Author : Shahid Jameel

Expert Speak Terra Nova
Published on Dec 21, 2022 Updated 0 Hours ago
जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा को समझना: जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा

जलवायु परिवर्तन ने खाद्य और जल सुरक्षा को बदतर बना दिया है. 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने से स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव आ चुका है नतीज़तन क्लाइमेट जोन तेजी से बदल रहे हैं, परिणामस्वरूप कृषि और पशुधन उत्पादकता को यह प्रभावित करने जा रहा है. गर्म हो रहे महासागर, जो भूमि से अधिक गर्मी को अवशोषित करते हैं, मछली पालन और जलीय कृषि की उत्पादकता को प्रभावित करेंगे. इस तरह की अत्यधिक मौसम की घटनाओं और समुद्र के स्तर में वृद्धि के साथ, यह भोजन तक पहुंचने में असमानता को भी बढ़ाएगा और जो ग़रीबी में बढ़ोतरी करेगा. इसका सबसे ज़्यादा असर अफ्रीका, एशिया और सेंट्रल और साउथ अमेरिका में देखा जा रहा है.

चार प्रमुख फ़सलें- गेहूं, चावल, मक्का और सोयाबीन - दुनिया की आधी कैलोरी प्रदान करती हैं. अपरिवर्तनीय जलवायु के मुक़ाबले जलवायु परिवर्तन के मौज़ूदा मॉडल के चलते इन फसलों की पैदावार में 20-40 प्रतिशत, गेहूं में 5-50 प्रतिशत, चावल में 20-30 प्रतिशत और सोयाबीन में 30-60 प्रतिशत की गिरावट की चेतावनी दी जा रही है.

चार प्रमुख फ़सलें- गेहूं, चावल, मक्का और सोयाबीन - दुनिया की आधी कैलोरी प्रदान करती हैं. अपरिवर्तनीय जलवायु के मुक़ाबले जलवायु परिवर्तन के मौज़ूदा मॉडल के चलते इन फसलों की पैदावार में 20-40 प्रतिशत, गेहूं में 5-50 प्रतिशत, चावल में 20-30 प्रतिशत और सोयाबीन में 30-60 प्रतिशत की गिरावट की चेतावनी दी जा रही है. तापमान बढ़ने से खाद्य पदार्थों की पोषण गुणवत्ता भी कम हो जाती है, इसलिए पोषण के उसी लाभ को पाने के लिए इंसानों को अधिक अनाज की आवश्यकता होगी. बढ़ती आबादी के साथ उपज में कमी और कम पोषण से ग़रीबी बढ़ेगी, भूमि पर अधिक दबाव पैदा होगा और जलवायु शमन से समझौता करने की मज़बूरी पैदा होगी.

इसके साथ ही खाद्य प्रणालियों का पर्यावरणीय प्रभाव भी पड़ता है. लगभग 50 प्रतिशत बर्फ - और रेगिस्तान-मुक्त भूमि का उपयोग भोजन उगाने के लिए किया जाता है, जिसमें 73 प्रतिशत वनों की कटाई और 80 प्रतिशत जैव विविधता का नुकसान खाद्य प्रणालियों से जुड़ी है, जो 70 प्रतिशत पानी का उपयोग करती है और 80 प्रतिशत जल प्रदूषण का कारण बनती है. खाद्य प्रणालियां तीन माध्यमों (चित्र 1) से लगभग एक तिहाई वैश्विक मानवजनित जीएचजी उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं. कृषि और पशुधन मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन पैदा करते हैं, जो अवशेषों में फर्मेंटेशन के साथ-साथ सिंथेटिक उर्वरकों और चावल के खेतों से भी उत्पन्न होता है. यह कुल जीएचजी उत्सर्जन में 10-14 प्रतिशत का हिस्सेदार होता है, जो साल 2050 तक 40 प्रतिशत तक बढ़ सकता है. लैंड यूज़ में बदलाव मुख्य रूप से वनों की कटाई और कृषि के लिए पीटलैंड के नष्ट होने की वज़ह से  5-14 प्रतिशत उत्सर्जन में योगदान देता है. वनों की कटाई जंगली जानवरों से पशुओं और मनुष्यों तक जूनोटिक बीमारियों के फैलने का कारण भी बनती है. आख़िर में, फूड प्रोसेसिंग, ट्रांसपोर्ट और ख़पत मिलकर जीएचजी उत्सर्जन में 5-10 प्रतिशत का योगदान करते हैं.

[दुनिया में एक तिहाई ग्रीन हाउस उत्सर्जन खाद्य पदार्थों से होता है. इस ग्राफ के ज़रिये विभिन्न फूड सिस्टम प्रक्रिया के ज़रिये होने वाले जीएचजी उत्सर्जन का बंटवारा होता दिखाया गया है. ये आंकड़े 2015 के हैं.]

खाद्य प्रणाली उत्सर्जन भी चार प्रमुख माध्यमों से जलवायु परिवर्तन शमन को बढ़ाता है. इनमें बेहतर फसल और पशुधन प्रबंधन, भूमि उपयोग परिवर्तन, खाद्य मूल्य श्रृंखला और भोजन की बर्बादी को कम करने सहित खाद्य खपत पैटर्न शामिल हैं. उपभोक्ता आहार विकल्प क्या उगाना है, कैसे तैयार करना है और इसका उपभोग करना है, इस पर निर्णय लेने की बेहतर कुंजी है. इसके अलावा, सिनर्जी और ट्रेड ऑफ हैं जो अक्सर शमन निर्णयों को मुश्किल बनाते हैं. मिसाल के तौर पर,  'य़ील्ड गैप (उपज अंतर) ' को बंद करने के लिए अधिक पानी और उर्वरकों की आवश्यकता होगी, लेकिन दोनों जीएचजी उत्सर्जन में योगदान देते हैं. 

कृषि-खाद्य प्रणालियां विश्व की ऊर्जा का लगभग 30 प्रतिशत उपभोग करती हैं. रिन्युएबल एनर्जी खाद्य क्षेत्र की बिजली, हीटिंग, कूलिंग और परिवहन ज़रूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. उदाहरण के लिए, सौर सिंचाई ग्रिड, बिजली या डीजल ईंधन द्वारा संचालित पंपों की तुलना में 95-98 प्रतिशत कम उत्सर्जन पैदा करती है. कृषि-खाद्य गतिविधियों से बायोमास बाय प्रोडक्ट (उप-उत्पादों) का इस्तेमाल प्रोसेसिंग, स्टोरेज और कूकिंग के लिए ऊर्जा का उत्पादन करने के लिए किया जा सकता है. जीवाश्म ईंधन भारत की 80 प्रतिशत ऊर्जा ज़रूरतों की आपूर्ति करता है, जिसमें कृषि भी शामिल है  लेकिन प्राकृतिक गैस और सौर ऊर्जा से शानदार वृद्धि दिखाने की उम्मीद है (चित्र 2). हालांकि, हाइड्रोजन को लेकर भारत की महत्वाकांक्षी योजनाएं उसे नए युग के ईंधनों में भी अग्रणी बना सकती है.

[भारत की उर्जा ज़रूरतों की व्याख्या. स्रोत: India Energy Outlook Report 2021; https://www.iea.org/reports/india-energy-outlook-2021]

खाद्य सुरक्षा 

खाद्य सुरक्षा में भोजन की उपलब्धता और उस तक पहुंच और उसका उपयोग शामिल रहता है. साल 1961 और 2020 के बीच, 5 प्रतिशत अधिक भूमि का उपयोग करते हुए विश्व की आबादी 2.6 गुना बढ़ी और खाद्य उत्पादन 2.9 गुना बढ़ गया है. यह प्रजनन तकनीकों और नई फसल किस्मों, और पानी और रासायनिक उर्वरकों के ज़बर्दस्त इस्तेमाल की वज़ह से संभव हो सका है  लेकिन इसकी पर्यावरणीय लागत होती है. भले ही दुनिया इंसानों के लिए पर्याप्त भोजन का उत्पादन कर रही है, लेकिन कुपोषण 2001 में 13.2 प्रतिशत से मामूली रूप से घटकर 2019 में 8.9 प्रतिशत के आंकड़े को ही दिखाता है. विश्व स्तर पर, लगभग 800 मिलियन लोग कुपोषित हैं, जिनमें से 418 मिलियन एशिया में और 282 मिलियन अफ्रीका में रहते हैं.

ग्लोबल हंगर इंडेक्स  (वैश्विक भुखमरी सूचकांक) भूख की मात्रा निर्धारित करने के लिए चार प्रमुख संकेतकों - अल्पपोषण, चाइल्ड वेस्टिंग, चाइल्ड स्टंटिंग, और 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर को एक एकल सूचकांक स्कोर के तहत जोड़ता है. दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका में यह समस्या सबसे गंभीर है (चित्र 3). इस वर्ष जिन 121 देशों के लिए डेटा का आकलन किया गया था, उनमें 29.1 के स्कोर के साथ भारत 107वें स्थान पर था, जो गंभीर भुखमरी का संकेत देता है. ऊर्जा या कैलोरी खाद्य आपूर्ति का एक स्टैंडर्ड तरीक़ा है. विश्व स्तर पर, प्रति व्यक्ति कैलोरी की आपूर्ति 1961 से लगातार बढ़ी है, जिसमें एशिया और अफ्रीका भी शामिल हैं.  हालांकि, भोजन और पोषण तक पहुंच के संबंध में कई देशों में भारी असमानताएं हैं, जिन्हें शून्य (कोई असमानता नहीं) से 1 के पैमाने पर परिमाणित किया गया है. अधिकांश एशियाई और अफ्रीकी देशों के लिए, यह 0.25 से 0.45 के बीच है और कोरोना महामारी के दौरान यह और बढ़ गया है, जो साल दर साल बढ़ती असमानताओं की ओर इशारा करता है. भारत के लिए, यह 2021 में 0.25 से बढ़कर 0.29 हो गया है.

[ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2022, में दक्षिण एशिया और सब-सहारा अफ्रीका में भूखमरी से जुड़े गंभीर आंकड़े दिखाये गये हैं. स्रोत: Global Hunger Index; https://www.globalhungerindex.org/ https://www.globalhungerindex.org/].

प्रोटीन की चुनौती

कैलोरी से परे, उचित पोषण के लिए मैक्रोन्यूट्रिएंट्स की आवश्यकता होती है, विशेष रूप से प्रोटीन जो विकास और रखरखाव के लिए आवश्यक होते हैं. हालांकि वैश्विक औसत प्रति व्यक्ति प्रोटीन की आपूर्ति 1961 और 2019 के बीच 61 से 82 ग्राम तक बढ़ गई, फिर भी करीब एक अरब लोगों को अपर्याप्त प्रोटीन मिलता है, यह समस्या मध्य अफ्रीका और दक्षिण एशिया में सबसे गंभीर है, जहां लगभग 30 प्रतिशत बच्चों को बहुत कम प्रोटीन मिल पाता है. इंडियन डायटेटिक एसोसिएशन के अनुसार, भारत के शाकाहारी भोजन में 84 प्रतिशत प्रोटीन की कमी है  और अधिकांश भारतीयों को प्रति किलोग्राम शरीर के वजन के लिए अनुशंसित 0.8-1 ग्राम प्रोटीन नहीं मिल पाता है.

इंसानी आहार में पशु और पौधे प्रोटीन दोनों शामिल हैं - वैश्विक औसत क्रमशः 40 प्रतिशत और 60 प्रतिशत है, जो कई क्षेत्रों में व्यापक भिन्नता के साथ (चित्र 4) मौज़ूद है. साल 1961 और 2017 के बीच, भारत में प्रति व्यक्ति प्रोटीन की औसत दैनिक आपूर्ति 52 से बढ़कर 65 ग्राम हो गई, पशु प्रोटीन की खपत 12 प्रतिशत से दोगुनी होकर 23 हो गई है. पशु-आधारित प्रोटीन को "पूर्ण" माना जाता है, जबकि पौधे-आधारित प्रोटीन, दालों, कुछ नट और बीजों के अपवाद के साथ, अक्सर कुछ आवश्यक अमीनो एसिड की कमी रहती है. अध्ययन बताते हैं कि स्टंटिंग को कम करने के लिए पशु-आधारित प्रोटीन बेहतर है जबकि बच्चों के आहार में प्रोटीन सप्लीमेंट की सिफारिश की जाती है. 

[दुनिया में पशुओं और वनस्पतियों से होने वाले प्रोटीन सप्लाई का ब्यौरा. चित्र में डेली पर कैपिटा प्रोटीन सप्लाई प्रत्येक व्यक्ति पर हर एक दिन ग्राम के अनुसार दिया गया है.] 

न्यूनतम जीएचजी उत्सर्जन के साथ उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन के साथ आहार को पूरक करके प्रोटीन की कमी को दूर करना एक बड़ी चुनौती है. खेत और चरागाहों, वनों की कटाई  और मीथेन उत्सर्जित करने वाले मवेशियों के इस्तेमाल के कारण बीफ, मेमने और मटन काफी उत्सर्जन पैदा करते हैं. लेकिन अंडे, पोल्ट्री, मछली, पोर्क और दूध कम उत्सर्जन के साथ उच्च गुणवत्ता वाले पशु प्रोटीन प्रदान करने में सहायक हैं (चित्र 5). कई नई टेक्नोलॉजी भी खाद्य प्रणालियों को बदल रही हैं. पशु प्रोटीन के विकल्प के रूप में कीड़े और समुद्री शैवाल जैसे विशिष्ट प्रोटीन की खोज की जा रही है. प्रोटीन के स्रोत के रूप में यीस्ट या एनिमल और प्लांट प्रोटीन पैदा करने के तरीक़े और बगैर उत्सर्जन और इंडस्ट्री स्केल पर इसका उत्पादन किए कल्चर्ड मीट भी प्रोटीन का स्रोत प्रदान करते हैं.

100 ग्राम प्रोटीन के अनुपात में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को किलोग्राम CO2 समतुल्य रखा गया है. [स्रोत: Our World in Data; https://ourworldindata.org/environmental-impacts-of-food#carbon-footprint-of-food-products].

कीड़े दुनिया भर में लगभग 2 बिलियन लोगों द्वारा खाए जाने वाले प्रोटीन के सबसे बेहतर स्रोत हैं. अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका के कई देशों में लगभग 2,000 कीड़ों की प्रजातियां खाई जाती हैं. कीट की खेती में कम उत्सर्जन होता है क्योंकि यह भूमि, ऊर्जा और पानी के कुछ ही हिस्से का उपयोग करता है. कंपेयरेबल प्रोटीन पैदावार के लिए, गायों की तुलना में झींगुर 80 प्रतिशत कम मीथेन का उत्पादन करते हैं, सूअरों की तुलना में 8-12 गुना कम अमोनिया पैदा करते हैं, और अपने भोजन को प्रोटीन में परिवर्तित करने में 12-25 गुना ज्यादा कुशल होते हैं, जबकि गायों की तुलना में लगभग 12 प्रतिशत ही भूमि का उपयोग करते हैं. फूड वेस्ट (खाद्य अपशिष्ट) जो उत्सर्जन में महत्वपूर्ण योगदान देता है, इसे कीट लार्वा को खिलाकर पुनर्नवीनीकरण (खाद बनाने के बजाय) किया जा सकता है. दुनिया भर में खाए जाने वाले मांस के आधे हिस्से को खाने के कीड़ों और झींगुरों से बदलने से खेत के उपयोग में एक तिहाई की कटौती हो सकती है और उत्सर्जन कम किया जा सकता है. हालांकि, कीड़ों के उपभोग के लिए महत्वपूर्ण सांस्कृतिक बाधाएं हैं.

मानव स्वास्थ्य, आहार और पर्यावरण आपस में जुड़े हुए हैं. 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि मांस को आंशिक रूप से पौधों पर आधारित खाद्य पदार्थों से बदलने से वैश्विक मृत्यु दर में 6 से 10 प्रतिशत की कमी आ सकती है और साल 2050 तक 1 से 31 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का वित्तीय लाभ प्राप्त हो सकता है.

मानव स्वास्थ्य, आहार और पर्यावरण आपस में जुड़े हुए हैं. 2016 की एक रिपोर्ट बताती है कि मांस को आंशिक रूप से पौधों पर आधारित खाद्य पदार्थों से बदलने से वैश्विक मृत्यु दर में 6 से 10 प्रतिशत की कमी आ सकती है और साल 2050 तक 1 से 31 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का वित्तीय लाभ प्राप्त हो सकता है. अमीर देशों में आहार से समयपूर्व मृत्यु दर में 12 प्रतिशत की कमी आई और जीएचजी उत्सर्जन में 84 प्रतिशत तक की कमी आई. 

कई शमन उपायों के बीच हमारे जवाब के लिए अधिक बेहतर फसलें विकसित करने के लिए लिए जैव प्रौद्योगिकी की तैनाती की ज़रूरत होगी, सूक्ष्मजीवों के ज़रिए मिट्टी में सुधार करना होगा, पशु आहार के ज़रिए एंट्रिक फर्मेंटेशन को कम करना होगा, खाद्य उत्पादन, प्रोसेसिंग और परिवहन को स्वच्छ ऊर्जा की ओर स्थानांतरित करना होगा. दुनिया भर में विशेष रूप से भारत में स्वदेशी खाद्य पदार्थों की एक समृद्ध विरासत भी है जो बेहतर स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा की दिशा में आहार की गुणवत्ता बढ़ा सकती है लेकिन इन खाद्य पदार्थों के अनुसंधान, विकास और प्रचार में निवेश की ज़रूरत है. 

 
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