Author : Krishna Vohra

Expert Speak Terra Nova
Published on Dec 12, 2024 Updated 0 Hours ago

इसमें कोई शक नहीं है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में जलवायु परिवर्तन से निपटने की वैश्विक पहलों को तगड़ा झटका लगने वाला है. लेकिन, हिंद प्रशांत के अन्य देशों को चाहिए कि वो अमेरिका के बग़ैर इस मुद्दे पर सहयोग बढ़ाएं.

जलवायु संकट बनाम ट्रंप 2.0: क्या होगा भविष्य?

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वैसे तो पूरी दुनिया बड़ी फ़िक्र के साथ इस बात को जानने का इंतज़ार कर रही है कि राष्ट्रपति के तौर पर डॉनल्ड ट्रंप का दूसरा कार्यकाल कैसा होगा. लेकिन, ऐसा लगता है कि जलवायु विशेषज्ञों ने तो इस बात को स्वीकार कर लिया है कि ट्रंप की जीत ‘धरती के लिए एक बड़ा ख़तरा’ है. ये बात हैरान करने वाली नहीं है. क्योंकि, अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप ने अमेरिका को 2015 के पेरिस जलवायु समझौते से अलग कर लिया था और उन्होंने इस बार भी ऐसा ही करने का वादा किया है. अपने चुनाव अभियान के दौरान ट्रंप ने तेल की अहमियत पर बल देते हुए दावा किया था कि उनके पहले कार्यकाल में पर्यावरण के लिए सबसे अच्छा काम हुआ था, ‘तब हवा सबसे ज़्यादा साफ़… [और]…पानी भी सबसे ज़्यादा स्वच्छ था.’

 

ट्रंप ये ख़यालात इतिहास के उस बासी पड़ चुके दौर की याद दिलाते हैं, जब जलवायु परिवर्तन से निपटने के क़दमों ऐसी महंगी असुविधा से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता था, जिससे आर्थिक विकास की रफ़्तार धीमी होती है. जलवायु परिवर्तन की सच्चाई को लेकर ट्रंप के शक के बारे में तो सबको पता ही है; चूंकि सोशल मीडिया पर ट्रंप खुलकर अपने विचार रखते हैं, इसलिए वो हमेशा ही पूरी ईमानदारी से सोशल मीडिया पर इसे लेकर अपनी राय बयां करते आए हैं. वैसे तो अपने रुख़ को लेकर उनकी भाषा में बदलाव ज़रूर आया है. लेकिन, उनके विचार में कोई तब्दीली नहीं आई है.

हाल ही में एक रैली के दौरान जब ट्रंप से पूछा गया था कि वो महंगाई से किस तरह निपटेंगे, तो उन्होंने जवाब दिया था कि जैसे ही ऊर्जा की क़ीमतें कम होंगी, तो बाक़ी चीज़ों के दाम अपने आप ही गिरने लगेंगे.

इसी साल सितंबर में ट्रंप ने दावा किया था कि अमेरिका पर जलवायु परिवर्तन के असर को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया है और ये ‘हमारी समस्या नहीं है’. उन्होंने दोबारा जीवाश्म ईंधन की ओर तेज़ी से लौटने का वादा किया है. हाल ही में एक रैली के दौरान जब ट्रंप से पूछा गया था कि वो महंगाई से किस तरह निपटेंगे, तो उन्होंने जवाब दिया था कि जैसे ही ऊर्जा की क़ीमतें कम होंगी, तो बाक़ी चीज़ों के दाम अपने आप ही गिरने लगेंगे. एक और इंटरव्यू में ट्रंप ने कहा था कि, ‘इस तरह की झंझट पहले कभी नहीं थी. और, ये सब कुछ बाइडेन की ऊर्जा नीति का नतीजा है.’ ईंधन की बढ़ती लागत की चुनौती से निपटने के लिए ट्रंप एक बार फिर से तेल को तवज्जो देने और जीवाश्म ईंधन के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल पर ज़ोर देने की बात कह रहे हैं.

 

ट्रंप के नवनियुक्त ऊर्जा मंत्री क्रिस राइट ने इस समाधान को लेकर तस्वीर बिल्कुल साफ़ कर दी है. राइट ने कहा है कि वो ‘बहुत महंगी’ हरित ऊर्जा से पीछे हटेंगे और पुराने ज़्यादा उत्सर्जन वाले ऊर्जा संसाधनों को बढ़ावा देंगे. क्रिस राइट डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्बन उत्सर्जन कम करने की हालिया नीतियों के कट्टर आलोचक रहे हैं. हो सकता है कि कार्यभार संभालने के बाद क्रिस राइट पहला क़दम यही उठाएं कि वो प्राकृतिक गैस के निर्यात के परमिट पर लगी उस रोक को हटा दें, जिसे एक साल पहले राष्ट्रपति बाइडेन के प्रशासन ने लागू किया था. क्रिस राइट पहले जलवायु संकट के अस्तित्व से ही इनकार कर चुके हैं. तब उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि लागत घटाने के लिए पर्यावरण के नियम क़ायदों को ख़त्म करना होगा. क्रिस राइट ने ये भी दावा किया था कि बढ़ती लागत, महंगाई और ग़रीबी का समाधान जीवाश्म ईंधन जलाना ही है.

 

इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट (IRA) याहरित नए घोटालेका अंत

 

ट्रंप अपने चुनाव अभियान के दौरान इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट (IRA) की बार बार चर्चा करते रहे हैं. हालांकि, इस क़ानून का जो नाम है, वैसा उसका मक़सद नहीं है. बाइडेन प्रशासन ने 2022 में ये क़ानून लागू किया था, जिसका कम से कम फ़ौरी तौर पर तो महंगाई घटाने से कोई ताल्लुक़ नहीं है. ये एक ऐसा अहम क़ानून है, जिसका संबंध जलवायु नीति, मैन्युफैक्चरिंग और व्यापार से ज़्यादा है. इस क़ानून में इलेक्ट्रिक गाड़ियों, विंड टर्बाइन और सोलर पैनल जैसे स्वच्छ ईंधन के संसाधनों में 1.2 ट्रिलियन डॉलर के निवेश के पैकेज का प्रस्ताव है. इस क़ानून को राष्ट्रपति के तौर पर, बाइडेन की सबसे बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा जाता है. इसकी वजह से अमेरिका को कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य हासिल करने में सहायता मिली है और इसके साथ ही साथ स्वच्छ ऊर्जा के लिए अधिक लचीली आपूर्ति श्रृंखला के निर्माण में भी मदद मिली है. ट्रंप IRA को ‘नया हरित घोटाला कहते हैं’ और उन्होंने इसे ख़त्म करने का वादा किया है.

 

इस क़ानून को ख़त्म करने से अमेरिका को अरबों डॉलर का नुक़सान हो सकता है और इसके लिए अमेरिकी संसद की मंज़ूरी भी दरकार होगी. हो सकता है कि ट्रंप को इस काम में अपनी रिपब्लिकन पार्टी के सांसदों के विरोध का भी सामना करना पड़े. क्योंकि इस क़ानून के तहत मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर के 80 फ़ीसद निवेश पहले ही रिपब्लिकन पार्टी के दबदबे वाले इलाक़ों में लगाए जा चुके हैं. मिसाल के तौर पर जॉर्जिया में सोलर पैनल और इलेक्ट्रिक गाड़ियों के कल पुर्ज़े बनाने के लिए लगे प्लांट और साउथ कैरोलाइना के बैटरी बनाने वाले कारखानों को इस क़ानून के तहत काफ़ी रक़म हासिल हुई है और हज़ारों लोगों को रोज़गार मिले हैं. ट्रंप के बहुत से साथियों जैसे कि एलन मस्क और उनकी कंपनी टेस्ला को भी इस क़ानून के तहत टैक्स में दी जाने वाली रियायतों का फ़ायदा मिल चुका है.

 

मूलभूत ढांचे और स्वच्छ ईंधन में बाइडेन प्रशासन का राज्यवार निवेश

The Biden administration’s infrastructure and clean energy investments by state: Map

 

तेल के कुओं की खुदाई और शेल ऑयल की तलाश की कोशिशों को मंज़ूरी देना

 

ऊर्जा पर व्हाइट हाउस की परिषद के प्रमुख के तौर पर डग बर्गम की नियुक्ति का एलान करते हुए हाल ही में ट्रंप ने अपने एक बयान में लिखा था कि ‘हम जमकर तेल के कुओं खुदाई करेंगे और अपनी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए हर तरह की ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाएंगे.’ क्रिस राइट के साथ मिलकर डग बर्गम ही ऊर्जा और इसकी नीति से जुड़े बड़े फ़ैसले लेने की ज़िम्मेदारी उठाएंगे. ट्रंप के नए नारे ‘वी विल ड्रिल बेबी ड्रिल’ को हम अमेरिका के कार्बन उत्सर्जन बढ़ाने के स्पष्ट वादे के तौर पर देख सकते हैं. निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप ने ये भी साफ़ कर दिया है कि वो अमेरिकी निगमों को तेल और गैस के पट्टे फिर से देंगे, जिन्हें बाइडेन प्रशासन ने हटा दिया था, ताकि ऊर्जा के क्षेत्र में ‘अमेरिका का दबदबा’ क़ायम कर सकें. कुछ जानकारों का मानना है कि ट्रंप की रणनीति से हो सकता है कि वादे के मुताबिक़ ऊर्जा की क़ीमतों में गिरावट आए; क्योंकि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से केवल ज़्यादा तेल उत्पादन बढ़ाने से ही ऊर्जा की क़ीमतों में कमी नहीं आ सकती.

 

बाइडेन प्रशासन के इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट की वजह से जो निवेश आया है, उसके कारण एक रिपोर्ट के मुताबिक़ रिपब्लिकन पार्टी के शासन वाले बहुत से राज्यों को ‘एक असुविधानजनक तोहफ़ा’ मिल गया है. जॉर्जिया और साउथ कैरोलाइना जैसे राज्यों को IRA के तहत निवेश का जो फ़ायदा मिला है उसको वापस करना और जलवायु वित्त से क़दम पीछे हटाना रिपब्लिकन पार्टी के लिए महंगा और बेहद मुश्किल फ़ैसला होगा. अगर ऐसा होता है, तो IRA की वजह से इन राज्यों में जिन हज़ारों लोगों को नौकरियां हासिल हुई हैं, वो भी हाथ से निकल जाएंगी. रिपब्लिकन पार्टी के शासन वाले राज्यों में 25 करोड़ डॉलर के निवेश किए गए हैं; ऐसे में रिपब्लिकन पार्टी के दबदबे वाली कांग्रेस को ये क़ानून रद्द करने के लिए सहमत करना इतना आसान नहीं होगा.

 

बहुत से लोग ये मानते हैं कि अगर अमेरिका 2015 के पेरिस जलवायु समझौते से फिर से हटता है, तो भी दुनिया को बहुत नुक़सान नहीं होगा. जब पिछली बार अमेरिका ने इस समझौते से हाथ खींचा था, तो अपेक्षा के उलट बहुत से दूसरे देश इस समझौते से अलग नहीं हुए थे और एक बार फिर वो देश इस मामले में अपनी सहनशक्ति का प्रदर्शन कर सकते हैं.

 

ट्रंप के फ़ैसले और उनकी नीतियों का मोटे तौर पर यही मतलब है कि अमेरिका अपनी तमाम जवाबदेहियों से पल्ला झाड़ लेगा. जैसे कि बहुपक्षीय सहयोग और कार्बन उत्सर्जन की रिपोर्ट. ट्रंप के दूसरी बार शपथ लेने के बाद ऐसी बातों में नाटकीय ढंग से तेज़ी आती दिखेगी. यही नहीं, इन फ़ैसलों से अमेरिका, अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त के लिए अरबों डॉलर की पूंजी मुहैया कराने से भी हाथ झाड़ लेगा, जबकि उसका ये सहयोग जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों में बेशक़ीमती योगदान देता है. जो भी नतीजा हो, ट्रंप का दूसरा कार्यकाल बुनियादी तौर पर अनिश्चय भरा होगा. ठीक उसी तरह जैसे कि उन्होंने डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (DOGE) के नाम से एक नई सरकारी संस्था बनाने का एलान किया है. ये एक ग़ैर सरकारी टास्क फोर्स है, जिसे अमेरिका की संघीय सरकार के कर्मचारियों को नौकरी से निकालने, सरकारी कार्यक्रम घटाने और संघीय नियम क़ायदों को ख़त्म करने के लिए गठित किया गया है. ये ट्रंप के ‘अमेरिका बचाओ’ अभियान का हिस्सा है. उन्होंने इस विभाग की कमान विवेक रामास्वामी और एलन मस्क को दी है.

 

घरेलू संदर्भ में बात करें, तो ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान हमने देखा था कि उनकी तमाम बयानबाज़ियों के बावजूद स्वच्छ ऊर्जा की पहलों में काफ़ी प्रगति हुई थी. क्योंकि तमाम कंपनियों और अमेरिकी राज्यों, यहां तक कि रिपब्लिकन पार्टी के राज वाले राज्यों ने अक्षय ऊर्जा की दिशा में आगे बढ़ना जारी रखा था. कैलिफोर्निया में निजी क्षेत्र ने ग्राहकों की मांग के मुताबिक़ हरित ऊर्जा पर ज़ोर देना जारी रखा था. हालांकि, बाइडेन ने प्रतीकात्मक रूप से जलवायु परिवर्तन को गंभीर ख़तरे के रूप में स्वीकार कर लिया था. लेकिन, इससे वास्तविक स्तर पर कोई ख़ास बदलाव नहीं आया. 2020 में अपने चुनाव प्रचार के दौरान बाइडेन ने वादा किया था कि ‘अब और खुदाई नहीं होगी’. पर, सच्चाई तो ये है कि बाइडेन प्रशासन इस मामले में अपने वादों पर खरा नहीं उतरा. अमेरिका ने जलवायु परिवर्तन से निपटने की वैश्विक कोशिशों और पूंजी मुहैया कराने के जो वादे ख़ुद किए थे, उन्हें भी पूरा नहीं किया.

 

अभी ही है बड़े बदलावों का समय

 

जलवायु परिवर्तन के आगे कमज़ोर स्थिति वाले देशों के लिए इससे निपटने के लिए पर्याप्त पूंजी न मिलना, कोई हैरानी की बात नहीं है. जो बाइडेन के चार सालों के कार्यकाल के दौरान, सबसे प्रगतिशील नीतियों के बावजूद, ग्लोबल साउथ के लिए जलवायु वित्त की भारी कमी है. ‘विकासशील’ देशों को आवश्यक जलवायु वित्त का तीन प्रतिशत से भी कम हिस्सा प्राप्त हुआ, जो पहले ही बेहद कम रक़म है. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को ये समझना होगा कि अब समय आ गया है कि वो दुनिया से कट रहे अमेरिका के भरोसे रहना बंद कर दें. जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे देशों द्वारा बाकू में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP29) का बहिष्कार करना, मौजूदा हालात में विकसित देशों के बर्ताव पर उनकी खीझ को ही दर्शाता है.

विकासशील देशों को चाहिए कि वो वैसी परिस्थितियों के लिए तैयारी करें, जहां अमेरिका की अनुपस्थिति और खुलकर ज़ाहिर होगी. एक बहुकेंद्रीय विश्व बनाने का एक प्रमुख तत्व हिंद प्रशांत क्षेत्र द्वारा नए सिरे से मज़बूत नेतृत्व प्रदान करने का होगा.

बाक़ी दुनिया को आगे बढ़ना होगा और जलवायु परिवर्तन से लड़ने के प्रयास जारी रखने के साथ ही साथ, भविष्य में इन कोशिशों में अमेरिका के दोबारा शामिल रखने की गुंजाइश बनाए रखनी होगी. आज हिंद प्रशांत के देश, दुनिया के आर्थिक विकास के अगुवा हैं और उभरती हुई शक्तियों को कमान अपने हाथों में लेनी होगी. ये मक़सद ग्लोबल साउथ की अगुवाई में द्विपक्षीय और त्रिपक्षीय सहयोग के समझौतों के ज़रिए हासिल करने होंगे, जिसमें बहुपक्षीय सहयोग की मौजूदा धारणाओं को नई परिस्थितियों के मुताबिक़ बदलना होगा. इसका ये मतलब नहीं है कि ग्लोबल साउथ भी बाक़ी दुनिया से कट जाए. इसके उलट, विकासशील देशों को चाहिए कि वो वैसी परिस्थितियों के लिए तैयारी करें, जहां अमेरिका की अनुपस्थिति और खुलकर ज़ाहिर होगी. एक बहुकेंद्रीय विश्व बनाने का एक प्रमुख तत्व हिंद प्रशांत क्षेत्र द्वारा नए सिरे से मज़बूत नेतृत्व प्रदान करने का होगा.

 

ताक़त के बदलते संतुलन को लेकर बढ़ती अनिश्चितताओं को देखते हुए हिंद प्रशांत क्षेत्र के अहम देश जैसे कि भारत, जापान और दक्षिण कोरिया पहले ही सक्रियता से ऐसे क़दम उठा रहे हैं, ताकि इस क्षेत्र में न्यायोचित हरित परिवर्तन ला सकें. अब ये साफ़ होता जा रहा है कि इन देशों को अमेरिका की सीधी भागीदारी के बग़ैर ही साझा लक्ष्य हासिल करने के लिए आपसी सहयोग बढ़ाना होगा. इसकी शुरुआत भारत, जापान और दक्षिण कोरिया सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जैविक ईंधन और पनबिजली के ज़रिए अक्षय ऊर्जा के उत्पादन के प्रयासों में तेज़ी लाकर कर सकते हैं. यही नहीं, इन देशों को चाहिए कि स्टील, लोहा और सीमेंट उद्योग जैसे चुनौती भरे उद्योगों की समस्याओं से निपटने के लिए अगुवाई करें और ठोस क़दम उठाएं. ग्रीन हाइड्रोजन जैसे नए वैकल्पिक ईंधन का इस्तेमाल, इन उद्योगों को और हरित बनाने के लिहाज़ से काफ़ी उपयोगी साबित होगा.

 

भले ही अमेरिका के इस बार के राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा, हमारी धरती के लिए हार के तौर पर दिख रहा है. लेकिन, अमेरिका पीछे हटकर जो जगह ख़ाली कर रहा है, उसे देखते हुए अन्य देशों को चाहिए कि वो इस मौक़े का लाभ उठाएं और अमेरिका की कमी पूरी कर सकने वाला मज़बूत नेतृत्व प्रदान करें.

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