Author : Manish Tewari

Published on Aug 22, 2019 Updated 0 Hours ago

संवैधानिक तौर पर कश्मीर पर दिए गए इस फैसले में केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 3 की अनदेखी की, जो कहता है कि राज्य का बंटवारा करने से उसकी विधायिका की राय लेना अनिवार्य है.

अनुच्छेद 370 और जम्मू-कश्मीर के 'फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे'

जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटकर और केंद्र के साथ उसके संवैधानिक रिश्ते को बदलकर एनडीए/बीजेपी सरकार ने ऐसा कदम उठाया है, जिससे अप्रत्याशित चुनौतियां खड़ी होंगी. देश को कड़ा इम्तिहान देना होगा. यही नहीं, बीजेपी सरकार के इस फैसले से कई सवाल भी खड़े हुए हैं.

संवैधानिक तौर पर ग्रे — कश्मीर पर दिए गए इस फैसले में केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 3 की अनदेखी की, जो कहता है कि राज्य का बंटवारा करने से उसकी विधायिका की राय लेना अनिवार्य है. यहां राज्य के चुने हुए प्रतिनिधियों से राय लेने की बात इसलिए कही गई है क्योंकि वे जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं. यानी एक तरह से यह जनता की राय लेना हुआ. राज्य के पुनर्गठन की दिशा में कदम बढ़ाने से पहले संसद के सामने राज्य की जनता की राय पेश की जानी चाहिए थी.

बीजेपी सरकार ने इससे बचने के लिए जो तरीका अपनाया, उससे देश का संघीय ढांचा प्रभावित होगा और केंद्र-राज्य के संबंध भी प्रभावित होंगे. भविष्य के लिए इस कदम का मतलब यह है कि केंद्र सरकार किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकती है, उसकी विधानसभा को भंग कर सकती है और फिर दावा कर सकती है कि राज्य की विधायी शक्तियां अब संसद के पास हैं. इसके बाद केंद्रीय लेजिस्लेचर या विधायिका खुद से विमर्श करके भारत के मानचित्र में जैसे चाहे वैसे बदलाव कर सकता है. यह संविधान के साथ छल नहीं तो और क्या है?

26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ कश्मीर के विलय के जिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, उसमें साफ-साफ लिखा था कि “इसमें लिखी गई किसी भी बात के ज़रिए मुझे भारत के भविष्य के किसी संविधान को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. न ही भविष्य में किसी भारतीय संविधान के तहत किसी फैसले को मानने के लिए मेरे पांव में बेड़ियां डाली जा सकती हैं.”

इसके बाद हास्यास्पद तरीके से अनुच्छेद 370 (3) के संदर्भ में ‘कॉन्स्टिट्यूएंट एसेंबली’ को संविधान के तहत (जम्मू-कश्मीर पर लिए गए फैसले में) लेजिस्लेटिव एसेंबली माना गया. चूंकि राज्य की विधानसभा को पहले भंग किया जा चुका था, इसलिए अनुच्छेद 356 (1) बी को अनुच्छेद 357 (1) के साथ मिलाकर पढ़ा गया. यह तो हद ही हो गई. भारत में विलय से पहले जम्मू-कश्मीर राज्य जम्मू एंड कश्मीर कॉन्स्टिट्यूशन एक्ट से संचालित होता था, जिसे 1939 में लागू किया गया था. यह कानून 26 जनवरी 1957 तक रहा, जब तक कि राज्य ने अपने संविधान को स्वीकार नहीं किया. इसका मतलब यह है कि आज़ादी के बाद भारत में मिलने वाली अन्य रियासतों की तुलना में कश्मीर अलग था. इसके अलावा, 26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ कश्मीर के विलय के जिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, उसमें साफ-साफ लिखा था कि “इसमें लिखी गई किसी भी बात के ज़रिए मुझे भारत के भविष्य के किसी संविधान को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. न ही भविष्य में किसी भारतीय संविधान के तहत किसी फैसले को मानने के लिए मेरे पांव में बेड़ियां डाली जा सकती हैं.” यूं तो कई दूसरी रियासतों ने भी भारत के साथ विलय के वक्त ऐसे ही समझौते किए थे, लेकिन पाकिस्तान के साथ अदावत को देखते हुए जम्मू-कश्मीर का मामला जटिल हो गया था. इसलिए 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा ने अनुच्छेद 370 के रूप में एक विशेष प्रस्ताव को स्वीकार किया, ताकि भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर का रिश्ता सिर्फ़ विलय तक सीमित न रहे और संबंध कहीं ज्य़ादा मजबूत बनें.

यह फैसला कितना अक्लमंदी भरा था, यह बात 26 नवंबर 1949 को साबित हो गई, जब भारत के साथ विलय का समझौता करने वाली रियासतों के सभी राजप्रमुखों ने देश के संविधान को पूरी तरह स्वीकार कर लिया. सिर्फ जम्मू-कश्मीर के महाराज ने भारतीय संविधान को स्वीकार नहीं किया था. भारत के साथ राज्य के विलय को स्थायी बनाने के लिए जम्मू-कश्मीर में संविधान सभा चुनी गई. उसकी वजह यह थी कि राज्य के भारत के साथ विलय को 27 अक्टूबर 1947 को स्वीकार करते हुए लॉर्ड माउंटबेटन ने जम्मू कश्मीर वहां की जनता की राय का संदर्भ भी रखा था. राज्य की संविधान सभा की 31 अक्टूबर 1951 को बैठक हुई और उसका कार्यकाल 17 नवंबर 1956 तक चला. उसके बाद 26 नवंबर 1957 को राज्य में उसका अपना संविधान लागू हुआ. इस संविधान के अनुच्छेद 3 की वजह से भारत के साथ जम्मू-कश्मीर के रिश्तों में मज़बूती आई. इस अनुच्छेद में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और अनुच्छेद 4 में राज्य को परिभाषित किया गया है.

बीजेपी सरकार ने राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया है, लेकिन अविभाजित जम्मू-कश्मीर के संविधान का क्या होगा? कोई भी व्यक्ति या सरकार राज्य के संविधान को ख़त्म नहीं कर सकता क्योंकि इसके 12 हिस्सों और 147 अनुच्छेदों में राज्य के संविधान के अपने आप ख़त्म होने की कोई व्यवस्था नहीं है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 के तहत राज्य के संविधान का दर्जा उसके बराबर है. इसलिए भारतीय संसद भी इसे ख़त्म नहीं कर सकती. भारत के संविधान की तरह जम्मू-कश्मीर के संविधान को चुनी हुई कॉन्स्टिट्यूएंट असेंबली ने तैयार किया था. अगर कोई यह तर्क देता है कि राज्य के बंटवारे के साथ जम्मू-कश्मीर का संविधान बेमानी हो गया है तो यह दलील भी दी जा सकती है कि भारत के साथ जम्मू-कश्मीर का विलय समझौता भी 2019 के ‘संवैधानिक द्वंद्व’ में उलझ गया है.

और 1996 से 2019 के बीच राज्य में चार विधानसभा चुनाव और सात संसदीय चुनाव हुए. इस लोकतांत्रिक पहल में इन पार्टियों की न सिर्फ़ भागीदारी रही बल्कि ऐसा करके उन्होंने भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास भी जताया.

‘पॉलिटिकल ग्रे’ — इस मामले में राजनीतिक उलझाव 1947 तक जाते हैं, जब राज्य में ठीक-ठाक आबादी स्वायत्तता, स्वशासन, स्वतंत्रता और पाकिस्तान के साथ विलय के हक में थी. ये चारों धाराएं कश्मीर में बनी हुई हैं. ये एक दूसरे से जुड़ी भी हुई हैं. इसलिए कश्मीर में अलग-अलग लोगों के लिए आज़ादी के नारे का मतलब भी अलग है. हालांकि, इसके साथ कश्मीर को भारत के साथ बनाए रखने वाली ताकतें भी वहां हैं और उनका इतिहास देश की आजादी तक जाता है. इसमें ख़ासतौर पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और इंडियन नेशनल कांग्रेस अहम हैं. बीच-बीच में दूसरी राजनीतिक पार्टियां भी इस कोशिश से जुड़ती रही हैं. 1999 में बनी पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) भी इसका हिस्सा बनी थी. इन लोगों ने काफी जोख़िम उठाए हैं. उन्हें कश्मीरी आतंकवादियों, आईएसआई की तरफ़ से राज्य में भेजे गए आतंकवादियों और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसे संगठनों से ख़तरा रहा है.

1990 के दशक के मध्य में राज्य में आतंकवादी गतिविधियां काफी तेज़ हुई थीं और उस दौरान इन पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को बड़े पैमाने पर निशाना बनाया गया था. इसके बावजूद ये पार्टियां डटी रहीं और 1996 से 2019 के बीच राज्य में चार विधानसभा चुनाव और सात संसदीय चुनाव हुए. इस लोकतांत्रिक पहल में इन पार्टियों की न सिर्फ़ भागीदारी रही बल्कि ऐसा करके उन्होंने भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास भी जताया. बीजेपी सरकार ने राज्य का बंटवारा करके क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के पांव काट दिए गए हैं. इस संदर्भ में ख़ासतौर पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का ज़िक्र ज़रूरी है. जिसे कश्मीर की राजनीति की मुख्य़धारा माना जाता था. केंद्र सरकार के हालिया कदम की वजह से वे हाशिये पर चले गए हैं.

हुर्रियत और दूसरे अलगाववादी भारत सरकार पर भरोसा जताने के लिए उनका मजाक बनाएंगे. इन दलों के पास अपना वजूद बचाने के लिए अब हुर्रियत का साथ देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. कश्मीर में इन दलों का मज़बूत राजनीतिक संगठन है. इसलिए ऐसे कदम का व्यापक और सभी क्षेत्रों में असर होगा. इतना ही नहीं, बीजेपी सरकार के इस कदम से अब राज्य की जनता के सामने भारत का पक्ष रखने वाली कोई ताकत नहीं बची है. कश्मीर की राजनीतिक मुख्य़धारा को हाशिये पर धकेलने की आने वाले वक्त में बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है. यह विडंबना ही है कि राज्य के तीन पूर्व मुख्य़मंत्रियों डॉ. फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और हाल तक बीजेपी की सहयोगी रहीं महबूबा मुफ्त़ी और उनके परिवार को नज़रबंद कर दिया गया है.

सिक्योरिटी ग्रे — यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अगर किसी आतंकवादी, अलगाववादी, उग्रवादी, क्रांतिकारी, विद्रोही आंदोलन को लोगों का समर्थन हासिल होता है तो उसे काबू में करना करीब-करीब नामुमकिन हो जाता है. उसे ख़त्म करने की बात तो भूल ही जाइए. जनरल डेविड पेट्रियस ने विद्रोह से निपटने का 2006 में जो तरीका बताया था और जिसे इराक में आज़माया भी गया था, उसकी ख़ास बातें सरल लेकिन बुनियादी हैं. उन्होंने लिखा था कि दुश्मनों को मारने से ज्य़ादा ध्यान आम लोगों को बचाने पर होना चाहिए, भले ही इसमें अधिक जोख़िम है. उन्होंने यह भी लिखा था कि ताकत का कम से कम इस्तेमाल करना चाहिए. जनरल पेट्रियस की बातों का निचोड़ यह है कि आपको जनता के दिल और दिमाग को जीतने की कोशिश करनी चाहिए. अगर आप जनता और विद्रोहियों के बीच दरार नहीं पैदा कर पाते हैं तो विद्रोही जीत जाएंगे.

कश्मीर में ‘आज़ादी’ का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग है. मौजूदा हालात में न सिर्फ़ बीच का पुल गिरा दिया गया है बल्कि वहां की पूरी राजनीतिक मुख्य़धारा के वजूद को मिटाने की कोशिश हुई है वो भी राज्य के टुकड़े-टुकड़े कर के, जिसका आगे चलकर काफी गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

पंजाब में लंबे वक्त तक उग्रवाद के खिलाफ़ संघर्ष में अहम मोड़ तब आया, जब 1992 में वहां एक लोकप्रिय सरकार सत्ता में आई. भले ही उस चुनाव में भारी मतदान नहीं हुआ था. इसके तीन साल के अंदर पंजाब में शांति लौटी और तब से आज तक राज्य ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा है. असम, मिजोरम, त्रिपुरा और बोडोलैंड में भी राजनीतिक समझौतों से शांति बहाल हुई. सरकार अभी दशकों पुराने नगा विद्रोही आंदोलन को ख़त्म करने के लिए विद्रोहियों से बात कर रही है. ऐसे में दिल्ली और श्रीनगर के बीच के राजनीतिक पुल को गिराना कहां की समझदारी है?

देश में जब भी केंद्र और किसी अलग-थलग पड़े हिस्से के बीच टकराव हुआ है तो नुकसान देश को उठाना पड़ा है. उसकी वजह यह है कि तब जाम हुए नाले से लेकर सिक्योरिटी चेकपॉइंट पर सख्त़ अभियान, सबका गुस्सा लोग केंद्र सरकार पर निकालते हैं. इसीलिए कश्मीर में ‘आज़ादी’ का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग है. मौजूदा हालात में न सिर्फ़ बीच का पुल गिरा दिया गया है बल्कि वहां की पूरी राजनीतिक मुख्य़धारा के वजूद को मिटाने की कोशिश हुई है वो भी राज्य के टुकड़े-टुकड़े कर के, जिसका आगे चलकर काफी गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

स्ट्रेटिजिक ग्रे — पाकिस्तान की न सिर्फ़ कश्मीर बल्कि पूरे क्षेत्र में वापसी हुई है. ओसामा बिन लादेन के दौर के बाद उससे दुनिया ने दूरी बन ली थी. अब वह फीनिक्स पक्षी की तरह अपने ही भस्म से उठ खड़ा हुआ है. अमेरिका फिर से उसे लेकर दरियादिल हो गया है. ट्रंप सरकार को आज पाकिस्तान की कहीं ज्य़ादा ज़रूरत है. अगर अमेरिका तालिबान के सामने ‘समर्पण’ करता है तो वह तालिबान की सफलता होगी. इसके अलावा, ईरान मुद्दे के पीछे जाने से अमेरिकी योजनाओं में पाकिस्तान की भूमिका बढ़ेगी. अमेरिका और तालिबान के बीच डील से जिन आतंकवादियों के पास काम नहीं होगा, वे कश्मीर आ धमकेंगे. तालिबानी आतंकवादियों के लिए विद्रोह, जिहाद और शहादत सामान्य बात है. अमेरिका से समझौते के बाद वे शांतिपूर्ण जिंदगी गुज़ारने नहीं जा रहे हैं. 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले के वक्त वहां जो बच्चा पैदा हुआ होगा, आज उसकी उम्र 40 साल होगी. उसके लिए मौत, तबाही, क्रूरता और संघर्ष ही ज़िंदगी जीने का तरीका है. अगर अफगानिस्तान में ‘बेरोजगार’ होने वाले आतंकवादी पाकिस्तान की शह पर काम न भी करें तो उनके पास इस्लामिक स्टेट से जुड़ने का रास्ता खुला होगा.

इसलिए कश्मीर पर सख्त़ी के बजाय केंद्र सरकार को वहां के लोगों का दिल जीतने की कोशिश करनी चाहिए. उसे जनता को करीब लाने की पहल करनी चाहिए, न कि उन्हें अलग-थलग करने की.

इंटरनेशनल ग्रे — पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर और उत्तरी क्षेत्रों को लौटाने की भारत की मांग जम्मू-कश्मीर के देश में विलय के समझौते, राज्य के संविधान के एक अनुच्छेद और 1994 व 2012 में संसद के पास किए हुए दो प्रस्तावों पर आधारित है, जिसमें कहा गया है कि कश्मीर के मामले में बंटवारे के वक्त का एक ही काम अधूरा बचा हुआ है- पाकिस्तान ने राज्य के जिस हिस्से पर अवैध कब्ज़ा कर रखा है और जिस हिस्से को उसने चीन को दिया है, उन्हें वापस हासिल करना है. भारत के साथ विलय समझौते में जम्मू-कश्मीर की सीमाओं का ज़िक्र नहीं है, लेकिन राज्य के संविधान के अनुच्छेद 4 में उसे परिभाषित किया गया है. उसमें कहा गया है, “राज्य के दायरे में वे सभी क्षेत्र शामिल हैं, जिन पर 15 अगस्त 1947 तक जम्मू-कश्मीर के राजा का राज था.” हालांकि, वास्तविक जम्मू-कश्मीर राज्य को ख़त्म किए जाने के साथ ही यह अनुच्छेद भी निष्प्रभावी हो गया है. इसका मतलब यह है कि द्विपक्षीय और बहुदेशीय वार्ता में भारत यह नहीं कह पाएगा कि हम वास्तविक जम्मू-कश्मीर पर नियंत्रण कि मांग कर रहे हैं, जिसे महाराजा हरि सिंह ने 27 अक्टूबर 1947 को भारत को सौंपा था क्योंकि अब उस असल राज्य का वजूद ही नहीं है. इससे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष कमजोर हुआ है. इसीलिए मैंने 6 अगस्त 2019 को लोकसभा में गृहमंत्री से कहा था कि जम्मू-कश्मीर ब्लैक एंड वाइट का मामला नहीं है, इन दोनों के बीच वहां ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’ हैं.

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