Author : Priya Rampal

Expert Speak India Matters
Published on Mar 11, 2024 Updated 0 Hours ago

पिछले कुछ साल में महिला सशक्तिकरण को लेकर काफी काम हुआ है लेकिन घरेलू कामकाज और पारिवारिक देखभाल के काम की अब भी जिस तरह आर्थिक तौर पर उपेक्षा की जा रही है, उसे ठीक किया जाना ज़रूरी है.

महिला सशक्तिकरण के लिए फायदेमंद सहायक नीतियां!

 ये लेख अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सीरीज़ का हिस्सा है.


भारत और दुनियाभर में महिलाओं और पुरुषों की पारंपरिक भूमिका को लेकर अनंतकाल से जो मान्यताएं चली आ रही हैं, उनमें घरेलू काम का बोझ महिलाओं पर ही डाला गया है. हालांकि अब वक्त बदल रहा है लेकिन घरेलू काम का अभी भी आर्थिक मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है. यही वजह है कि जब भी राष्ट्रीय आय की गणना की जाती है तो घरेलू कामकाज और पारिवारिक देखभाल को अनुत्पादक काम की श्रेणी में रखा जाता है. इसे महिलाओं की स्वभाविक ज़िम्मेदारी समझा जाता है. देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में महिलाओं के काम की गिनती नहीं होती. आज के दौर में सफलता का आंकलन पैसों से किया जाता है, इसलिए महिलाओं के द्वारा किए जाने वाले ये सारे काम उपेक्षित रह जाते हैं. 2019 में सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के तहत आने वाले राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यकाल ने पहली बार टाइम यूज़ सर्वे (TUS) किया था. इस सर्वे में ये सामने आया कि भारतीय महिला घरेलू काम और पारिवारिक देखभाल में औसतन 243 मिनट का समय देती हैं, जो पुरूषों की तुलना में 10 गुना ज्यादा है. 

गर्भधारण करने से लेकर बच्चे की दूसरे जन्मदिन के बीच के एक हज़ार दिनों को विंडो ऑफ ऑपरच्युनिटी कहा जाता है. बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए यही हज़ार दिन सबसे अहम होते हैं. 

अगर दुनियाभर का आंकड़ा देखें तो सेवा और देखभाल करने वाले औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी 81 प्रतिशत है. ये पुरूषों की तुलना में 50 फीसदी ज्यादा है. हालांकि विदेशों, खासकर पश्चिमी देशों, में इस क्षेत्र में अब पुरुषों की भागीदारी भी बढ़ रही है लेकिन भारत में महिलाएं घर के दिव्यांग और बीमार सदस्यों की देखभाल में अब भी पुरुषों की तुलना में दोगुना बोझ उठा रही हैं. इसका सबसे बुरा असर महिलाओं के उन एक हज़ार दिनों पर पड़ता है, जिन्हें ‘विंडो ऑफ ऑपरच्युनिटी’ कहते हैं. गर्भधारण करने से लेकर बच्चे की दूसरे जन्मदिन के बीच के एक हज़ार दिनों को विंडो ऑफ ऑपरच्युनिटी कहा जाता है. बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए यही हज़ार दिन सबसे अहम होते हैं. इन एक हज़ार दिनों के शुरूआती 270 दिनों तक बच्चे की सेहत और उसका भरणपोषण पूरी तरह महिला के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है क्योंकि इन नौ महीनों में बच्चा गर्भ में होता है. अगर इन दौरान मां कुपोषण की शिकार रहेगी तो फिर बच्चा भी वैसा ही होगा. इसका असर बच्चे की शिक्षा, स्वास्थ्य और भविष्य में उसकी कमाई की क्षमता पर भी पड़ेगा. 

भारत के गांवों में पानी लाना भी महिलाओं की जिम्मेदारी माना जाता है. कई जगह लड़कियों को अपनी पढ़ाई इसलिए छोड़नी पड़ती है क्योंकि उनका ज्यादातर वक्त घर के लिए पानी लाने में ही बर्बाद हो जाता है. भारत में खाना पकाने के लिए लकड़ी खोजने में ही महिलाएं के हर साल औसतन 374 घंटे खर्च हो जाते हैं. इतना ही नहीं कई महिलाएं मजबूरी में ऐसी नौकरियां करतीं हैं, जो घरेलू कामकाज और देखभाल करने की उनकी जिम्मेदारी पर बुरा असर ना डालें. इसकी वजह से भी कई महिलाएं अपनी असली क्षमता के हिसाब का काम नहीं करतीं. ऐसे में उन्हें अपने वेतन से समझौता करना पड़ता है. पुरुषों की तुलना में उन्हें कम वेतन मिलता है.

भारत में महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कई काम काफी जटिल प्रवृति के हैं. इसलिए उन्हें अनुत्पादक माना जाता है लेकिन अगर सरकार चाहे तो महिला सशक्तिकरण के लिए वो कई नीतियां बना सकती हैं.

महिलाएं जिस तरह निस्वार्थ भाव से खाना बनाने का, सफाई का, पानी लाने का, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करने का काम करती हैं, उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. बच्चों की देखभाल करने से जो काम शुरू होता है, वो घर के दिव्यांग और बीमार सदस्यों की सेवा करने तक जारी रहता है. 

महिलाओं का ‘काम’

अब सवाल ये है कि महिलाएं ये काम क्यों करती हैं. इसका जवाब देना आसान नहीं है. महिलाओं और पुरुषों की शारीरिक संरचना में, उनके हॉर्मोन्स, न्यूरल और जेनेटिक्स में जो अंतर होते हैं, वो भी ये तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं कि घरेलू काम और देखभाल करने की जिम्मेदारी स्वभाविक तौर पर किसकी होगी. हालांकि प्रचलित सामाजिक और सांस्कृतिक मान्याएं भी इसमें महत्वपूर्ण होती है. बचपन से ही लड़कियों को ये सिखाया जाता है कि घर का काम करना, दूसरे सदस्यों की देखभाल करना उनका काम है. ये माना जाता है कि इन सब कामों के लिए महिलाएं प्राकृतिक तौर पर बेहतर होती हैं. इसलिए उन पर ये सब काम करने की जिम्मेदारी डाल दी जाती है. 

भारत के संविधान में लैंगिक समानता की बात की गई है. सरकार को ये अधिकार दिया गया है कि वो महिलाओं के विकास के लिए, लैंगिक असमानता खत्म करने के लिए नियम और कानून बनाए. भारत में महिलाओं द्वारा किए जाने वाले कई काम काफी जटिल प्रवृति के हैं. इसलिए उन्हें अनुत्पादक माना जाता है लेकिन अगर सरकार चाहे तो महिला सशक्तिकरण के लिए वो कई नीतियां बना सकती हैं. 2023 में सरकार ने संसद में नारी शक्ति वंदन अधिनियम पारित करवाया. इस अधिनियम में महिलाओं को संसद और विधानसभा में 33 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान है. इस अधिनियम से महिलाओं को नीतियां बनाने की प्रक्रिया में भागीदारी मिलेगी. महिलाओं से जुड़े मुद्दों जैसे कि WASH (वाटर, सेनिटेशन, हाईज़ीन), साक्षरता, स्वास्थ्य, लैंगिक समानता और समान काम के बदले समान वेतन को लेकर नीतियां बनाने में महिलाएं अहम भूमिका निभा सकती हैं. सरकार ने महिलाओं के विकास के लिए कई योजनाएं बनाई हैं. प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, स्टैंड अप इंडिया, प्रधानमंत्री रोजगार गारंटी योजना (PMEGP) से ऋण लेकर महिलाएं अपना काम शुरू कर सकती हैं. महिलाओं को जलाने के लिए लकड़ी खोजने के बोझ से छुटकारा दिलाने और साफ ईधन मुहैया कराने के मकसद से सरकार की उज्जवला योजना (PMUY) चल रही है. लेकिन महिला सशक्तिकरण के लिए अब भी कई और योजनाओं की ज़रूरत है. 

महिलाओं को भी चाहिए कि वो अपनी क्षमता को पहचानें. अपने काम की अहमियत समझें. महिलाओं को अपने घरवालों और समाज को ये बात समझानी चाहिए कि घर के कामकाज से लेकर बच्चों की देखभाल करने तक वो जो काम करती हैं, भावानत्मक मदद देती हैं, उससे घर के दूसरे सदस्यों को कितना फायदा होता है. उनकी उत्पादकता कितनी बढ़ती है. महिलाओं को ये बात खुलकर बतानी होगी कि उनके योगदान के बिना दुनिया का चलना बहुत मुश्किल है. 

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