Published on Feb 09, 2022 Updated 0 Hours ago

2022 का बजट भारत की जलवायु परिवर्तन संबंधी महत्वाकांक्षाओं को हासिल करने का निर्णायक मोड़ है. हरित क्षेत्र में निवेश और आविष्कार को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त क़दम उठाए गए हैं 

बजट 2022: हरित विकास और इनोवेशन (नवाचार) के लिए पूंजी की व्यवस्था करना

ये लेख हमारी सीरीज़, बजट 2022: नंबर्स ऐंड बियोंड सीरीज़ का एक हिस्सा है.


ग्लासगो में हुए जलवायु सम्मेलन (COP26) ने कई देशों को जलवायु परिवर्तन संबंधी अपने लक्ष्यों को और ऊंचा करने की ओर बढ़ाने का काम किया है. ये सम्मेलन भारत के लिए भी उस वक़्त एक निर्णायक क्षण बन गया जब भारत ने वर्ष 2070 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का एलान किया. हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ़ तौर पर ये बात भी सबके सामने रखी कि भारत को जलवायु परिवर्तन संबंधी अपने साहसिक लक्ष्य हासिल करने के लिए क़रीब एक ख़रब डॉलर के निवेश की उम्मीद है. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हालांकि अब तक जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पूंजी मुहैया कराने के वादे कम से कम अब तक तो खोखले ही साबित हुए हैं और उन देशों पर दबाव बढ़ाने की ज़रूरत है, जो अपने वादे पूरे नहीं कर रहे हैं. सच तो ये है कि भारत ने कई बहुपक्षीय मंचों पर हरित परिवर्तन के लिए वित्त जुटाने के मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया है.

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हालांकि अब तक जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पूंजी मुहैया कराने के वादे कम से कम अब तक तो खोखले ही साबित हुए हैं और उन देशों पर दबाव बढ़ाने की ज़रूरत है, जो अपने वादे पूरे नहीं कर रहे हैं.

समय के साथ-साथ उम्मीद यही की जा सकती है कि वैश्विक निवेशकों पर ये दबाव उन्हें सच में ज़रूरी क़दम उठाने को बाध्य करेगा. हालांकि, हमें ऐसे निवेश हासिल करने और उनका सही उपयोग करने के लिए घरेलू स्तर पर भी सही माहौल बनाने पर ध्यान देना होगा. कम से कम मौजूदा वित्तीय और कर ढांचा तो ऐसा नहीं है, जो हरित क्षेत्रों में सीधे निवेश के सही संकेत देने वाला हो. हरित परिवर्तन के कुछ दूरगामी प्रभावों, जैसे कि हरित आपूर्ति श्रृंखलाओं के उभरते स्वरूप से निपटने के लिए कुछ और क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है. इस साल के बजट में सरकार की ओर से हरित पूंजी को बढ़ावा देने के लिए सही व्यवस्था बनाने वाले ठोस क़दम उठाए गए हैं. हालांकि, हम इस लेख में तीन उन क्षेत्रों पर रौशनी डालेंगे, जहां पर कुछ और क़दम उठाए जाने की अपेक्षा की जा रही है.

 

विदेशी बैंकों के लिए कॉरपोरेट टैक्स कम करना

भारत में कारोबार कर रहे विदेशी बैंक वैश्विक पूंजी को भारत तक लाने का अच्छा ज़रिया बन सकते हैं, जिनके माध्यम से हरित क्षेत्रों के लिए निवेश जुटाया जा सकता है. लेकिन, भारत के स्वदेशी बैंकों की तुलना में विदेशी बैंक बहुत अधिक टैक्स भरते हैं. विदेशी बैंक की शाखाओं पर 40 प्रतिशत की बुनियादी दर से टैक्स (और सरचार्ज व सेस) लगाया जाता है. जबकि, टैक्स वसूली के मौजूदा क़ानूनों के मुताबिक़, घरेलू बैंकों को टैक्स की कम दर (22 प्रतिशत टैक्स व सरचार्ज और सेस) से कर देना होता है. टैक्स का ये अंतर रिज़र्व बैंक को ये मक़सद हासिल करने में मदद करता है कि विदेशी बैंक भारत में कारोबार के लिए यहां अपने पूर्ण स्वामित्व वाले सहयोगी बैंक स्थापित करें. हालांकि, नियमों संबंधी चुनौतियां और कारोबार की राह में आने वाली दिक़्क़तों ने विदेशी बैंकों को भारत में कारोबार बढ़ाने से रोक रखा है. इसीलिए, भारत में कुल संपत्ति के प्रबंधन में विदेशी बैंकों की कुल जमा हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से भी कम है. इस समय भारत में केवल 46 विदेशी बैंक स्थित हैं और ये सब मिलकर लगभग 300 शाखाएं चलाते हैं.

भारत को छोड़ दें तो, बाक़ी के सभी ब्रिक्स देश और आर्थिक सहयोग व विकास संगठन (OECD) के ज़्यादातर सदस्य देश, विदेशी और स्वदेशी कंपनियों को एक बराबर का दर्जा देते हैं. भारत भी ऐसा करता है तो इससे विदेशी संस्थान भारत में अपने कारोबार को मज़बूती भी देंगे

सरकार को ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि इस मुद्दे को सुलझाया जा सके. दुनिया भर में कॉरपोरेट टैक्स में समानता के चलन के हिसाब से विदेशी और भारतीय बैंकों पर लगने वाले अलग अलग टैक्स की दरें एक समान बनाई जानी चाहिए. भारत को छोड़ दें तो, बाक़ी के सभी ब्रिक्स देश और आर्थिक सहयोग व विकास संगठन (OECD) के ज़्यादातर सदस्य देश, विदेशी और स्वदेशी कंपनियों को एक बराबर का दर्जा देते हैं. भारत भी ऐसा करता है तो इससे विदेशी संस्थान भारत में अपने कारोबार को मज़बूती भी देंगे और उसका विस्तार भी करेंगे. इससे भारत में और भी विदेशी कारोबारी पूंजी आने की राह सुगम होगी.

टैक्स की दरें समान बनाने के साथ साथ विदेशी बैंकों को प्राथमिकता के क्षेत्र को क़र्ज़ देने की व्यवस्था के तहत हरित सेक्टर्स में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश की जानी चाहिए. प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को क़र्ज़ से जुड़े रिज़र्व बैंक के दिशा निर्देशों का मक़सद, खेती, नवीनीकरण योग्य संसाधनों, छोटे, लघु और मध्यम कारोबार जैसे पूंजी की कमी वाले क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने को प्रोत्साहन देना होता है. हाल ही में इसका दायरा बढ़ाकर इसमें स्टार्टअप कंपनियों को भी शामिल किया गया है. शायद लेन-देन की एक अच्छी मिसाल के तौर पर विदेशी बैंकों द्वारा प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को क़र्ज़ देने की मौजूदा सीमा को बढ़ाया जाना चाहिए. इसमें हरित निवेश का हिस्सा भी तय किया जाना चाहिए. मिसाल के तौर पर स्टार्टअप कंपनियों को दिए जाने वाले क़र्ज़ का एक हिस्सा हरित तकनीक अपनाने वाली स्टार्टअप कंपनियों के लिए निर्धारित किया जा सकता है. इससे बड़े स्तर पर इस्तेमाल हो सकने वाली हरित तकनीकों के आविष्कार और इनोवेशन को बढ़ावा दिया जा सकेगा. जलवायु परिवर्तन से निपटने की हमारी कोशिशों में इस क्षेत्र से मदद की काफ़ी संभावनाएं दिखती हैं.


अगर सरकार कार्बन टैक्स लगाती है, तो इससे उसे GDP और टैक्स के अनुपात को सुधारने और अतिरिक्त फंड जुटाने में भी मदद मिलती. इससे कम आमदनी वाले वर्ग पर टैक्स के बोझ को कम किया जा सकता है और हरित व पर्यावरण के लिए मुफ़ीद परियोजनाओं में निवेश को भी बढ़ावा दिया जा सकता है. 

कर प्रणाली में बदलाव करके एक प्रतीकात्मक कार्बन टैक्स को शामिल किया जाए

एक कार्बन टैक्स किसी जीवाश्म ईंधन में कार्बन की मात्रा के आधार पर कार्बन की दर तय करता है. इसे कार्बन उत्सर्जन कम करने का एक असरदार तरीक़ा माना जाता है. 27 राष्ट्रीय और 8 अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में सफलतापूर्वक कार्बन टैक्स की व्यवस्था लागू की गई है; हालांकि भारत में ये एक विवादित मसला बना हुआ है क्योंकि ये राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय है और इसे लागू करने के लिए बहुत जटिल और थकाऊ टैक्स व्यवस्था की ज़रूरत होगी.

वैसे तो कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कई वित्तीय और नियामक उपाय लागू किए गए हैं. लेकिन, ये उपाय बड़े पैमाने पर कोई असर डाल पाने में नाकाम रहे हैं. इसीलिए, बजट के ज़रिए ऐसे उपाय किए जाने पर सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन टैक्स की भूमिका बनाने का मौक़ा मिलता. जो ईंधन के ज़रिए किए जाने वाले कार्बन उत्सर्जन को सीधे तौर पर कम कर पाने में मदद करता. ससे उत्पादकों, निवेशकों और ग्राहकों को ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की तरफ़ आगे बढ़ने का हौसला मिलता.

शक्ति सस्टेनेबल एनर्जी फाउंडेशन और EY द्वारा प्रकाशित एक पेपर में, कार्बन टैक्स लगाकर ईंधन के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन कम करने और वित्तीय राजस्व हासिल करने की अहमियत को साफ़ तौर पर दर्शाया गया है. इससे उन क्षेत्रों पर स्वच्छ ईंधन अपनाने का दबाव बढ़ेगा जो इस समय जीवाश्म ईंधन पर बहुत अधिक निर्भर हैं. ऐसा क़दम उठाकर सरकार नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के इस्तेमाल के लिए सख़्त नीति अपनाने की दिशा में भी आगे बढ़ेगी.

अगर सरकार कार्बन टैक्स लगाती है, तो इससे उसे GDP और टैक्स के अनुपात को सुधारने और अतिरिक्त फंड जुटाने में भी मदद मिलती. इससे कम आमदनी वाले वर्ग पर टैक्स के बोझ को कम किया जा सकता है और हरित व पर्यावरण के लिए मुफ़ीद परियोजनाओं में निवेश को भी बढ़ावा दिया जा सकता है. मिसाल के तौर पर, जापान कार्बन टैक्स से होने वाली आमदनी को कम कार्बन और ऊर्जा की कम खपत वाली तकनीकों में निवेश करता है. वहीं, आयरलैंड कार्बन टैक्स से होने वाली सारी आमदनी को आम बजट में डालकर, श्रमिक करों को और लचीला बनाता है. वहीं दूसरी ओर, डेनमार्क कार्बन टैक्स से होने वाली वसूली का मिला जुला इस्तेमाल करने का मॉडल है. डेनमार्क में कार्बन टैक्स से जमा पूंजी को कुशल ऊर्जा उपयोग वाले क्षेत्रों में निवेश करता है, और इस रक़म का कुछ हिस्सा वो श्रमिकों पर टैक्स का बोझ कम करने के लिए भी करता है.

आदर्श स्थिति तो ये होती कि एक राष्ट्रीय कार्बन टैक्स सबसे असरदार होता. लेकिन, इसके लिए संविधान में संशोधन करने की ज़रूरत पड़ती, जो बहुत लंबी प्रक्रिया है. सरकार को जलवायु परिवर्तन के अपने मध्यम अवधि के लक्ष्य हासिल करने के लिए एक कार्बन टैक्स लागू करने के क़ानून पर सहमति बनाने की योजना पर काम करना चाहिए. हालांकि, फौरी तौर पर नतीजे हासिल करने के लिए GST के वैधानिक दायरे के भीतर कार्बन टैक्स लगाना सबसे सटीक तरीक़ा होगा, और इससे अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को सुधारने का भी एक मौक़ा मिलेगा. मौजूदा स्वरूप में जहां कच्चे तेल, पेट्रोल, डीज़ल, प्राकृतिक गैस और हवाई ईंधन (ATF) को छोड़कर ज़्यादातर जीवाश्म ईंधन, GST के दायरे में आते हैं. लेकिन इन पर टैक्स की दरों में बहुत अंतर है, जो इनके कार्बन उत्सर्जन पर आधारित नहीं है. मिसाल के तौर पर ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले कोयले पर टैक्स कम है. वहीं, कम कार्बन उत्सर्जन वाली प्राकृतिक गैस पर टैक्स ज़्यादा है. ऐसे में ज़रूरी ये है कि सभी पेट्रोलियम उत्पादों को GST के बेस रेट दायरे में लाया जाए, और इसके अलावा किसी ईंधन में कार्बन या सल्फर की मात्रा के आधार पर, उस पर पूरक टैक्स लगाया जाए. कार्बन सेस को ईंधन की आपूर्ति के पहले स्तर पर ही लगाया जाना चाहिए ये अलग अलग चरणों में बढ़ाया जाना चाहिए, जिससे कम अवधि के दौरान आपूर्ति श्रृंखलाओं और कारोबार चलाने में आने वाली बाधाओं से निपटा जा सके.

अगर हम अपने हरित विकास को उन मुट्ठी भर देशों पर निर्भर नहीं बनाना चाहते, जो इन तकनीकों और इससे जुड़े कच्चे माल पर नियंत्रण रखते हैं, तो ऐसा करना ज़रूरी होगा.

इस मामले में सभी राज्यों की सहमति हासिल करना बेहद ज़रूरी होगा. राज्य सरकारें, पेट्रोलियम उत्पादों को GST के दायरे में लाने का विरोध कर रही हैं, क्योंकि उन्हें डर है इससे उनका अपना राजस्व ख़त्म हो जाएगा. जबकि केंद्र सरकार द्वारा वसूले गए टैक्स को राज्यों को देने का अनुभव बहुत ख़राब रहा है. सितंबर 2021 में केंद्र सरकार पर राज्यों को GST की लगभग 52 हज़ार करोड़ की देनदारी बकाया थी. ऐसे में कार्बन टैक्स पर राज्यों की सहमति हासिल करने के लिए केंद्र द्वारा मुआवज़े का सही समय पर भुगतान करना ज़रूरी होगा. कार्बन टैक्स की व्यवस्था से जुड़े क़ानून को पास करने और प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच असरदार ढंग से सहयोग और तालमेल की ज़रूरत होगी.

टिकाऊ हरित आपूर्ति श्रृंखलाओं के विकास के लिए इनोवेशन को रफ़्तार देना

भारत में हरित तकनीकों की आपूर्ति श्रृंखलाएं आयात पर निर्भर बनी हुई हैं. भारत को हरित परिवर्तन करने और इसके ज़रिए आर्थिक विकास करने के लिए हरित तकनीकों के निर्माण और इनकी वैल्यू चेन को तेज़ी से स्वदेशी बनाने की ज़रूरत होगी. इसके लिए सरकार पहले ही प्रदर्शन पर आधारित प्रोत्साहन (PLI) की योजना लागू कर चुकी है, जो इलेक्ट्रिक गाड़ियों, बैटरी के निर्माण और सोलर पैनल के निर्माण को बढ़ावा देती है. इसका मक़सद ये तकनीकें बनाने वाली कंपनियों को बड़े स्तर पर उत्पादन करने के लिए बिक्री पर आधारित प्रोत्साहन देना है. हालांकि स्वदेशी निर्माण को बढ़ावा देने के साथ साथ स्वदेशी डिज़ाइन को भी प्रोत्साहन देना होगा. अपने हरित उत्पादों का डिज़ाइन तैयार करके हम विदेशी तकनीकें अपनाने में आने वाली बौद्धिक संपदा के अधिकार से जुड़ी तमाम बाधाओं से पार पा सकते हैं और इनकी लागत कम करने के साथ साथ इन्हें बनाने में ऐसे कच्चे माल के इस्तेमाल को बढ़ावा दे सकते हैं, जो भारत के लिए मुफ़ीद हों. अगर हम अपने हरित विकास को उन मुट्ठी भर देशों पर निर्भर नहीं बनाना चाहते, जो इन तकनीकों और इससे जुड़े कच्चे माल पर नियंत्रण रखते हैं, तो ऐसा करना ज़रूरी होगा.

बदक़िस्मती से भारत में डिज़ाइन इंजीनियरिंग को संस्थागत स्तर पर ही कम करके आंका जाता है. इसके लिए रिसर्च और विकास के लिए सरकारी निवेश की भारी कंपनी है और इस क्षेत्र की मुख्य इंजीनियरिंग से जुड़ी नौकरियां भी लगातार कम होती जा रही हैं. सरकार अगर कुछ और क़दम उठाए, तो इस समस्या से निपटने में काफ़ी मदद मिल सकती है. पहले तो ये कि PLI योजनाओं का लाभ लेने के लिए कंपनियों को कुछ ख़ास निवेश हासिल करने की शर्त है; इसका एक हिस्सा रिसर्च और विकास के लिए आवंटित किया जाना चाहिए. दूसरा, केंद्र सरकार ने निर्माण कंपनियों के लिए रिसर्च और अनुसंधान पर हाल ही में टैक्स रियायतें 150 प्रतिशत से घटाकर 100 फ़ीसद कर दी हैं. सच तो ये है कि रिसर्च और विकास के ख़र्च को 200 प्रतिशत तक टैक्स से रियायत दी जानी चाहिए. आख़िर में सेंटर फॉर एक्सलेंस की स्थापना करने या सरकारी पैसे से स्टार्ट अप कंपनियों की शुरुआत को बढ़ावा देने से भी इनोवेशन को प्रोत्साहन मिलेगा. स्टार्ट अप कंपनियों को दी जाने वाली मौजूदा मदद का एक ख़ास हिस्सा भी हरित तकनीकों के विकास करने वालों के दिया जा सकता है. मोटे तौर पर, ज़रूरत इस बात की है कि भारत में डिज़ाइनिंगको लेकर सोच बदली जाए.

बजट के एलान किसी भी देश की प्राथमिकताओं का एक बड़ा संदेश बाक़ी दुनिया को देते हैं. भारत ने इस साल हरित विकास को अहमियत देते हुए वैश्विक निवेशक समुदाय को अपनी प्रतिबद्धताओं का मज़बूत संदेश दिया है. अगर उपरोक्त उपाय करने की दिशा में कुछ ठोस क़दम और उठाए जाएं, तो इससे जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने की हमारी कोशिशों में विदेशी सहयोग हासिल करने में मदद मिलेगी.

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