Published on Dec 09, 2021 Updated 0 Hours ago

नीतियों में वो कौन से बदलाव हैं जिन्हें भारत को अपनाने की ज़रूरत है ता कि ये सुनिश्चित किया जा सके कि भारत हरित परिवर्तन से मिलने वाले अवसरों का पूरा इस्तेमाल कर सके?

CARBON EMISSION: भारत में कार्बन उत्सर्जन में स्थायी कमी लाने के लिए कैसा हो नीतिगत रास्ता

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ये लेख निबंध श्रृंखला हमारे हरित भविष्य को आकार देना: नेट-ज़ीरो बदलाव के लिए रास्ते और नीतियां का हिस्सा है.


परिचय

जलवायु परिवर्तन भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण ख़तरा है. दूसरे असर के अलावा तेज़ गर्मी, स्वच्छ पानी की आपूर्ति में कमी, सूखी मिट्टी, बेहद तीव्र चक्रवात, मॉनसून और समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी जलवायु परिवर्तन का निशानी हैं. लेकिन इसके साथ-साथ ग्लोबल वॉर्मिंग भारत के लिए आर्थिक अवसर का निर्माण करता है क्योंकि कार्बन का उत्सर्जन कम करने के लिए ज़रूरी नई तकनीकों और उद्योगों को निश्चित तौर पर विकसित, उत्पादित और बड़े मात्रा में असरदार तरीक़े से इस्तेमाल करना चाहिए. ये लेख भारत में कार्बन उत्सर्जन में काफ़ी कमी के लिए विशिष्ट और ठोस नीतिगत रास्तों की पहचान करता है. जिस वक़्त भारत मध्य शताब्दी के आगे नेट-ज़ीरो अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव के लिए प्रतिस्पर्धी बन रहा है, उस समय इस लेख में भारत के आर्थिक अवसरों, जिनमें नौकरी का निर्माण शामिल है, पर ज़ोर दिया गया है.

ये लेख भारत में कार्बन उत्सर्जन में काफ़ी कमी के लिए विशिष्ट और ठोस नीतिगत रास्तों की पहचान करता है. जिस वक़्त भारत मध्य शताब्दी के आगे नेट-ज़ीरो अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव के लिए प्रतिस्पर्धी बन रहा है, उस समय इस लेख में भारत के आर्थिक अवसरों, जिनमें नौकरी का निर्माण शामिल है, पर ज़ोर दिया गया है. 

भारत की जलवायु और विकास चुनौतियां

अगर दुनिया की तरफ़ से तुरंत कार्रवाई नहीं होगी तो मौजूदा नीतियों के बाद भी इस शताब्दी के आख़िर तक तापमान 4.9 डिग्री सेल्सियस पहुंच जाएगा.[1] पेरिस समझौते के तहत 1.5 डिग्री सेल्सियस वॉर्मिंग के वांछित लक्ष्य को हासिल करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में काफ़ी ज़्यादा और तेज़ कमी की ज़रूरत है. औद्योगीकृत देशों को हर हाल में तेज़ी से नेट-ज़ीरो ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन पर पहुंचना चाहिए. भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक विकास को ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन से अलग करने की ज़रूरत है ताकि अपनी अर्थव्यवस्था को कम कार्बन के रास्ते पर डाला जा सके. हालांकि जलवायु से लाचार दुनिया में जब ये अर्थव्यवस्थाएं आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं तो उन्हें विकास की असाधारण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. भारत की जलवायु नीति से जुड़ी चुनौतियां लाखों नई नौकरियों के तुरंत सृजन, आमदनी बढ़ाने और अगले कुछ दशकों में सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर करने की ज़रूरत के संदर्भ में मौजूद हैं. भारत की 138 करोड़ की आबादी में नौजवान क़रीब एक-तिहाई हैं और उनमें से एक-तिहाई हर वक़्त बेरोज़गार रहते हैं (मौजूदा युवा बेरोज़गारी दर 32 प्रतिशत है). इसके अलावा, भारत की मौजूदा 50 करोड़ की श्रमिक संख्या में से 80 प्रतिशत लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं. इसलिए कार्बन कम करने की किसी भी कोशिश में नौकरियों का अवसर उत्पन्न करने के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन पर निर्भर उद्योगों, जिनके पतन की उम्मीद है, में नौकरी गंवाने वाले लोगों के लिए वैकल्पिक आजीविका की तलाश भी की जानी चाहिए.

भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक विकास को ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन से अलग करने की ज़रूरत है ताकि अपनी अर्थव्यवस्था को कम कार्बन के रास्ते पर डाला जा सके. 

निश्चित तौर पर भारत की ऊर्जा प्रणाली में पिछले दो दशकों में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. नवीकरणीय ऊर्जा की तकनीक को बढ़ावा देने की सरकार की कोशिश ऊंचे स्तर पर नीतिगत समर्थन दिखाती है. नीतिगत लक्ष्य महत्वाकांक्षी है, इसका उद्देश्य 2030 तक बिजली प्रणाली में 450 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा को डालना है. 2017 में भारत ने पहली बार इतिहास में कोयले से ज़्यादा नवीकरणीय ऊर्जा को जोड़ा. थर्मल पावर की क्षमता का अनुपात 1990 के 64.8 प्रतिशत से घटकर 2018 में 57.3 प्रतिशत हो गया जबकि इसी अवधि के दौरान नवीकरणीय ऊर्जा का अनुपात बढ़कर 21 प्रतिशत हो गया. लेकिन अभी भी महत्वपूर्ण स्वच्छ ऊर्जा तकनीक में भारत का मौजूदा बाज़ार हिस्सा संभावना से काफ़ी नीचे हैं. वैश्विक बाज़ार में सौर ऊर्जा में भारत का हिस्सा 10 प्रतिशत है जबकि पवन ऊर्जा में 5 प्रतिशत और बैट्री स्टोरेज में 1 प्रतिशत है. एक बेहद कम कार्बन उत्सर्जन/नेट-ज़ीरो दुनिया में सौर ऊर्जा के मामले में भारत का हिस्सा 30 प्रतिशत, पवन ऊर्जा में 15 प्रतिशत और बैट्री बाज़ार में 12 प्रतिशत होनी चाहिए. मौजूदा नीतियों और इस बाज़ार संभावना तक पहुंचने के लिए जिन नीतियों की ज़रूरत है, उनके बीच एक अंतर मौजूद है.

एक ख़ास चुनौती जिससे आज भारतीय नीति निर्माता जूझ रहे हैं, वो ये सवाल है कि क्या भारतीय सामान और सेवाएं व्यापार में बदलाव वाली कार्बन कम करने की नीति के उभरते वैश्विक परिदृश्य में प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं या नहीं. इनमें यूरोपीय संघ (ईयू) की प्रस्तावित कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मेकेनिज़्म (सीबीएएम) शामिल है जो 41 अरब अमेरिकी डॉलर के भारतीय इस्पात निर्यात के लिए ख़तरा है. साथ ही घरेलू नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादकों को नीतिगत समर्थन को लेकर व्यापार विवाद का उभरता दुर्भाग्यपूर्ण रुझान भी है. इससे जुड़ा एक सवाल है कि क्या भारत काफ़ी हद तक कार्बन कम करने की तकनीक में इनोवेशन और उत्पादन के मामले में वैश्विक मार्गदर्शक बन सकता है. उभरती तकनीक जैसे कार्बन कैप्चर एवं स्टोरेज (सीसीएस) और ग्रीन हाइड्रोजन के लिए आज उच्च दाम वाले सिग्नल और रिसर्च एंड डेवलपमेंट निवेश की ज़रूरत होगी जिससे कि शताब्दी के मध्य तक इसका आर्थिक फ़ायदा मिल सके.

एक ख़ास चुनौती जिससे आज भारतीय नीति निर्माता जूझ रहे हैं, वो ये सवाल है कि क्या भारतीय सामान और सेवाएं व्यापार में बदलाव वाली कार्बन कम करने की नीति के उभरते वैश्विक परिदृश्य में प्रतिस्पर्धा कर सकती हैं या नहीं. 

कार्बन उत्सर्जन में काफ़ी कमी के लिए नीतिगत रास्ता

एक समृद्ध कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था के लिए भारत का रास्ता तीन तरह की रणनीतियों पर निर्भर है: कम कार्बन वाले उद्योगों में रोज़गार सृजन;  मज़बूत कम कार्बन वाला आर्थिक विकास; और शिखर पर पहुंचने के बाद ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में इस तरह से कमी कि उससे विकास की आकांक्षाओं में रुकावट नहीं आए.

हरित नौकरी का सृजन वास्तव में मज़बूत रहा है. हालांकि दूसरे देशों के विशाल घरेलू बाज़ार से तुलना करने पर ये अभी भी कम है. भारत को अभी भी कोयला खदान और दूसरे ऊर्जा उद्योगों में काम करने वाले लोगों को न्यायसंगत तरीक़े से हल्के उद्योगों या हरित नौकरियों में परिवर्तित करने के लिए एक नीति बनाना है. वैसे तो भारत की नीतिगत कोशिशों के कारण नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में उल्लेखनीय रूप से प्रतिस्पर्धी बिजली की क़ीमत हासिल करने में कामयाबी मिली है लेकिन वैश्विक नवीकरणीय ऊर्जा के वैल्यू चेन में हिस्सेदारी के मामले में भारत ने अपेक्षाकृत ख़राब प्रदर्शन किया है.

वैसे तो आने वाले वर्षों के लिए विकास का अनुमान ज़्यादा आशावादी है लेकिन विकास के बावजूद महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर चिंता बरकरार है. महंगाई और बेरोज़गारी आंशिक तौर पर महामारी से पहले की समस्या हैं

उदाहरण के लिए भारत का सौर फ़ोटोवोल्टेक (पीवी) प्रसार मुख्य रूप से चीन से आयातित उपकरणों पर निर्भर है जिसके नीतिगत दृष्टिकोण ने घरेलू स्तर पर उत्पादन और फैलाव- दोनों मामलों में रोज़गार के बड़े लाभ का निर्माण किया है. 2019 तक भारत ने चीन के मुक़ाबले प्रति मेगावॉट आधे से भी कम नौकरियों (3.61 नौकरियां प्रति मेगावॉट बनाम 6.57 नौकरियां प्रति मेगावॉट) का निर्माण किया है (प्रति मेगावॉट स्थापित क्षमता पर पूर्णकालिक नौकरियां). नवीकरणीय ऊर्जा के प्रसार में लागत कम करने के वितरण कंपनियों के इकलौते लक्ष्य के साथ-साथ केंद्र सरकार के द्वारा दूसरी चीज़ों के मुक़ाबले कम लागत की तरफ़ झुकाव की वजह से[2] औद्योगिक विकास और रोज़गार सृजन के लक्ष्य पीछे छूट गए हैं.

भारत का आर्थिक विकास बेहद साधारण है, ख़ास तौर से उस वक़्त जब भारत कोविड-19 महामारी से उबरने के लिए जूझ रहा है. वैसे तो आने वाले वर्षों के लिए विकास का अनुमान ज़्यादा आशावादी है लेकिन विकास के बावजूद महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर चिंता बरकरार है. महंगाई और बेरोज़गारी आंशिक तौर पर महामारी से पहले की समस्या हैं.[3] भारतीय सरकार के द्वारा हरित बहाली की रणनीति भी अभी तक स्पष्ट नहीं की गई है. ऐतिहासिक तौर पर भारत की “उपर्युक्त सभी” ऊर्जा नीति- जीवाश्म ईंधन और नवीकरणीय ऊर्जा को एक साथ प्रोत्साहन- को न्यायसंगत बताया गया क्योंकि ऊर्जा तक पहुंच को ज़बरदस्त रूप से सुधारने की साफ़ तौर पर ज़रूरत थी. लेकिन इस दृष्टिकोण का लाभ असमंजस पैदा करने वाले अलग-अलग ऊर्जा के उप क्षेत्रों की लागत के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन की साफ़ तौर पर बढ़ती लागत से ख़त्म हो जाता है.

इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण कोयला से चलने वाले कुछ पावर प्लांट हैं जिन्हें अच्छी तरह से काम से मुक्ति के ज़रिए अरबों डॉलर की संभावित बचत (आज से शुरू) के बावजूद आगे बढ़ाया जाता है. दूसरी तरफ़ भारत के ऊर्जा भविष्य को स्पष्ट करने से रोज़गार, आमदनी और सार्वजनिक स्वास्थ्य में विशाल फ़ायदे की संभावना होगी. इस लेख के लेखकों की चल रही रिसर्च इस संभावना की मात्रा निर्धारित करती है और उसे प्रासंगिक बनाती है.

भारत को एक साथ मज़बूत आर्थिक विकास, रोज़गार सृजन और उत्सर्जन में कमी को हासिल करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना होगा जिसमें जलवायु नीतियों के व्यापक क्रम को लागू करने की ज़रूरत होगी. 

उस रिसर्च के साथ-साथ दूसरे विश्लेषकों का रिसर्च संकेत देती है कि भारत में उत्सर्जन की मौजूदा स्थिति धीमी लेकिन लगातार बढ़ोतरी की है. इसकी वजह मौजूदा सीमित नीतियां हैं जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जन पर असर डालती हैं. भारत में राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 150 विशिष्ट नीतियां हैं जो हर क्षेत्र- ज़मीन का इस्तेमाल, कृषि, बिजली, परिवहन, रिहायशी, व्यावसायिक और औद्योगिक- में भारत की ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन नीति को प्रभावित करती हैं. इनमें से कुछ नीतियां जैसे नवीकरणीय ऊर्जा के प्रसार के लिए पूंजीगत सब्सिडी, राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन, परफॉर्म अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) पायलट ऊर्जा दक्षता व्यापारिक योजना, और एलईडी रोशनी कार्यक्रम ने भारत के उत्सर्जन को सीधे तौर पर सीमित कर दिया है.[4] कई अन्य नीतियां अपनी स्वैच्छिक और सामान्य स्वरूप की वजह से उत्सर्जन कम करने में महत्वपूर्ण प्रभाव शायद ही डाल पाएंगी. राष्ट्रीय स्तर पर भारत का उत्सर्जन दुनिया में तीसरा सबसे ज़्यादा है लेकिन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के मामले में बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कम में से एक बना हुआ है. कई नीतिगत अंतर मौजूद हैं जिनमें से प्रमुख है व्यापक जलवायु क़ानून की अनुपस्थिति.

नीतिगत निहितार्थ

अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) की प्रतिबद्धता में भारत की कोशिश कई मायनों में प्रशंसनीय है. आख़िर, भारत उन गिने-चुने देशों में से है जिसका एनडीसी लक्ष्य और चुनौतियां कोपनहेगन के 2 डिग्री सेल्सियस के उद्देश्य के अनुरूप हैं. लेकिन इसके बावजूद भारत के उत्सर्जन की राह मौजूदा नीतियों के तहत शिखर पर पहुंचने का संकेत नहीं दे रही है और उसकी नीतियां पेरिस समझौते के तहत तय 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पाने के लिए काफ़ी अपर्याप्त हैं. भारत को एक साथ मज़बूत आर्थिक विकास, रोज़गार सृजन और उत्सर्जन में कमी को हासिल करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना होगा जिसमें जलवायु नीतियों के व्यापक क्रम को लागू करने की ज़रूरत होगी. इस लेख के लेखकों का रिसर्च संकेत देता है कि अगर उचित नीतियां लागू की जाएं तो इस शताब्दी के मध्य तक भारत लाखों नई नौकरियों का सृजन कर सकता है, सामान्य से बढ़कर महत्वपूर्ण आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकता है, और देश में ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में दो-तिहाई से ज़्यादा कमी कर सकता है. निम्नलिखित अनुच्छेद में भारत के लिए विशिष्ट संस्तुति हैं जिनके सहारे भारत शताब्दी के मध्य तक कम कार्बन वाले विकास की राह पर चल सकता है.

परिवहन और उद्योग सेक्टर में कार्बन कम करना बिजली और रिहायशी/व्यावसायिक सेक्टर के मुक़ाबले ज़्यादा जटिल है क्योंकि इनमें जो तकनीकी विकल्प हैं उनका वैश्विक स्तर पर लागत के मामले में प्रतिस्पर्धी बनना अभी बाक़ी है 

व्यापक अर्थव्यवस्था वाला भारत कर सकता है:

  • जीवाश्म ईंधन की बिक्री से कर राजस्व को कार्बन उत्सर्जन में स्थानांतरित करे. एक कार्बन क़ीमत की नीति को लागू करे जो 2050 तक कार्बन उत्सर्जन पर प्रत्यक्ष कर को 0 से 6000 रुपये प्रति टन बढ़ाए. ऐसा करने से भारतीय सरकार का राजस्व कम अवधि में बढ़ सकता है. इससे सरकार की बैलेंस शीट मज़बूत होगी.

बिजली सेक्टर में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए भारत कर सकता है:

  • कोयले से चलने वाले बिजली घरों को अच्छे तरीक़े से ख़त्म करे और ट्रांसमिशन एवं डिस्ट्रीब्यूशन इंफ्रास्ट्रक्चर, मांग के जवाब, और सामान्य पूर्वानुमान से दोगुनी भंडारण क्षमता (2050 तक 450 गीगावॉट) में महत्वपूर्ण निवेश करे. इस तरह की कोशिशें भारत की बिजली ग्रिड को ज़्यादा लचकदार बनने और नवीकरणीय ऊर्जा से लैस भविष्य के लिए तैयार करेगी.
  • शताब्दी के मध्य तक ग़ैर-जीवाश्म ईंधन के स्रोतों से 90 प्रतिशत बिजली हासिल करने के लिए एक कार्बन मुक्त बिजली मानक को लागू कीजिए. ये लक्ष्य मौजूदा सामान्य हालात के तहत 70 प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य से 20 बेसिस प्वाइंट ज़्यादा है.
  • महंगी उभरती हुई तकनीकों जैसे ऑफशोर विंड को अगले कुछ वर्षों तक सब्सिडी दीजिए और जैसे ही ये तकनीक लागत के मामले में प्रतिस्पर्धी बन जाए सब्सिडी में कटौती कर दीजिए.

ट्रांसपोर्ट सेक्टर में भारत कर सकता है:

  • इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री के आदेश को लागू करने के साथ इलेक्ट्रिक गाड़ियों के चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए.
  • इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बिक्री का ऐसा आदेश लागू हो जो समय बीतने के साथ बढ़े और ख़रीद में मिलने वाले प्रोत्साहन में धीरे-धीरे कमी हो ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि यात्री गाड़ी का वर्ग (कार और दो पहिया) शताब्दी के मध्य तक अधिकांशत: इलेक्ट्रिक बन जाए.
  • आने वाले वर्षों में बड़ी गाड़ियों के लिए सख़्त ईंधन आर्थिक मानक की स्थापना हो. इसके साथ दीर्घकालीन नीति भी बने जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भर बड़ी गाड़ियों के वर्ग को इलेक्ट्रिक और हाइड्रोजन गाड़ी के वर्ग में बदले.
  • कम-से-कम एक-तिहाई यात्री गाड़ियों की मांग को बिजली से चलने वाले सार्वजनिक परिवहन के विकल्प में बदला जाए.

औद्योगिक सेक्टर में भारत कर सकता है:

  • परफॉर्म, अचीव और ट्रेड (पीएटी) योजना को पायलट प्रोग्राम से विस्तार दिया जाए और सीमेंट, लोहा, स्टील एवं रसायन उद्योग में ऊर्जा की ख़पत को 25 प्रतिशत कम किया जाए.
  • एक प्रगतिशील कार्बन टैक्स को लागू किया जाए जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता और भी कम करने के लिए उद्योगों को प्रोत्साहन दे. इसमें भौतिक कुशलता में सुधार और बिजली से चलने में परिवर्तन एवं हरित हाइड्रोजन का इस्तेमाल करना चाहिए.

परिवहन और उद्योग सेक्टर में कार्बन कम करना बिजली और रिहायशी/व्यावसायिक सेक्टर के मुक़ाबले ज़्यादा जटिल है क्योंकि इनमें जो तकनीकी विकल्प हैं उनका वैश्विक स्तर पर लागत के मामले में प्रतिस्पर्धी बनना अभी बाक़ी है. लेकिन ये चुनौती तकनीकी लागत कम होने तक इंतज़ार करने की वजह नहीं है. भारत इस चुनौती का इस्तेमाल इन तकनीकों के इनोवेशन और उत्पादन में निवेश में कर सकता है और घरेलू क्षमता का निर्माण कर घरेलू और वैश्विक- दोनों बाज़ारों में इलेक्ट्रिक वाहनों, बैट्री स्टोरेज और औद्योगिक सेक्टर में कार्बन कम करने के लिए ग्रीन हाइड्रोजन से जुड़े उपकरणों की सेवा करने में कर सकता है. औद्योगिक सेक्टर को जल्द कार्बन से मुक्ति दिलाने से भारत को सबसे आगे होने का फ़ायदा मिल सकता है और इससे कार्बन सीमा सामंजस्य दाम की दुनिया में भारत की प्रतियोगितात्मकता बढ़ने की उम्मीद है. इलेक्ट्रिक वाहनों के चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर, औद्योगिक ऊर्जा क्षमता में सुधार से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश से 2030 के बाद महत्वपूर्ण मात्रा में अच्छी प्रत्यक्ष नौकरी के निर्माण का अनुमान है. लेकिन इसके लिए सरकार को आज ही बदलाव शुरू करते हुए ज़रूरी नीतियों को लागू करना चाहिए.

पहली नीति वो हो जो अगले तीन दशक के दौरान प्रदूषण फैलाने और बेअसर तकनीकों (जैसे कोयला से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट, गैसोलीन पर चलने वाली गाड़ियां) को ख़त्म करने के लिए तुरंत स्पष्ट संकेत दे. 

नवीकरणीय ऊर्जा, कम कार्बन परिवहन और ऊर्जा सक्षम इमारतों और उद्योगों के क्षेत्र में भारत की महत्वाकांक्षा का अच्छी तरह ज़िक्र है. इस मामले में आगे बढ़ने के दौरान विपरीत परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ा है और उसका संभावित आर्थिक लाभ अभी पूरी तरह मिलना बाक़ी है. इन दोनों मुद्दों का समाधान करने के लिए मौजूदा नीतियों को बढ़ाने और तीन प्रमुख अतिरिक्त नीतियों के समर्थन की ज़रूरत है.

पहली नीति वो हो जो अगले तीन दशक के दौरान प्रदूषण फैलाने और बेअसर तकनीकों (जैसे कोयला से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट, गैसोलीन पर चलने वाली गाड़ियां) को ख़त्म करने के लिए तुरंत स्पष्ट संकेत दे. दूसरी नीति नए प्रकार का कम कार्बन वाला सरकारी राजस्व बढ़ाना हो जो 2050 तक कार्बन से मिलने वाले राजस्व की भरपाई करे और एक महत्वाकांक्षी विकास और सामाजिक निवेश कार्यक्रम को बनाए रखे. तीसरी और आख़िरी नीति है अगले दशक में कम कार्बन तकनीकों में निवेश को लाने की जो समृद्ध इनोवेशन अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव को सुनिश्चित करे. इन केंद्र-बिंदुओं में बदलाव, जो भारत की मौजूदा महत्वाकांक्षा को और स्थापित करते हैं, जलवायु और भारत के अपने आर्थिक लक्ष्य के लिए ठीक होगा.

रिपोर्ट की पीडीएफ यहां डाउनलोड कीजिए.


Endnotes

[1] Raftery, Adrian E., Alec Zimmer, Dargan MW Frierson, Richard Startz, and Peiran Liu. “Less than 2 C warming by 2100 unlikely.” Nature climate change 7, no. 9 (2017): 637-641.

[2]  Quitzow, Rainer. “Assessing policy strategies for the promotion of environmental technologies: A review of India’s National Solar Mission.” Research Policy 44, no. 1 (2015): 233-243.

; Behuria, Pritish. “Learning from role models in Rwanda: Incoherent emulation in the construction of a neoliberal developmental state.” New Political Economy 23, no. 4 (2018): 422-440.

[3]  Victor, Vijay, Joshy Joseph Karakunnel, Swetha Loganathan, and Daniel Francois Meyer. “From a Recession to the COVID-19 Pandemic: Inflation–Unemployment Comparison between the UK and India.” Economies 9, no. 2 (2021): 73.

[4] Malhotra, Abhishek, Ajay Mathur, Saurabh Diddi, and Ambuj D. Sagar. “Building institutional capacity for addressing climate and sustainable development goals: achieving energy efficiency in India.” Climate Policy (2021): 1-19.

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