Published on Nov 19, 2021 Updated 0 Hours ago

आज दुनिया में कार्बन की रोकथाम से जुड़ी ज़िम्मेदारियां देशों के हिसाब से तय की जाती हैं. ऐसे में एक देश द्वारा दूसरे देश में प्रदूषण का स्थानांतरण जलवायु संरक्षण से जुड़ी इस पूरी क़वायद में अंक हासिल करने का रणनीतिक ज़रिया मालूम होता है.

कार्बन उत्सर्जन में गिरावट: एक समसामयिक पड़ताल

पृष्ठभूमि

ज़्यादातर जलवायु वैज्ञानिकों का विचार है कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन के सबसे ख़तरनाक प्रभावों से बचने के लिए 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के उत्सर्जन को कम से कम 50 प्रतिशत घटाना ज़रूरी है. दुनिया के देशों के सामने मौजूदा जीवनस्तर को बरकरार रखते हुए कार्बन उत्सर्जन से जुड़े इस लक्ष्य को हासिल करने की बहुत बड़ी चुनौती है. ऐसे में तमाम देशों को जहां तक संभव हो, कार्बन से तौबा करनी होगी. CO2 के उत्सर्जन की सघनता (सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की एक इकाई के उत्पादन से पैदा होने वाला कार्बन डाइऑक्साइड) में प्रति वर्ष 4 प्रतिशत से ज़्यादा की कमी लाना बेहद ज़रूरी है. फ़ौरी तौर पर भले ही ऐसा लगता है कि ये लक्ष्य हासिल किया जा सकता है, लेकिन आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं. 1860 के दशक के बाद से लगातार ये दर औसतन 1.3 प्रतिशत सालाना पर अटकी हुई है. ये 4 प्रतिशत की आवश्यक दर से एक तिहाई से भी कम है. COउत्सर्जन के स्तर में अबतक देखी गई ये गिरावट नीतिगत स्तर पर क्रांतिकारी दख़लंदाज़ियों के बिना ही हासिल हुई है.  इस कालखंड में हाइड्रोजन के मुक़ाबले कार्बन के ऊंचे अनुपात वाले ईंधनों जैसे लकड़ी के स्थान पर कार्बन से हाइड्रोजन के निम्न अनुपात वाले सस्ते ईंधनों जैसे कोयले, तेल और गैस का इस्तेमाल होने लगा. मौजूदा वक़्त में नीतियों को कृत्रिम रूप से बदलकर इन रुझानों को परिवर्तित करने की दरकार है. आज कोई भी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि जीवाश्म ईंधनों पर आधारित वर्तमान जीवनशैली में कोई खलल डाले बिना हमें किन वैकल्पिक ईंधनों की ओर रुख़ करना चाहिए.

मौजूदा वक़्त में नीतियों को कृत्रिम रूप से बदलकर इन रुझानों को परिवर्तित करने की दरकार है. आज कोई भी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं है कि जीवाश्म ईंधनों पर आधारित वर्तमान जीवनशैली में कोई खलल डाले बिना हमें किन वैकल्पिक ईंधनों की ओर रुख़ करना चाहिए. 

ढांचागत बदलाव की दरकार

2010 में भारत ने CO2 की सघनता को 2020 तक 2005 के स्तर के मुक़ाबले 20-30 फ़ीसदी कम वाले स्तर पर लाने का वचन दिया था. ये लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत को उत्सर्जन के स्तर में सालाना औसतन 2 प्रतिशत तक की कमी लाने की दरकार थी. भारत की CO2 उत्सर्जन सघनता 2005 के 1.005 से गिरकर 2020 में 0.849 के स्तर पर पहुंच गई. गिरावट की इस दर का अगर सालाना हिसाब करें तो ये क़रीब 1.03 प्रतिशत होता है. इस कालखंड में डॉलर के स्थिर मूल्य पर COउत्सर्जन की सघनता में कुल 15 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई. 2015 में भारत ने पेरिस समझौते में अपने प्रस्ताव के ज़रिए इस मोर्चे पर और भी महत्वाकांक्षी लक्ष्य सामने रखा. भारत ने 2030 तक CO2 की सघनता को  2005 के स्तर के मुक़ाबले 33-35 फ़ीसदी तक घटाने का वचन दिया. भारत पूरी मज़बूती से इस लक्ष्य की प्राप्ति की ओर आगे बढ़ रहा है. अगर कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता में हो रही गिरावट का मौजूदा रुझान ऐसे ही बरकरार रहे तो भारत इस लक्ष्य को समय से पहले ही प्राप्त कर सकता है. और तो और हो सकता है कि भारत लक्ष्य से आगे भी निकल जाए.

आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के कुछ देशों ने CO2 उत्सर्जन की सघनता के निम्न दर हासिल किए हैं. हालांकि ज़रूरी नहीं है कि उनकी ये उपलब्धि वैकल्पिक ईंधनों की ओर रुख़ करने का या ईंधन के इस्तेमाल में बढ़ी हुई कुशलता का नतीजा हो.  OECD देशों में डिकार्बनाइज़ेशन की दर की ऐतिहासिक पड़ताल करने वाले अध्ययन से यही परिणाम सामने आता है. ये सही है कि अर्थव्यवस्था में आए ढांचागत बदलावों का इन रुझानों के पीछे बड़ा हाथ रहा है. कुल मिलाकर अध्ययन से पता चलता है कि हालिया इतिहास में डिकार्बनाइज़ेशन में राष्ट्रीय स्तर पर 4 प्रतिशत या उससे ज़्यादा की दर हासिल करने की कोई मिसाल नहीं मिलती. कार्बन से मुक्ति पाने की दर OECD के 26 देशों में 1976 से 2006 के बीच टिकाऊ स्तर पर बनी रही. इस कालखंड में प्रति यूनिट जीडीपी पर CO2 उत्सर्जन की दर  में स्वीडन में 3.6 फ़ीसदी सालाना के हिसाब से गिरावट दर्ज की गई. वहीं दूसरी ओर पुर्तगाल की अर्थव्यवस्था में प्रति यूनिट जीडीपी पर CO2 उत्सर्जन की दर  में सालाना 0.7 फ़ीसदी की बढ़ोतरी देखने को मिली.  OECD के सभी 26 सदस्य देशों का अन-वेटेड औसत दर सालाना 1.5 फ़ीसदी था. ये आंकड़ा वैश्विक स्तर पर डिकार्बनाइज़ेशन की दर (1.3 प्रतिशत सालाना) से सिर्फ़ 16.5 प्रतिशत ही ज़्यादा था.

OECD के 26 सदस्य देशों में से सिर्फ़ 5 देशों ने ही दीर्घकालिक वैश्विक औसत से दोगुनी से ज़्यादा दर हासिल करने में कामयाबी पाई है. 

OECD के 26 सदस्य देशों में से सिर्फ़ 5 देशों ने ही दीर्घकालिक वैश्विक औसत से दोगुनी से ज़्यादा दर हासिल करने में कामयाबी पाई है. सतत रूप से डिकार्बनाइज़ेशन की क़वायद के ऐतिहासिक स्वरूप में सफलता पाने वाले देशों में स्वीडन (सालाना 3.6 फ़ीसदी), आयरलैंड (सालाना 3.2 प्रतिशत), यूनाइटेड  किंगडम (यूके) और फ्रांस (दोनों ही 2.8 प्रतिशत) और बेल्जियम (2.6 फ़ीसदी) शामिल हैं. 6 और देशों ने वैश्विक औसत दर से 50 से 100 फ़ीसदी तक की ज़्यादा दर प्राप्त करने में कामयाबी पाई. ये देश हैं- जर्मनी (2.5 फ़ीसदी सालाना), अमेरिका, डेनमार्क और पोलैंड (तीनों 2.3 फ़ीसदी), हंगरी और नीदरलैंड (2.0 प्रतिशत).

स्वीडन और फ्रांस के विपरीत आयरलैंड और यूके ने डिकार्बनाइज़ेशन के लिए मुख्य रूप से ऊर्जा की गहनता पर निर्भर रहने की नीति अपनाई. आयरलैंड में तक़रीबन 89 फ़ीसदी और यूके में 78 प्रतिशत डिकार्बनाइज़ेशन के पीछे प्रति इकाई जीडीपी में ऊर्जा के इस्तेमाल में लाई गई कमी का हाथ रहा. आम तौर पर ऊर्जा की सघनता में सुधार को अंतिम उपयोगकर्ता के संदर्भ में ऊर्जा की कार्यकुशलता के संकेत के तौर पर देखा जाता है. हालांकि ज़रूरी नहीं है कि ये बात सच हो. विकास के रास्ते पर चल रही अर्थव्यवस्थाओं में ऊर्जा का सघन रूप से इस्तेमाल करने वाले कृषि या उद्योग क्षेत्र की जगह सेवा क्षेत्र का महत्व बढ़ता जाता है. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों की बनावट में ऐसे बदलाव आर्थिक उत्पादन की ऊर्जा सघनता को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर सकते हैं. ऊर्जा की सघनता के रुझानों में बदलावों से बिजली उत्पादन तकनीकों की ऊर्जा कार्यकुशलता में सुधारों का असर दिखने लगता है. हालांकि ऐसे उपाय ऊर्जा की आपूर्ति पक्ष से जुड़ी नीतियों और कारकों पर निर्भर करते हैं.

यूके के संदर्भ में दोनों ही कारकों की मौजूदगी दिखाई दी थी. यूके की जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा 1971 में 28 फ़ीसदी था. 1971 के मुक़ाबले 2006 में ये हिस्सा 59 फ़ीसदी गिरकर 11 प्रतिशत पर पहुंच गया. अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र के हिस्से की बात करें तो OECD देशों में आई औसत गिरावट की अपेक्षा यूके में इस क्षेत्र में आई गिरावट तक़रीबन दोगुनी रही. यूके की जीडीपी के हिस्से के तौर पर आयात में भी उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई. 1971 में ये अनुपात 21 प्रतिशत था जो 2006 में बढ़कर 30 प्रतिशत तक पहुंच गया. इस कालखंड में OECD के दूसरे देशों में भी आयात में बढ़ोतरी के लगभग ऐसे ही रुझान देखने को मिले.

1990 के दशक में संसाधनों के स्वरूप में बदलाव

इतना ही नहीं 1990 के दशक में यूके में बिजली उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले संसाधनों का स्वरूप भी बदल गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर की अगुवाई वाली सरकार ने उत्तरी सागर के नए नवेले गैस क्षेत्रों से मिल रही गैस की भरपूर आपूर्ति के बूते कोयला खदान संघों को सबक सिखाने की ठान ली. दरअसल उस समय ब्रिटेन में ज़्यादातर बिजली कोयला आधारित संयंत्रों से प्राप्त की जाती थी. ऐसे में ‘डैश फ़ॉर गैस’ नीति के ज़रिए कोयला आधारित बिजली उत्पादन प्रक्रिया से आगे निकलकर प्राकृतिक गैस से बिजली का उत्पादन किया जाने लगा. कोयले के मुक़ाबले प्राकृतिक गैस से कार्बन उत्सर्जन काफ़ी कम होता है. लिहाज़ा ‘डैश फ़ॉर गैस’ नीति ने यूके में ऊर्जा की आपूर्ति के संदर्भ में डिकार्बनाइज़ेशन के प्रयासों में बहुत बड़ा योगदान दिया. पुराने पड़ चुके कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को आधुनिक, संयुक्त चक्रीय प्राकृतिक गैस संयंत्रों से बदल दिया गया. पुराने कोयला आधारित संयंत्रों की अपेक्षा इन नए गैस आधारित संयंत्रों की कार्यकारी कुशलता लगभग दोगुनी थी.

 ‘डैश फ़ॉर गैस’ नीति के ज़रिए कोयला आधारित बिजली उत्पादन प्रक्रिया से आगे निकलकर प्राकृतिक गैस से बिजली का उत्पादन किया जाने लगा. कोयले के मुक़ाबले प्राकृतिक गैस से कार्बन उत्सर्जन काफ़ी कम होता है. 

इसी तरह आयरलैंड में भी 1971 से 2006 के बीच के कालखंड में बड़ा आर्थिक बदलाव देखने को मिला. इस पूरी अवधि में आयरलैंड की जीडपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा अपेक्षाकृत स्थिर बना रहा. हालांकि दूसरे क्षेत्रों के मुक़ाबले अपेक्षाकृत अधिक ऊर्जा सघनता वाले कृषि क्षेत्र का जीडीपी में हिस्सा घट गया. 1971 में आयरलैंड की जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 प्रतिशत था, जो 2006 में गिरकर केवल एक फ़ीसदी रह गया. इसी कालखंड में ख़ुदरा और थोक कारोबार और रेस्टोरेंट और होटलों को छोड़कर सेवा क्षेत्र के बाक़ी बचे हिस्सों का जीडीपी में योगदान तक़रीबन दोगुना हो गया. 1971 में इस सेक्टर का आयरलैंड की जीडीपी में हिस्सा 22 प्रतिशत था, जो 2006 में बढ़कर 41 फ़ीसदी हो गया. लिहाज़ा ऐसा कहा जा सकता है कि 1971 के बाद अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की हैसियत में आए इन बदलावों का आयरलैंड की ऊर्जा सघनता में हासिल सुधारों के पीछे बहुत बड़ा हाथ रहा है.

1971 से 2006 के बीच स्वीडन और फ़्रांस में सुधार

1971 से 2006 के बीच स्वीडन और फ़्रांस में ऊर्जा आपूर्ति की कार्बन सघनता में सतत रूप से सुधार देखा गया. सुधारों की दर स्वीडन में 2.5 प्रतिशत और फ़्रांस में 2 फ़ीसदी सालाना रही. OECD के बाक़ी देशों में हासिल कामयाबी के मुक़ाबले स्वीडन और फ़्रांस की दर लगभग दोगुनी थी. दोनों ही देशों ने अपने यहां जीवाश्म ईंधनों की बजाए परमाणु ऊर्जा से बिजली निर्माण को बढ़ावा देकर ये सफलता हासिल की. हालांकि ऊर्जा की सघनता में सतत रूप से 2 फ़ीसदी सालाना से ज़्यादा की दर पर सुधार सिर्फ़ आयरलैंड में देखने को मिला. ज़्यादातर देशों में सुधार की ये दर 1 से 1.5 प्रतिशत सालाना के बीच रही. ग़ौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने कार्बन उत्सर्जन पर क़ाबू पाने की कवायद के भावी हालातों को लेकर अपने पूर्वानुमानों में 2.5 प्रतिशत से ज़्यादा की सालाना दर हासिल करने की कल्पना की थी. ज़ाहिर है ऊर्जा की सघनता पर हक़ीक़त में हासिल कामयाबी इस अनुमान से काफ़ी पीछे रह गई.

ऊर्जा की सघनता में सुधार की सबसे ज़्यादा रफ़्तार उन्हीं देशों में देखने को मिली जिनकी अर्थव्यवस्थाओं  की बनावट और उसमें विभिन्न सेक्टरों की हिस्सेदारी में भारी बदलाव हुआ. ऊर्जा की कार्यकुशलता से जुड़े उपायों को आक्रामक तरीके से हासिल करने की क़वायद का इसमें कोई बहुत बड़ा योगदान नहीं रहा. आयरलैंड, यूके, अमेरिका और पोलैंड जैसे देशों में यही रुझान देखने को मिले. इन अनुभवों से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की हैसियत में आए बदलावों का ऊर्जा सघनता सुधारों के मद्देनज़र बड़ी भूमिका का पता चलता है. ऐसे में ऊर्जा की कार्यकुशलता सुनिश्चित करने वाली नीतियों और प्रयासों का ऊर्जा सघनता के रुझानों पर पड़ने वाले असर की वास्तविक जानकारी पाना कठिन हो जाता है. भारत की आर्थिक विकास यात्रा में भी विभिन्न क्षेत्रों के ढांचागत बनावट में उद्योग की हिस्सेदारी कम होती चली गई है. उद्योगों की जगह ऊर्जा का कम सघनता से इस्तेमाल करने वाले सेवा क्षेत्र की अहमियत बढ़ गई है. हिंदुस्तान में कार्बन डाइऑक्साइड की सघनता को लेकर हासिल कामयाबियों के पीछे ये एक बड़ी वजह रही है.

ऊर्जा की सघनता में सुधार की सबसे ज़्यादा रफ़्तार उन्हीं देशों में देखने को मिली जिनकी अर्थव्यवस्थाओं  की बनावट और उसमें विभिन्न सेक्टरों की हिस्सेदारी में भारी बदलाव हुआ. 

OECD देशों के आंकड़ों को दुनिया के बाक़ी देशों से अलग-थलग करके देखना सही नहीं होगा. इससे झूठी आशावादिता का शिकार होने का ख़तरा रहेगा. हो सकता है कि हमें ऐसा लगे कि डि-कार्बनाइज़ेशन का लक्ष्य आसानी से हासिल किया जा सकता है, लेकिन ये भ्रम का शिकार होने जैसा है. जब हम विश्व को एक संपूर्ण व्यवस्था के तौर पर देखते हैं तो ये साफ़ हो जाता है कि OECD देशों में विनिर्माण से सेवा क्षेत्र की ओर बदलाव को संभव बनाने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण रहा है. दरअसल इन विकसित देशों ने कार्बन सघन विनिर्माण गतिविधियों का रुख़ विकासशील देशों की ओर मोड़ दिया. जापान में तो खुले तौर पर बेहद प्रदूषणकारी उद्योगों को विदेशी धरती पर स्थानांतरित करने की नीति अपनाई जाती रही. यूरोपीय संघ (ईयू) ने भी 1990 से 2008 के बीच औद्योगिक उत्पादन और विनिर्माण से जुड़े कार्यों की दिशा विकासशील देशों की ओर कर दी. इस कालखंड में ईयू द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में हासिल की गई 6 फ़ीसदी की कमी इसी क़वायद का नतीजा थी. इसी अवधि में ईयू द्वारा विकासशील देशों से साबुत कार्बन के आयात में 36 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ. साबुत कार्बन की आपूर्ति का 18 फ़ीसदी हिस्सा चीन से निर्यात किया गया. ज़ाहिर है कि प्रदूषण और उसके स्रोतों के निर्यात से दुनिया में कार्बन उत्सर्जन को कम करने से जुड़ी पूरी क़वायद में कोई मदद नहीं मिलती. इससे सिर्फ़ कार्बन उत्सर्जन या प्रदूषण से जुड़ा अपराध-बोध एक देश से दूसरे देश में स्थानांतरित हो जाता है. दरअसल आज दुनिया में कार्बन की रोकथाम से जुड़ी ज़िम्मेदारियां देशों के हिसाब से तय की जाती हैं. ऐसे में एक देश द्वारा दूसरे देश में प्रदूषण का स्थानांतरण जलवायु संरक्षण से जुड़ी इस पूरी क़वायद में अंक हासिल करने का रणनीतिक ज़रिया मालूम होता है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.