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ग़लत जानकारी या दुष्प्रचार का विचार उतनी ही पुराना है जितना पुराना इतिहास. नई चीज़ तकनीक है जो तेज़ी से इसके फैलने में मदद करती है.
सोशल मीडिया के ज़माने में “ख़बर” आईनों के किसी महल में खड़ी है जहां ये पता लगाना मुश्किल है कि कोई सी ख़बर सही है और कौन सी ग़लत. लेकिन सिर्फ़ ज़रिया ही समस्या की वजह नहीं है, समस्या की वजह वो लोग हैं जो अपने घृणित उद्देश्यों के लिए ग़लत ख़बरें गढ़ने में लगे रहते हैं. कोविड-19 ग़लत जानकारी का अपना अलग ब्रांड लेकर आया है जिसमें साज़िश का सिद्धांत रचने वाले लोगों से लेकर सरकार की कार्रवाई और दूसरे एजेंडे शामिल हैं.
शुरुआत से ही चीन और रूस ने मौक़े का फ़ायदा उठाकर संकट से निपटने को लेकर अमेरिका की क्षमता के बारे में शक फैलाना शुरू कर दिया. रूस समर्थक वेबसाइट ने डर फैलाने के लिए साज़िश का सिद्धांत फैलाना शुरू कर दिया. लेकिन चीन के मामले में तो, घबराहट का बीज बोने के लिए सरकार से जुड़े सोशल मीडिया के इस्तेमाल में भी संकोच नहीं किया गया.
कोविड-19 महामारी के साथ ग़लत जानकारी भी आई जिसके तहत सोशल मीडिया पर ग़लत या झूठी ख़बर फैलाई गई. रिपोर्ट में कहा गया है कि विदेशी एजेंट और कुछ तीसरे देश, “ख़ासतौर पर रूस और चीन, यूरोपियन यूनियन में कोविड-19 को लेकर दुष्प्रचार और लोगों पर असर डालने के अभियान में लगे हुए हैं.”
पिछले महीने यूरोपियन आयोग ने 16 पन्नों की “साझा सूचना” जारी कि जिसमें कोविड-19 से जुड़ी फर्ज़ी ख़बरों के लिए पूरी तरह से रूस और चीन को ज़िम्मेदार ठहराया गया. यूरोपियन संसद और यूरोपियन यूनियन के बड़े संस्थानों को संबोधित रिपोर्ट में यूरोपियन आयोग ने कहा है कि कोविड-19 महामारी के साथ ग़लत जानकारी भी आई जिसके तहत सोशल मीडिया पर ग़लत या झूठी ख़बर फैलाई गई. रिपोर्ट में कहा गया है कि विदेशी एजेंट और कुछ तीसरे देश, “ख़ासतौर पर रूस और चीन, यूरोपियन यूनियन में कोविड-19 को लेकर दुष्प्रचार और लोगों पर असर डालने के अभियान में लगे हुए हैं.”
मंगलवार को घोषणा से पहले की बातचीत में यूरोपियन यूनियन की उपाध्यक्ष वेरा जोरोवा ने पत्रकारों से कहा; “हमने पहली बार अपनी रिपोर्ट में चीन का नाम लेने का फ़ैसला किया है. मुझे इस बात की ख़ुशी है कि हमने ऐसा किया क्योंकि हमारे पास सबूत हैं.” हालांकि, अभी भी यूरोपियन यूनियन और चीन के बीच नूराकुश्ती चल रही है. उदाहरण के तौर पर, चीन का नाम लेकर रिपोर्ट में एकमात्र वास्तविक संदर्भ वही है जिसका ज़िक्र ऊपर हुआ है. जोरोवा ने चीन की गतिविधियों को लेकर वास्तविक ब्योरा देने से मना कर दिया.
बुधवार को यूरोपियन यूनियन के विदेश नीति प्रमुख जोसेप बोरेल ने मीडिया से कहा कि उन्होंने चीन के विदेश मंत्री वांग यी को भरोसा दिया है कि उनका समूह “चीन के साथ किसी तरह के शीत युद्ध की शुरुआत नहीं कर रहा है.” एक दिन पहले बोरेल ने वांग के साथ वीडियो कॉन्फ़्रेंस के ज़रिए बातचीत की और बाद में ये कहते हुए सुने गए कि चीन हर मामले में यूरोपियन यूनियन का प्रतिद्वंदी तो है लेकिन वो सैन्य ख़तरा नहीं है. उन्होंने यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों को चीन और दूसरे देशों से दुष्प्रचार के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए और संसाधन मुहैया कराने को भी कहा.
लेकिन दुष्प्रचार सिर्फ़ चीन से जुड़ी चीज़ नहीं है. रूस इस खेल का पुराना खिलाड़ी है जहां सोवियत संघ के ज़माने में “डेज़इन्फोर्मेटसिया” शब्द का ईजाद किया गया. ये वास्तव में यूरोपियन यूनियन के ख़िलाफ़ रूस का अभियान था जिसकी वजह से ग़लत जानकारी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए यूरोपियन यूनियन की राजनयिक सेवा यूरोपियन एक्सटर्नल एक्शन सर्विस (EEAS) के भीतर ईस्ट स्ट्रैटकॉमफोर्स की स्थापना हुई. हाल के महीनों में ये संगठन कोविड-19 से जुड़ी ग़लत जानकारी के अभियान पर नज़र बनाए हुए है.
मार्च के मध्य में अमेरिका में लाखों लोगों के मोबाइल फ़ोन और सोशल मीडिया फीड पर इस तरह के संदेशों की बौछार थी जिसमें उन्हें चेतावनी दी गई कि ट्रंप प्रशासन अमेरिका में लॉकडाउन और लगभग मार्शल लॉ की योजना बना रहा है. आख़िरकार राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को सामने आकर ट्विटर पर एलान करना पड़ा कि इस तरह के संदेश फर्ज़ी हैं.
अमेरिका-चीन के संदर्भ में ग़लत जानकारी काफ़ी ज़्यादा ज़हरीली है. हमने देखा कि राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने महामारी से जुड़ी जानकारी छुपाने का आरोप चीन पर लगाया और ये इशारा भी किया कि वायरस की शुरुआत शायद एक प्रयोगशाला से हुई. दूसरी तरफ़ चीन के आक्रामक राजनयिक अमेरिका से वायरस की शुरुआत का आरोप लगाने में नहीं हिचकिचाए. हालांकि, इनमें से कई आधिकारिक बयान हैं लेकिन आरोपों को दूर तक फैलाने के लिए अक्सर ट्विटर का सहारा लिया गया जो चीन में तो प्रतिबंधित है लेकिन चीन के अधिकारी और राजनयिक कोविड-19 अभियान में बड़ी मेहनत से इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. मार्च के मध्य में अमेरिका में लाखों लोगों के मोबाइल फ़ोन और सोशल मीडिया फीड पर इस तरह के संदेशों की बौछार थी जिसमें उन्हें चेतावनी दी गई कि ट्रंप प्रशासन अमेरिका में लॉकडाउन और लगभग मार्शल लॉ की योजना बना रहा है. आख़िरकार राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को सामने आकर ट्विटर पर एलान करना पड़ा कि इस तरह के संदेश फर्ज़ी हैं.
यूरोप ख़ासतौर पर इटली में चीन का अभियान कोविड-19 को लेकर ये कहानी बनाने में लगा था कि लोगों का ध्यान “जिस देश में वायरस की शुरुआत हुई” से हटकर “जो देश दूसरे देशों की मदद के लिए आगे आया” पर चला जाए. अमेरिका और चीन को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने वाले मुद्दे एक के बाद एक आते गए- कोविड-19 को लेकर चीन की अपारदर्शिता, अमेरिका का आरोप और चीन का पलटवार, हांगकांग राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून और अमेरिका में पुलिस के ख़िलाफ़ प्रदर्शन.
न्यूयॉर्क टाइम्स के एक विश्लेषण के मुताबिक़, बड़ी संख्या में संदिग्ध ट्विटर हैंडल चीन के राजनयिकों और समाचार संगठनों के ट्वीट को रिट्वीट करने में सक्रिय थे. कुछ तो इस तरह व्यवहार कर रहे थे मानो वो “शेयरिंग प्लेटफॉर्म नहीं लाउडस्पीकर का इस्तेमाल कर रहे हैं.” उनमें से एक तिहाई ट्विटर हैंडल पिछले तीन महीने के दौरान अस्तित्व में आए जब चीन के अधिकारी ट्विटर के ज़रिए अमेरिका के ख़िलाफ़ सूचना युद्ध लड़ने लगे. ट्विटर ने अतीत में कुछ खातों को सस्पेंड किया था, ख़ासतौर से चीन की सरकार के समर्थन वाले खातों को जिनका मक़सद हांगकांग के प्रदर्शन पर निशाना साधना था.
यूरोपियन आयोग की रिपोर्ट यूरोपियन यूनियन के नेताओं की तरफ़ से EEAS को मार्च 2020 में दिए उस निर्देश के आधार पर है जिसके तहत उन्हें दुष्प्रचार अभियान का जवाब देने और कोविड-19 से पस्त यूरोपीय देशों के हौसले को सहारा देने को कहा गया था. 24 अप्रैल की EEAS की रिपोर्ट उस वक़्त मुश्किलों में घिर गई जब ये आरोप लगाया गया कि चीन के अधिकारियों के कहने पर रिपोर्ट में चीन की आलोचना को नरम किया गया है. यूरोपीय संसद की विदेश मामलों की समिति की एक सुनवाई के दौरान बोरेल को उन आरोपों पर सफ़ाई देनी पड़ी जिसमें कहा गया कि उनके कर्मचारियों ने चीन को ख़ुश करने के लिए रिपोर्ट को कमज़ोर किया.
हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया कि पूरे यूरोपियन यूनियन में “विदेश नियंत्रित मीडिया और सोशल मीडिया चैनल” के इस्तेमाल के ज़रिए यूरोपियन यूनियन और उसके साझेदारों को लेकर “ग़लत स्वास्थ्य सूचना और दुष्प्रचार” का संगठित अभियान चलाया गया. रिपोर्ट में रूस और कुछ हद तक चीन का नाम लिया गया और कहा गया कि उनका मक़सद महामारी को लेकर आरोपों से ध्यान हटाना था और इन झूठी सूचनाओं वाले अभियान का नकारात्मक असर पूरे यूरोपियन यूनियन पर पड़ा.
23 अप्रैल से लेकर 18 मई तक की अवधि को लेकर 20 मई को जारी EEAS की दूसरी रिपोर्ट में कहा गया कि हालांकि, दुष्प्रचार अभियान थोड़ा कम हुआ है लेकिन ये अभी भी जारी है. “क्रैमलिन समर्थक” साज़िश के सिद्धांत को फैलाने में लगे हुए हैं जबकि “चीन जैसे सरकारी समूह” इस कोशिश में लगे हुए हैं कि चीन के ख़िलाफ़ आरोपों से ध्यान हटाकर “अपने जैसे सरकारी सिस्टम को बढ़ावा दें और विदेशों में अपनी छवि को मज़बूत करें.”
मार्च में 10 दिनों की अवधि के दौरान 26 लाख ट्वीट के विश्लेषण में पाया गया कि ट्रंप के समर्थकों, रिपब्लिकन पार्टी और उसके संगठन ‘ओएनॉन’ से जुड़े क़रीब 30 समूह थे जिन्होंने कोविड-19 की शुरुआत को लेकर चीन के ख़िलाफ़ माहौल बनाया.
लेकिन दुष्प्रचार एकतरफ़ा नहीं है. पॉलिटिको की एक रिपोर्ट में ऑस्ट्रेलिया इंस्टीट्यूट के सेंटर फॉर रेस्पॉन्सिबल टेक्नोलॉजी के अध्ययन के हवाले से कहा गया है कि ट्रंप समर्थकों ने चीन के बारे में कोविड-19 अफ़वाहों को फैलाया. मार्च में 10 दिनों की अवधि के दौरान 26 लाख ट्वीट के विश्लेषण में पाया गया कि ट्रंप के समर्थकों, रिपब्लिकन पार्टी और उसके संगठन ‘ओएनॉन’ से जुड़े क़रीब 30 समूह थे जिन्होंने कोविड-19 की शुरुआत को लेकर चीन के ख़िलाफ़ माहौल बनाया. इनमें से कई खाते ऑटोमेटेड थे. सरकार छुपकर क्या कर रही है, इसकी जानकारी नहीं है. लेकिन आप इस बात को लेकर निश्चिंत रहिए कि वो जमकर इसका जवाब दे रही है.
ग़लत जानकारी या दुष्प्रचार का विचार उतनी ही पुराना है जितना पुराना इतिहास. नई चीज़ स्मार्ट फ़ोन और सोशल मीडिया सॉफ्टवेयर के रूप में तकनीक है जो तेज़ी से इसके फैलने में मदद करती है. ये हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह को नकारात्मक दिशा में ले जाती है. इनसे निपटना एक बड़ी परियोजना है जिसमें समाज को ख़ुद शिक्षा और जागरुकता के ज़रिए मुख्य भूमिका निभानी चाहिए. कोविड-19 महामारी की तरह ग़लत जानकारी भी बेहद घातक बल है और इस मामले में वो पहले से ही लहूलुहान हमारे लोकतंत्र, समाज और जीवन जीने की पद्धति को नुक़सान पहुंचा सकती है. हमारे लिए ये ज़रूरी है कि इसका जवाब असरदार रणनीति बनाकर दिया जाए जिसमें पारदर्शिता के अलावा तेज़, प्रामाणिक और विश्वसनीय सूचना के प्रवाह को बढ़ावा शामिल है. इन क़दमों से वो एंटीबॉडी बनेगी जो दुष्प्रचार का जवाब देगी.
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Manoj Joshi is a Distinguished Fellow at the ORF. He has been a journalist specialising on national and international politics and is a commentator and ...
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