Authors : Shoba Suri | Nehal Sharma

Published on Aug 31, 2022 Updated 25 Days ago

खाद्य सुरक्षा पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की तत्काल व्यापक पड़ताल करने की ज़रूरत है.

#Climate Change: जलवायु परिवर्तन बन रहा है भारत में खाद्य सुरक्षा की राह का सबसे बड़ा ख़तरा!

सतत विकास लक्ष्य (SDG) 2 में ‘भुखमरी मिटाने, खाद्य सुरक्षा हासिल करने, पोषण बढ़ाने और खेती के टिकाऊ तौर-तरीक़ों को बढ़ावा देने’ का मक़सद तय किया गया है. हालांकि, भारत के विकास लक्ष्यों में खाद्य-सुरक्षा का विषय लंबे अर्से से पीछे छूटा हुआ है. यहां आर्थिक विकास के बावजूद कुपोषण का बोझ अब भी अस्वीकार्य स्तर पर है. खाद्य सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों को जलवायु परिवर्तन और गंभीर बना रहा है. खाद्यान्न उत्पादन, लागतों और खाद्य सुरक्षा पर इसका ज़बरदस्त असर पड़ रहा है. बेतहाशा गर्मी और पानी की किल्लत से फसल का विकास कुंद पड़ सकता है और पैदावार में गिरावट आ सकती है. साथ ही सिंचाई व्यवस्था और मिट्टी की गुणवत्ता पर ख़राब हो सकती है. इससे कृषि से जुड़ा पूरा पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है. खाद्य सुरक्षा जोख़िम पर अनेक कारकों का प्रभाव पड़ता है. इनमें प्राकृतिक आपदाएं और पानी की किल्लत शामिल हैं.  

भारत के विकास लक्ष्यों में खाद्य-सुरक्षा का विषय लंबे अर्से से पीछे छूटा हुआ है. यहां आर्थिक विकास के बावजूद कुपोषण का बोझ अब भी अस्वीकार्य स्तर पर है. खाद्य सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियों को जलवायु परिवर्तन और गंभीर बना रहा है

मौसम के बदलते तेवर

देश में बेहिसाब बारिश के चलते आने वाली बाढ़ हो या बरसात के अभाव से सूखे के हालात- दोनों ही फसल उत्पादन के लिए भारी नुक़सानदेह हैं. मौजूदा प्रमाणों से कृषि उत्पादन और मौसम के उग्र तेवरों (बार-बार आने वाला भयंकर सूखा या सैलाब) के बीच मज़बूत संबंध का पता चलता है. विश्व बैंक के मुताबिक भोजन सामग्रियों की घरेलू क़ीमतों में वैश्विक खाद्यान्न क़ीमतों में बढ़ोतरी के हिसाब से ही बदलाव आ रहे हैं. सूखे की समस्या ने इसे और विकराल बना दिया है. भारत में खाद्य क़ीमतों की महंगाई का कई पड़ोसी देशों तक विस्तार हो गया. इनमें बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका शामिल हैं. 2008 के महंगाई भरे दौर में भारत में घरेलू मांग आसमान छूने लगी थी. 2009 में जलवायु पर अल नीनो के प्रभाव से हालात और विकट हो गए. सूखे की समस्या के चलते खाद्य सामग्रियों की किल्लत पैदा हो गई. 

शोध से पता चला है कि खाद के तौर पर कार्बन के इस्तेमाल के संतुलनकारी प्रभावों से कृषि उत्पादन पर ग्लोबल वॉर्मिंग के नकारात्मक असर को दूर किया जा सकता है. कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़े स्तर से फ़सलों की पैदावार को बढ़ावा मिल सकता है. कर्नाटक में हुए एक और अध्ययन से तापमान में बेतहाशा बदलावों से फ़सल उत्पादन और उत्पादकता पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों का ख़ुलासा हुआ है. कीट-पतंगों और फ़सलों से जुड़े रोगों में होने वाली बेहिसाब बढ़ोतरी के साथ अक्सर इन्हीं घटनाओं के तार जोड़े जाते हैं. सौ बात की एक बात ये है कि जलवायु परिवर्तन का खाद्य सुरक्षा पर सीधा असर होता है. विनाशकारी कीटों और बीमारियों से खाद्य फ़सलों और मवेशियों पर घातक प्रभाव पड़ता है. इससे खाद्य की उपलब्धता में गिरावट आती है.

शोध से पता चला है कि खाद के तौर पर कार्बन के इस्तेमाल के संतुलनकारी प्रभावों से कृषि उत्पादन पर ग्लोबल वॉर्मिंग के नकारात्मक असर को दूर किया जा सकता है. कार्बन डाईऑक्साइड के बढ़े स्तर से फ़सलों की पैदावार को बढ़ावा मिल सकता है.

नदियों, बांधों, जलधाराओं और भूजल स्रोतों पर भी दबाव है. भारत में खेती में इस्तेमाल होने वाली कुल ज़मीन का 65 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर है. ज़ाहिर है पानी की किल्लत से कृषि पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ता है. देश का एक बड़ा इलाक़ा पहले से ही पानी की किल्लत का सामना कर रहा है. भूजल के गिरते स्तर से कृषि कार्यों के लिए ज़मीन के नीचे मौजूद पानी की उपलब्धता घटती जा रही है. प्राकृतिक आपदाओं से खाद्यान्न उत्पादन की मूल्य श्रृंखला पर असर पड़ता है. लिहाज़ा सामाजिक पूंजी के बचाव के लिए बहुआयामी रणनीति ज़रूरी हो जाती है. इस क्षेत्र में बारीक़ी से अनुसंधान किए जाने की ज़रूरत है. इससे मौजूदा और भावी कृषि संकटों के लिए खेती-बाड़ी और समुदाय के स्तर पर लचीलापन सुनिश्चित किया जा सकेगा. 

जलवायु परिवर्तन के चलते चावल और गेहूं जैसी मुख्य फ़सलों की पैदावार और उनमें मौजूद पोषण सामग्रियों में नाटकीय रूप से गिरावट आई है. दलहन उत्पादन और मवेशियों पर भी इसका भारी दुष्प्रभाव देखा जा रहा है. कृषि उत्पादन व्यवस्था के दूसरे घटकों (ख़ासतौर से पशु उत्पादों) पर भी इसका अप्रत्यक्ष असर हो रहा है. ग़ौरतलब है कि फ़सलों के सहायक-उत्पादों और अवशेषों से इन जानवरों की ऊर्जा आवश्यकताओं के एक बड़े हिस्से की पूर्ति होती है. 

कृषि ग़रीबी उन्मूलन के सबसे अहम साधनों में से एक है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारी संकट पैदा हो सकते हैं. 2007 और 2008 के वैश्विक खाद्य संकट से ये बात साफ़ हो चुकी है कि विकासशील देशों की खाद्य-असुरक्षित आबादी पर बड़ा ख़तरा मंडरा रहा है. भविष्य में जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले किसी भी खाद्य संकट की इनपर ज़बरदस्त मार पड़ सकती है. खेतीबाड़ी से जुड़े क्रियाकलापों को उन्नत बनाकर मौसम के उग्र तेवरों और मॉनसून की अप्रत्याशित चाल से पैदा होने वाले जोख़िम कम किए जा सकते हैं. इनमें फ़सलों की अदला-बदली और एकल फ़सल प्रणाली की बजाए मिश्रित फ़सल उत्पादन जैसे उपाय शामिल हैं.

पहले से ही खाद्य असुरक्षा और विषमताओं की ज़बरदस्त मार झेल रहे इलाक़ों पर सूखे और सैलाब का असर बाक़ी क्षेत्रों से ज़्यादा होता है. महाराष्ट्र के सूखा-प्रभावित जालना ज़िले के 9 गांवों की पड़ताल से ये बात उभरकर सामने आई. यहां 2012-13 के सूखे के दौरान स्थानीय कृषि पैदावार और किसानों की सालाना आय में क़रीब 60 फ़ीसदी की गिरावट आ गई थी. ओडिशा में किए गए एक और अध्ययन में प्राकृतिक आपदाओं और संकटों के चलते कुपोषण में बढ़ोतरी देखी गई. ओडिशा के तटीय ज़िले जगतसिंहपुर के बाढ़-प्रभावित इलाक़ों में रहने वाले बच्चों में दीर्घकालिक स्थायी कुपोषण पाया गया.

जलवायु परिवर्तन के चलते चावल और गेहूं जैसी मुख्य फ़सलों की पैदावार और उनमें मौजूद पोषण सामग्रियों में नाटकीय रूप से गिरावट आई है. दलहन उत्पादन और मवेशियों पर भी इसका भारी दुष्प्रभाव देखा जा रहा है.

भारत में शहरी खाद्य असुरक्षा के संकेतक चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं. दरअसल शहरी ग़रीब परिवार अपनी आमदनी का सबसे बड़ा हिस्सा भोजन पर ख़र्च करता है. मौसम के उग्र तेवरों से विस्थापन, रोज़ी-रोटी का नुक़सान और उत्पादक परिसंपत्तियों की बर्बादी होती है. लिहाज़ा इनका शहरी ग़रीब परिवारों की खाद्य सुरक्षा पर सीधा प्रभाव पड़ता है. नीरा रामचंद्रन के मुताबिक भुखमरी से बार-बार शहरों की ओर पलायन में तेज़ी आती है. इससे परिवार के परिवार विस्थापित होकर शहरी झुग्गियों में बसना शुरू कर देते हैं. ये प्रवासी मज़दूर ज़्यादातर शहरों के कम-पगार वाले असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं. यहां रोज़गार असुरक्षित और मज़दूरी वैधानिक स्तर से भी नीचे होती है. भविष्य में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी घटनाओं के चलते कृषि पैदावार में भारी उतार-चढ़ाव और गिरावट आने की आशंका है. नतीजतन खाद्य क़ीमतों में होने वाली बढ़ोतरी की मार सबसे ज़्यादा शहरी ग़रीबों पर पड़ने वाली है. 

मौसम के उग्र तेवरों से विस्थापन, रोज़ी-रोटी का नुक़सान और उत्पादक परिसंपत्तियों की बर्बादी होती है. लिहाज़ा इनका शहरी ग़रीब परिवारों की खाद्य सुरक्षा पर सीधा प्रभाव पड़ता है.

जलवायु परिवर्तन के बीच कृषि पैदावार बरक़रार रखने के लिए किसानों को कई नए तौर-तरीक़े अपनाने होंगे.    

आगे की राह

जलवायु के तमाम कठोर तेवरों से निपटने के लिए कृषि के मोर्चे पर नए तौर-तरीक़े अपनाने होंगे. इस सिलसिले में तात्कालिक समाधानों के साथ-साथ दीर्घकालिक रणनीति अपनानी होगी. भारतीय उपमहाद्वीप के लिए क्षेत्रीय मॉडल स्थापित करने होंगे. भारत में धान का कटोरा कहे जाने वाले तमिलनाडु के कावेरी बेसिन में किए गए अध्ययनों से इस बात की तस्दीक़ हुई है. अध्ययन में बदलती परिस्थितियों के अनुरूप तौर-तरीक़े अपनाए जाने की वक़ालत की गई है. इनमें चावल की गहनता, तापमान सहन करने वाले पौधों का रोपण और हरित ऊर्वरक/जैविक-खाद शामिल हैं. गरम जलवायु क्षेत्रों में पानी की बचत करते हुए चावल की उत्पादकता बढ़ानी होगी. इसके साथ-साथ भविष्य में छोटे इलाक़ों में जलवायु परिवर्तन से जुड़े वाक़ये कम करने होंगे. फ़िलहाल दीर्घकालिक तौर-तरीक़े अपनाए जाने की बजाए पीड़ित परिवारों को तत्काल सहायता पहुंचाने पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है. ऐसे में आपदा प्रबंधन पर सार्वजनिक निवेश और प्रशिक्षण (ख़ासतौर से तटीय इलाक़ों में) बेहद अहम हो जाता है. इसके साथ ही आपदा-प्रभावित क्षेत्रों में अल्प-पोषण की रोकथाम के लिए दीर्घकालिक कार्यक्रम चलाने होंगे. आने वाले दशकों में जैव-विविधता को होने वाले नुक़सान के पीछे जलवायु परिवर्तन एक अहम कारक रहने वाला है. जनसंख्या वृद्धि और बढ़ती आमदनी के साथ-साथ उपभोग और खानपान के रुझानों में बदलावों से भूमि समेत तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव पड़ेगा. ग्लोबल वॉर्मिंग से प्राकृतिक और मानवीय प्रणालियां, जैव-विविधता और खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी. लिहाज़ा खाद्य सुरक्षा पर जलवायु परिवर्तन के असर की तत्काल व्यापक पड़ताल किए जाने की ज़रूरत है. भोजन के उपभोग और कुपोषण पर जलवायु परिवर्तन के असर की माप और पैमाइश के लिए भविष्य में और ज़्यादा शोध कार्यों की दरकार होगी. इससे भारत में खाद्य असुरक्षा के मंडराते ख़तरे से निपटने में मदद मिलेगी. 

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