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सतत आहार की गारंटी के लिए स्थायी और लचीले खाद्य प्रणालियों की तत्काल आवश्यकता है जो पौष्टिक और विकसित पारिस्थितिकी तंत्र और जलवायु परिवर्तन के साथ संरेखित है.
वैश्विक स्तर पर बढ़ते भोजन की मांग और जलवायु परिवर्तन की दोहरी चुनौतियों के बीच, स्थायी खाद्य प्रणाली को अपनाया जाना, बेहद ज़रूरी हो गया है. बदले हुए मौसम की प्रकृति से लेकर जलवायु संबंधी आपदाओं में बढ़त का जलवायु परिवर्तन पर दूरगामी प्रभाव नज़र आने लगा है, जो कि वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए काफी गंभीर खतरा पैदा कर रहा है. इसके साथ ही, विश्व भर में लगातार बढ़ती जनसंख्या, भी खाद्य उत्पादन में विस्तार और बढ़त की ज़रूरत को बल दे रहा है. हालांकि, लगातार बढ़ते जलवायु संकट में, पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ अक्सर पर्यावरणीय क्षरण अथवा ह्रास में अपना योगदान देती है.
विश्व के दक्षिण छोर पर, कृषि काफी हद तक अस्थिर स्थिति में रहा है, जिसकी वजह से जैविक उपज में कमी आ रही है. वैश्विक स्तर पर भूख की समस्या को संतुष्ट करने के लिए ज़रूरी खाद्य अनाज की मांग में वृद्धि में भूमि-उपयोग परिवर्तन, भूमि का दोहन, अस्थिर उर्वरकों का उपयोग और आनुवांशिक तौर पर संशोधित फसलों का उत्पादन जो कि सभी प्रकार के पर्यावरण और प्राकृतिक परिस्थितियों के तंत्रों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है, उसने उस स्थिति को खड़ा करने का काम किया है. इस वजह से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन (जीएचजीई) पर्यावरण प्रदूषण, जैव विविधता, मिट्टी की गुणवत्ता आदि में गिरावट और अन्य नकारात्मक प्रभावों के बीच प्राकृतिक धरोहरों का नाश हुआ है.
विश्व भर में बढ़ती आबादी और इस वजह से भोजन की बढ़ती मांग की वजह से पशुधन और फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए ज़रूरी कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग में भारी इज़ाफा हो चुका है.
साल 2020 में, पूरी दुनिया में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या 720 मिलियन से बढ़कर 811 मिलियन तक हो गई थी. 2014 से 2019 में कुपोषण के दरों में 8.4 प्रतिशत की मामूली बढ़त के साथ, 2020 में कुपोषित जनसंख्या बढ़कर लगभग 9.9 प्रतिशत हो गई थी. विश्व भर में बढ़ती आबादी और इस वजह से भोजन की बढ़ती मांग की वजह से पशुधन और फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए ज़रूरी कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग में भारी इज़ाफा हो चुका है. दुनिया की 50 प्रतिशत से अधिक फसलें, उचित रासायनिक कीटनाशकों और अन्य फसल संरक्षण उपायों की कमी और बीमारियों की वजह से नष्ट हो जाती हैं. आने वाले वक्त में, चूंकि प्रति एकड़ फसल की उपज बढ़ने की गुंजाइश है, इसलिए फसल की खेती के लिए ज़रूरी भूमि के क्षेत्र को बढ़ाए जाने की आवश्यकता है. इससे कई तरह के अनाज की प्रजातियों के आवास, और उनकी प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचेगा, और कटाव की वजह से मिट्टी की कमी, और गुणवत्ता में गिरावट उत्पन्न होने की भी संभावना है. कृषि रसायनों का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल पारिस्थितिकी तंत्र और मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर चुनौती एवं खतरा पैदा करती है. रासायनिक संदूषण या मैलापन भोजन की जैव रासायनिक संरचना को बदल देता है, और दस्त, कैंसर, तांत्रिक संबंधी बीमारी, प्रजनन क्षमता में कमी, विकास संबंधी समस्याएं, श्वास क्षति और कई दूसरी बीमारियों का कारण बन सकता है.
जैविक और अजैविक दोनों ही कृषि कारकों के संदर्भ में खाद्य सुरक्षा पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव समान रूप से, महत्वपूर्ण है. वायु प्रदूषण, कुपोषण, और अत्याधिक तापमान, भिन्नताओं के साथ कीड़े-मकोड़े, कीट और मिट्टी जैसे अजैविक कारकों की वजह से खाद्य सुरक्षा और सुरक्षा पर प्रभाव पड़ता है. इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन, फसलों, कीटों, खरपतवार और पोलिनेशन के बीच के संबंध को बाधित करके पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है. नीचे दिए गए चित्र में खाद्य उत्पादन और जलवायु के बीच के संबंध को दर्शाया गया है.
महामारी की वजह से खाद्य और कृषि दोनों ही क्षेत्र काफी बुरी तरह से प्रभावित हुए है. वैश्विक स्तर पर, खाद्य आपूर्ति शृंखला में व्यवधान, आय और आजीविका में कमी, लिंग, वर्ग और जाति की बढ़ती असमानता और भोजन में विसंगति और कीमतों में भिन्नता के कारण खाद्य असुरक्षा, कुपोषण और भूख में काफी बड़े पैमाने पर वृद्धि दर्ज की गई है. खाद्य सुरक्षा और लैंगिक समानता पर एफएओ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व स्तर पर पुरुषों और महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के बीच के अंतर में काफी वृद्धि हो रही है. उस रिपोर्ट के अनुसार, सन 2021 में विश्व स्तर पर कुल 828 मिलियन लोग भूखे रह गए थे, और खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में पुरुषों की तुलना में 150 मिलियन महिलाएं, असुरक्षित महसूस कर रहीं थी. उस उपजी हुई महामारी काल के दौरान में महिलाओं के बीच जबरन कारावास की प्रवृत्ति और वैवाहिक दुर्व्यवहार के खतरों में काफी वृद्धि हुई है. विशेषकर महिलाओं के बीच की कृषि गतिविधियां भी बहुत ज़्यादा प्रभावित हुई हैं, जिसमें मज़दूरी करके कमाने वाले, कृषक और खाद्य विक्रेता आदि सभी प्रकार की खाद्य प्रणालियों में अहम किरदार/भूमिका निभाते हैं.
पिछले एक दशक के आंकड़ों के अनुसार, जनसंख्या के आंकड़ों के रुझानों के अनुसार दक्षिण एशिया की आबादी में प्रति वर्ष 1.5 प्रतिशत की वृद्धि के सामने, कृषि उत्पादन प्रतिवर्ष 2.5 – 3 प्रतिशत की दर से बढ़ी है
पिछले एक दशक के आंकड़ों के अनुसार, जनसंख्या के आंकड़ों के रुझानों के अनुसार दक्षिण एशिया की आबादी में प्रति वर्ष 1.5 प्रतिशत की वृद्धि के सामने, कृषि उत्पादन प्रतिवर्ष 2.5 – 3 प्रतिशत की दर से बढ़ी है. कृषि उत्पाद में हुई इस वृद्धि की वजह से इस इलाके में पर्याप्त खाद्य सुरक्षा मुमकिन हुई है. इन तमाम प्रयासों के बावजूद, उप-सहारा अफ्रीका के बाद दक्षिण एशियाई क्षेत्र, वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआई) में दूसरे स्थान पर रहते हुए, काफी गंभीर हालत में है. हालांकि, पिछले चंद वर्षों में, जीएचआई की सदी की शुरूआत में 8.2 से घटकर 2020 में 26 (20 – 34.9 के पेरामीटर पर, अभी भी ‘गंभीर’ ही माना जाएगा) हो कर, कुछ प्रगति तो अवश्य दर्ज हुई है, जो कि पिछले स्तर 42.7 की तुलना में थोड़ा सुधार ही माना जाएगा. इस समय के दौरान, उप-सहारा अफ्रीका का जीएचआई 27.8 से घटकर 27.8 हो गया और दूसरी तरफ, यूरोप और मध्य एशिया का जीएचआई 10 – 19 के “निम्न” के पैमाने पर 13.5 से घटकर 5.8 तक आ गया. इन आंकड़ों से ये साफ होता है कि दक्षिण एशिया अभी भी लंबे समय से चले आ रहे भोजन और वितरण की पहुँच की समस्या से मुक्त नहीं हुआ है.
खादय् उत्पादन और वितरण प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन लाकर इन महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने की तत्काल ज़रूरत है; जिससे न सिर्फ़ पर्यावरण बल्कि सामाजिक और आर्थिक आयाम सुसंगत बनेगी जो बेहद ज़रूरी है.
अब कृषि उत्पादन के लिए पृथ्वी की ४० प्रतिशत से अधिक जमीन का उपयोग किया जा रहा है, जो कृषि प्रणालियों को घरेलु या सांसारिक स्तर पर सबसे बड़ा तंत्र बनाता है. भोजन का उद्योग 30% और ताजे पानी का 70% इस्तेमाल दुनिया के ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (जीएचजी) में होता है. खाद्य उत्पादन में जैव विविधता की कमी का मुख्य कारण भूमि-उपयोग में बदलाव है. प्रत्येक थाली में, पशु-जनित भोजन, विशेष रूप से लाल मांस, अपेक्षाकृत तीव्र पर्यावरणीय प्रभाव डालता है. यह अन्य खाने योग सामग्रियों की श्रेणी से अधिक है. इनके प्रभावों में जैव विविधता, भूमि उपयोग और जीएचजी उत्सर्जन शामिल हैं. आने वाले वर्ष 2050 तक, एसडीजी और पेरिस समझौते के अनुसार स्वस्थ आहार में बदलाव लाने के लिए खाद्य प्रणाली और आहार में महत्वपूर्ण बदलाव करने की ज़रूरत है.
खादय् उत्पादन और वितरण प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन लाकर इन महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने की तत्काल ज़रूरत है; जिससे न सिर्फ़ पर्यावरण बल्कि सामाजिक और आर्थिक आयाम सुसंगत बनेगी जो बेहद ज़रूरी है. पौष्टिक और विकसित इकोसिस्टम और जलवायु परिवर्तन के साथ सामंजस्य बनाकर स्थायी आहार की गारंटी सुनिश्चित करने के लिए, स्थायी और लचीले खाद्य पदार्थों की उपलब्धता अत्यंत आवश्यक है. ग्लोबल साउथ के देशों के लिये यह तात्कालिक तौर पर और भी महत्वपूर्ण है. खाद्य प्रणाली और जलवायु परिवर्तन के बीच के कारक और नतीजे के दो तरफा संबंधों को समझना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि ये पता चल सके कि यह मानव स्वास्थ्य को किसी प्रकार से प्रभावित करते हैं. चूंकि, महिलाओं की इस खाद्य मूल्य श्रृंखला में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिए उनके दृष्टिकोण से भोजन की उपलब्धता में आने वाले बदलावों को देखना समझना, भविष्य में एक टिकाऊ फूड वैल्यू चेन को बनाने के लिये बेहद ज़रूरी है, ताकि हम भोजना और पोषण की दोहरी चुनौती का सामना कर सकें.
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Dr. Shoba Suri is a Senior Fellow with ORFs Health Initiative. Shoba is a nutritionist with experience in community and clinical research. She has worked on nutrition, ...
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