इस समय पूरी दुनिया कोरोना वायरस की महामारी के शिकंजे में तड़प रही है. इस महामारी की शुरुआत चीन के वुहान शहर से हुई थी. पर, अब इसका केंद्र चीन से ईरान, इटली और स्पेन होते हुए अमरीका बन चुका है. इस समय भारत भी इस महामारी के मुहाने पर खड़ा है. एक तरफ़ तो ऐसा लग रहा है कि भारत पर इस महामारी का बहुत कम असर पड़ा है. 13 अप्रैल तक इस महामारी से भारत में दस हज़ार से भी कम लोगों के संक्रमित होने की पुष्टि हुई है. जबकि मरने वालों की संख्या सवा तीन सौ के आस-पास है. भारत के कुल 720 ज़िलों में से दो सौ से ज़्यादा ज़िलों में कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले पाए गए हैं. भारत में इस नए कोरोना वायरस के संक्रमण का पहला केस 30 जनवरी को केरल में पाया गया था. ऐसे में इस वायरस का भारत में संक्रमण, अन्य देशों में इन्फ़ेक्शन के मॉडल से बिल्कुल अलग और काफ़ी कम है. लेकिन, अक्सर महामारियों का अचानक से विस्फोट होते देखा गया है. और भारत में भी इस वायरस के प्रकोप के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं. ये हाल तब है, जब भारत में 24 25 मार्च से पूरे देश को लॉकडाउन कर दिया गया था.
भारत में ये लॉकडाउन अभूतपूर्व है. जब चीन में नए कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन लगाया गया था, तब इसे बेहद सख़्त क़दम बताया गया था. कहा गया था कि ऐसे लॉकडाउन को किसी तानाशाही व्यवस्था वाले देश में ही लागू किया जा सकता था. लेकिन, अपने शीर्ष पर चीन में लगे लॉकडाउन का प्रभाव इसकी आधी आबादी या लगभग 76 करोड़ लोगों पर ही पड़ा था. चीन की तुलना में, लोकतांत्रिक देश भारत ने तो बहुत आगे जा कर अपने देश की एक अरब तीस करोड़ से भी ज़्यादा जनता को एक साथ 21 दिनों फिर 18 दिनों के लिए लॉकडाउन में डाल दिया, जिसे अलग-अलग राज्य बढ़ा भी रहे हैं. लेकिन, इस लॉकडाउन को लगा कर सरकार को इस महामारी की रोकथाम के लिए लगभग 40 दिनों का अवसर प्राप्त हो गया.
इससे पहले भारत के पास इस महामारी की रोकथाम के लिए पूरा फरवरी महीना मिला था. क्योंकि पूरे फरवरी महीने तक भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण के तीन मामले ही सामने आए थे. और ये तीनों मरीज़ केरल के रहने वाले थे. और इलाज के बाद ये सभी ठीक भी हो गए थे. लेकिन, भारत ने हाथ आया ये मौक़ा गंवा दिया. क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव था. इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च की तरफ़ से दिए जा रहे संदेश भी स्पष्ट नहीं थे. कोरोना वायरस से निपटने के लिए न तो कोई राष्ट्रीय नीति थी और न ही फरवरी महीने तक कोई टास्क फ़ोर्स बनी थी. इसका अर्थ यह था कि न तो कोरोना वायरस से निपटने के लिए स्वास्थ्य संबंधी प्राथमिकताएं परिभाषित की गई थीं, और न ही इसके लिए कोई स्पष्ट कार्य योजना तैयार थी. इसीलिए, लॉकडाउन के कारण मिले 40 दिन के समय को हम तलवार की धार वाले दिन कह रहे हैं. इन दिनों में भारत को वो क़दम उठाने का मौक़ा मिला है, जिन्हें उठाने से वो फ़रवरी में चूक गया था.
क्या किया गया था और कैसे?
भारत ने अपनी पहली ट्रैवल एडवाइज़री 17 जनवरी को जारी की थी. चीन और हॉन्ग कॉन्ग से आने वाले यात्रियों को स्वयं ही ये जानकारी देनी थी कि वो पिछले एक पखवारे में वुहान शहर से होकर तो नहीं लौटे. इसी के साथ भारत ने देश के सात हवाई अड्डों पर विदेश से आ रहे यात्रियों की थर्मल स्क्रीनिंग की शुरुआत कर दी थी. धीरे-धीरे भारत की ट्रैवल एडवाइज़री में कई अन्य देश जैसे कि जापान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर को भी शामिल कर लिया गया. इसी के साथ चीन में भारतीय दूतावास ने ई-वीज़ा जारी करना बंद कर दिया. इन सबके दौरान भारत सरकार ने वुहान में फंसे भारतीय नागरिकों को फ़रवरी महीने की शुरुआत में स्वदेश वापस लाने का काम भी किया.
4 मार्च को देश के सभी हवाई अड्डों पर सभी यात्रियों की स्क्रीनिंग का काम शुरू कर दिया गया. और विदेश से भारत आने वाले सारे विदेशी नागरिकों के वीज़ा रद्द कर दिए गए. इसके एक हफ़्ते बाद 18 मार्च को सरकार ने सभी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के भारत आने पर रोक लगा दी थी. यहां ये बात याद रखने वाली है कि नए कोरोना वायरस के एक इंसान से दूसरे इंसान को संक्रमित करने की पुष्टि चीन में 20 जनवरी को ही हो गई थी. 31 जनवरी तक, कोरोना वायरस के संक्रमण के 50 मामले 14 देशों में सामने आ चुके थे. और 6 मार्च तक दुनिया भर में कोरोना वायरस से संक्रमित मामलों की संख्या एक लाख को पार कर चुकी थी.
इस दौरान बहुत से देशों ने अपने यहां विदेशी यात्रियों के आने पर कड़ी पाबंदियां लगा दी थीं. इसके साथ साथ इन देशों ने कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों का पता लगा कर उनके परीक्षण और उन्हें अलग करने का काम शुरू कर दिया था. क्योंकि, जनवरी महीने के अंत तक ये बात पूरी तरह साफ हो चुकी थी कि इस नए कोरोना वायरस से संक्रमित कई लोगों में इसके लक्षण शुरुआत के दिनों में नहीं दिखते थे. और इनके कारण अन्य लोग भी संक्रमित हो रहे थे. 24 जनवरी तक दुनिया की तमाम प्रयोगशालाओं में इस नए वायरस की जेनेटिक बनावट का पता लगाया जा चुका था. जिसके बाद इस वायरस को SARS-CoV-2 नाम दिया गया. 31 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस वायरस के प्रकोप को सार्वजनिक स्वास्थ्य की अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय घोषित कर दिया था.
इसके बावजूद इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (ICMR) यही दावा करता रहा कि भारत में बड़े पैमाने पर लोगों के परीक्षण की आवश्यकता नहीं है. 6 मार्च को जाकर ICMR ने जानकारी दी कि ‘अभी उन्हीं देशों से आने वाले यात्रियों की टेस्टिंग की जा रही है, जो कोरोना वायरस के प्रकोप से प्रभावित हैं. जैसे कि चीन, दक्षिण कोरिया, हॉन्ग कॉन्ग, जापान, सिंगापुर, इटली और ईरान. इसके अलावा इन यात्रियों के नज़दीकी संपर्क में आए लोगों की भी पड़ता की जा रही है. साथ ही साथ ICMR ने ये भी बताया कि चीन और जापान के तट पर खड़े डायमंड प्रिंसेज से निकाल कर लाए गए लोगों को भी कोरोना वायरस की टेस्टिंग के दायरे में लाया जाना चाहिए.’ इसके बाद सरकार ने कोरोना वायरस के रियल टाइम रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन पॉलीमेरेज़ रिएक्शन टेस्ट (rRT-PCR) करने वाली लैब की संख्या 15 से बढ़ा कर 57 कर दी गई. इसके दस दिन बाद 51 निजी प्रयोगशालाओं को भी कोरोना वायरस के परीक्षण की इजाज़त दे दी गई. लेकिन, इन प्राइवेट लैब्स से कहा गया कि टेस्ट करने के लिए किट का इंतज़ाम वो स्वयं करें. साथ ही सरकार ने उनसे अपील की कि निजी लैब ये टेस्ट मुफ़्त में करें. और जैसी की उम्मीद थी इन निजी प्रयोगशालाओं ने सरकार के इस सुझाव पर आपत्ति जताई. इसके बाद सरकार को कोरोना वायरस के टेस्ट की क़ीमत तय करने में कुछ और दिन लग गए. (अमेरिका में निजी कंपनियों द्वारा टेस्ट की शुरुआती लागत लगभग तीन हज़ार डॉलर थी, जिसे बाद में घटा कर 320 डॉलर और फिर बाद में मुफ़्त कर दिया गया.)
21 मार्च को भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने टेस्ट के नियमों का दायरा बढ़ा कर हर उस व्यक्ति को परीक्षण के दायरे में लाने का निर्णय किया जिन्हें सांस लेने में भयंकर रूप से परेशानी हो रही हो, और जिन्हें कोरोना वायरस के सांकेतिक लक्षण हों और जो वायरस से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए हों. तब तक उसके सात हफ़्ते पहले तक 15 हज़ार 701 नमूनों का परीक्षण किया जा चुका था. उसके बाद के एक हफ़्ते में 12 हज़ार अन्य लोगों का परीक्षण किया जा चुका था. इसी बीच, भारत को जर्मनी और विश्व स्वास्थ्य संगठन से 34 लाख और टेस्ट किट मिलने की संभावना है. अगर भारत में वायरस के संक्रमण के परीक्षण की तुलना दक्षिण कोरिया से, तो दक्षिण कोरिया में 15 फ़रवरी तक कोरोना वायरस से संक्रमित मामलों की संख्या 28 थी. जिसके बाद दक्षिण कोरिया ने टेस्ट किट बनाने का काम युद्ध स्तर पर आरंभ कर दिया था. इसी के साथ दक्षिण कोरिया ने प्रतिदिन बीस हज़ार टेस्ट करना शुरू कर दिया था. एक समय ऐसा आया जब दक्षिण कोरिया की कंपनियां प्रति दिन एक लाख टेस्ट किट का निर्माण करने लगी थीं. वहीं, जर्मनी प्रतिदिन 75 हज़ार लोगों का परीक्षण कर रहा है. अगर हम इन देशों की तुलना इटली या अमेरिका से करें, तो पता चलता है कि इटली और अमेरिका में बड़े पैमाने पर लोगों में संक्रमण की जांच शुरू करने में काफ़ी देर कर दी थी. जिसका नतीजा दुनिया के सामने है.
लेकिन, भारत में जब घरेलू टेस्ट निर्माताओं को किट बनाने का प्रस्ताव देने को कहा गया, तब भी आईसीएमआर ने शुरुआत में यही कहा कि ये टेस्ट किट अमेरिकी फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन या यूरोपीय यूनियन के प्राधिकरण द्वारा मान्यता प्राप्त होनी चाहिए. केवल 26 मार्च को जा कर ICMR ने ये स्पष्टीकरण दिया कि भारतीय एजेंसियों (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी और तीन अन्य सरकारी लैब) द्वारा मान्यता प्राप्त टेस्ट किट भी मान्य होंगी. अबतक भारत सरकार ने टेस्ट किट के तीन घरेलू निर्माताओं को इन्हें बनाने की मंज़ूरी दी है. टेस्ट करने की लागत तो आती ही है. साथ ही शुरुआती टेस्ट से ज़िंदगियां बचा पाना भी मुश्किल है, क्योंकि अधिकतर मरीज़ तो ठीक हो जाते हैं. लेकिन, टेस्टिंग से कम से कम इस बात में मदद मिलती है कि रोग के वायरस अन्य लोगों तक ले जाने वाले संक्रमित व्यक्तियों की पहचान हो जाती है. इससे शुरुआत में ही संक्रमण का प्रकोप फैलने से रोकने में मदद मिलती है
कोरोना वायरस का संक्रमण बढ़ने के सबूत सामने आने के बाद वाणिज्य मंत्रालय ने हर तरह के निजी सुरक्षा उपकरणों (PPE) के निर्यात पर रोक लगा दी थी. लेकिन, 8 फरवरी को निर्यात पर इस प्रतिबंध में थोड़ी ढील दे दी गई. जिसके बाद हर तरह के दस्तानों और मास्क का निर्यात किया जाने लगा. इसके बाद वाणिज्य मंत्रालय ने 25 फ़रवरी को कुछ अन्य मेडिकल उपकरणों और सामान के निर्यात की छूट दे दी. इसमें ये उपकरण बनाने में प्रयोग किए जाने वाले कच्चे माल का निर्यात भी शामिल था. आख़िरकार, 19 मार्च को जाकर वाणिज्य मंत्रालय ने अपने फ़रवरी में रियायत के आदेश को तब वापस लिया, जब डॉक्टरों ने मीडिया से शिकायत की कि उनके पास पूरे देश के अस्पतालों में सुरक्षात्मक उपकरणों की भारी कमी है. सरकार ने 24 मार्च को जाकर सैनिटाइज़र और वेंटिलेटर के निर्यात पर रोक लगाई. जबकि तब तक भारत में वेंटिलेटर बनाने वाले सात निर्माताओं को यूरोपीय देशों से निर्यात के बड़े ऑर्डर मिल चुके थे. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 27 फ़रवरी को ही एडवाइज़री जारी की थी कि ऐसे उपकरणों की कमी हो सकती है. क्योंकि दुनिया भर में इनकी मांग में बेतहाशा वृद्धि हो रही थी और सप्लाई चेन बाधित थी. लेकिन, इस बात की संभावना कम ही है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की नोटिस का वाणिज्य मंत्रालय में किसी ने संज्ञान लिया होगा. अब भारतीय अधिकारी, घरेलू कंपनियों को इन सामानों के उत्पादन के ऑर्डर दे रहे हैं. साथ ही सरकारी कंपनियों से भी मदद मांगी जा रही है कि निजी और सरकारी अस्पतालों में वेंटिलेटर्स की संख्या बढ़ा कर 80 हज़ार तक की जाए. अमेरिका के पास एक लाख सत्तर हज़ार वेंटिलेटर हैं. हालांकि, इनमें से केवल दो तिहाई का ही इस्तेमाल किया जा सकता है. क्योंकि इनके इस्तेमाल के लिए प्रशिक्षित मेडिकल कर्मियों की भारी कमी है. इसके अलावा एक ही वेंटिलेटर से एक साथ दो मरीज़ों के इलाज के तकनीकी विकल्प भी तलाशे जा रहे हैं. चूंकि, दोनों ही मरीज़ एक ही तरह के संक्रमण से जूझ रहे होंगे.
महाराष्ट्र और गुजरात की राज्य सरकारों ने कई इकाइयों को बंद करने की सलाह दी है. जिसके कारण पैदा हुई आशंका और भगदड़ की वजह से हज़ारों अप्रवासी मज़दूर ट्रेन पकड़ कर अपने राज्य लौटने की होड़ लगा बैठे. 22 मार्च की रात से 80 ज़िलों में तालाबंदी के कारण, ट्रेन पकड़ने वाले लोगों की बाढ़ आ गई. और जैसे ही पूरे देश में लॉकडाउन का एलान किया गया, तो ये तादाद कई गुना बढ़ गई. इससे एक नया मानवीय संकट खड़ा हो गया. क्योंकि सभी ट्रेनें और बसें बंद हो गई थीं. जिसके कारण लाखों लोग बीच रास्ते में ही अटक गए. अब तक इस समस्या का कोई उचित समाधान नहीं निकाला जा सका है.
जब दिल्ली के मुख्यमंत्री ने राजधानी के लगभग चार लाख अप्रवासी मज़दूरों को मुफ़्त में खाना खिलाने की घोषणा की. तो, इस सरकारी एलान का फ़ायदा उठाने के लिए इतनी बड़ी संख्या में लोग जमा हो गए कि सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की धज्जियां उड़ गईं. चूंकि अब रबी की फसल की कटाई का काम चालू है. ऐसे में केंद्रीय सरकार के अधिकारियों को ऐसी गाइडलाइन जारी करनी होंगी, जो व्यवहारिक हों और इतनी लचीली हों कि अलग-अलग राज्यों की विशेष ज़रूरतों का ध्यान रख सकें.
हमें अब क्या करना चाहिए और कैसे?
ये वो कुछ उदाहरण हैं कि किस तरह भारत ने फ़रवरी महीने में मिले मौक़ों को हाथ से जाने दिया था. हम अब बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि हमने अपनी इन ग़लतियों से सही सबक़ सीख लिए हैं. और हमें लॉकडाउन के कारण फिर से जो अवसर प्राप्त हुआ है, उनका अच्छी तरह से इस्तेमाल किया जाएगा. अब तक हमने देखा है कि ऊपर से ही आदेश जारी हो रहे हैं, जिनका ज़िला स्तर पर पालन कराया जा रहा है. लेकिन, इस तरीक़े से हम विभिन्न क्षेत्रों की अलग-अलग प्राथमिकताओं का ध्यान रख पाने में असफल रहे हैं. क्योंकि हर राज्य की अपनी अलग तरह की ज़रूरत है. ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि सभी साझीदारों से पर्याप्त सलाह मशवरा करना चाहिए, ताकि इस संकट से लड़ने के लिए उचित शक्ति जुटाई जा सके. हम इसी तरह से ऊपर से आने वाले आदेशों का पालन करा सकेंगे और साथ ही साथ अचानक पैदा हुई चुनौतियों का भी समाधान खोज सकेंगे, क्योंकि ऐसे संकट उत्पन्न होने तय हैं. उदाहरण के लिए, आवश्यक सेवाएं क्या हैं, इनकी सूची तो जारी की गई थी. इसी के साथ साथ इन लोगों की आवाजाही के लिए उचित संख्या में पास जारी करने की भी आवश्यकता थी. इस बात का आकलन पहले ही कर लिया जाना चाहिए था कि ज़रूरी सेवाएं देने वालों को आवाजाही के लिए रियायत की आवश्यकता तो पड़ेगी ही. इससे हम घबराहट में बेवजह सामान ख़रीदने की उन घटनाओं को रोक सकते थे, जिन्हें हमने 24 मार्च को देखा था.
एक तरफ़ तो हमें सरकार के अलग-अलग संगठनों के बीच आपस में तालमेल बढ़ाने की ज़रूरत है. तो, दूसरी ओर कोरोना वायरस की महामारी से निपटने के लिए निजी क्षेत्र और सामाजिक संगठनों को भी भागीदार बनाने की ज़रूरत है. हमारे देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की ख़ामियां जगज़ाहिर हैं. उन्हें दोबारा गिनाने की आवश्यकता नहीं है. सिर्फ़ ये ही कहना पर्याप्त होगा कि इस तरह की महामारी से निपटने के लिए सरकार के नेतृत्व में सभी उपलब्ध संसाधनों और संगठनों को एकजुट करना होगा, ताकि सबसे मशविरा करके उचित रणनीति बना कर उस पर अमल किया जा सके. इस व्यवस्था को कारगर बनाने के लिए एक ऐसी टास्क फ़ोर्स का गठन करने की ज़रूरत है, जिसकी कड़ियां राज्य और और ज़िला स्तर की प्रशासनिक इकाई से जुड़ती हों.
इस महामारी के प्रकोप के विस्तार पर तो निगाह रखी ही जा रही है. साथ ही साथ हमें लॉकडाउन हटने के बाद की परिस्थितियों से निपटने की तैयारी भी शुरू कर देनी चाहिए. ज़िला स्तर पर पड़ताल करने से वायरस से संक्रमित क्लस्टर्स की पहचान हो सकेगी. इससे हमें ये तय करने में मदद मिलेगी कि किन इलाक़ों में लॉकडाउन में रियायत दी जा सकती है. इससे उन क्षेत्रों के लिए संसाधन मुक्त होंगे, जहां इनकी सबसे अधिक आवश्यकता है. ये एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अत्यधिक नाज़ुक है. लेकिन, अगर इसे सावधानी और योजनाबद्ध तरीक़े से लागू किया जाए, तो लोगों के बीच भरोसा क़ायम किया जा सकेगा. और इससे अन्य ज़िलों को भी अपने बचाव और संक्रमण की रोकथाम के उपाय करने में सहयोग प्राप्त होगा.
इस समय पूरी दुनिया कोरोना वायरस की महामारी के शिकंजे में तड़प रही है. इस महामारी की शुरुआत चीन के वुहान शहर से हुई थी. पर, अब इसका केंद्र चीन से ईरान, इटली और स्पेन होते हुए अमरीका बन चुका है. इस समय भारत भी इस महामारी के मुहाने पर खड़ा है. एक तरफ़ तो ऐसा लग रहा है कि भारत पर इस महामारी का बहुत कम असर पड़ा है. 13 अप्रैल तक इस महामारी से भारत में दस हज़ार से भी कम लोगों के संक्रमित होने की पुष्टि हुई है. जबकि मरने वालों की संख्या सवा तीन सौ के आस-पास है. भारत के कुल 720 ज़िलों में से दो सौ से ज़्यादा ज़िलों में कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले पाए गए हैं. भारत में इस नए कोरोना वायरस के संक्रमण का पहला केस 30 जनवरी को केरल में पाया गया था. ऐसे में इस वायरस का भारत में संक्रमण, अन्य देशों में इन्फ़ेक्शन के मॉडल से बिल्कुल अलग और काफ़ी कम है. लेकिन, अक्सर महामारियों का अचानक से विस्फोट होते देखा गया है. और भारत में भी इस वायरस के प्रकोप के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं. ये हाल तब है, जब भारत में 24 25 मार्च से पूरे देश को लॉकडाउन कर दिया गया था.
भारत में ये लॉकडाउन अभूतपूर्व है. जब चीन में नए कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने से रोकने के लिए लॉकडाउन लगाया गया था, तब इसे बेहद सख़्त क़दम बताया गया था. कहा गया था कि ऐसे लॉकडाउन को किसी तानाशाही व्यवस्था वाले देश में ही लागू किया जा सकता था. लेकिन, अपने शीर्ष पर चीन में लगे लॉकडाउन का प्रभाव इसकी आधी आबादी या लगभग 76 करोड़ लोगों पर ही पड़ा था. चीन की तुलना में, लोकतांत्रिक देश भारत ने तो बहुत आगे जा कर अपने देश की एक अरब तीस करोड़ से भी ज़्यादा जनता को एक साथ 21 दिनों फिर 18 दिनों के लिए लॉकडाउन में डाल दिया, जिसे अलग-अलग राज्य बढ़ा भी रहे हैं. लेकिन, इस लॉकडाउन को लगा कर सरकार को इस महामारी की रोकथाम के लिए लगभग 40 दिनों का अवसर प्राप्त हो गया.
इससे पहले भारत के पास इस महामारी की रोकथाम के लिए पूरा फरवरी महीना मिला था. क्योंकि पूरे फरवरी महीने तक भारत में कोरोना वायरस के संक्रमण के तीन मामले ही सामने आए थे. और ये तीनों मरीज़ केरल के रहने वाले थे. और इलाज के बाद ये सभी ठीक भी हो गए थे. लेकिन, भारत ने हाथ आया ये मौक़ा गंवा दिया. क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच तालमेल का अभाव था. इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च की तरफ़ से दिए जा रहे संदेश भी स्पष्ट नहीं थे. कोरोना वायरस से निपटने के लिए न तो कोई राष्ट्रीय नीति थी और न ही फरवरी महीने तक कोई टास्क फ़ोर्स बनी थी. इसका अर्थ यह था कि न तो कोरोना वायरस से निपटने के लिए स्वास्थ्य संबंधी प्राथमिकताएं परिभाषित की गई थीं, और न ही इसके लिए कोई स्पष्ट कार्य योजना तैयार थी. इसीलिए, लॉकडाउन के कारण मिले 40 दिन के समय को हम तलवार की धार वाले दिन कह रहे हैं. इन दिनों में भारत को वो क़दम उठाने का मौक़ा मिला है, जिन्हें उठाने से वो फ़रवरी में चूक गया था.
क्या किया गया था और कैसे?
भारत ने अपनी पहली ट्रैवल एडवाइज़री 17 जनवरी को जारी की थी. चीन और हॉन्ग कॉन्ग से आने वाले यात्रियों को स्वयं ही ये जानकारी देनी थी कि वो पिछले एक पखवारे में वुहान शहर से होकर तो नहीं लौटे. इसी के साथ भारत ने देश के सात हवाई अड्डों पर विदेश से आ रहे यात्रियों की थर्मल स्क्रीनिंग की शुरुआत कर दी थी. धीरे-धीरे भारत की ट्रैवल एडवाइज़री में कई अन्य देश जैसे कि जापान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर को भी शामिल कर लिया गया. इसी के साथ चीन में भारतीय दूतावास ने ई-वीज़ा जारी करना बंद कर दिया. इन सबके दौरान भारत सरकार ने वुहान में फंसे भारतीय नागरिकों को फ़रवरी महीने की शुरुआत में स्वदेश वापस लाने का काम भी किया.
सरकार के नेतृत्व में सभी उपलब्ध संसाधनों और संगठनों को एकजुट करना होगा, ताकि सबसे मशविरा करके उचित रणनीति बना कर उस पर अमल किया जा सके. इस व्यवस्था को कारगर बनाने के लिए एक ऐसी टास्क फ़ोर्स का गठन करने की ज़रूरत है, जिसकी कड़ियां राज्य और और ज़िला स्तर की प्रशासनिक इकाई से जुड़ती हों
4 मार्च को देश के सभी हवाई अड्डों पर सभी यात्रियों की स्क्रीनिंग का काम शुरू कर दिया गया. और विदेश से भारत आने वाले सारे विदेशी नागरिकों के वीज़ा रद्द कर दिए गए. इसके एक हफ़्ते बाद 18 मार्च को सरकार ने सभी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के भारत आने पर रोक लगा दी थी. यहां ये बात याद रखने वाली है कि नए कोरोना वायरस के एक इंसान से दूसरे इंसान को संक्रमित करने की पुष्टि चीन में 20 जनवरी को ही हो गई थी. 31 जनवरी तक, कोरोना वायरस के संक्रमण के 50 मामले 14 देशों में सामने आ चुके थे. और 6 मार्च तक दुनिया भर में कोरोना वायरस से संक्रमित मामलों की संख्या एक लाख को पार कर चुकी थी.
इस दौरान बहुत से देशों ने अपने यहां विदेशी यात्रियों के आने पर कड़ी पाबंदियां लगा दी थीं. इसके साथ साथ इन देशों ने कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों का पता लगा कर उनके परीक्षण और उन्हें अलग करने का काम शुरू कर दिया था. क्योंकि, जनवरी महीने के अंत तक ये बात पूरी तरह साफ हो चुकी थी कि इस नए कोरोना वायरस से संक्रमित कई लोगों में इसके लक्षण शुरुआत के दिनों में नहीं दिखते थे. और इनके कारण अन्य लोग भी संक्रमित हो रहे थे. 24 जनवरी तक दुनिया की तमाम प्रयोगशालाओं में इस नए वायरस की जेनेटिक बनावट का पता लगाया जा चुका था. जिसके बाद इस वायरस को SARS-CoV-2 नाम दिया गया. 31 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस वायरस के प्रकोप को सार्वजनिक स्वास्थ्य की अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय घोषित कर दिया था.
इसके बावजूद इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (ICMR) यही दावा करता रहा कि भारत में बड़े पैमाने पर लोगों के परीक्षण की आवश्यकता नहीं है. 6 मार्च को जाकर ICMR ने जानकारी दी कि ‘अभी उन्हीं देशों से आने वाले यात्रियों की टेस्टिंग की जा रही है, जो कोरोना वायरस के प्रकोप से प्रभावित हैं. जैसे कि चीन, दक्षिण कोरिया, हॉन्ग कॉन्ग, जापान, सिंगापुर, इटली और ईरान. इसके अलावा इन यात्रियों के नज़दीकी संपर्क में आए लोगों की भी पड़ता की जा रही है. साथ ही साथ ICMR ने ये भी बताया कि चीन और जापान के तट पर खड़े डायमंड प्रिंसेज से निकाल कर लाए गए लोगों को भी कोरोना वायरस की टेस्टिंग के दायरे में लाया जाना चाहिए.’ इसके बाद सरकार ने कोरोना वायरस के रियल टाइम रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन पॉलीमेरेज़ रिएक्शन टेस्ट (rRT-PCR) करने वाली लैब की संख्या 15 से बढ़ा कर 57 कर दी गई. इसके दस दिन बाद 51 निजी प्रयोगशालाओं को भी कोरोना वायरस के परीक्षण की इजाज़त दे दी गई. लेकिन, इन प्राइवेट लैब्स से कहा गया कि टेस्ट करने के लिए किट का इंतज़ाम वो स्वयं करें. साथ ही सरकार ने उनसे अपील की कि निजी लैब ये टेस्ट मुफ़्त में करें. और जैसी की उम्मीद थी इन निजी प्रयोगशालाओं ने सरकार के इस सुझाव पर आपत्ति जताई. इसके बाद सरकार को कोरोना वायरस के टेस्ट की क़ीमत तय करने में कुछ और दिन लग गए. (अमेरिका में निजी कंपनियों द्वारा टेस्ट की शुरुआती लागत लगभग तीन हज़ार डॉलर थी, जिसे बाद में घटा कर 320 डॉलर और फिर बाद में मुफ़्त कर दिया गया.)
21 मार्च को भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने टेस्ट के नियमों का दायरा बढ़ा कर हर उस व्यक्ति को परीक्षण के दायरे में लाने का निर्णय किया जिन्हें सांस लेने में भयंकर रूप से परेशानी हो रही हो, और जिन्हें कोरोना वायरस के सांकेतिक लक्षण हों और जो वायरस से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए हों. तब तक उसके सात हफ़्ते पहले तक 15 हज़ार 701 नमूनों का परीक्षण किया जा चुका था. उसके बाद के एक हफ़्ते में 12 हज़ार अन्य लोगों का परीक्षण किया जा चुका था. इसी बीच, भारत को जर्मनी और विश्व स्वास्थ्य संगठन से 34 लाख और टेस्ट किट मिलने की संभावना है. अगर भारत में वायरस के संक्रमण के परीक्षण की तुलना दक्षिण कोरिया से, तो दक्षिण कोरिया में 15 फ़रवरी तक कोरोना वायरस से संक्रमित मामलों की संख्या 28 थी. जिसके बाद दक्षिण कोरिया ने टेस्ट किट बनाने का काम युद्ध स्तर पर आरंभ कर दिया था. इसी के साथ दक्षिण कोरिया ने प्रतिदिन बीस हज़ार टेस्ट करना शुरू कर दिया था. एक समय ऐसा आया जब दक्षिण कोरिया की कंपनियां प्रति दिन एक लाख टेस्ट किट का निर्माण करने लगी थीं. वहीं, जर्मनी प्रतिदिन 75 हज़ार लोगों का परीक्षण कर रहा है. अगर हम इन देशों की तुलना इटली या अमेरिका से करें, तो पता चलता है कि इटली और अमेरिका में बड़े पैमाने पर लोगों में संक्रमण की जांच शुरू करने में काफ़ी देर कर दी थी. जिसका नतीजा दुनिया के सामने है.
लेकिन, भारत में जब घरेलू टेस्ट निर्माताओं को किट बनाने का प्रस्ताव देने को कहा गया, तब भी आईसीएमआर ने शुरुआत में यही कहा कि ये टेस्ट किट अमेरिकी फूड ऐंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन या यूरोपीय यूनियन के प्राधिकरण द्वारा मान्यता प्राप्त होनी चाहिए. केवल 26 मार्च को जा कर ICMR ने ये स्पष्टीकरण दिया कि भारतीय एजेंसियों (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी और तीन अन्य सरकारी लैब) द्वारा मान्यता प्राप्त टेस्ट किट भी मान्य होंगी. अबतक भारत सरकार ने टेस्ट किट के तीन घरेलू निर्माताओं को इन्हें बनाने की मंज़ूरी दी है. टेस्ट करने की लागत तो आती ही है. साथ ही शुरुआती टेस्ट से ज़िंदगियां बचा पाना भी मुश्किल है, क्योंकि अधिकतर मरीज़ तो ठीक हो जाते हैं. लेकिन, टेस्टिंग से कम से कम इस बात में मदद मिलती है कि रोग के वायरस अन्य लोगों तक ले जाने वाले संक्रमित व्यक्तियों की पहचान हो जाती है. इससे शुरुआत में ही संक्रमण का प्रकोप फैलने से रोकने में मदद मिलती है.
कोरोना वायरस का संक्रमण बढ़ने के सबूत सामने आने के बाद वाणिज्य मंत्रालय ने हर तरह के निजी सुरक्षा उपकरणों (PPE) के निर्यात पर रोक लगा दी थी. लेकिन, 8 फरवरी को निर्यात पर इस प्रतिबंध में थोड़ी ढील दे दी गई. जिसके बाद हर तरह के दस्तानों और मास्क का निर्यात किया जाने लगा. इसके बाद वाणिज्य मंत्रालय ने 25 फ़रवरी को कुछ अन्य मेडिकल उपकरणों और सामान के निर्यात की छूट दे दी. इसमें ये उपकरण बनाने में प्रयोग किए जाने वाले कच्चे माल का निर्यात भी शामिल था. आख़िरकार, 19 मार्च को जाकर वाणिज्य मंत्रालय ने अपने फ़रवरी में रियायत के आदेश को तब वापस लिया, जब डॉक्टरों ने मीडिया से शिकायत की कि उनके पास पूरे देश के अस्पतालों में सुरक्षात्मक उपकरणों की भारी कमी है. सरकार ने 24 मार्च को जाकर सैनिटाइज़र और वेंटिलेटर के निर्यात पर रोक लगाई. जबकि तब तक भारत में वेंटिलेटर बनाने वाले सात निर्माताओं को यूरोपीय देशों से निर्यात के बड़े ऑर्डर मिल चुके थे. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 27 फ़रवरी को ही एडवाइज़री जारी की थी कि ऐसे उपकरणों की कमी हो सकती है. क्योंकि दुनिया भर में इनकी मांग में बेतहाशा वृद्धि हो रही थी और सप्लाई चेन बाधित थी. लेकिन, इस बात की संभावना कम ही है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की नोटिस का वाणिज्य मंत्रालय में किसी ने संज्ञान लिया होगा. अब भारतीय अधिकारी, घरेलू कंपनियों को इन सामानों के उत्पादन के ऑर्डर दे रहे हैं. साथ ही सरकारी कंपनियों से भी मदद मांगी जा रही है कि निजी और सरकारी अस्पतालों में वेंटिलेटर्स की संख्या बढ़ा कर 80 हज़ार तक की जाए. अमेरिका के पास एक लाख सत्तर हज़ार वेंटिलेटर हैं. हालांकि, इनमें से केवल दो तिहाई का ही इस्तेमाल किया जा सकता है. क्योंकि इनके इस्तेमाल के लिए प्रशिक्षित मेडिकल कर्मियों की भारी कमी है. इसके अलावा एक ही वेंटिलेटर से एक साथ दो मरीज़ों के इलाज के तकनीकी विकल्प भी तलाशे जा रहे हैं. चूंकि, दोनों ही मरीज़ एक ही तरह के संक्रमण से जूझ रहे होंगे.
महाराष्ट्र और गुजरात की राज्य सरकारों ने कई इकाइयों को बंद करने की सलाह दी है. जिसके कारण पैदा हुई आशंका और भगदड़ की वजह से हज़ारों अप्रवासी मज़दूर ट्रेन पकड़ कर अपने राज्य लौटने की होड़ लगा बैठे. 22 मार्च की रात से 80 ज़िलों में तालाबंदी के कारण, ट्रेन पकड़ने वाले लोगों की बाढ़ आ गई. और जैसे ही पूरे देश में लॉकडाउन का एलान किया गया, तो ये तादाद कई गुना बढ़ गई. इससे एक नया मानवीय संकट खड़ा हो गया. क्योंकि सभी ट्रेनें और बसें बंद हो गई थीं. जिसके कारण लाखों लोग बीच रास्ते में ही अटक गए. अब तक इस समस्या का कोई उचित समाधान नहीं निकाला जा सका है.
जब दिल्ली के मुख्यमंत्री ने राजधानी के लगभग चार लाख अप्रवासी मज़दूरों को मुफ़्त में खाना खिलाने की घोषणा की. तो, इस सरकारी एलान का फ़ायदा उठाने के लिए इतनी बड़ी संख्या में लोग जमा हो गए कि सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों की धज्जियां उड़ गईं. चूंकि अब रबी की फसल की कटाई का काम चालू है. ऐसे में केंद्रीय सरकार के अधिकारियों को ऐसी गाइडलाइन जारी करनी होंगी, जो व्यवहारिक हों और इतनी लचीली हों कि अलग-अलग राज्यों की विशेष ज़रूरतों का ध्यान रख सकें.
हमें अब क्या करना चाहिए और कैसे?
ये वो कुछ उदाहरण हैं कि किस तरह भारत ने फ़रवरी महीने में मिले मौक़ों को हाथ से जाने दिया था. हम अब बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि हमने अपनी इन ग़लतियों से सही सबक़ सीख लिए हैं. और हमें लॉकडाउन के कारण फिर से जो अवसर प्राप्त हुआ है, उनका अच्छी तरह से इस्तेमाल किया जाएगा. अब तक हमने देखा है कि ऊपर से ही आदेश जारी हो रहे हैं, जिनका ज़िला स्तर पर पालन कराया जा रहा है. लेकिन, इस तरीक़े से हम विभिन्न क्षेत्रों की अलग-अलग प्राथमिकताओं का ध्यान रख पाने में असफल रहे हैं. क्योंकि हर राज्य की अपनी अलग तरह की ज़रूरत है. ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि सभी साझीदारों से पर्याप्त सलाह मशवरा करना चाहिए, ताकि इस संकट से लड़ने के लिए उचित शक्ति जुटाई जा सके. हम इसी तरह से ऊपर से आने वाले आदेशों का पालन करा सकेंगे और साथ ही साथ अचानक पैदा हुई चुनौतियों का भी समाधान खोज सकेंगे, क्योंकि ऐसे संकट उत्पन्न होने तय हैं. उदाहरण के लिए, आवश्यक सेवाएं क्या हैं, इनकी सूची तो जारी की गई थी. इसी के साथ साथ इन लोगों की आवाजाही के लिए उचित संख्या में पास जारी करने की भी आवश्यकता थी. इस बात का आकलन पहले ही कर लिया जाना चाहिए था कि ज़रूरी सेवाएं देने वालों को आवाजाही के लिए रियायत की आवश्यकता तो पड़ेगी ही. इससे हम घबराहट में बेवजह सामान ख़रीदने की उन घटनाओं को रोक सकते थे, जिन्हें हमने 24 मार्च को देखा था.
सरकार के नेतृत्व में सभी उपलब्ध संसाधनों और संगठनों को एकजुट करना होगा, ताकि सबसे मशविरा करके उचित रणनीति बना कर उस पर अमल किया जा सके. इस व्यवस्था को कारगर बनाने के लिए एक ऐसी टास्क फ़ोर्स का गठन करने की ज़रूरत है, जिसकी कड़ियां राज्य और और ज़िला स्तर की प्रशासनिक इकाई से जुड़ती हों
एक तरफ़ तो हमें सरकार के अलग-अलग संगठनों के बीच आपस में तालमेल बढ़ाने की ज़रूरत है. तो, दूसरी ओर कोरोना वायरस की महामारी से निपटने के लिए निजी क्षेत्र और सामाजिक संगठनों को भी भागीदार बनाने की ज़रूरत है. हमारे देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की ख़ामियां जगज़ाहिर हैं. उन्हें दोबारा गिनाने की आवश्यकता नहीं है. सिर्फ़ ये ही कहना पर्याप्त होगा कि इस तरह की महामारी से निपटने के लिए सरकार के नेतृत्व में सभी उपलब्ध संसाधनों और संगठनों को एकजुट करना होगा, ताकि सबसे मशविरा करके उचित रणनीति बना कर उस पर अमल किया जा सके. इस व्यवस्था को कारगर बनाने के लिए एक ऐसी टास्क फ़ोर्स का गठन करने की ज़रूरत है, जिसकी कड़ियां राज्य और और ज़िला स्तर की प्रशासनिक इकाई से जुड़ती हों.
इस महामारी के प्रकोप के विस्तार पर तो निगाह रखी ही जा रही है. साथ ही साथ हमें लॉकडाउन हटने के बाद की परिस्थितियों से निपटने की तैयारी भी शुरू कर देनी चाहिए. ज़िला स्तर पर पड़ताल करने से वायरस से संक्रमित क्लस्टर्स की पहचान हो सकेगी. इससे हमें ये तय करने में मदद मिलेगी कि किन इलाक़ों में लॉकडाउन में रियायत दी जा सकती है. इससे उन क्षेत्रों के लिए संसाधन मुक्त होंगे, जहां इनकी सबसे अधिक आवश्यकता है. ये एक ऐसी प्रक्रिया है, जो अत्यधिक नाज़ुक है. लेकिन, अगर इसे सावधानी और योजनाबद्ध तरीक़े से लागू किया जाए, तो लोगों के बीच भरोसा क़ायम किया जा सकेगा. और इससे अन्य ज़िलों को भी अपने बचाव और संक्रमण की रोकथाम के उपाय करने में सहयोग प्राप्त होगा.
स्वास्थ्य कर्मी, अपने सम्मान में ताली बजाने का तो स्वागत करते हैं. लेकिन, उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक उपकरणों की भी ज़रूरत है. ऐसे संसाधनों की संख्या और बढ़ाने की आवश्यकता है. ताकि उन लोगों को भी सुरक्षात्मक उपकरण उपलब्ध कराए जा सकें, जो अपनी पेशेवर ट्रेनिंग ख़त्म करने वाले हैं
देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को भी आने वाली चुनौती के लिए तैयार करना होगा. ख़ास तौर से पूरे देश में कोरोना वायरस के संक्रमण की जांच करने वाली टेस्ट किट का उचित वितरण करने की ज़रूरत है. इसके अलावा, पीसीआर टेस्ट के साथ साथ अब एंटीबॉडी टेस्ट भी उपलब्ध है, जिसका नतीजा जल्दी आ जाता है, और जो सस्ता भी पड़ता है. हालांकि, ये इतना सटीक नहीं माना जाता. फिर भी, इस एंटी बॉडी टेस्ट को कहां कहां अपनाया जा सकता है, इसका एक प्रोटोकॉल तय कर लेना चाहिए. और इस टेस्ट को करने के लिए पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्य कर्मियों को भी तैयार करना चाहिए, ताकि हमारी इस महामारी से निपटने की बढ़त क़ायम रह सके.
टेस्टिंग के साथ साथ मरीज़ों को क्वारंटीन में रखने के संसाधन जुटाने की भी आवश्यकता है. हाल के दिनों में ऐसे संक्रमित मरीज़ों को रखने के लिए ट्रेन के डिब्बों और स्टेडियम को इस्तेमाल करने के प्रस्ताव रखे गए हैं. लेकिन, अभी इन प्रस्तावों पर अमल नहीं हो सका है. इसके लिए तैयारी करने की ज़रूरत है. स्वास्थ्य कर्मी, अपने सम्मान में ताली बजाने का तो स्वागत करते हैं. लेकिन, उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक उपकरणों की भी ज़रूरत है. ऐसे संसाधनों की संख्या और बढ़ाने की आवश्यकता है. ताकि उन लोगों को भी सुरक्षात्मक उपकरण उपलब्ध कराए जा सकें, जो अपनी पेशेवर ट्रेनिंग ख़त्म करने वाले हैं. आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और आशा कार्यकर्ताओं को अगर हम इस अभियान में जोड़ते हैं, तो हमारे पास बीस लाख स्वास्थ्य कर्मियों की ऐसी सेना तैयार होगी, जो ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में तैनात की जा सकती है.
हज़मत सूट, सुरक्षा के उपकरण, अस्पताल के बेड, इस्तेमाल के बाद फेंक दी जाने वाली सिरिंज और वेंटिलेटर की संख्या बढ़ाने के प्रयास पहले से ही किए जा रहे हैं. लेकिन, इन संसाधनों की वृद्धि का काम युद्ध स्तर पर किए जाने की आवश्यकता है. संसाधनों को एक स्थान से दूसरी जगह ले जाने, उनके भंडारण और वितरण के लिए भी संसाधनों की व्यवस्था करनी होगी. इसके अलावा दवाओं और अन्य रसायनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भी प्रयास करने होंगे, ताकि ज़रूरत पड़ने पर इन्हें तुरंत ज़रूरत वाली जगह पर पहुंचाया जा सके.
नए कोरोना वायरस को लेकर चल रहे अलग-अलग अनुसंधानों के बीच भी आपसी समन्वय क़ायम करने की ज़रूरत है. इससे इस मर्ज़ के इलाज के लिए दवाएं खोजने में आसानी होगी. अलग-अलग प्रयास व्यर्थ नहीं जाएंगे और तमाम संगठन मिल कर एक ही दिशा में काम कर सकें. इसके लिए एक ऐसा नेटवर्क बनाने की ज़रूरत है, जो आईसीएमआर और जैव तकनीक विभाग मिलकर तैयार कर सकते हैं.
आज इस महामारी से निपटने में योगदान देने के लिए समाज से भी योगदान देने की अपील की गई है, भले ही ये अपील सरकार की ओर देर से ही क्यों न की गई हो. इसमें और मज़बूती से प्रयास करने की आवश्यकता है, ताकि अगर ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न हो और सरकारी व्यवस्था में कमियां दिखें, तो समाज का भी सहयोग लिया जा सके. जैसा कि स्पष्ट है, इस महामारी से समाज को भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ रही है. अगर सुरक्षा का घेरा नाकाम रहता है, तो हालात और भी बिगड़ सकते हैं. और समाज के सबसे कमज़ोर तबक़े के लोगों को आर्थिक चुनौती से मुक्ति दिलाने की कोशिश असफल हो सकती है. इससे समाज के ताने-बाने पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा.
हमारे सुरक्षा बल ऐसे संस्थान हैं, जिन्हें संगठनात्मक क्रियाओं के लिए प्रशिक्षित भी किया जाता है और उनके बीच संस्कृति भी ऐसी ही है. इनका इस्तेमाल पहले भी प्रकृति प्रदत्त मानवीय आपदाओं से निपटने में किया जाता रहा है. ज़रूरी सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी सुरक्षा बलों को दी जा सकती है. ख़ास तौर से इस महामारी से सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में, जहां प्रशासनिक व्यवस्था पर बहुत अधिक दबाव है.
अब कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या पर बहस हो या इससे होने वाली आर्थिक क्षति की परिचर्चा हो, इन सबसे परे लॉकडाउन एक यथार्थ है. अब इस बारे में कोई बहस करना व्यर्थ है. अब चुनौती इस बात की है कि इससे भारत को मिले समय का अधिक से अधिक सदुपयोग करना. ताकि लॉकडाउन को सफल बनाया जा सके. इस दौरान सरकार को अपनी पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी. सरकार को अपने प्रयासों में मानवीय पहलू को शामिल करके चलना होगा. जिससे लोगों में एकजुटता का भाव बना रहे. क्योंकि अब भारत को इस महामारी से लड़ने के लिए एक और मौक़ा नहीं मिलने जा रहा है.
स्वास्थ्य कर्मी, अपने सम्मान में ताली बजाने का तो स्वागत करते हैं. लेकिन, उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक उपकरणों की भी ज़रूरत है. ऐसे संसाधनों की संख्या और बढ़ाने की आवश्यकता है. ताकि उन लोगों को भी सुरक्षात्मक उपकरण उपलब्ध कराए जा सकें, जो अपनी पेशेवर ट्रेनिंग ख़त्म करने वाले हैं
देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को भी आने वाली चुनौती के लिए तैयार करना होगा. ख़ास तौर से पूरे देश में कोरोना वायरस के संक्रमण की जांच करने वाली टेस्ट किट का उचित वितरण करने की ज़रूरत है. इसके अलावा, पीसीआर टेस्ट के साथ साथ अब एंटीबॉडी टेस्ट भी उपलब्ध है, जिसका नतीजा जल्दी आ जाता है, और जो सस्ता भी पड़ता है. हालांकि, ये इतना सटीक नहीं माना जाता. फिर भी, इस एंटी बॉडी टेस्ट को कहां कहां अपनाया जा सकता है, इसका एक प्रोटोकॉल तय कर लेना चाहिए. और इस टेस्ट को करने के लिए पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्य कर्मियों को भी तैयार करना चाहिए, ताकि हमारी इस महामारी से निपटने की बढ़त क़ायम रह सके.
टेस्टिंग के साथ साथ मरीज़ों को क्वारंटीन में रखने के संसाधन जुटाने की भी आवश्यकता है. हाल के दिनों में ऐसे संक्रमित मरीज़ों को रखने के लिए ट्रेन के डिब्बों और स्टेडियम को इस्तेमाल करने के प्रस्ताव रखे गए हैं. लेकिन, अभी इन प्रस्तावों पर अमल नहीं हो सका है. इसके लिए तैयारी करने की ज़रूरत है. स्वास्थ्य कर्मी, अपने सम्मान में ताली बजाने का तो स्वागत करते हैं. लेकिन, उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक उपकरणों की भी ज़रूरत है. ऐसे संसाधनों की संख्या और बढ़ाने की आवश्यकता है. ताकि उन लोगों को भी सुरक्षात्मक उपकरण उपलब्ध कराए जा सकें, जो अपनी पेशेवर ट्रेनिंग ख़त्म करने वाले हैं. आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और आशा कार्यकर्ताओं को अगर हम इस अभियान में जोड़ते हैं, तो हमारे पास बीस लाख स्वास्थ्य कर्मियों की ऐसी सेना तैयार होगी, जो ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में तैनात की जा सकती है.
हज़मत सूट, सुरक्षा के उपकरण, अस्पताल के बेड, इस्तेमाल के बाद फेंक दी जाने वाली सिरिंज और वेंटिलेटर की संख्या बढ़ाने के प्रयास पहले से ही किए जा रहे हैं. लेकिन, इन संसाधनों की वृद्धि का काम युद्ध स्तर पर किए जाने की आवश्यकता है. संसाधनों को एक स्थान से दूसरी जगह ले जाने, उनके भंडारण और वितरण के लिए भी संसाधनों की व्यवस्था करनी होगी. इसके अलावा दवाओं और अन्य रसायनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए भी प्रयास करने होंगे, ताकि ज़रूरत पड़ने पर इन्हें तुरंत ज़रूरत वाली जगह पर पहुंचाया जा सके.
नए कोरोना वायरस को लेकर चल रहे अलग-अलग अनुसंधानों के बीच भी आपसी समन्वय क़ायम करने की ज़रूरत है. इससे इस मर्ज़ के इलाज के लिए दवाएं खोजने में आसानी होगी. अलग-अलग प्रयास व्यर्थ नहीं जाएंगे और तमाम संगठन मिल कर एक ही दिशा में काम कर सकें. इसके लिए एक ऐसा नेटवर्क बनाने की ज़रूरत है, जो आईसीएमआर और जैव तकनीक विभाग मिलकर तैयार कर सकते हैं.
आज इस महामारी से निपटने में योगदान देने के लिए समाज से भी योगदान देने की अपील की गई है, भले ही ये अपील सरकार की ओर देर से ही क्यों न की गई हो. इसमें और मज़बूती से प्रयास करने की आवश्यकता है, ताकि अगर ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न हो और सरकारी व्यवस्था में कमियां दिखें, तो समाज का भी सहयोग लिया जा सके. जैसा कि स्पष्ट है, इस महामारी से समाज को भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ रही है. अगर सुरक्षा का घेरा नाकाम रहता है, तो हालात और भी बिगड़ सकते हैं. और समाज के सबसे कमज़ोर तबक़े के लोगों को आर्थिक चुनौती से मुक्ति दिलाने की कोशिश असफल हो सकती है. इससे समाज के ताने-बाने पर भी दुष्प्रभाव पड़ेगा.
हमारे सुरक्षा बल ऐसे संस्थान हैं, जिन्हें संगठनात्मक क्रियाओं के लिए प्रशिक्षित भी किया जाता है और उनके बीच संस्कृति भी ऐसी ही है. इनका इस्तेमाल पहले भी प्रकृति प्रदत्त मानवीय आपदाओं से निपटने में किया जाता रहा है. ज़रूरी सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी सुरक्षा बलों को दी जा सकती है. ख़ास तौर से इस महामारी से सबसे बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों में, जहां प्रशासनिक व्यवस्था पर बहुत अधिक दबाव है.
अब कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या पर बहस हो या इससे होने वाली आर्थिक क्षति की परिचर्चा हो, इन सबसे परे लॉकडाउन एक यथार्थ है. अब इस बारे में कोई बहस करना व्यर्थ है. अब चुनौती इस बात की है कि इससे भारत को मिले समय का अधिक से अधिक सदुपयोग करना. ताकि लॉकडाउन को सफल बनाया जा सके. इस दौरान सरकार को अपनी पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी. सरकार को अपने प्रयासों में मानवीय पहलू को शामिल करके चलना होगा. जिससे लोगों में एकजुटता का भाव बना रहे. क्योंकि अब भारत को इस महामारी से लड़ने के लिए एक और मौक़ा नहीं मिलने जा रहा है.
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