Published on Aug 05, 2022 Updated 0 Hours ago

दांव पर बहुत कुछ लगा होने के बावजूद श्रीलंका में आर्थिक संकट को लेकर चीन की चुप्पी दक्षिण एशिया में उसकी कब्ज़ा करने की नीति और बड़े पैमाने पर कर्ज देने की चाल की हदों से जुड़ी हुई है.

#श्रीलंका संकट को लेकर चीन के जवाब को समझिए!

ये द चाइना क्रॉनिकल्स सीरीज़ का 130वां लेख है. 


जब से श्रीलंका पूरी तरह से आर्थिक संकट में डूबा हुआ है, तब से उसके सबसे बड़े द्विपक्षीय कर्ज़दार और व्यापार साझेदार चीन ने उसे महज़ 74 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मानवीय सहायता मुहैया कराई है. चीन ने अभी तक श्रीलंका की तरफ़ से ऋण पुनर्संरचना और 4 अरब अमेरिकी डॉलर की वित्तीय मदद के अनुरोध पर भी फ़ैसला नहीं लिया है. 

ऐसा लगता है कि चीन अपने हितों को बढ़ाने के लिए सावधानी से अपनी दक्षिण एशियाई नीति पर फिर से विचार कर रहा है. चीन की दक्षिण एशियाई रणनीति एक-दूसरे से जुड़ी दो चालों से आकार लेती है- पहली चाल है कब्ज़ा करना और दूसरी चाल है भरपूर कर्ज़ देना. 

श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने चीन की इस चुप्पी के पीछे दलील देते हुए कहा कि चीन दक्षिण एशिया के मुक़ाबले दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका में अपने हितों को मज़बूत कर रहा है. हालांकि ये बात समझ में आने वाली नहीं है क्योंकि दक्षिण एशिया में चीन का दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है, उसने काफ़ी ज़्यादा निवेश कर रखा है. दक्षिण एशिया से पीछे भागना इसलिए भी चीन के लिए मुश्किल है क्योंकि हिंद और प्रशांत महासागर नई विश्व व्यवस्था में सत्ता के संघर्ष का केंद्र बनकर उभरे हैं. ऐसा लगता है कि चीन अपने हितों को बढ़ाने के लिए सावधानी से अपनी दक्षिण एशियाई नीति पर फिर से विचार कर रहा है. चीन की दक्षिण एशियाई रणनीति एक-दूसरे से जुड़ी दो चालों से आकार लेती है- पहली चाल है कब्ज़ा करना और दूसरी चाल है भरपूर कर्ज़ देना. लेकिन हाल के वर्षों में चीन की इन दोनों चालों पर गंभीर संकट खड़ा हो गया है. इसकी वजह है भारत की तरफ़ से इस क्षेत्र में अपने असर को फिर से बढ़ाना, दक्षिण एशियाई देशों की घरेलू मजबूरियां एवं राष्ट्रीय हित और कोविड-19 महामारी. इस प्रकार श्रीलंका के संकट ने सिर्फ़ और सिर्फ़ चीन को अपनी दक्षिण एशियाई नीति को फिर से निर्धारित करने के लिए जगाने का काम किया है. 

कब्ज़ा करना और उसका अनचाहा नतीजा

दक्षिण एशिया में चीन की गहरी पैठ की शुरुआत इस शताब्दी की शुरुआत में श्रीलंका से हुई. ये बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की शुरुआत से पहले की बात है. 2005 में चुनाव जीतकर आई राजपक्षे की सरकार ने गृह युद्ध को ख़त्म करने के लिए क्रूर हिंसा को अपनाया और युद्ध के बाद आर्थिक बहाली के लिए बड़ी योजनाओं का प्रस्ताव दिया. चीन ने इस मौक़े का इस्तेमाल राजपक्षे परिवार के साथ व्यक्तिगत संबंध विकसित करने में किया. इसके लिए चीन ने श्रीलंका को हथियार बेचे, बेहद ज़रूरी निवेश, मदद एवं बुनियादी ढांचा मुहैया कराया और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों से बचाने का काम किया. इस मौक़ापरस्ती ने चीन को श्रीलंका की राजनीति के विशिष्ट वर्ग के भीतर महत्वपूर्ण फ़ायदा उठाने दिया. 

2021 की शुरुआत में श्रीलंका की सरकार ने भारत और जापान के ईस्ट कंटेनर टर्मिनल प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया और जाफना प्रायद्वीप में चीन को कुछ ऊर्जा परियोजनाओं की पेशकश की. यहां तक कि कोलंबो बंदरगाह आर्थिक व्यावसायिक बिल को भी पारित कर दिया जिसमें विदेशियों को सरकार में शामिल होने की मंज़ूरी दी गई.  

इस घनिष्ठता ने चीन को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से श्रीलंका की नौकरशाही, मीडिया और राजनीतिक रूप से विशिष्ट वर्ग को प्रभावित करने, रिश्वत देने और उनका इस्तेमाल करने में मदद की. चीन की कंपनियों ने चुनाव में भी अपने पसंदीदा उम्मीदवारों की पैसे से मदद की. इस तौर-तरीक़े से श्रीलंका के विशिष्ट वर्ग ने वित्तीय फ़ायदा उठाया और इसकी वजह से चीन को अपनी कई सफ़ेद हाथी बन चुकी परियोजनाओं को पूरा करने और अपने हितों को बढ़ाने में भी मदद मिली. इस हिसाब-किताब के साथ चीन ने उम्मीद लगाई कि राजपक्षे परिवार उसकी मांगों और हितों को लेकर संवेदनशील बना रहेगा. 

चीन के इस कब्ज़े की क़ीमत भारत और दूसरी बड़ी शक्तियों- जैसे कि अमेरिका और जापान- को भी चुकानी पड़ी. चीन के आदेश पर श्रीलंका के विशिष्ट वर्ग ने दूसरे प्रतिस्पर्धियों के असर और महत्वपूर्ण परियोजनाओं को रोक कर रखा. कई उदाहरण तो ऐसे भी हैं जब चीन की पनडुब्बियों ने श्रीलंका के बंदरगाहों तक आना शुरू कर दिया और चीन को ख़तरनाक ढंग से भारत की सीमा के क़रीब परियोजनाओं एवं एयरक्राफ्ट की मरम्मत के ठिकाने की पेशकश भी की गई. इन वर्षों के दौरान राजपक्षे परिवार ने पूरी तरह चीन के प्रति संवेदनशीलता दिखाना जारी रखा2021 की शुरुआत में श्रीलंका की सरकार ने भारत और जापान के ईस्ट कंटेनर टर्मिनल प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया और जाफना प्रायद्वीप में चीन को कुछ ऊर्जा परियोजनाओं की पेशकश की. यहां तक कि कोलंबो बंदरगाह आर्थिक व्यावसायिक बिल को भी पारित कर दिया जिसमें विदेशियों को सरकार में शामिल होने की मंज़ूरी दी गई. 

लेकिन श्रीलंका में आर्थिक संकट बढ़ते ही घरेलू मजबूरियों की वजह से राजपक्षे परिवार को कुछ फ़ैसले ख़ुद लेने पड़े और संतुलन बनाना पड़ा. इससे चीन नाराज़ हो गया. 2021 के आख़िर तक आते-आते श्रीलंका कुछ वित्तीय फ़ायदे हासिल करने के लिए भारत को लेकर संवेदनशीलता दिखाने लगा. जाफना प्रायद्वीप में चीन की ऊर्जा परियोजनाओं के रद्द होने से उर्वरक समझौते को लेकर श्रीलंका और चीन के बीच पहले से असहमति की जो स्थिति बनी थी, वो और बिगड़ गई. 

दक्षिण एशिया के साथ चीन की हिस्सेदारी में श्रीलंका एक प्रमुख देश बन गया. 2006-1019 के बीच चीन ने श्रीलंका में 12.1 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया. ये रक़म 2018 में श्रीलंका की जीडीपी के 14 प्रतिशत के बराबर है.

श्रीलंका की तरफ़ से कर्ज़ नहीं चुका पाने और अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा कोष (आईएमएफ) की मदद मांगने के कारण चीन और नाराज़ हो गया. वर्तमान में श्रीलंका ने अपने कुल कर्ज़ का 10 प्रतिशत और विदेशी कर्ज का 20 प्रतिशत चीन से ले रखा है. दूसरे शब्दों में, चीन के कर्ज़ की अवधि हाल के वर्षों में पूरी हो रही है और श्रीलंका के पुनर्भुगतान की योजना में चीन का एक बड़ा हिस्सा है. समझदारी दिखाते हुए चीन ने आईएमएफ की सलाह पर कर्ज़ की एक रक़म को छोड़ने का भी विरोध किया है. इस तरह श्रीलंका के द्वारा कर्ज़ का भुगतान नहीं करने और आईएमएफ के पास जाने का फ़ैसला चीन के असर एवं हितों की बड़ी क़ीमत के बदले में सामने आया है. 

चूंकि चीन ने राजपक्षे परिवार के साथ नज़दीकी संबंध बनाए रखा और क़रीब दो दशकों तक उनमें भरोसा जताया तो उसने अपने पक्ष में नीतियों और बिना किसी शक के वफ़ादारी की उम्मीद की होगी. लेकिन घरेलू मजबूरियों और राष्ट्रीय हितों ने इस द्वीपीय देश को अपने अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर कर दिया. इसके अलावा, चीन समर्थक नेताओं की सत्ता से रवानगी, जैसे कि 2018 में मालदीव में राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन और 2021 में नेपाल में प्रधानमंत्री के पी ओली, ने भी चीन की कब्ज़ा करने की चाल पर गंभीर दबाव बनाया. राजपक्षे परिवार की तरफ़ से संतुलित और अपनी तरफ़ से फ़ैसला लेने का क़दम चीन के लिए आख़िरी झटके के रूप में सामने आया. इसलिए चीन को एक चुप्पी वाला रुख़ अपनाने और अपने हितों को बढ़ाने से पहले क्षेत्रीय दृष्टिकोण को फिर से ठीक करने के लिए तैयार होना पड़ा. 

भारी मात्रा में कर्ज़ बांटना 

चीन के नियंत्रण के साथ-साथ चीन के निवेश में बढ़ोतरी और वित्तीय सहायता भी चलती रही. दक्षिण एशिया के साथ चीन की हिस्सेदारी में श्रीलंका एक प्रमुख देश बन गया. 2006-1019 के बीच चीन ने श्रीलंका में 12.1 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया. ये रक़म 2018 में श्रीलंका की जीडीपी के 14 प्रतिशत के बराबर है. चीन के निवेश के साथ अक्सर वित्तीय सहायता और ज़्यादा ब्याज़ दर वाले  कर्ज़ भी आते थे. कुल मिलाकर चीन ने अकेले श्रीलंका के कुल कर्ज़ में 10 प्रतिशत तक हिस्सा मुहैया कराया यानी लगभग 5.1 अरब अमेरिकी डॉलर.

चीन ने श्रीलंका को कोविड महामारी के आर्थिक असर को हल्का करने में भी मदद की. 2020 में चीन ने श्रीलंका को 600 मिलियन अमेरिकी डॉलर और 2021 में 2 अरब अमेरिकी डॉलर की आर्थिक सहायता मुहैया कराई. इसमें से 1.5 अरब अमेरिकी डॉलर के करेंसी स्वैप के साथ इस्तेमाल की ये शर्त थी कि श्रीलंका कम-से-कम तीन महीनों के आयात की रक़म के बराबर विदेशी मुद्रा संभालकर रखेगा. लेकिन 2021 के आख़िर और 2022 में जैसे-जैसे श्रीलंका में आर्थिक संकट गहरा होता गया, चीन की प्रतिक्रिया ज़्यादा बेपरवाह होती गई. चीन ने श्रीलंका सरकार की तरफ़ से करेंसी स्वैप की शर्तों को आसान बनाने, 2.5 अरब अमेरिकी डॉलर का अतिरिक्त कर्ज़ एवं क्रेडिट लाइन मुहैया कराने और कर्ज़ पुनर्संरचना के अनुरोध पर टालमटोल  करना जारी रखा. 2020 और 2021 में चीन की तरफ़ से सक्रिय जवाब और उसके बाद चीन की चुप्पी का संबंध काफ़ी हद तक इस बात से रहा कि राजपक्षे परिवार ने किस तरह चीन के हितों और उसकी संवेदनशीलता का ध्यान रखा. जैसे-जैसे राजपक्षे परिवार के साथ मतभेद बढ़ते गए, वैसे-वैसे चीन की चुप्पी बढ़ती रही. 

2018 में दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में चीन के निवेश की बात करें तो ये पाकिस्तान की जीडीपी के 16 प्रतिशत, मालदीव की जीडीपी के 15 प्रतिशत और बांग्लादेश की जीडीपी के 8 प्रतिशत के बराबर था. लेकिन कोविड-19 की वजह से चीन समेत विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है.

चीन के ख़ामोश हो जाने की एक और वजह कोविड-19 के कारण आई आर्थिक तबाही है. श्रीलंका के अलावा चीन ने दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में भी काफ़ी ज़्यादा निवेश किया है और आर्थिक मदद मुहैया कराई है. 2018 में दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में चीन के निवेश की बात करें तो ये पाकिस्तान की जीडीपी के 16 प्रतिशत, मालदीव की जीडीपी के 15 प्रतिशत और बांग्लादेश की जीडीपी के 8 प्रतिशत के बराबर था. लेकिन कोविड-19 की वजह से चीन समेत विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है. इस मामले में चीन बीआरआई प्रोजेक्ट या नये कर्ज़ और कर्ज़ पुनर्संरचना के लिए अलग-अलग देशों को उबारने के मामले में मिसाल नहीं बनना चाहता. जिस वक़्त दक्षिण एशिया के देश जैसे कि नेपाल, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश आर्थिक मुश्किलों के दौर से गुज़र रहे हैं और बांग्लादेश एवं पाकिस्तान तो आर्थिक मदद के लिए आईएमएफ के सहारे हैं, उस वक़्त ये हिचकिचाहट चीन की विदेश नीति पर हावी है.

इस तरह श्रीलंका के संकट को लेकर चीन की चुप्पी पूरे दक्षिण एशिया, ख़ास तौर पर श्रीलंका में, उसकी कब्ज़ा करने की नीति और बड़े पैमाने पर कर्ज देने की चाल की हदों से जुड़ी हुई है. इसका ये मतलब नहीं है कि चीन लंबे समय तक ख़ामोश होकर बैठा रहेगा. इसकी वजह ये है कि चीन का दांव पर बहुत कुछ लगा हुआ है. वास्तव में श्रीलंका में अलग-अलग हिस्सेदारों के साथ चीन ने क़रीबी संबंध बनाना जारी रखा है और अतीत में भी उन्हें चीन के हितों एवं संवेदनशीलता को स्वीकार करने के लिए तैयार किया है. लेकिन चीन ख़ुद को दृढ़तापूर्वक सामने रखने और इस क्षेत्र में अपने हितों को मज़बूत करने के लिए इंतज़ार करेगा, वो एक नये दृष्टिकोण और कब्ज़ा करने के नेटवर्क के साथ सामने आएगा. इस नये दृष्टिकोण की झलक अब धीरे-धीरे सामने आ रही है क्योंकि चीन का जहाज़ युआन वांग 5 आगे आने वाले हफ़्तों में श्रीलंका के समुद्र तट पर पहुंचने वाला है. 

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