Expert Speak Terra Nova
Published on Jan 16, 2024 Updated 0 Hours ago

फलते-फूलते वैश्विक कार्बन व्यापार बाज़ारों का लाभ उठाते हुए भारतीय उद्यम एक आकर्षक उपक्रम की दहलीज़ पर खड़े हैं. ये इकाइयां भारत में उत्सर्जनों में कमी लाने में भी अहम भूमिका निभाती हैं.

भारत में कार्बन बाज़ार: वैश्विक साझा लक्ष्यों की ओर बढ़ते स्थानीय क़दम!

2015 पेरिस समझौते का बाद से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी को लेकर जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC) की रणनीति में भारी बदलाव आया है. वैसे तो 2008 से 2020 तक की प्रतिबद्धता अवधि के साथ क्योटो प्रोटोकॉल की पिछली व्यवस्था में सिर्फ़ एनेक्स-1 या विकसित देशों के लिए स्थापित लक्ष्यों के अनुरूप उनके उत्सर्जन कम करने की अनिवार्यता बताई गई थी, पेरिस समझौते की शुरुआत के साथ नई "वैश्विक जलवायु व्यवस्था" में अन्य हिस्सेदार देशों द्वारा (हालांकि वैश्विक रूप से अनिवार्य किए गए लक्ष्यों के बिना) उत्सर्जनों में कमी लाने पर सहमति जताने की क़वायद देखी गई. बाध्यकारी लक्ष्य तय किए बिना पेरिस समझौते ने राष्ट्रों द्वारा उत्सर्जन कम करने की क्षमताओं और उनके दायरों से जुड़ी क्षमताओं के आधार पर साझा लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियों को स्वीकार किया. इसलिए ये एक सर्वसम्मत तंत्र पर आधारित है जिसमें सभी देशों (विकसित और विकासशील) से 2020 की शुरुआत के बाद हर पांच साल में उनके NDCs (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों) की घोषणा करने की उम्मीद की जाती है. हालांकि, इस अवधि के बीच देश अपनी वचनबद्धताओं को नए सिरे से तय कर सकते हैं लेकिन इसे केवल ऊपर की ओर बढ़ाया जा सकता है. पेरिस समझौते की प्रभावशीलता नैतिकतापूर्ण समझ और "नाम लेकर बदनाम करने" पर टिकी है.

2015 पेरिस समझौते का बाद से वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी को लेकर जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC) की रणनीति में भारी बदलाव आया है.

भारत ने महत्वाकांक्षी NDC प्रतिबद्धताएं तैयार की हैं. इनमें से कुछ, जैसे 2030 तक ग़ैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा स्रोतों से 50 प्रतिशत संचयी बिजली शक्ति की स्थापित क्षमता हासिल करना, नियत और मापने योग्य हैं. भारत की GDP की उत्सर्जन सघनता को 2005 की तुलना में 2030 तक 45 प्रतिशत घटाने के वादे का क्या? क्या तय की गई अवधि में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए विश्वसनीय और निगरानी-योग्य कार्य योजना मौजूद है? वनीकरण, या इलेक्ट्रिक वाहनों (EVs) या नवीकरणीय ऊर्जा संक्रमण परियोजनाओं जैसे प्रकृति-आधारित समाधानों के ज़रिए GDP की उत्सर्जन सघनता के लक्ष्यों को पूरा कर पाने में रोकथाम की क़वायदों के प्रभाव और असर के बारे में अभी जानकारी मिलनी बाक़ी है, और अमल में लाए जाने से पहले इसका विश्लेषण किया जाना चाहिए. ऐसे में, हालांकि सरकार के पास उत्सर्जन घटाने की तमाम योजनाएं मौजूद हैं, लेकिन इनमें से कई ना तो गणना-योग्य हैं और ना ही निगरानी-योग्य. 

ऐसा करने के लिए कुछ चुनिंदा आंकड़ों को सार्वजनिक दायरे में डाले जाने की आवश्यकता है. इनमें 2030 के लिए GDP के अनुमान, विभिन्न ऊर्जा परिदृश्यों के तहत विकास के चालक, और गणना पद्धति शामिल हैं. तब जाकर विभिन्न ऊर्जा मिश्रण परिदृश्यों में GDP की कार्बन सघनता निर्धारित की जा सकती है.  

GDP की उपरोक्त अनुमानित उत्सर्जन सघनता और NDC प्रतिबद्धता संख्याओं के बीच उभरती अनुमानित दरार को देखते हुए क्षेत्र-विशिष्ट ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन लक्ष्यों को स्थापित किया जा सकता है. इनमें अपेक्षाकृत उत्सर्जन-सघन क्षेत्रों जैसे स्टील, एल्युमिनियम, सीमेंट, ताप बिजली क्षेत्र आदि के लिए लक्ष्य शामिल हैं. इनमें से हर क्षेत्र में वैश्विक रूप से बेहतरीन अभ्यासों के आधार पर इन गणनात्मक लक्ष्यों को स्थापित किया जा सकता है, लेकिन इन्हें घरेलू क्षमताओं के आधार पर ही अपनाया जाना चाहिए. इन लक्ष्यों की उपलब्धि को मानते हुए उत्सर्जनों में अनुमानित कटौती को उसके बाद ध्यान में रखा जा सकता है, इस कड़ी में 2030 तक कुल उत्सर्जन सघनता में कमी का आकलन किया जाना चाहिए.  

भारत में कार्बन ट्रेडिंग की ज़रूरत और उभार 

चिन्हित क्षेत्रों में योग्य इकाइयों पर निर्दिष्ट लक्ष्यों को पूरा करने की अनिवार्यता होनी चाहिए. मिसाल के तौर पर, अगर स्टील उत्पादन फ़िलहाल प्रति टन स्टील उत्पादन के बदले औसतन 2.5 टन कार्बन डाइऑक्साइड के समकक्ष कार्बन उत्सर्जित करता है, और लक्ष्य चरणबद्ध रूप से 2030 तक इसे 1.7 टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर लाने के लिए काम करता है, तो उस विशिष्टता की स्टील का उत्पादन करने वाली हरेक योग्य इकाई को इस चरणबद्ध कमी का पालन करना होगा. 2030 तक की अवधि को समय और काल के खंडों में बांटा जा सकता है, जिसमें हरेक खंड के लिए लक्ष्य तय रहेंगे. इन लक्ष्यों को पूरा कर पाने में असमर्थ कोई भी इकाई अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए उस लक्ष्य से आगे निकल चुकी किसी दूसरी इकाई से कार्बन क्रेडिट ख़रीद सकेगी. एक कार्बन क्रेडिट एक टन कार्बन डाइऑक्साइड कटौती के बराबर होगा. कार्बन क्रेडिट की ये परिभाषा सभी निर्दिष्ट क्षेत्रों के बीच क्षेत्र-संशयवादी हो सकती है. सटीक विनियामक तंत्र के साथ कार्बन क्रेडिट व्यापार तंत्र को किफ़ायती रूप से कार्बन उत्सर्जनों के योजनाबद्ध गिरावट में मददगार साबित होना चाहिए. 

2030 तक की अवधि को समय और काल के खंडों में बांटा जा सकता है, जिसमें हरेक खंड के लिए लक्ष्य तय रहेंगे. इन लक्ष्यों को पूरा कर पाने में असमर्थ कोई भी इकाई अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए उस लक्ष्य से आगे निकल चुकी किसी दूसरी इकाई से कार्बन क्रेडिट ख़रीद सकेगी.

क्योटो प्रोटोकॉल के "सीमा और व्यापार" तंत्र की आलोचनाएं अब अच्छी तरह से ज्ञात हैं. प्रोटोकॉल के तहत विकासशील देशों में उत्सर्जनों का व्यापार, वास्तव में फिसड्डी बना रहा क्योंकि उत्सर्जन में कमी लाने की अनिवार्यता एनेक्स-1 देशों के लिए ही लागू रही. हालांकि, भारत समेत उभरती अर्थव्यवस्थाओं में अनेक परियोजनाओं ने स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) के तहत स्वैच्छिक वैश्विक कार्बन क्रेडिट बाज़ार का अनुपालन किया और उसमें हिस्सेदारी की. अनेक ख़ामियों और गड़बड़ियों के चलते ये तंत्र न्यायोचित वजहों से आलोचनाओं के घेरे में आया, जिनमें मेज़बान देश के साथ-साथ विदेशों में उत्सर्जन में कटौती की दोहरी गिनती और अनुचित श्रेय लेना शामिल है. हालांकि COP26 ने वैश्विक कार्बन बाज़ार तैयार करने के अवसर खोले हैं, लेकिन बेहतर ढंग से काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय कार्बन व्यापार बाज़ार के लिए काफ़ी कुछ करने की ज़रूरत है. 

उल्लेखनीय रूप से भारत सरकार ने ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 के तहत 28 जून को कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS) को अधिसूचित करके एक स्वागतयोग्य क़दम उठाया है. इस योजना में चुनिंदा क्षेत्रों में इकाइयों के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित करने की क़वायद शामिल है. इस योजना का लक्ष्य पारदर्शी मूल्य खोज के साथ एक विनियमित घरेलू कार्बन क्रेडिट व्यापार बाज़ार का विकास करना है. योजना को संचालित करने और योजना के तहत दायित्वकारी संस्थानों के लिए लक्ष्य तैयार करने में ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) की अहम भूमिका है, और केंद्रीय विद्युत विनियामक आयोग (CERC) कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्रों के व्यापार को विनियमित करता है. 

CCTS अधिसूचना एक व्यापक रूपरेखा मुहैया कराती है. योजना को आगे बढ़ाने के लिए और अधिक विस्तृत क़वायद किए जाने की दरकार है. मिसाल के तौर पर, इस बारे में सवाल बने हुए हैं कि योजना के तहत किन क्षेत्रों को कवर किया जाएगा (दायित्वकारी संस्थाएं), ऐसे क्षेत्रों (इकाइयों) के चुनाव के मानदंड, क्षेत्रीय और इकाई स्तर पर समग्र राष्ट्रीय स्तर के NDC ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों के लक्ष्यों को अलग करने की पद्धति; GHG उत्सर्जनों की निगरानी, रिपोर्टिंग और सत्यापन के लिए सोचा गया तंत्र; और कार्बन क्रेडिट प्रमाण पत्र (उनकी वैधता अवधि समेत) जारी करने के मानदंड. 

वित्तीय संस्थानों, बैंकों और कारोबारियों को तरलता मुहैया कराने और बेहतर मूल्य खोज में मदद की क़वायद में हिस्सेदारी करने की छूट दी जानी चाहिए. योजना के दायरे को विस्तारित किया जाना चाहिए.

प्रस्तावित CCTS में योग्य हिस्सेदारों की श्रेणी (उसके दायरे की तरह) को बढ़ाए जाने की दरकार है- फ़िलहाल ये BEE की PAT (प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार) योजना का महज़ विस्तार दिखाई देता है. वित्तीय संस्थानों, बैंकों और कारोबारियों को तरलता मुहैया कराने और बेहतर मूल्य खोज में मदद की क़वायद में हिस्सेदारी करने की छूट दी जानी चाहिए. योजना के दायरे को विस्तारित किया जाना चाहिए. इसमें ऊर्जा और उद्योग क्षेत्र से परे स्रोतों/गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को शामिल किया जाना चाहिए. इन क्षेत्रों में कृषि, वानिकी और भूमि उपयोग, परिवहन, वायु सेवा, कचरा प्रबंधन और कार्बन कैप्चर और भंडारण शामिल हैं. कमोडिटी डेरिवेटिव्स ट्रेडिंग एक्सचेंजों पर कार्बन क्रेडिट्स में वायदा कारोबार (फ्यूचर ट्रेडिंग) की इजाज़त दी जा सकती है. बिजली क्षेत्र तक सीमित अधिदेश (मैंडेट) के साथ BEE और CERC भारत में कार्बन ट्रेडिंग की रूपरेखा विकसित करने के लिए शायद उचित एजेंसियां नहीं होंगी. ये हमें कार्बन ट्रेडिंग के लिए एक स्वायत्त और विशिष्ट विनियामक पर चर्चा की ओर ले जाता है. 

बाज़ार दक्षता

एक अहम पहलू जिसपर परिचर्चा और बहस की ज़रूरत है वो है अंतरराष्ट्रीय कार्बन ट्रेडिंग बाज़ार में भारत की भागीदारी, और क्या वर्तमान स्तर पर कार्बन क्रेडिट के निर्यात की इजाज़त दी जानी चाहिए. इसके लिए उत्पाद नवाचार और परिवर्तनशीलता (फंगिबिलिटी) की दरकार होगी. दूसरी ओर, कार्बन बाज़ारों के डेरिवेटिव्स खंड में अंतरराष्ट्रीय हिस्सेदारी (FIIs की भागीदारी समेत) के बारे में विचार किया जाना चाहिए. इसका फ़ायदा ये है कि ये बाज़ार में पर्याप्त तरलता लाने में सहायता करेंगे, और हेजिंग और मूल्य खोज में मददगार साबित होंगे. सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि अत्यधिक अटकलों के साथ ये प्रतिकूल प्रभाव वाला साबित हो सकता है. एक अन्य विनियामक परिप्रेक्ष्य से भारतीय विनियमन को अंतरराष्ट्रीय विनियमन मानदंडों के अनुरूप होना चाहिए ताकि विनियामक मध्यस्थता की संभावना को न्यूनतम स्तर पर लाया जा सके. 

बाज़ार की दक्षता की माप के लिए सबसे अहम मापक ये है कि राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन क्रेडिट मूल्य को कार्बन की सामाजिक लागत का प्रदर्शन करना चाहिए. कार्बन की सामाजिक लागत (SCC) कार्बन उत्सर्जन की अतिरिक्त इकाई के चलते होने वाले नुक़सान की मौद्रिक लागत का एक अनुमान है. ये फिर से संबंधित स्टेकहोल्डर्स की सूचना और ज्ञान पर निर्भर करेगा. यहां क्षमता निर्माण में विनियामकों को अहम भूमिका निभानी होगी.  

निष्कर्ष के तौर पर...

फलते-फूलते वैश्विक कार्बन ट्रेडिंग बाज़ारों (जहां विकसित इलाक़ों में दांव और मूल्य उल्लेखनीय रूप से ऊंचे हैं) का लाभ उठाते हुए भारतीय उद्यम एक आकर्षक उपक्रम की दहलीज़ पर खड़े हैं जो एक शानदार भविष्य की संभावना पेश करते हैं. फिर भी, यहां सवाल महज़ मुनाफ़ों को लेकर नहीं है- ये इकाइयां भारत के अपने उत्सर्जनों को कम करने में अहम भूमिका लिए हुए हैं. स्थानीय ज़िम्मेदारियों के साथ वैश्विक अवसरों का संतुलन बिठाने में ही सार निहित है: क्या भारतीय खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में उतरना चाहिए, और क्या हमें अपने कार्बन क्रेडिट्स के लिए विदेशी ख़रीदारों का स्वागत करना चाहिए? पूर्ण प्रतिबंध से वैश्विक स्तर पर अपनी पकड़ स्थापित करने के अवसर से चूकने का जोख़िम है, जो एक ऐसा कार्य है जिसके लिए समय और भरोसे की आवश्यकता होती है. तो समझदारी भरा क़दम क्या होगा? सबसे पहले हमारे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (NDCs) के लक्ष्यों के प्रति स्पष्ट राह तैयार करें. उसके बाद सावधानीपूर्वक मापे गए, चरणबद्ध रुख़ से कार्बन क्रेडिट निर्यातों के लिए दरवाज़ें खोलें, इस पूरी क़वायद में अंतरराष्ट्रीय गतिशीलताओं पर चौकस निगाह बनाए रखें. ये महज़ व्यापार नहीं है; ये पर्यावरण के प्रति जागरूकता भरे मोड़ के साथ रणनीतिक वैश्विक जुड़ाव है. 


अजय त्यागी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रतिष्ठित फेलो हैं

नीलांजन घोष ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में डायरेक्टर हैं

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.