Image Source: Getty
स्थायी स्ट्रेप्टोकोकस निमोनिया बैक्टीरिया मानव जाति के सबसे बड़े दुश्मनों में से एक बन गया है. सूक्ष्म जीवविज्ञानी लुई पाश्चर और जॉर्ज स्टर्नबर्ग ने इस बैक्टीरिया की पहचान की थी. इस बात को एक सदी से ज्यादा वक्त हो चुका है. ये बैक्टीरिया हर साल, निमोनिया से दुनिया भर में होने वाली मौतों के प्रमुख कारणों में से एक बना हुआ है, खासकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में जहां स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच सीमित है. भारत में इससे मरने वालों की संख्या चौंकाने वाली है. हर साल पांच साल से कम उम्र के 127,000 से अधिक बच्चे निमोनिया से मर जाते हैं. ये आंकड़ा इस आयु वर्ग में होने वाली मौतों का 14 प्रतिशत है. 12 नवंबर को मनाया जाने वाला विश्व निमोनिया दिवस इन मौतों और इसकी रोकथाम के लिए केंद्रित उपायों की तत्काल आवश्यकता की याद दिलाता है.
निमोनिया का बोझ भारत में स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे कमज़ोर नागरिकों पर सबसे ज़्यादा पड़ता है. बच्चे, बुजुर्ग, कुपोषित और पुरानी बीमारियों वाले लोग इसकी चपेट में जल्दी आते हैं.
निमोनिया का बोझ भारत में स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे कमज़ोर नागरिकों पर सबसे ज़्यादा पड़ता है. बच्चे, बुजुर्ग, कुपोषित और पुरानी बीमारियों वाले लोग इसकी चपेट में जल्दी आते हैं. भीड़भाड़ वाले शहरों में हवा की खराब गुणवत्ता और खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन का इस्तेमाल इस समस्या को बढ़ाता है. हालांकि, इसका बोझ सिर्फ मरीजों पर ही नहीं बल्कि उससे आगे उनके परिवार पर भी पड़ता है. बुजुर्ग रोगियों के लिए उपचार की लागत औसतन 25.6 अमेरिकी डॉलर होती है. इसके अलावा इस दौरान उनकी उत्पादकता में भी कमी आती है. इसकी अप्रत्यक्ष लागत (जो कुल लागत का तीन-चौथाई होती है) कम आय वाले परिवारों को आर्थिक रूप से बुरी तरह तोड़ सकती है.
इन ज़ोखिमों को देखते हुए निमोनिया की रोकथाम पर काम करना बहुत ज़रूरी हो जाता है. देशभर में न्यूमोकोकल वैक्सीनेशन कार्यक्रम के विस्तार से निमोनिया के लाखों मामलों को रोका जा सकता है. इससे पांच साल के भीतर स्वास्थ्य देखभाल लागत में 1 बिलियन डॉलर से अधिक की बचत हो सकती है. ये आंकड़ा बताता है कि निमोनिया की रोकथाम में निवेश के दोहरे फायदे, चिकित्सीय और आर्थिक, होंगे.
निमोनिया के बोझ को समझना
भारतीय लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से निमोनिया चिंता का एक प्रमुख कारण है, खासकर पांच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए. मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में 2015 में प्रति 1,000 बच्चों पर निमोनिया के 500 से ज़्यादा मामले दर्ज किए गए. ये दिखाता है कि कुछ क्षेत्रों में इस रोग का बोझ गंभीर हो सकता है. 65 साल और उससे अधिक उम्र के वयस्कों में निमोनिया की दर के बारे में अभी जानकारी सीमित है, लेकिन उन पर अभी तक जो भी अध्ययन हुए हैं, वो चिंताजनक संकेत देते हैं. स्ट्रेप्टोकोकस निमोनिया को समुदाय से मिलने वाले निमोनिया (सीएपी)यानी एक समुदाय में बड़े पैमाने पर इस बीमारी के संक्रमण के प्रमुख कारण के रूप में पहचाना गया है. ये जीवाणु दुनियाभर में निमोनिया के लगभग दो-तिहाई मामलों के लिए जिम्मेदार है. निमोनिया के लिए जिम्मेदार अन्य रोगजनकों में क्लेबसिएला निमोनिया, स्टैफिलोकोकस ऑरियस, हेमोफिलस इन्फ्लुएंजा टाइप बी (एचआईबी)और रेस्पिरेटरी सिंकाइटियल वायरस (आरएसवी) शामिल हैं. ये जीवाणु विशेष रूप से पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को अपना शिकार बनाते हैं. निमोनिया की संक्रमण दरें कई सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय कारकों से प्रेरित होती हैं. यही कारक संक्रमण के प्रति किसी की संवेदनशीलता को बढ़ा सकते हैं, पर्याप्त और समय पर इलाज तक पहुंच को सीमित कर सकते हैं.
सामाजिक-आर्थिक स्थिति कितनी बड़ी कारक?
भारत में किसी भी समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से ये तय होता है कि उस समुदाय पर निमोनिया का बोझ कितना गहरा होगा. गरीबी की स्थिति स्वास्थ्य देखभाल, पौष्टिक भोजन और उचित आवास तक पहुंच को सीमित करती है. ये सभी चीजें एक अच्छी प्रतिरक्षा प्रणाली (बीमारियों से लड़ने की ताक़त) के लिए आवश्यक हैं. इससे संक्रमण रुकता है. निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले ज़्यादातर घरों में भीड़भाड़ और स्वच्छता की कमी होती है. ऐसे परिवारों में लोग अक्सर ऐसे घरों में रहते हैं, जहां हवा और प्रकाश की पर्याप्त नहीं आता. इससे सांस संबंधी संक्रमण फैलने की संभावना अधिक होती है. चूंकि कई गरीब परिवार अभी भी खाना पकाने और बासी खाने को गर्म करने के लिए लकड़ी या गोबर जैसे ठोस ईंधन पर निर्भर हैं, इसलिए ज़ोखिम और बढ़ गया है. बचपन में सांस से जुड़ी संक्रमण की दर दोगुनी हो गई है. दुनियाभर में निमोनिया से जितनी मौतें होती हैं, उसमें 44 प्रतिशत हिस्सेदारी पांच साल से कम उम्र के बच्चों की है. इसके अलावा इस बात का भी काफ़ी फर्क पड़ता है कि बच्चों की मां या उनकी प्राथमिक देखभालकर्ता का शिक्षा का स्तर क्या है. ये स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता और स्वास्थ्य देखभाल करने वालों के व्यवहार पर प्रभाव डालता है. एक कम शिक्षित देखभालकर्ता को इस बीमारी के शुरुआती लक्षण दिखाई नहीं दे सकते हैं. उन्हें टीकों (वैक्सीन) की उपलब्धता के बारे में पता नहीं होता. इस तरह स्वास्थ्य सुविधाओं को रिपोर्ट करने में लगने वाले समय में देरी होती है और इससे मृत्यु दर बढ़ जाती है. गांवों में इस तरह की घटनाएं ज़्यादा देखी जा सकती है. वहां स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही सीमित होती हैं, और स्वास्थ्य शिक्षा परियोजनाओं तक पहुंच भी कठिन है.
इस बात का भी काफ़ी फर्क पड़ता है कि बच्चों की मां या उनकी प्राथमिक देखभालकर्ता का शिक्षा का स्तर क्या है. ये स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता और स्वास्थ्य देखभाल करने वालों के व्यवहार पर प्रभाव डालता है.
स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में गंभीर कमियां भारत में निमोनिया से निपटने की चुनौती को और बढ़ा देती हैं. साजो-सामान संबंधी समस्याओं और जागरूकता में कमी के कारण वैक्सीन कवरेज़ में गड़बड़ी बनी हुई है. इतना ही नहीं कुशल स्वास्थ्य कर्मियों और ऑक्सीजन थेरेपी इकाइयों सहित प्रमुख चिकित्सा सामग्रियों की कमी है, जबकि देश के ग्रामीण और अन्य वंचित हिस्सों में निमोनिया के इलाज के लिए इनकी आवश्यकता होती है. रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) समस्या को और भी बदतर बना देता है, क्योंकि एक प्रतिरोधी रोगजनक अस्पताल में लंबे समय तक रहने का कारण ये समस्या उत्पन्न हो सकती है. इसका नतीजा ये होता है कि महंगी ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग हो सकता है. इससे मृत्यु दर और स्वास्थ्य देखभाल की लागत बढ़ सकती है. निमोनिया के इस लगातार ख़तरे के ख़िलाफ़ स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को मज़बूत करने के लिए कुछ कदम उठाने होंगे. स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच बढाने, सार्वजनिक शिक्षा, पोषण कार्यक्रम, स्वच्छ खाना पकाने की तकनीक और एएमआर नियंत्रण की कोशिशों पर फोकस करते हुए निवेश करने की ज़रूरत होगी.
निमोनिया की रोकथाम में वयस्क टीकाकरण की भूमिका
भारत में ज़्यादातर लोगों के लिए टीकाकरण की मतलब बच्चों के वैक्सीनेशन से है. हालांकि, बुजुर्गों में निमोनिया के कारण मृत्यु दर इतनी आम है कि इसे अक्सर "मौत का कप्तान" कहा जाता है. ये साबित हो चुका है कि न्यूमोकोकल वैक्सीनेशन निमोनिया के मामलों के एक प्रमुख उपसमूह की गंभीरता को रोकता है या कम करता है. लेकिन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में इसे लेकर जागरूकता की कमी है. टीकाकरण को लेकर एक व्यवस्थित समीक्षा के संबंध में 2010 से 2020 तक के शोध लेखों का सर्वेक्षण किया गया. इसमें ये पाया गया कि भारत में एडल्ट न्यूमोकोकल वैक्सीनेशन की दर इस क्षेत्र में सबसे कम में से एक है.
खास बात ये है कि ऐसा सिर्फ न्यूमोकोकल वैक्सीनेशन के लिए नहीं है. भारत में कई रोगों में वयस्क टीकाकरण दर बहुत कम है और ये एक व्यापक प्रवृत्ति को प्रतिबिंबित करता है. 2020 में प्रकाशित एक सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत में एडल्ट वैक्सीनेशन कवरेज़ "नगण्य" है. इसमें सबसे बड़ी बाधा राष्ट्रीय वयस्क टीकाकरण कार्यक्रम को लेकर दिशानिर्देशों की कमी है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के 2022 के बुलेटिन में प्रकाशित एक विश्लेषण से पता चलता है कि पुरुष होना, शहरी निवासी होना, अमीर घराना, स्कूल में ज़्यादा उम्र तक पढ़ाई, मौजूदा चिकित्सा सुविधाएं और एक ही जगह रहने वालों में वैक्सीनेशन की दर ज़्यादा थी.
भारत के इतिहास में पहली बार, लोंगिट्युडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया (LASI) की गई. 2017-18 में पूरे भारत में वृद्ध वयस्कों (45 वर्ष से अधिक आयु) के वैक्सीनेशन कवरेज़ पर व्यवस्थित डेटा एकत्र किया गया. इस सर्वेक्षण में शामिल चार श्रेणियों, यानी इन्फ्लूएंजा, न्यूमोकोकल, टाइफाइड और हेपेटाइटिस-B टीकों में 45 साल से ज़्यादा उम्र के उत्तरदाताओं का अनुमानित अनुपात 1.5 प्रतिशत था. इन्होंने बताया कि उन्हें कभी टीका लगाया गया था. जैसा कि चित्र 1 दिखाता है, न्यूमोकोकल वैक्सीनेशन कवरेज़ सभी आयु समूहों में सबसे कम है. फिर चाहे वो वृद्ध पुरुष हों या फिर महिलाएं. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के 2022 के बुलेटिन में प्रकाशित एक विश्लेषण से पता चलता है कि पुरुष होना, शहरी निवासी होना, अमीर घराना, स्कूल में ज़्यादा उम्र तक पढ़ाई, मौजूदा चिकित्सा सुविधाएं और एक ही जगह रहने वालों में वैक्सीनेशन की दर ज़्यादा थी. यानी ये कारक इस टीके को लेने के महत्वपूर्ण संकेतांक थे. वृद्ध आबादी में निमोनिया जैसी वैक्सीन-रोकथाम योग्य स्थितियों की सामाजिक और आर्थिक लागत उच्च है. इसे देखते हुए कम वैक्सीनेशन कवरेज़ पर फौरन नीतिगत ध्यान देने की ज़रूरत है और इस कवरेज़ को बढ़ाना आवश्यक है.
चित्र 1: ये डेटा लेखकों ने रिज़वी और सिंह से लेकर एकत्र किया है.
देश पर निमोनिया के आर्थिक प्रभाव
निमोनिया स्वास्थ्य पर प्रभाव तो डालता ही है, साथ ही ये घरों और स्वास्थ्य की देखभाल करने वाली प्रणाली पर भी महत्वपूर्ण आर्थिक बोझ डालता है. इसके इलाज की प्रत्यक्ष लागत काफ़ी अधिक है. इनमें अस्पताल में भर्ती होना, दवा, निदान और अन्य स्वास्थ्य सेवाएं शामिल हैं. 2014 में हुए एक अध्ययन ये पाया गया कि अगर जनसांख्यिकीय विशेषताओं का समायोजन किया जाए तो वेंटिलेटर से जुड़े निमोनिया (वीएपी) के लिए ये लागत 2,49,199 रुपये होने का अनुमान लगाया गया था. 2024 में किए गए एक अन्य अध्ययन के मुताबिक सामुदायिक-अधिग्रहित निमोनिया (सीएपी) की लागत विभिन्न सुविधाओं में अलग-अलग है. निजी अस्पतालों में ये लागत औसतन 2,10,862 रुपये है. सरकारी अस्पतालों में आंतरिक रोगी उपचार (आईपीडी) के लिए 5,575 रुपये, निजी में 4,121 रुपये और बाह्य रोगी उपचार (ओपीडी) के लिए सरकारी सुविधाओं में 200 रुपये है.
इसके अलावा इलाज की अप्रत्यक्ष लागत जैसे कि उत्पादकता में कमी, देखभाल करने वालों पर बोझ और विशेष रूप से कम आय वाले परिवारों पर वित्तीय तनाव निमोनिया के आर्थिक प्रभाव को और बढ़ा देते हैं. सीएपी के मरीजों को लंबे समय तक खांसी और थकान का अनुभव होता है. अस्पताल में भर्ती मरीज को औसतन 16 कार्य दिवसों का नुकसान हुआ, जबकि जो मरीज अस्पताल में भर्ती नहीं होते, उन्हें में काम के 9 दिनों का नुकसान हुआ. 97 प्रतिशत रोगियों को इलाज के दौरान परिवार, दोस्तों और देखभाल करने वालों के समर्थन की ज़रूरत पड़ी. सरकारी अस्पतालों में इलाज करने वाले बच्चों की देखभाल करने वालों में 77 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वो काम से गैरहाजिर रहे, जबकि निजी अस्पतालों में ये दर 26 प्रतिशत थी. निमोनिया से पीड़ित बच्चों वाले ग्रामीण और कम आय वाले परिवारों पर बहुत ज़्यादा आर्थिक दबाव पड़ा. इसकी वजह से उनमें से कई लोगों को अपने खर्चों को पूरा करने के लिए बाहरी वित्तीय सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है.
इसे लेकर 2023 में किए गए शोध में कुल आर्थिक बोझ और विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लागत में भिन्नता का सुझाव दिया गया. उदाहरण के लिए, पुणे में निमोनिया का आर्थिक बोझ उच्च प्रत्यक्ष लागत से प्रेरित है, जबकि चेन्नई में अप्रत्यक्ष लागत प्रमुख कारक है. चूंकि स्वास्थ्य बीमा कवरेज सीमित है, इससे असमानताएं और भी बढ़ गई हैं. अगर निमोनिया को रोकने के उपाय किए जाएं तो इस तनाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है.
हवा की गुणवत्ता में सुधार लाने के उद्देश्य से बनाई गई नीतियां इस बीमारी के आर्थिक बोझ को और कम कर सकती हैं. सब्सिडी वाली सेवाएं, बीमा कवरेज और ज्यादा किफायती निजी इलाज की सुविधा का विकल्प देकर इसकी प्रत्यक्ष लागत को कम किया जा सकता है. अगर मरीज की देखभाल करने वालों को भी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ दिया जाए तो इसकी अप्रत्यक्ष लागत को कम किया जा सकता है, साथ ही उनका तनाव भी कम होगा.
निमोनिया की रोकथाम का भारतीय परिदृश्य
भारत ने निमोनिया से निपटने में काफ़ी प्रगति की है, विशेष रूप से 2017 में यूनिवर्सल वैक्सीनेशन प्रोग्राम (यूआईपी) और मिशन इंद्रधनुष के तहत न्यूमोकोकल कंजुगेट वैक्सीन (पीसीवी) के कार्यान्वयन के माध्यम से इस पर काफ़ी हद तक काबू पाया गया है. 2022 तक, 83 प्रतिशत शिशुओं को पीसीवी का टीका लगाया गया, जो इसे रोकने के लिए देश की प्रतिबद्धता को दर्शाता है. इस कोशिश ने पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में कमी लाने में योगदान दिया है. ये मृत्यु दर 2014 में प्रति 1,000 बच्चों पर 45 से गिरकर 2020 में 32 हो गई है.
दिसंबर 2020 में, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने न्यूमोसिल वैक्सीन भी लॉन्च की. ये स्वदेशी रूप से विकसित पहली पीसीवी है, जो आम लोगों तक वैक्सीन की पहुंच और सामर्थ्य को बढ़ाती है. इंडियन एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स (आईएपी) और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च जैसे अग्रणी संगठनों के पास निमोनिया के निदान और प्रबंधन के लिए ठोस दिशा निर्देश हैं. ये गाइडलाइंस ज़मीनी स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने वालों को सार्वजनिक स्वास्थ्य की इस चुनौती से निपटने के लिए अच्छी तरह से तैयार करती हैं. इन स्वागत योग्य बदलावों के बावजूद कई चुनौतियां वैसी ही बनी हुई हैं, जैसी पहले चर्चा की गई थीं. ग्रामीण क्षेत्रों में कम वैक्सीनेशन कवरेज बना हुआ है. निमोनिया की रोकथाम के बारे में सार्वजनिक जागरूकता में सुधार की ज़रूरत है।. इसलिए, इन पहलों के लिए वित्तीय मदद देना बहुत ज़रूरी है. हालांकि इसके लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और घरेलू बजट आवंटन बढ़ा. गया है. इसके साथ-साथ गावी और बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जैसे अंतर्राष्ट्रीय दानदाताओं से मिलने वाली फंडिंग ने अपनी वित्तीय मदद में वृद्धि की है. एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) जैसी प्रणालियों के माध्यम से चल रही देखरेख ये सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि भारत खुद को निमोनिया से निपटने की स्थिति के अनुरूप ढाल सकता है और आगे बढ़ सकता है.
अगर भविष्य में निमोनिया पर काफ़ी हद तक काबू पाना है तो बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों दोनों के लिए बड़े पैमाने पर वैक्सीनेशन की ज़रूरत होगी. इसके अलावा स्वच्छ हवा और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं भी ज़रूरी हैं. भारत के सबसे कमज़ोर लोगों में निमोनिया से होने वाली मौतों को कम करने के लिए वयस्क टीकाकरण, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और सस्ते इलाज पर निवेश करना समय की मांग है. एक वक्त पर एक कदम उठाकर हम इस बीमारी को काफ़ी कम कर सकते हैं.
केएसयू गोपाल ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की स्वास्थ्य पहल में एसोसिएट फेलो हैं
ओम्मेन सी कुरियन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की स्वास्थ्य पहल के प्रमुख और सीनियर फेलो हैं
निमिषा चड्ढा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.