कुछ कटौती करने और सरकारी कंपनियों में से कुछ हिस्सेदारी बेचने का ऐलान किया. राजीव गांधी का इरादा,चंद्रशेखर सरकार को सदन में अविश्वास मत के दौरान गिराने का था.लेकिन,चंद्रशेखर ने अपनी ज़बरदस्त राजनीतिक चतुराई दिखाते हुए राजीव गांधी की ये चाल नाकाम कर दी.चंद्रशेखर ने 6मार्च 1991 को प्रधानमंत्री पद से अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को दे दिया.जिसके चलते लोकसभा के चुनाव कराने पड़े और चंद्रशेखर,चुनाव के नतीजे आने तक कार्यवाहक सरकार के प्रधानमंत्री बने रहे

मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने 20,23 और25 मई को तीन चरणों में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान किया. उम्मीद ये की जा रही थी कि मई के अंत तक देश में वाजिब तरीक़े से चुनी गई सरकार काम संभाल लेगी,और वो जून महीने से पहले पूर्ण बजट पेश करके अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएगी.उस समय देश की वित्तीय स्थिति ख़राब हो रही थी और भुगतान का संकट बढ़ता जा रहा था.लेकिन,चुनाव की तारीख़ों में तब गड़बड़ हो गई, जब एक दु:खद हादसा हुआ.तमिलनाडु में चेन्नई के पास श्रीपेरम्बुदूर में राजीव गांधी की एक बम हमले में हत्या कर दी गई.

विडंबना देखिए कि ये राजीव गांधी ही थे,जिन्होंने ये चुनाव देश पर उस समय थोपे थे,जब उन्होंने चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस ले लिया और चंद्रशेखर ने 6 मार्च 1991 को इस्तीफ़ा दे दिया था.एक तरफ़,21मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या से,चुनाव के आख़िरी दो दौर के मतदान क़रीब तीन हफ़्ते के लिए टालने पड़े.वहीं,दूसरी तरफ़ राजीव गांधी की हत्या से कांग्रेस के लिए लोगों के मन में सहानुभूति पैदा हुई और उससे पीवी नरसिम्हा राव के रूप में देश की सबसे पुरानी पार्टी की कमान संभालने को एक नया नेता मिला.इससे इनकार नहीं कर सकते कि राजनीतिक परिस्थितियों और अर्थव्यवस्था के बिगड़ते हालात ने 21 जून 1991 को सत्ता संभालने वाली नरसिम्हा राव सरकार के सामने खड़ी चुनौती को और भयंकर बना दिया.नरसिम्हा राव का मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाना एक ऐसा फ़ैसला था,जो ऐतिहासिक साबित हुआ.उस समय तक मनमोहन सिंह, जो पहले प्रधानमंत्री कार्यालय में चंद्रशेखर के सलाहकार के तौर पर काम कर रहे थे,वो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष बन चुके थे.

संकट के समय एक के बाद एक सुधारों का सिलसिला

याद रहे कि उस वक़्त देश का आर्थिक प्रबंधन जिन दो लोगों,नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के हाथ में था,उन दोनों में से एक भी संसद का सदस्य नहीं था.नरसिम्हा राव ने लोकसभा का उपचुनाव नवंबर1991 में जाकर जीता था. वहीं,मनमोहन सिंह लगभग उसी वक़्त असम से राज्यसभा के सदस्य बने थे. लेकिन,उस वक़्त के राजनीतिक और आर्थिक संकट इतने गंभीर थे कि किसी ने भी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के अपने सत्ता में आने के 100 दिनों के भीतर इतने बड़े सुधार लागू करने को लेकर सवाल नहीं उठाए,जबकि वो दोनों उस समय संसद के सदस्य तक नहीं थे.

लेकिन किसी ने भी नरसिम्हा राव और मनमोहन के क़दमों पर नैतिकता का सवाल नहीं उठाया.बल्कि,इससे पहले जब चंद्रशेखर, इस्तीफ़ा दे चुके थे और राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण के कहने पर चुनाव के नतीजे आने तक कार्यवाहक सरकार चला रहे थे,तब भी बहुत से आर्थिक नीतिगत क़दम उठाए गए थे.सामान्य दिनों में उन पर भी सवाल उठाए जाते.लेकिन,देश के सामने इतना गंभीर संकट था कि चंद्रशेखर और यशवंत सिन्हा ने भी बिना सियासी शोर-शराबे के वो उपाय लागू किए थे.इनमें,भारत में ज़ब्त किए गए सोने को एक स्विस बैंक को बेचना,अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन क़र्ज़ के लिए बातचीत शुरू करना और विदेशी मुद्रा बचाने के लिए आयात पर प्रतिबंध लगाने जैसे उपाय शामिल थे.

देश के सामने इतना गंभीर संकट था कि चंद्रशेखर और यशवंत सिन्हा ने भी बिना सियासी शोर-शराबे के वो उपाय लागू किए थे.इनमें,भारत में ज़ब्त किए गए सोने को एक स्विस बैंक को बेचना,अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन क़र्ज़ के लिए बातचीत शुरू करना और विदेशी मुद्रा बचाने के लिए आयात पर प्रतिबंध लगाने जैसे उपाय शामिल थे.

इसी तरह की राजनीतिक स्वीकार्यता या एक तरह से सहनशीलता तब भी दिखाई गई,जब राव और सिंह ने नई सरकार के पहले 100 दिनों में बड़े क़दम उठाए थे. उद्योगों के पास इन बदलावों को मंज़ूर करने के सिवा कोई और विकल्प नहीं था.इससे भारतीय कारोबारियों को विदेशी कंपनियों से मुक़ाबले के लिए उतरना पड़ा और साथ ही साथ वो सरकारी नियंत्रण से भी आज़ाद हो गए. इन क़दमों पर सवाल उठाने वाली कुछ राजनीतिक आवाज़ें उठी ज़रूर थीं,वो भी कांग्रेस के भीतर से ही.लेकिन, विरोध का कोई भी सुर इतना मज़बूत नहीं था कि वो राजनीतिक समर्थन जुटाकर सरकार गिरा सके.

यही वो हालात थे जब देश के राजनीतिक हालात और अर्थव्यवस्था के भीषण संकट मिलकर उन साहसिक सुधारों का रास्ता खोला था. ये राजनीतिक और आर्थिक संकट का एक कॉकटेल था.18 महीने के भीतर दो आम चुनाव लड़ने और दो दो अस्थिर सरकारें देखने के बाद,कोई भी राजनीतिक पार्टी एक और चुनाव का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी. वीपी सिंह की अगुवाई वाली सरकार लगभग 11 महीने चली थी और चंद्रशेखर की सरकार का कार्यकाल तो और भी कम, क़रीब सात महीने रहा था. देश की अर्थव्यवस्था भी गंभीर संकट में थी और राजनीतिक दलों के बीच ये आम सहमति थी कि अर्थव्यवस्था को दलदल से उबारने और देश को दोबारा पटरी पर लाने के लिए तुरंत फ़ैसले लेने की ज़रूरत थी. कुल मिलाकर कहें तो,1991 में राजनीतिक दलों के पास एक और चुनाव लड़ने का साहस नहीं बचा था. न ही उनके पास एक अल्पसंख्यक सरकार को गिराकर देश को राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में धकेलने की हिम्मत बची थी.जबकि नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह देश के आर्थिक क़ानूनों और नीतियों को पूरी तरह से उलट पलट रहे थे.

वो 100 दिन जिन्होंने भारत को बदल दिया

उन 100 दिनों में नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने जो कुछ भी हासिल किया,वो बहुत बड़ी उपलब्धि थी.उनके द्वारा उठाए गए क़दमों को हम दो हिस्सों में बांट सकते हैं.पहले तो उस वक़्त के संकट से निपटने के लिए फौरी क़दम उठाए गए और दूसरे वो जो नीतिगत सुधार लाने वाले क़दम थे.

इसीलिए,पद संभालने के पंद्रह दिनों के भीतर उन्होंने 1जुलाई 1991 को अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले भारतीय रुपए का 9.5 प्रतिशत अवमूल्यन कर दिया.इसके दो दिनों बाद 12 प्रतिशत और अवमूल्यन किया गया.इसके साथ-साथ व्यापार नीति से जुड़े कई सुधार किए गए.इनमें निर्यात पर सब्सिडी ख़त्म करना,आयात पर सरकारी कंपनियों का एकाधिकार ख़त्म करना और चालू खाते में रुपए के विनिमय के लिए भी कई क़दम उठाए गए.मनमोहन सिंह के सामने बड़ी चुनौती विदेशी मुद्रा के भंडार के मोर्चे पर थी.जुलाई के पहले हफ़्ते में भारत के पास केवल 1 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था,जिससे बमुश्किल तीन हफ़्तों के आयात का भुगतान करने किया जा सकता था.तो तीन अलग-अलग चरणों में मनमोहन सिंह ने रिज़र्व बैंक के पास जमा सोने को बैंक ऑफ़ इंग्लैंड को देने की ज़मानत दी,जिसके बदले में भारत को क़रीब 60 करोड़ डॉलर की विदेशी मुद्रा मिली.

जुलाई के पहले हफ़्ते में भारत के पास केवल 1 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार बचा था,जिससे बमुश्किल तीन हफ़्तों के आयात का भुगतान करने किया जा सकता था.तो तीन अलग-अलग चरणों में मनमोहन सिंह ने रिज़र्व बैंक के पास जमा सोने को बैंक ऑफ़ इंग्लैंड को देने की ज़मानत दी,जिसके बदले में भारत को क़रीब 60 करोड़ डॉलर की विदेशी मुद्रा मिली.

नीतिगत मोर्चे पर मनमोहन सिंह ने 24 जुलाई 1991को ऐतिहासिक बजट पेश किया.इस बजट में आने वाले बरसों में किए जाने वाले आर्थिक सुधारों का ख़ाका पेश किया गया.बजट के ज़रिए सरकार के वित्तीय घाटे को कम करने में काफ़ी सफलता मिली और उन्होंने आयात कर भी काफ़ी घटा दिया.सरकार का वित्तीय घाटा जो 1990-91 में जीडीपी का 7.6 प्रतिशत था, वो 1991-92 में घटकर 5.4 फ़ीसद रह गया.किसी एक साल में ये वित्तीय घाटे में लायी गई सबसे बड़ी कमी थी.

लेकिन,बजट से भी अहम था औद्योगिक नीति का दस्तावेज़ जिसे 24 जुलाई 1991 को संसद में पेश किया गया.इस दस्तावेज़ ने आने वाले समय में भारतीय कंपनियों के कारोबार करने के तरीक़े को बुनियादी तौर पर बदल डाला.मनमोहन सिंह उद्योग मंत्री नहीं थे.लेकिन,नरसिम्हा राव ने कैबिनेट स्तर पर उद्योग मंत्रालय अपने पास रखा था.इससे ज़ाहिर होता है कि सुधारों का वो झोंका नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह मिलकर लाए थे.उस दस्तावेज़ ने एक झटके में 18 ख़ास क्षेत्रों को छोड़ कर हर तरह के उद्योग के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता ख़त्म कर दी; मोनोपोलीज़ ऐंड रेस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रैक्टिस एक्ट के तहत कंपनियों के पास संपत्ति रखने की जो सीमा थी,वो ख़त्म कर दी गई;और तब तक जिन दस उद्योगों में सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार था, उसमें निजी कारोबार की इजाज़त दे दी.34 उद्योगों में विदेशी हिस्सेदारी 51 फ़ीसद तक करने की छूट दे दी गई.तकनीकी समझौते करने के लिए सरकार की इजाज़त लेना अब ज़रूरी नहीं रह गया था.सबसे अहम बात ये कि सरकारी कंपनियों में धीरे-धीरे सरकार की हिस्सेदारी बेचने को मंज़ूरी दे दी गई  ये विचार सबसे पहले यशवंत सिन्हा ने चार महीने पेश किए गए अपने अंतरिम बजट में दिया था.

कुछ वर्षों बाद,मनमोहन सिंह ने रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर एम.नरसिम्हन की अगुवाई वाली समिति की सिफ़ारिश के आधार पर, वित्तीय क्षेत्र में कुछ और मूलभूत सुधार किए.इन सुधारों में निजी बैंकों को इजाज़त देना और विकास से जुड़े वित्तीय संस्थानों की भूमिका धीरे-धीरे कम करना शामिल था.वित्त,व्यापार और औद्योगिक नीतियों में अगले तीन दशकों में और भी सुधार किए गए. बाद के सभी वित्त मंत्रियों ने वित्तीय मज़बूती लाने पर ज़ोर दिया है.भले ही किसी का ज़ोर कम रहा हो,तो किसी का ज़्यादा. वित्तीय अनुशासन लाने के लिए जल्द ही केंद्र सरकार के अस्थायी सरकारी बॉन्ड के ज़रिए रिज़र्व बैंक से सीधे उधार लेने पर रोक लगा दी गई.ये प्रस्ताव सबसे पहले मनमोहन सिंह ने 1994 में दिया था.लेकिन,इसे 1997 में संयुक्त मोर्चा सरकार में वित्त मंत्री रहे पी.चिदंबरम ने लागू किया.

अलग-अलग सरकारों के वित्त मंत्रियों ने टैक्स संबंधी सुधार करके प्रत्यक्ष करों को तीन बड़े स्लैब में बांटकर उन्हें सरल बनाया है. आने वाले समय में प्रत्यक्ष करों में और भी सुधार प्रस्तावित हैं.वहीं,अप्रत्यक्ष करों में सुधारों की शुरुआत अलग-अलग उत्पाद शुल्क को सरल बनाने से हुई थी.इसके बाद संशोधित वैल्यू ऐडेड टैक्स व्यवस्था के ज़रिए और चीज़ें इसके दायरे में लायी गईं. अप्रत्यक्ष करों में लंबे समय से जिन सुधारों का सिलसिला चल रहा था,उन्हें 2017 में जीएसटी लागू करके पूरा किया गया. हालांकि,जीएसटी की बनावट और इसे लागू करने में कई ख़ामियां बनी हुई हैं.

बजट से भी अहम था औद्योगिक नीति का दस्तावेज़ जिसे 24 जुलाई 1991 को संसद में पेश किया गया.इस दस्तावेज़ ने आने वाले समय में भारतीय कंपनियों के कारोबार करने के तरीक़े को बुनियादी तौर पर बदल डाला.मनमोहन सिंह उद्योग मंत्री नहीं थे.लेकिन,नरसिम्हा राव ने कैबिनेट स्तर पर उद्योग मंत्रालय अपने पास रखा था.इससे ज़ाहिर होता है कि सुधारों का वो झोंका नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह मिलकर लाए थे.

आयात शुक्ल को सरल बनाने का सिलसिला, आर्थिक सुधारों के बाद के पहले दो दशकों में हुआ,जब शुल्क कम किए गए. लेकिन,2018 के बाद से आयात शुल्क लगातार बढ़ रहे हैं,जिससे एक बार फिर से संरक्षणवाद का युग लौटने की आशंका जताई जा रही है.औद्योगिक नीति के मोर्चे पर पिछले तीन दशकों के दौरान लाइसेंस की प्रक्रिया में और भी रियायतें दी गई हैं. विनिवेश की प्रक्रिया भी तेज़ हुई है. लेकिन,1998 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल को छोड़ दें तो सरकारी कंपनियों के निजीकरण को एक नीतिगत विकल्प के रूप में कम ही आज़माया गया है. वाजपेयी को क़रीब दर्जन भर सरकारी कंपनियों का निजीकरण करने में कामयाबी मिली थी.लेकिन,उन फ़ैसलों पर राजनीतिक विवाद खड़ा होने के बाद वो प्रक्रिया रोक दी गई.सच तो ये है कि 2004 में वाजपेयी सरकार के जाने के बाद से अब तक निजीकरण की कोई भी प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है.हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल के वर्षों में कई इकाइयों के निजीकरण की योजना ज़रूर बनाई है

नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में आर्थिक सुधारों को एक नया आयाम तब दिया गया,जब आत्मनिर्भर भारत बनाने की कल्पना की गई.इसी वजह से आयात शुल्क बढ़े हैं और अर्थव्यवस्था के अलग-अलग सेक्टर में निवेश को लुभाने के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है.यहां तक कि ईकॉमर्स कंपनियों से जुड़ी प्रस्तावित नीति में भी ऐसे प्रावधान हैं,जो बरसों पहले ज़्यादातर उद्योगों से ख़त्म कर दिए गए इंस्पेक्टर राज को वापस लाने वाले हो सकते हैं.

30 साल बाद

पिछले तीस सालों में भारत के आर्थिक सुधारों से जो निचोड़ निकलता है, वो ये है कि सुधारों का ये सिलसिला वित्तीय, व्यापारिक और औद्योगिक नीतियों में आज भी जारी है. लेकिन,इनकी जो रफ़्तार हमने नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की उस जुगलबंदी के पहले 100 दिनों में देखी थी,उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती.एक और बात जो स्पष्ट होती है,वो ये कि 1991 में हुए सुधार केवल मनमोहन सिंह की देन नहीं थे. प्रधानमंत्री के तौर पर नरसिम्हा राव ने उन्हें अपनी पूरी राजनीतिक ताक़त से समर्थन दिया और राव का ख़ुद उद्योग मंत्रालय अपने पास रखने से ये बदलाव करना आसान रहा.राव सरकार के शुरुआती दिनों में वाणिज्य मंत्री रहे पी.चिदंबरम ने भी व्यापारिक नीति से जुड़े कई सुधारों की शुरुआत में अहम भूमिका अदा की थी. उस वक़्त सरकार के वरिष्ठ पदों पर सचिव और आर्थिक सलाहकार के रूप में आला दर्ज़े के जो टेक्नोक्रेट मौजूद थे,उन्होंने भी सुधारों से जुड़े फ़ैसले को नौकरशाही के जाल में फंसाने से बचाकर लागू करने में महत्वपूर्ण रोल निभाया था.

फिर भी,इन सभी बातों से ये सवाल तो पैदा होता है कि आख़िर 1991 में वो आर्थिक नीति संबंधी सुधार इतनी तेज़ रफ़्तार से कैसे हो सके.ख़ुद नरसिम्हा राव सरकार के बाक़ी कार्यकाल और उनके बाद आई सरकारों के दौरान भी सुधारों का सिलसिला तो जारी रहा. लेकिन,उनमें से कोई भी स्वास्थ्य,शिक्षा,सामाजिक मूलभूत ढांचे जैसे कि पानी,नगर निकाय या शहरी प्रशासन और नियामक संस्थाओं के स्वतंत्र कामकाज से जुड़े ज़रूरी सुधारों को उस रफ़्तार से नहीं लागू कर सका.

राजनीतिक रूप से मज़बूत और स्थिर नरेंद्र मोदी की सरकार ने कंपनियों के दिवालिया होनेसे जुड़े विवादों के निपटारे,जीएसटी लागू करने और कृषि क्षेत्र जैसे कई अहम सुधार किए हैं.मोदी सरकार ने श्रम क़ानूनों को भी सरल बनाया है.लेकिन,इन सुधारों को लेकर उन्हें उस वक़्त के मुक़ाबले कड़े विरोध का सामना करना पड़ा है,जब पहले पहल इन सुधारों का प्रस्ताव रखा गया था. इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी क़ानून को लगातार नरम बनाने की मांग होती रही है.कृषि सुधार से जुड़े क़ानूनों पर रोक लगी है.श्रम क़ानूनों को नोटिफ़िकेशन का इंतज़ार है.जीएसटी सुधार की कमियां अब तक दूर नहीं की जा सकी हैं और लगता है कि उसमें काफ़ी वक़्त लगेगा.वहीं,स्वास्थ्य,शिक्षा,जल,नगर निकाय क़ानून या नियमों के सुधार या तो बहुत धीमे हैं,या बेहद मामूली हैं और कई क्षेत्रों में सुधार हुआ ही नहीं है.

नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में आर्थिक सुधारों को एक नया आयाम तब दिया गया,जब आत्मनिर्भर भारत बनाने की कल्पना की गई.इसी वजह से आयात शुल्क बढ़े हैं और अर्थव्यवस्था के अलग-अलग सेक्टर में निवेश को लुभाने के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है.

ये भी तर्क दिया जा सकता है कि नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह द्वारा किए गए सुधारों की रफ़्तार इसलिए तेज़ थी,क्योंकि उन्होंने जो नीतिगत बदलाव किए वो बहुत आसान थे.लेकिन,ये शायद बात को कुछ ज़्यादा ही सरल करके पेश करना होगा.सभी सुधार मोटे तौर पर राजनीतिक रूप से मुश्किल होते हैं और उन्हें करने के लिए मज़बूती दिखानी पड़ती है.इसके लिए एक ठोस प्रशासनिक ढांचे की ज़रूरत होती है.नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह वो सुधार 100 दिनों में इसलिए कर सके क्योंकि एक अल्पसंख्यक सरकार होने के बावजूद,उन्हें तुलनात्मक रूप से वो नीतिगत बदलाव करने की सियासी आज़ादी मिली हुई थी. उस वक़्त राजनीतिक अस्थिरता पैदा होने से अर्थव्यवस्था के लिए नया संकट खड़ा होने का डर था.

नरसिम्हा रावमनमोहन सिंह की जोड़ी को इस बात से भी मदद मिली कि उन्होंने जो भी सुधार किए वो वित्तीय,व्यापारिक और औद्योगिक नीतियों से जुड़े थे,जिनका संबंध मुख्य रूप से केंद्र के क़ानूनों से था.इनमें से ज़्यादातर सुधारों में न राज्य सरकारों की भागीदारी की ज़रूरी थी और न ही उनकी सहमति चाहिए थी.उनकी तुलना में जो सुधार करने में देरी हुई या जिन्हें लागू करने में दिक़्क़तें आईं,उनमें राज्यों की पूरी भागीदारी या कई बार लेनदेन की भी ज़रूरत पड़ी.कृषि सुधार क़ानूनों या श्रम नीति से जुड़े सुधारों को लागू करने में विरोध के चलते जो देरी हो रही है,वो इस बात की मिसाल है कि अगर इन क़ानूनों को लागू करने में राज्यों के सहयोग या उनकी भागीदारी की ज़रूरत न होती,तो ये सुधार कर पाना कितना आसान हो जाता.

नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की जोड़ी को इस बात से भी मदद मिली कि उन्होंने जो भी सुधार किए वो वित्तीय,व्यापारिक और औद्योगिक नीतियों से जुड़े थे,जिनका संबंध मुख्य रूप से केंद्र के क़ानूनों से था.इनमें से ज़्यादातर सुधारों में न राज्य सरकारों की भागीदारी की ज़रूरी थी और न ही उनकी सहमति चाहिए थी.

लेकिन,एक और कारण जिसने नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की अल्पमत सरकार को वो बड़े आर्थिक सुधार 100 से भी कम दिनों में करने में मदद की,वो उस वक़्त के नाज़ुक राजनीतिक हालात थे,और इस बात का डर था कि अगर उस सरकार को ज़रा भी अस्थिर किया गया तो उससे देश राजनीतिक और आर्थिक स्थिति से और असुरक्षित हो जाएगा.उन सुधारों को बिना शिकायतों को स्वीकार नहीं किया गया था.वो सुधार इसलिए मंज़ूर हो पाए क्योंकि उस वक़्त राजनीतिक वर्ग के सामने एक बड़ा राजनीतिक और आर्थिक संकट खड़ा हुआ था.

इसकी तुलना अगर हम केंद्र में एक मज़बूत सरकार से करें,तो ऐसी सरकार हमेशा कड़े सुधारों को स्वीकार्य और आसान नहीं बना पाती.आप इसकी मिसाल कृषि क़ानूनों और श्रम सुधारों की धीमी रफ़्तार के रूप में देख सकते हैं.इन दोनों सुधारों को राज्यों के सहयोग की ज़रूरत है.केंद्र सरकार तो मज़बूत है.जिस वक़्त ये सुधार किए गए,उस वक़्त देश सेहत के एक बड़े संकट से जूझ रहा था.फिर भी उन्हें लागू करने में कड़े विरोध का सामना करना पड़ा और उनके भविष्य पर अब भी सवालिया निशान लगा हुआ है.ऐसा लगता है कि भारत की राजनीति बड़े और कड़े सुधार केवल दो एक साथ मौजूद परिस्थिति में स्वीकार करती है: राजनीतिक अस्थिरता और एक आर्थिक संकट.दोनों की ग़ैरमौजूदगी में किसी बड़े सुधार की उम्मीद लगाना दिन में तारे देखने जैसा होगा.ऐसा तब तक नहीं हो सकता,जब-तक केंद्र सरकार नए सुधार लागू करने से पहले राज्यों और विपक्षी दलों को साथ लाने में अपनी पूरी ताक़त न लगाए.

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