वैश्विक तौर पर, हद से ज़्यादा आबादी का डर अब बढ़ती उम्र वाले समाज के बारे में चिंताओं के रूप में बदल चुकी है. घटती प्रजनन दर एवं 1970 से 2020 तक बढ़ती लंबे जीवन ने बुढ़ापे को एक प्रमुख वैश्विक जनसांख्यिकी प्रवृत्ति में बदल दिया है. साल 1970 के वक्त के दशक के दौरान के जनसंख्या के चेतावनी कर्ताओं की नज़र में अक्सर अकाल, पर्यावरण का नुकसान और भोजन की कमी को अधिक जनसंख्या एवं जन्म नियंत्रण न होने के परिणामों के तौर पर प्रस्तुत किया. इस कारण विकासशील देशों में ये भी देखा गया कि यहां जनसंख्या को स्थिर करने के प्रयासों में अक्सर लोगों की बुनियादी मानवाधिकारों की अवहेलना की गई है. एक तरफ जहां बुजुर्गों की आबादी की लगातार बढ़ती जनसांख्यिकी की प्रवृत्ति को खतरे की तरह नहीं देखा गया है, वहाँ बुजुर्गों को ऊंची स्वास्थ्य ज़रूरतों की कीमत, उचित देखरेख की ज़रूरत, और उनके द्वारा उत्पादकता की कम संभावनाओं की वजह से, कई बार उन्हें एक परेशानी या बोझ के तौर पर देखा जाता है. डेविड ब्लूम एवं लियो ज़ुकर जैसे चंद बुद्धिजीवियों ने तो वृद्ध होती आबादी को “वास्तविक जनसंख्या बम” के रूप में भी पेश किया है.
बुजुर्गों को ऊंची स्वास्थ्य ज़रूरतों की कीमत, उचित देखरेख की ज़रूरत, और उनके द्वारा उत्पादकता की कम संभावनाओं की वजह से, कई बार उन्हें एक परेशानी या बोझ के तौर पर देखा जाता है.
शहर के बूढ़े होते नागरिकों को इस प्रकार से समाज के ऊपर एक व्यर्थ के आर्थिक एवं सामाजिक बोझ के तौर पर देखा जाना ना केवल इस वृद्ध होती आबादी के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती है बल्कि कई संदर्भों के सिलसिले में ये बेमानी भी साबित होता है. खासकर के ऐसे कई विकासशील देशों में जहां पर, बड़े बुज़ुर्ग अपने परिवारों एवं समूहों को खेती-बाड़ी, बच्चों की देखभाल, पानी लाने के कामों, धार्मिक संगठनों द्वारा किए जाने वाले कामों, एवं किसी धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन सरीख़े काफी महत्वपूर्ण कामों में, बग़ैर किसी पगार के महत्वपूर्ण सेवाएं देते हैं.
विशेषज्ञों ने अक्सर अपने तर्कों में कहा है कि, ऐसे समय में जबकि दुनिया भर के विकसित देश श्रम की कमी की समस्या से जूझ रहे है, तब भारत के युवाओं की बढ़ती आबादी और कम निर्भरता (जिसे जनसांख्यिकी लाभांश के तौर पर भी जाना जाता है) यह एक आर्थिक संपत्ति के समान है.
इस अनुमान के तहत कि वर्ष 2041 में संभावित तौर पर युवाओं की ये बड़ी आबादी अपने चरम पर होगी इसके बावजूद देश, उतनी ही तेज़ी से बढ़ते वृद्ध नागरिकों की आबादी से दो-चार हो रहा है. जैसे- 60 साल से ज्य़ादा के लोगों की बढ़ती आबादी. साल 2011 में हुई जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 103 मिलियन बुज़ुर्ग आबादी रह रही थी. (ये संख्या यूके, जर्मनी, और फ़्रांस की कुल आबादी से भी ज्य़ादा थी) और तब भारत की कुल आबादी का वो 8.6 प्रतिशत हिस्सा थी.
2041 में संभावित तौर पर युवाओं की ये बड़ी आबादी अपने चरम पर होगी इसके बावजूद देश, उतनी ही तेज़ी से बढ़ते वृद्ध नागरिकों की आबादी से दो-चार हो रहा है. जैसे- 60 साल से ज्य़ादा के लोगों की बढ़ती आबादी.
भारत के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के लॉन्गिट्यूडिनल वृद्धावस्था अध्ययन (LASI) के अनुसार, साल 2050 तक वृद्ध आबादी, भारत की कुल आबादी के 19.5 प्रतिशत (लगभग 355 मिलियन तक )तक पहुँचने की संभावना है. केरल, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पहले से ही क्रमशः 19.6 प्रतिशत, 16.5 प्रतिशत, 16.4 प्रतिशत और 15.2 प्रतिशत की बुज़ुर्ग आबादी की एक काफी बड़ी संख्या मौजूद है.
बुजुर्गों की बढ़ती जनसंख्या
बुजुर्गों की बढ़ती आबादी ने देश के राजस्व पर एक बोझ बढ़ाने का काम किया है. देश का एक्सचेकर विभाग इस चिंता में है कि वो इस बोझ को उठाने लायक तैयार है भी या नहीं. इसके बाद देश के नीति निर्माताओं को इन वृद्ध आबादी के हित में बनाए जा रहे नीति को बनाते वक्त़ देश के सामाजिक आर्थिक यथार्थ को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है. इससे जुड़ा पहला और महत्वपूर्ण सवाल है - भारतीय संदर्भ में निर्भरता अनुपात (60 वर्ष और उससे अधिक के कार्य करने योग्य आबादी जो 15 – 59 वर्ष तक हों) जैसी अवधारणाओं की अवधारणा है. दूसरी तरफ, देश में ऊंची युवा बेरोज़गारी दर, देश को उसकी डेमोग्राफिक डिविडेंड ( जनसाख्यिंकी लाभांश) उठाने से रोक रही है, वहीं दूसरी तरफ ये भी देखा जा रहा है कि, ज़रूरी नहीं कि देश में 60 वर्ष से अधिक उम्र का हर व्यक्ति किसी पर निर्भर हो.
हाल – फिलहाल में ये भी देखा जा रहा है कि देश में 60 वर्ष से अधिक उम्र के उच्च शिक्षित परंतु एक छोटा तबका, श्रम के बाज़ार में, कंसल्टेंट एवं सलाहकारों के रूप में दोबारा आ रहे हैं. हालांकि, भारत के बुज़ुर्ग नागरिकों का एक बड़ा वर्ग इतना ग़रीब है कि वो कभी रिटायरमेंट नहीं ले सकता है. वे अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करना जारी रखते हैं और अक्सर वे साइकिल रिक्शा चलाने, और भारी वजन उठाने मेहनत भरा का काम किया करते हैं. LASI के कराये एक अध्ययन में ये पाया गया है कि वर्तमान समय में आधे से ज्य़ादा वृद्ध आबादी अब भी काम कर रही है. इसमें, वृद्ध महिलाओं की आबादी 22 प्रतिशत कम दिखायी गई है, लेकिन ऐसा इसलिये भी हो सकता है क्योंकि महिलाओं द्वारा देखभाल के कामों एवं खेती-बाड़ी के कामों में कोई पगार नहीं मिलता इसलिये उसका आकलन नहीं हो पाता है. एक तरफ जहां LSSI द्वारा कामों की, की गई व्याख्या काफी विस्तृत है, पर इसमें सामुदायिक सेवाओं को सम्मिलित नहीं किया गया है, जो कि भारत के परिप्रेक्ष्य में काफी महत्वपूर्ण है. कई वृद्ध एवं बुज़ुर्ग व्यक्ति महत्वपूर्ण सामाजिक सेवाओं में मंदिर, गुरुद्वारा आदि जैसे धार्मिक संगठनों (हिन्दी में जिन्हे ‘सेवा’ भी कहा जाता है) के प्रावधानों में शामिल रहते हैं. ऐसी सेवाएँ आम नागरिकों के कल्याण, सामाजिक एकता के प्रोत्साहन एवं समुदायों में पहचान स्थापित करने की भावना प्रदान करने के प्रति अपना योगदान देती है. दूसरी भाषा में कहे तो, ये धारणा कि 60 वर्ष से ऊपर का हर व्यक्ति आश्रित है और कोई काम नहीं करता ये न सच है न ही सही.
एक तरफ जहां LSSI द्वारा कामों की, की गई व्याख्या काफी विस्तृत है, पर इसमें सामुदायिक सेवाओं को सम्मिलित नहीं किया गया है, जो कि भारत के परिप्रेक्ष्य में काफी महत्वपूर्ण है.
बुज़ुर्ग महिलाओं का यहाँ पर विशेष उल्लेख होना ज़रूरी है, क्योंकि सम्पूर्ण सेक्स रेशियो या लिंग अनुपात जहां पुरुषों के पक्ष में झुका हुआ है. वहीं इसके विपरीत, 60 वर्ष या उससे उपर यह लिंग अनुपात महिलाओं के पक्ष में है. इसमें 1,065 महिलाएं प्रति 1000 पुरुष दर्ज की गई हैं, जिसके हिसाब से यह महिलाओं के पक्ष में और अधिक झुका हुआ है. 60 – 75 वर्ष के उम्र सीमा की लगभग 68.3% महिलाएं और 75 वर्षों से ऊपर की लगभग 73.3 प्रतिशत महिलायें कभी स्कूल नहीं गई हैं और 8 प्रतिशत ने मात्र अपनी प्राथमिक शिक्षा तक की पढ़ाई की है. इसके साथ ही, ज्य़ादातर बुज़ुर्ग ग्रामीण महिलाओं के एक काफी बड़े वर्ग के पास आय का कोई निश्चित स्रोत नहीं है और वे आर्थिक तौर पर, पूरी तरह से अपने परिवार के अन्य कमाऊ लोगों के ऊपर आश्रित हैं.
वे बुज़ुर्ग औरतें जो विधवा हैं, वे भी इसी तरह के भेदभाव से दो चार हो रही हैं. वर्तमान समय में 70 प्रतिशत से भी ज्य़ादा बुज़ुर्ग महिलायें कृषि एवं अन्य गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं. अक्सर ही ये देखा जाता है कि कि ये बूढ़ी महिलाएं अपने पोते पोतियों के पालन-पोषण और देख-रेख में, साथ ही घर के अन्य बुज़ुर्ग लोगों की देखभाल करते हए अर्थव्यवस्था में जो अदृश्य योगदान करती हैं उसको भी कमतर कर आंका जाता है. एज इंटरनेशनल द्वारा हाल ही में कराये गये एक वैश्विक सर्वेक्षण के अनुसार, वृद्ध औरतें रोजाना 4.3 घंटे का घरेलू कामकाज और अन्य अवैतनिक काम करती हैं. ये रिपोर्ट इन महिलाओँ को ‘गुप्त श्रमशक्ति’ के तौर पर चिन्हित करता है.
हालांकि,भारत में परिवार को वृद्ध एवं बुज़ुर्ग नागरिकों के देखभाल के लिए ज़िम्मेदार एक प्रमुख संस्थान के तौर पर देखा जाता है, लेकिन यहां होने वाली घरेलू आय काफी कम है. इस वजह से कई बार घर के वृद्ध सदस्यों की देखभाल पर होने वाले खर्चे ज्य़ादातर इन परिवारों के ऊपर एक वित्तीय बोझ समान होता है. हाल के वर्षों में, केंद्र एवं राज्य सरकार दोनों ने ही इन वरिष्ठ नागरिकों को लेकर जो चिंता खड़ी हुई है उसे दूर करने के प्रयास तेज़ करने की कोशिश की है. हालांकि, वरिष्ठ नागरिकों का एक बड़ा वर्ग, सरकार द्वारा चलाई जा रही इन ज्य़ादातर योजनाओं का, जागरूकता की कमी की वजह से, फायदा नहीं उठा पा रहा है.
एक निष्कर्ष
भारत में बुज़ुर्ग आबादी का एक काफी बड़ा हिस्सा, आर्थिक रूप से काफी गरीब है. अक्सर ही बुज़ुर्ग व्यक्तियों को 45-59 वर्ष की उम्र सीमा के लोगों की तुलना में काफी कम भुगतान किया जाता है. इन बुज़ुर्ग श्रमिकों की न्यूनतम मासिक आय मात्र 6,670 रुपए है. कम से कम एक बुज़ुर्ग व्यक्ति वाले परिवारों की वार्षिक प्रति व्यक्ति आय एवं मासिक प्रति व्यक्ति खर्च (MPCE) भी 44,901 रुपए एवं 2.948 रुपए मात्र है.
यही कारण है कि, बुजुर्गों की बेहतरी के लिये बनाए गए नीतियों को गरीबी उन्मूलन, पोषण, एवं स्वास्थ्य योजनाओं के साथ ही जोड़ा जाना चाहिए. एक तरफ जहां, हर प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी हमारे बेहतर स्वास्थ्य के लिये अपना योगदान देती है, लेकिन यहां बुज़ुर्गों के संदर्भ में इसके ज्य़ादातर मामले गरीबी, मुफ़लिसी और काफी हद तक उनका शोषण किये जाने से संचालित होती है. इसलिए, भारत के वृद्ध होते नागरिकों एवं निम्न आय वर्ग वाले परिवारों की सहायता के लिए एक व्यापक पेंशन योजना सबसे असरदार उपाय हो सकता है. ये हमारे सीनियर सिटिज़ंस को आय की स्वतंत्रता, बीमारी के वक्त् सुरक्षा, और श्रम बाजार में उन्हें बेहतर भुगतान एवं वेतन दिये जाने को लेकर उपयुक्त माहौल बनायेगी.
स्वास्थ्य पर बढ़ते खर्च को संसाधनों की कमी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. बल्कि स्वास्थ्य सेक्टर के क्षेत्र में किया जाने वाले किसी भी प्रकार का निवेश विकास की कुंजी साबित होगा और इसके साथ ही वो देश की युवा आबादी को बेहतर रोज़गार के मौके देगा.
स्वास्थ्य एवं री-स्किलिंग या दोबारा ट्रेनिंग देने के क्षेत्र में भी निवेश की आवश्यकता है. शहरी कुलीन वर्ग के पास बेहतर स्वास्थ्य सुविधा होती हैं, परंतु भारत की अधिकांश बुज़ुर्ग आबादी का एक तबका, खासकर के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों के सामने अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी है. इसलिए, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को और भी मज़बूत किया जाना चाहिए और देश की स्वास्थ्य नीति को अपना ध्यान जेरीएट्रिक(बुज़ुर्गों) केयर पर केंद्रित करनी चाहिए. भारत का वर्तमान स्वास्थ्य सेवा मॉडल मुख्य रूप से व्यक्तिगत बीमारियों पर केंद्रित है, बजाय इसके कि वो एक व्यापक बुज़ुर्ग स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम पर ध्यान दे, जैसा कि आमतौर पर मातृ एवं बाल स्वास्थ्य सेवाओं को दिया जाता हैदेश को अपनी स्वास्थ्य सेवा देने वाली पेशेवर आबादी को और भी बेहतर ट्रेनिंग दिए जाने की ज़रूरत पर भी ध्यान देना चाहिए. हालांकि, स्वास्थ्य पर बढ़ते खर्च को संसाधनों की कमी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. बल्कि स्वास्थ्य सेक्टर के क्षेत्र में किया जाने वाले किसी भी प्रकार का निवेश विकास की कुंजी साबित होगा और इसके साथ ही वो देश की युवा आबादी को बेहतर रोज़गार के मौके देगा. जैसा कि पहले बताया गया है कि, ऐसे वरिष्ठ नागरिक भी हैं जो काफी शिक्षित हैं और सेवानिवृत्ति के बाद भी काफी अहम आर्थिक योगदान दे रहे हैं. अगर उन्हें सीखने के नये अवसर, खासकर- नए कौशल एवं डिजिटल टेक्नोलॉजी का ज्ञान दिया जा सके तो, कई अन्य वरिष्ठ नागरिक आर्थिक तौर पर स्वतंत्र हो पायेंगे एवं उन्हें जीवन जीने का एक मकसद मिल पायेगा.
सारांश में यही कहा जा सकता है कि, भारत को इस तेज़ गति से बढ़ती जनसांख्यिकी परिवर्तन पर किसी तरह का डर फैलाने के एक बजाये तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या समूह की सामान्य घटना को ‘नई जनसंख्या टाइम बम’ जैसे अपमानजनक शब्दों से नहीं परिभाषित किया जाना चाहिये. बल्कि, इसे पूरी तरह से त्याग दिया जाना चाहिये.
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