Published on Jul 13, 2020 Updated 0 Hours ago

“यह सामान्य शिष्टाचार का मामला है. यह ऐसा विचार है, जिस पर कुछ लोग मुस्करा सकते हैं, लेकिन किसी भी महामारी से लड़ना असल में सामान्य शिष्टाचार का ही मामला होता है.” – अल्बर्ट कामू

कोविड-19 और भारतीय मुसलमान: तबलीग़ी जमात और मीडिया की निष्पक्षता पर सवाल

अपने आधारभूत शोध कार्य ‘डेथ एंड डाइंग’ में एलिज़ाबेथ कुबलर रॉस ने दुख के पांच चरण बताए हैं — इंकार, गुस्सा, सौदेबाज़ी, अवसाद और स्वीकार्य. इस स्विस-अमेरिकन मनोचिकित्सक ने गंभीर रूप से मानसिक विकारों के शिकार रोगियों के बारे में बात करते हुए उनकी बीमारी के पांच चरण गिनाए हैं, लेकिन देश जब कोरोना वायरस के प्रारंभिक दौर से गुज़र रहा था, तब आश्चर्यजनक रूप से यह सारे लक्षण हमारे यहां के एक वर्ग में साफ़ नजर आ रहे थे.

भारत में वायरस फैलने की शुरुआत के समय देश के दूसरे बड़े धार्मिक समुदाय से संबंध रखने वाली तबलीग़ी जमात का दिल्ली में जमावड़ा था. मीडिया के अनुसार न सिर्फ़ दिल्ली बल्कि देश के कुछ दीगर हिस्सों में भी कोरोना फ़ैलने के ज़िम्मेदार यही जमाती थे. ऐसे नाजुक समय में इस तरह का जमावड़ा निःसंदेह जमात की लापरवाही व स्थिति को समझने में चूक का उदाहरण है.

दिल्ली के हज़रत निजामुद्दीन स्थित मरकज़ यानी मुख्यालय पर मार्च 2020 में यह आयोजन हुआ, जिसमें इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, नेपाल, म्यांमार (बर्मा), बांग्लादेश, श्रीलंका व किरगिस्तान जैसे देशों से भी जमात वाले शामिल थे. बड़े आयोजनों पर सरकार द्वारा रोक लगाए जाने के बावजूद इस कार्यक्रम में साढ़े चार हज़ार से ज्य़ादा लोग इकट्ठा हुए. मीडिया रिपोर्ट्स में सरकारी सूत्रों के माध्यम से बताया गया कि 1 जनवरी से 70 देशों के दो हज़ार से ज्य़ादा विदेशी नागरिक तबलीग़ी जमात के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचने लगे थे. 25 मार्च को अचानक लॉकडाउन की घोषणा के बाद इनमें से कोई एक हजार तबलीग़ी जमात के मरकज में ही रह गए. जिन को लेकर वबाल खड़ा होने पर जमात द्वारा स्थानीय प्रशासन से इन लोगों को निकाले जाने का आग्रह किए जाने बाबत दस्तावेज़ आम किए गए.

अप्रैल के पहले सप्ताह में देश के विभिन्न हिस्सों से कोरोना वायरस फैलने व इससे होने वाली मौतों की ख़बरें आने लगीं. निजी समाचार चैनल्स ने इसे तबलीग़ी जमात की “हिमालियाई” गलती करार दिया. एकतरफ़ा चल रहे इन चैनल्स ने “तब्लीगी वायरस” व “कोरोना जिहाद” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए बताने की भरपूर कोशिश की कि देश में कोरोना फैलाने की ज़िम्मेदार केवल तबलीग़ी जमात है. बाद में उनके सुर कुछ बदले तो भी वे कहते रहे कि देश में 30 प्रतिशत से ज्यादा कोरोना तबलीग़ी जमात के कारण फैला.

इस इस्लामोफोबिक रवैये के बीच आरोप-प्रत्यारोपों के दौर चलने लगे. यह सब देख-सुन आईपीएस अधिकारी नज्मुल्हुदा को अपनी फेसबुक वॉल पर कहना पड़ा कि सांप्रदायिक नफ़रत के विषैले किटाणुओं के सामने कोविड-19 वायरस सामान्य सर्दी का वायरस जैसा लगने लगा है.

ऐसे माहौल में राजनीति का खेल भी हुआ. नागरिकता संशोधन कानून व एनआरसी के विरोधस्वरूप देश में जगह-जगह शाहीन बाग धरने दिए जा रहे थे. अंतरराष्ट्रीय मीडिया में शाहीन बाग की आंदोलनकारी महिलाओं को लेकर बार-बार ख़बरें दी जा रही थीं. इसी बीच फरवरी में देश की राजधानी दिल्ली सांप्रदायिक दंगों की आग से झुलसने लगी, जिससे धार्मिक वैमनस्य और गहरा गया. तब तबलीग़ी जमात का यूं निशाना बनना स्वाभाविक ही था. टाइम मैगज़ीन  के साथ काम करने वाली एक्विलिटी लैब्स (डिजिटल ह्यूमन राइट्स ग्रुप) के मुताबिक कोरोना जिहाद का हैश-टैग लगभग तीन लाख बार इस्तेमाल किया गया.

सोशल मीडिया पर “तब्लीगी वायरस” और “कोरोना जिहाद” के विरुद्ध अघोषित युद्ध चलता रहा. देश का ध्यान कोविड-19 से मुकाबला करने की बजाय तबलीग़ी जमात व मुसलमानों को निशाना बनाने में लगा रहा और उन्हें बीमारी फैलाने का आरोपी बनाया जाता रहा.

इन इस्लामोफोबिक भीषण आक्रमणों के बीच कई लेखों व ट्वीट्स में मुसलमानों के खिलाफ़ भेदभाव किए जाने की आशंका व्यक्त की जाती रही. नजमुल्हुदा जैसे लोग महसूस कर रहे थे कि मुसलमानों के खिलाफ “सोशल मीडिया का रवैया सदा की तरह उग्र और ज़हर भरा था. साफ़ कहें तो वे सोशल मीडिया पर अपने हताहत होते रहने की आदत के कारण ही आते थे.” सच्चाई यह है कि मुसलमानों का एक बड़ा तबका तबलीग़ी जमात के खिलाफ़ है, लेकिन दुष्प्रचार के ज्वर में बह रहे एक वर्ग और उनसे प्रभावित होने वाले देशवासियों की बड़ी तादाद पूरे मुस्लिम समुदाय को कोरोना फैलाने का ज़िम्मेदार बताने पर अपनी पूरी शक्ति लगा रही थी.

एक मुश्किल समय में निषेध के दौरान आयोजन करने और वहां पाए गए कोरोना के रोगियों की पॉजिटिव रिपोर्ट छुपाने की जिम्मेदार तबलीग़ी जमात थी. लेकिन नफ़रत में डूबे लोग इसे समझ नहीं पा रहे थे कि तबलीग़ी जमात देश के 17 करोड़ मुसलमानों की प्रतिनिधि जमात नहीं है. इस पूरे मामले में मीडिया ने जिस तरह तबलीग़ी जमात और मुसलमानों को पेश किया, उससे यह महसूस होने लगा कि कोरोना भी किसी धर्म से संबंध रखता है.

घृणा आधारित इस दुष्प्रचार का असर यह हुआ कि देश में खुले आम गरीब मुसलमानों के खिलाफ़ नफ़रत का प्रदर्शन किया जाने लगा. समाचार चैनल एनडीटीवी ने उत्तर प्रदेश के महोबा ज़िले की वह ख़बर बताई जिसमें कुछ लोग मुस्लिम ठेले वालों को तबलीग़ी जमात से जुड़ा तथा कोरोना वायरस फैलाने वाला बता कर उन्हें सब्ज़ी बेचने से रोक रहे थे.

उत्तर प्रदेश के ही देवरिया से बीजेपी विधायक सुरेश तिवारी लोगों को मुसलमानों से सब्ज़ियां खरीदने के ख़िलाफ चेतावनी देते नज़र आए. हालांकि, बाद में प्रदेश पार्टी अध्यक्ष ने उनसे जवाब तलब कर लिया. सोशल मीडिया पर घृणास्पद वीडियोज़ वायरल कर दावा किया जाने लगा कि मुसलमान पूरे देश में कोरोना फैलाने के प्रयास कर रहे हैं. ऐसे ही एक वीडियो में मुसलमानों को एक-दूसरे पर छींकते हुए दिखाया गया था. वीडियो फैलाने वालों का कहना था कि मुसलमान इस तरह कोरोना की महामारी फैलाना चाहते हैं. बाद में वास्तविकता का पता लगाने वाली वेबसाइट आल्ट न्यूज़ ने इसकी जांच की तो वह झूठा पाया गया.

इसी तरह तबलीग़ी जमात से जोड़ कर कई फेक वीडियोज या झूठी ख़बरें चलाई गईं. कानपुर मेडिकल कॉलेज की प्रिंसिपल, जो बाद में कैमरे पर मुसलमानों के ख़िलाफ ज़हर उगलती पाई गईं, उन जैसे लोगों ने अस्पताल में भर्ती तबलीग़ी जमात के मरीज़ों पर दुर्व्यवहार करने, मांसाहारी खाना मांगने, नर्सों के सामने अश्लील हरकतें करने जैसे निराधार आरोप लगाए. इस बहाने बहसें चलीं और उनमें वही अल्पसंख्यकों का घनी आबादी वाले तंग इलाकों में गंदगी के बीच निवास, शिक्षा व जागरूकता की कमी आदि के सहारे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बहसें की गईं.

इस कठिन समय में मुस्लिम धार्मिक विद्वान बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए सक्रिय रहे तथा समुदाय को उचित मार्गदर्शन दिया. लखनऊ ईदगाह के इमाम व जानेमाने विद्वान मौलाना ख़ालिद रशीद फिरंगी महली ने कोविड-19 से बचाव के लिए कई सुरक्षा उपाय बताए

परंतु इस बार मुस्लिम समुदाय द्वारा भी ऐसी निराधार बातों का जवाब दिया गया. सोशल मीडिया पर तथ्य रखे गए और ज़हरीली बातों का जवाब उसी तरह की बातों से दिया जाने लगा. मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता व धार्मिक विद्वानों ने भी सक्रियता दिखाई. दो अप्रैल को दिल्ली अल्पसंख्य़क आयोग के अध्यक्ष डॉ. जफरुल्इस्लाम खान, मौलाना आज़ाद यूनिवर्सिटी जोधपुर के अध्यक्ष प्रो. अख्तरुलवासे, ह्यूमन वेलफेयर सोसायटी के सद्र प्रो. मुहसिन उस्मानी नदवी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी स्थित कुरआन अध्ययन केंद्र के डायरेक्टर केए निज़ामी, ऑल इंडिया उर्दू एडिटर्स कॉन्फ़्रेंस के सचिव मासूम मुरादाबादी, रोजनामा सियासत हैदराबाद के मैनेजिंग एडिटर जहीरुद्दीन अली खान तथा अध्यक्ष इस्लामी अध्ययन विभाग जामिआ मिल्लिया इस्लामिया देहली प्रो. इक्तिदार मुहम्मद खान जैसे सात बुद्धिजीवियों ने अपील जारी कर सरकार से आग्रह किया कि मजबूरीवश अवरुद्ध लोगों की स्थिति समझी जाए. उन्होंने यह काम की बात कही कि कोरोना के खिलाफ़ जारी संघर्ष को “किसी भी तरह का सांप्रदायिक रुख़ देना इसके खिलाफ़ जारी युद्ध को कमज़ोर ही करेगा.”

इस कठिन समय में मुस्लिम धार्मिक विद्वान बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए सक्रिय रहे तथा समुदाय को उचित मार्गदर्शन दिया. लखनऊ ईदगाह के इमाम व जानेमाने विद्वान मौलाना ख़ालिद रशीद फिरंगी महली ने कोविड-19 से बचाव के लिए कई सुरक्षा उपाय बताए. उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि वे जमात से नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिदों में जमा होने का आग्रह न करें, सार्वजनिक स्थलों पर छींकने या खांसने से परहेज करें. मौलाना ख़ालिद रशीद देश के उन उलमा में शामिल हैं, जिन्होंने कोविड के ख़िलाफ जंग को धार्मिक अनिवार्यता करार दिया.

इस बीच अप्रैल के अंतिम सप्ताह में शुरू हुआ रमज़ान का महीना परीक्षा की घड़ी था. इस पवित्र माह में रोज़ाना इफ़्तार व तरावीह की सामूहिक नमाज़ होती है. तब भी धार्मिक विद्वानों व मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आमजनों को समझाया. तब विभिन्न वर्गों, क्षेत्रों व भाषाओं में बंटे 17 करोड़ लोग एकमत हो कर रमज़ान की इबादतें घरों में ही करने लगे.

इसी तरह रमज़ान के बाद आने वाली ईद यानी ईद-उल-फित्र पर इसी सामूहिक स्वीकार्य व अनुशासन का परिचय दिया गया. विद्वतजनों की अपील पर पूरे मुस्लिम समुदाय ने अपने इस विश्वव्यापी त्योहार को सादगी से मनाया तथा ईद की नमाज़ के लिए ईदगाह जाने, कहीं भी समूह रूप में जमा होने से परहेज़ किया. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त देश के धार्मिक शिक्षण संस्थानों जैसे दारुलउलूम नदवतुल-उलमा व दारुलउलूम देवबंद ने एक महामारी सरीख़ी रोग को देखते हुए ईद की नमाज़ घरों में ही अदा करने बाबत फतवे तक जारी किए.

इसी तरह रमज़ान के बाद आने वाली ईद यानी ईद-उल-फित्र पर इसी सामूहिक स्वीकार्य व अनुशासन का परिचय दिया गया. विद्वतजनों की अपील पर पूरे मुस्लिम समुदाय ने अपने इस विश्वव्यापी त्योहार को सादगी से मनाया तथा ईद की नमाज़ के लिए ईदगाह जाने, कहीं भी समूह रूप में जमा होने से परहेज़ किया

इसका सकारात्मक प्रत्युत्तर मिला और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने इन संस्थानों के प्रयासों की प्रशंसा की. नज्मुल्हुदा जैसे संवेदनशील व्यक्ति ने कोरोना के प्रति आभार प्रकट किया कि उसकी वजह से हर वर्ग, हर धड़े के मुसलमान ने एकमत हो कर घरों पर नमाजे-ईद अदा की. इसके अलावा, रमज़ान के दौरान व ऊदुल्फित्र के मौके पर मुसलमानों ने बढ़-चढ़ कर दान किया. उन्होंने ज़रूरतमंदों को हिंदू या मुसलमान में न बांटते हुए ज़रूरतमंद ही जाना और उनकी खूब मदद की. इस्लामिक सेंटर ऑफ इंडिया के सचिव मौलाना नईमुर्रहमान सिद्दीकी के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले इस साल ‘ज़कात’ (धनी मुसलमानों द्वारा ग़रीबों को हर साल दी जाने वाली राशि) में 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई.

भूलना नहीं चाहिए कि कोविड-19 की देश में आमद के समय जिस तबलीग़ी जमात को इसके प्रसार का ज़िम्मेदार बनाए जाने के भरसक प्रयत्न किए जा रहे थे, उसी के कार्यकर्ता बाद में कोरोना से ठीक हो कर अपना प्लाज़्मा दान करने लगे. यह एक तरह का प्रायश्चित ही था. कुछ लोगों का कहना है कि जमातियों द्वारा की जाने वाली यह सेवा पाक़ कुरान की तालीमात के मुताबिक ही है.

क़ुरान में कहा गया है — न अच्छे आचरण परस्पर समान होते हैं और न बुरे आचरण. तुम (बुरे आचरण की बुराई को) अच्छे से अच्छे आचरण द्वारा दूर करो. फिर क्या देखोगे कि वही व्यक्ति, तुम्हारे और जिसके बीच बैर पड़ा हुआ था, जैसे वह कोई घनिष्ठ मित्र है.

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