Published on Oct 03, 2019 Updated 0 Hours ago

अब हमें पाकिस्तान के साथ शांति और अमन की संभावनाओं के लिए किसी शॉर्ट कट की तलाश छोड़ देनी चाहिए. पहले हमें इस बात का इंतज़ार करना चाहिए कि पाकिस्तान अपने अंदरूनी हालात सुधारे.

आर्टिकल 370 और 35A ख़त्म होने के बाद का पाकिस्तान!

भारत और पाकिस्तान के संबंध बहुत उठा-पटक भरे रहे हैं. दोनों देश अब तक चार युद्ध लड़ चुके हैं, जिनकी शुरुआत हर बार पाकिस्तान ने की. भारत, लंबे समय से पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का शिकार रहा है. दोनों देशों के रिश्तों ने बनावटी रूप से दोस्ताना ताल्लुक़ात के भी कई छोटे दौर देखे हैं. वैसे भारत और पाकिस्तान के संबंध ज़्यादातर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ कड़वी बयानबाज़ी वाले रहे हैं. फिलहाल यही हालात हैं, जब दोनों ही मुल्क एक-दूसरे के ख़िलाफ़ जमकर बयानबाज़ी कर रहे हैं. ऐसे हालात अभी लंबे समय तक बने रहने के संकेत हैं. पाकिस्तान से आ रहे भड़काऊ बयानों की बड़ी वजह ये कही जा सकती है कि भारत ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A ख़त्म करने का फ़ैसला किया. ये वो फ़ैसला था जिसका ज़िक्र बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में किया था. और इस क़दम के उठाए जाने से पाकिस्तान को आश्चर्य नहीं होना चाहिए था. जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A हटाने का फ़ैसला कोई अचानक नहीं लिया गया था. इसके लिए कई महीनों से तैयारी की गई होगी. बुरी से बुरी प्रतिक्रियाओं का आकलन किया गया होगा. इस दौरान देसी-विदेशी राजनीतिक और मीडिया की प्रतिक्रिया के अलावा विदेशों में रह रहे भारतीयों के रिएक्शन का भी अंदाज़ा लगाया गया होगा. साथ ही इस फ़ैसले से जुड़े सुरक्षा के पहलुओं को भी ठोक-बजाकर जांचा-परखा गया होगा. सरकार ने ये क़दम उठाने से पहले ये भी तय किया होगा कि किन लोगों और संस्थाओं की गतिविधियों पर रोक लगाने की ज़रूरत पड़ेगी. इस फ़ैसले में शायद एक ही बात बाद के लिए छोड़ी गई होगी और वो ये कि ये फ़ैसला कब लेना है. शायद सरकार के इस फ़ैसले का वक़्त इमरान ख़ान और डोनाल्ड ट्रम्प के बीच अफग़ानिस्तान को लेकर हुई मुलाक़ात और अचानक ट्रम्प का कश्मीर मसले में मध्यस्थता का बयान देना ही जम्मू-कश्मीर पर फ़ैसला लेने की घड़ी तय करने की वजह बना.

यहां ये याद रखना ज़रूरी है कि भले ही पाकिस्तान का अवाम कुछ भी चाहे, पाकिस्तान के फ़ौजी जनरलों को भारत की ख़ब्त है. उनकी कोशिश हमेशा ये होती है कि उन्हें भारत से बेहतर नहीं, तो कम से कम बराबर का तो माना जाए. वो चार युद्ध हारने का भारत से बदला लेना चाहते हैं. वो 1971 में मुल्क के टूटने का भी हिसाब भारत से बराबर करने के ख़्वाहिशमंद हैं. धीरे-धीरे पाकिस्तान के जनरलों की ये भावना कश्मीर में आतंक के तौर पर नज़र आने लगी. अब पाकिस्तान प्रायोजित ये आतंकवाद भारत के दूसरे हिस्सों में भी फैल चुका है. भारत के प्रति पाकिस्तानी जनरलों के इस ख़ब्त ने पाकिस्तान को असली इस्लामिक देश में तब्दील कर दिया है, जिसके पास एटमी ताक़त है. इस बम का हमारे ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की धमकी वो बार-बार देते रहते हैं. पाकिस्तानी जनरलों का भारत को लेकर ये पूर्वाग्रह उनके देश को बहुत महंगा पड़ा है. उनका देश मध्य युग में लौट गया है, जबकि उनके देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है. आज फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स जैसे संगठन आतंकवाद फैलाने में पाकिस्तान के रोल की समीक्षा कर रहे हैं. और अक्टूबर महीने में आतंकवाद के प्रायोजक के तौर पर पाकिस्तान की क़िस्मत का फ़ैसला होना है.

भारत ने एक बार फिर से पाकिस्तान को संदेश दिया था कि दोनों देशों के संबंधों के नियम-क़ायदे अब बदल गए हैं. अब हर आतंकवादी हमले का करारा जवाब दिया जाएगा.

पाकिस्तान से संबंध निभाने के लिए हम उसके दिए हुए आतंकवाद के ज़ख्म सहते रहे हैं. जैसे कि 1993 के मुंबई बम धमाके, 2001 में संसद पर हमला, मुंबई में 2006 में लोकल ट्रेनों में हुए धमाके और फिर 2008 में मुंबई में आतंकवादियों के हाथों हुआ नरसंहार. ये जम्मू-कश्मीर के बाहर हुई वो आतंकवादी घटनाएं थीं, जो पाकिस्तान ने उकसावे के लिए की थीं. दुनिया ने भारत के सब्र की तारीफ़ की. और हम ने इस ज़िम्मेदारी भरी इस निष्क्रियता के लिए ख़ुद को शाबासी दी. तुष्टिकरण कभी भी किसी का पेट नहीं भरता. भले ही वो लालची हो या शिकारी. इससे वो और तुष्टिकरण की मांग करता है. पाकिस्तान के नेताओं ने अपने ही दुष्प्रचार के सहारे ख़ुद को यक़ीन दिला लिया. और उन्होंने अपने अवाम को भी ये भरोसा करा दिया कि भारत के पास ऐसे हमलों के पलटवार की क्षमता ही नहीं है. पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अपनी जनता को बताया कि एक मुसलमान दस हिंदुओं पर भारी पड़ता है, ये फ़ॉर्मूला एकदम सही है.

भारत और पाकिस्तान के नेताओं के बीच कभी-कभार बेहतर ताल्लुक़ात के छोटे-छोटे वक़्फ़े भी होते रहे थे. ऐसा तब होता था जब पाकिस्तान के असल निज़ाम यानी वहां की फ़ौज को ये लगता था कि उनके देश में जम्हूरियत जड़ें जमा रही है. और वो इस बात से काफ़ी परेशान हो जाते थे. आसिफ़ अली ज़रदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार ने 2013 में पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था. जो पाकिस्तान के लिए अपने-आप में एक रिकॉर्ड था. फिर ज़रदारी ने बैलट बॉक्स के ज़रिए आए सियासी बदलाव का सम्मान करते हुए सत्ता की चाभी नवाज़ शरीफ़ को सौंप दी थी. जो पाकिस्तान की फ़ौज के लिए बहुत बुरी ख़बर थी, क्योंकि इस बदलाव से पहले पाकिस्तान के असली सत्ता के केंद्र यानी आर्मी हेडक्वार्टर रावलपिंडी से सलाह- मशविरा नहीं किया गया था. ये बदलाव पाकिस्तान के अवाम ने किया था. ऐसा लगने लगा था कि नवाज़ शरीफ़ अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लेंगे. वो शायद दोबारा भी चुनाव जीत जाएंगे. क्योंकि उस वक़्त पाकिस्तान में मज़बूत विपक्ष नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं. पाकिस्तान की फ़ौज के लिए इससे भी बुरी बात ये थी कि नवाज़ शरीफ़ के बाद उनकी बेटी मरियम नवाज़ के पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनने का पूरा अंदेशा था. ऐसे में पाकिस्तान के विरासत की सियासत वाला लोकतंत्र बनने की पूरी संभावना थी. पाकिस्तान की फ़ौज को लगा कि ऐसा होने से हर हाल में रोकना होगा. इसीलिए, सितंबर 2016 में उरी में सेना के कैम्प पर बड़ा आतंकवादी हमला हुआ, जिस में भारत के 19 सैनिक मारे गए. इस घटना के पीछे पाकिस्तान की फ़ौज का एक ही मक़सद था कि उनकी नज़र में पाकिस्तान के जानी दुश्मन यानी भारत से शांतिपूर्ण संबंध न बहाल हो सकें. भारत ने उरी हमले के जवाब में दस दिनों के भीतर ही नियंत्रण रेखा के पार जाकर पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में आतंकियों के ख़िलाफ़ कार्रवाईकी. पाकिस्तान को इसकी कतई उम्मीद नहीं थी. भारत ने दुनिया को बताया कि उसकी कमांडो टुकड़ी ने नियंत्रण रेखा पार कर के पाकिस्तान के पाले आतंकवादियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है. पाकिस्तान को तब भी ये समझ में नहीं आया कि मोदी सरकार, पाकिस्तान के आतंकवादी पैंतरों से अलग तरीक़े से निपटने का इरादा और माद्दा रखती है. तभी, नए प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के सत्ता में रहते हुए फरवरी 2019 में पुलवामा में सीआरपीएफ़ के काफ़िले पर आतंकवादी हमला हुआ, जिस में हमारे 40 जवान मारे गए. भारत ने पाकिस्तान की शह और उसकी मदद से हुए इस आतंकवादी हमले का पलटवार पाकिस्तान पर हवाई हमले से दिया. जब भारतीय वायुसेना के विमानों ने बालाकोट में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले किए. भारत ने एक बार फिर से पाकिस्तान को संदेश दिया था कि दोनों देशों के संबंधों के नियम-क़ायदे अब बदल गए हैं. अब हर आतंकवादी हमले का करारा जवाब दिया जाएगा.

जब तहरीक-ए-तालिबान पाकिसतान के आतंकियों ने 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में 150 बच्चों की हत्या कर दी, तो बहादुर इमरान ख़ान ने एक जुमला भी तालिबानी आतंकवादियों के ख़िलाफ़ नहीं बोला.

हालांकि, भुट्टो और शरीफ़ ख़ानदान से बाहर के किसी नेता को देश का नया सियासी वारिस बनाने की तलाश कई बरस पहले ही शुरू हो गई थी. क्योंकि किसी नेता को पहचान कर उसे देश की कमान देने के लिए तैयार करने में वक़्त लगता है. पाकिस्तान की फ़ौज ऐसी कोशिश 1988 में कर चुकी थी, जब ज़िया उल हक़ की हत्या के बाद नवाज़ शरीफ़ को प्रधानमंत्री के तौर पर तैयार किया गया था. अब पाकिस्तान की फ़ौज को ऐसा नेता चाहिए था, जिस पर परिवार का बोझ न हो, ताकि उसका कोई सियासी वारिस पैदा ही न हो सके. अगर उस शख़्स के पास इस्लाम के प्रति श्रद्धा का भाव और करिश्माई व्यक्तित्व भी हो, तो बात सोने पे सुहागे जैसी होती.

क्रिकेट से रिटायर होने के बाद से इमरान ख़ान ने पहले जनसेवा का रुख़ किया. इसी दौरान वो पूर्व आईएसआई प्रमुख और अपने आप में मशहूर किरदार ब्रिगेडियर हमीद गुल के संपर्क में आए. हमीद गुल को अफ़ग़ानिस्तान के मुजाहिदीन का जनक कहा जाता है. वो अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के बहुत क़रीबी रहे हैं और भारत से सख़्त नफ़रत करते रहे हैं. बाद में हमीद गुल तालिबान के भी समर्थक बन गए थे. इमरान ख़ान के दूसरे संरक्षक थे पश्तून नेता मुहम्मद अली दुर्रानी. वो पहले जमात-ए-इस्लामी के नेता रह चुके थे. इन तीनों ने मिलकर एलान किया कि उनका एजेंडा मुल्क की सियासत में एक तीसरी ताक़त बनाने का था, जो पाकिस्तान को नवाज़ शरीफ़ ख़ानदान और भुट्टो-ज़रदारी ख़ानदान के शिकंजे से आज़ाद करा सके. इमरान ख़ान का ये मोर्चा पाकिस्तान की उस वक़्त की हुकूमत पर दबाव बनाने का भी काम करता और पाकिस्तान के बड़े होते मध्यम वर्ग की आवाज़ भी बनता. इस अभियान के पोस्टर ब्वॉय इमरान ख़ान ही थे. वो हमीद गुल और मुहम्मद अली दुर्रानी के निर्देश में रोज़-ब-रोज़ एक सियासी नेता बनते गए.

मुहम्मद अली दुर्रानी के संगठन पासबां ने इमरान ख़ान को पहले ही गोद ले लिया था. जब 1992 में इमरान की कप्तानी में पाकिस्तान ने विश्व कप जीता, तो पासबां ने लाहौर में जश्न-ए-फ़तह का आयोजन किया था. इस के बाद उसने इमरान ख़ान के कैंसर अस्पताल के लिए चंदा जुटाने में भी अहम भूमिका निभाई थी. अब पूरा खेल सियासी हो चुका था. इमरान ख़ान की सियासी महत्वाकांक्षाओं की चर्चा ज़ोर पकड़ चुकी थी. हमीद गुल ने इमरान ख़ान को 1996 में उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआई बनाने में काफ़ी मदद की. लेकिन, 1997 में पाकिस्तान में हुए चुनाव में इमरान की पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी. जबकि 2002 के चुनाव में पीटीआई केवल एक सीट पर जीत हासिल कर सकी.

पाकिस्तान में 40 से ज़्यादा आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं. और पहले की पाकिस्तानी सरकारों ने आतंकी संगठनों की मौजूदगी की बात इसलिए नहीं स्वीकारी थी कि फिर अमेरिका के दबाव में इन आतंकवादियों को जल्द ही कहीं और भेजना पड़ता.

इमरान ख़ान ने अब तालिबान के साथ शांति समझौते की मांग करनी शुरू कर दी थी. इसके पीछे वजह शायद हमीद गुल और मुहम्मद अली दुर्रानी की अमेरिकी विरोध और इस्लामिक उग्रवाद समर्थक सोच थी, जिससे इमरान ख़ान प्रभावित थे. उन्होंने पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा में तालिबान समर्थक उग्रवादियों का समर्थन करना शुरू कर दिया. क्योंकि वो उस सूबे में अपनी पार्टी पीटीआई को एक सियासी मुकाम दिलाना चाहते थे. तालिबान और चरमपंथ के समर्थन की वजह से आख़िरकार इमरान ख़ान, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में अपनी पार्टी की सरकार बनवाने में क़ामयाब हो गए. लेकिन, इस क़ामयाबी से पहले उन्हें तहरीक-ए-तालिबान ने सरकार से बातचीत के लिए अपना नुमाइंदा नियुक्त किया. तालिबान के समर्थन करने की वजह से इमरान को अब तालिबान ख़ान कहा जाने लगा था. जब तहरीक-ए-तालिबान पाकिसतान के आतंकियों ने 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में 150 बच्चों की हत्या कर दी, तो बहादुर इमरान ख़ान ने एक जुमला भी तालिबानी आतंकवादियों के ख़िलाफ़ नहीं बोला.

जुलाई महीने में अमेरिका दौरे में इमरान ख़ान ने माना था कि उनके देश में अब भी 30 से 40 हज़ार प्रशिक्षित आतंकवादी हैं. जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान और कश्मीर में जिहाद किया है. ये पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के लिहाज़ से इमरान का चौंकाने वाला बयान था. उन्होंने ये भी माना था कि पाकिस्तान में 40 से ज़्यादा आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं. और पहले की पाकिस्तानी सरकारों ने आतंकी संगठनों की मौजूदगी की बात इसलिए नहीं स्वीकारी थी कि फिर अमेरिका के दबाव में इन आतंकवादियों को जल्द ही कहीं और भेजना पड़ता. अब पाकिस्तान इन प्रशिक्षित जिहादियों को अपने पालतू आतंकवादी संगठनों लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मुहम्मद जैसे संगठनों में नहीं खपा सकता था. तो इन आतंकवादियों को कहा गया कि वो अल-क़ायदा या फिर इस्लामिक स्टेट के नाम का इस्तेमाल करें. इससे वो इन संगठनों के झूठे बैनर तले अपनी जिहादी गतिविधियां आराम से चला सकते थे.

मोदी सरकार के बहुत से आलोचक ये सोचते हैं कि जम्मू-कश्मीर से संविधान का अनुच्छेद 370 और 35A ख़त्म करने के बाद राज्य में इंतिफ़ादा जैसा उग्रवादी आंदोलन शुरू हो सकता है और कश्मीर के हालात फ़िलिस्तीन जैसे हो सकते हैं. जैसा कि सब को पता है कि ये भी पाकिस्तान का दुष्प्रचार ही है. कई और लोगों का कहना है कि अनुच्छेद 370 पहले ही बहुत कमज़ोर किया जा चुका था, तो ऐसे में उसे पूरी तरह से ख़त्म करने की कोई ज़रूरत थी नहीं और इसे संविधान में बने रहने देना चाहिए था. ये बात भी ग़लत है. क्योंकि, अगर कोई चीज़ ग़ैरज़रूरी हो गई है, तो उसे संविधान में बनाए रखने की ही क्या ज़रूरत है. जबकि ये अनुच्छेद तो पहले ही अस्थायी कहा गया था.

आज भी पाकिस्तानी समाज में एक उदारवादी तबक़ा है, जिसकी सोच तार्किक है. जिसे ये लगता है कि पाकिस्तान की तरक़्क़ी के लिए भारत के साथ स्थायी शांति ज़रूरी है. लेकिन, पिछले कई बरसों से इस्लामिक उग्रवाद के शोर में डरी हुई ये आवाज़ें अब नहीं सुनाई देतीं.

कुछ महीनों पहले मैंने किसी और लेख में ज़िक्र किया था कि अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से हटने के बाद पाकिस्तान, भारत के ख़िलाफ़ ग़ज़वा-ए-हिंद अभियान छेड़ेगा. पाकिस्तान में होने वाली घटनाओं का सीधा असर भारत की सुरक्षा पर पड़ेगा और बेहतर होगा कि हमारा देश ऐसे हालात के लिए तैयार हो जाए. पाकिस्तान अब आतंकवाद के हथियार का इस्तेमाल करने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि फाईनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स के सदस्य देश चाहते हैं कि पाकिस्तान आतंकवादी संगठनों और उनके नेताओं के ख़िलाफ़ असल ज़मीनी कार्रवाई करे. पाकिस्तान, एफएटीएफ की 40 मांगों में से 32 अब तक पूरी नहीं कर पाया है. तब से पाकिस्तान बहुत दबाव में है कि वो अक्टूबर 2019 तक एफएटीएफ की सभी शर्तों को पूरा करे. तभी एफएटीएफ, पाकिस्तान के बारे में आख़िरी फ़ैसला लेगा कि उसे ग्रे लिस्ट में रखना है या फिर ब्लैकलिस्ट कर देना है. अगर पेरिस स्थित ये संगठन पाकिस्तान के ख़िलाफ़ फ़ैसला लेता है, तो पाकिस्तान के हालात और भी बिगड़ने का अंदेशा है.

ये तय है कि पाकिस्तान कुछ ऐसा करेगा, जिससे भारत को परेशानी हो. भारत को ऐसे हालात से निपटने के साथ-साथ कश्मीर के हालात सामान्य करने का काम भी करना होगा. दोनों ही चुनौतियों से देश को अलग-अलग तरीक़ों से निपटना होगा. और ये तो सोचना भी बेकार है कि पाकिस्तान कश्मीर में हालात सामान्य होने देना चाहेगा. कभी-कभी हम पाकिस्तान से एक सामान्य देश की तरह बर्ताव करते हैं. लेकिन, पाकिस्तान एक सामान्य देश है ही नहीं. भारत से लड़े हर युद्ध में पाकिस्तान हारा है. हर बार हार की समीक्षा कर के पाकिस्तान इसी नतीजे पर पहुंचा है कि उनका इस्लाम इतना मज़बूत नहीं है कि भारत से मुक़ाबला कर सके. और न ही उनकी फ़ौज में भारत से मुक़ाबले की शक्ति है. इसीलिए, हर भारत से हर जंग में हार के बाद पाकिस्तान की फ़ौज और ताक़तवर होती गई है और इस्लामिक कट्टरपंथ बढ़ता गया है. जब अमेरिका और पाकिस्तान की मदद से अफ़ग़ानिस्तान के मुजाहिदीन ने सोवियत सेनाओं को अपने देश से निकलने पर मजबूर कर दिया, तो जिहादी आतंकवाद, पाकिस्तान के लिए भारत के ख़िलाफ़ एक सस्ता, पसंदीदा और असरदार हथियार बन गया. पाकिस्तान के नागरिकों में भारत के प्रति बरसों से बचपन से ही सिखाई जा रही नफ़रत के साथ उनके फ़ौजी जनरलों की भारत और कश्मीर के मसले पर बराबरी की तमन्ना, हर सियासी दल और सैन्य शासक का प्रमुख एजेंडा बन गई. पाकिस्तान की फ़ौज का मोटो-इमान, तक़वा और जिहाद फि सबीलिल्ला बन गया. और इस्लाम के नाम पर अब पाकिस्तान की फ़ौज आतंकवाद को हथियार बनाने के लिए आज़ाद थी. अब तो उसके पास एटम बम की ख़ामख़याली वाली सुरक्षा भी थी.

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ इमरान ख़ान, बचकाने और नफ़रत भरे ट्वीट करते हैं. ये दोनों देशों के संबंध में आई अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है. पाकिस्तान की आज़ादी के दिन इस्लामाबाद में और फिर मुज़फ़्फ़राबाद में अपने भाषण में इमरान ख़ान ने जिहाद का ज़िक्र किया और पाकिस्तान में रियासत-ए-मदीना स्थापित करने की ख़्वाहिश जताई. इन बयानों से उनका इस्लामिक उग्रवाद के प्रति झुकाव साफ़ होता है. और वही इमरान ख़ान मोदी पर भारत में हिंदुत्व फैलाने का आरोप लगाते हैं. इक्कीसवीं सदी के रहने वाले इमरान ख़ान सातवीं सदी के किसी लड़ाके जैसे बोलते मालूम होते हैं.

साफ़ है कि पाकिस्तान के नेता अपने रास्ते से भटक चुके हैं. अब उनके पास केवल मज़हबी उन्माद का रास्ता बचा है. इसके अलावा उन्हें न्यूयॉर्क टाइम्स, लंदन के मेयर सादिक़ ख़ान और बीबीसी जैसे संगठनों का समर्थन ही हासिल है. पश्चिमी एशिया में पाकिस्तान के देशों की ख़ामोशी से ज़ाहिर है कि पाकिस्तान दुनिया भर में कितना अलग-थलग पड़ चुका है.

आज भी पाकिस्तानी समाज में एक उदारवादी तबक़ा है, जिसकी सोच तार्किक है. जिसे ये लगता है कि पाकिस्तान की तरक़्क़ी के लिए भारत के साथ स्थायी शांति ज़रूरी है. लेकिन, पिछले कई बरसों से इस्लामिक उग्रवाद के शोर में डरी हुई ये आवाज़ें अब नहीं सुनाई देतीं. आज पाकिस्तान की सड़कों पर इस्लामिक उग्रवादियों का क़ब्ज़ा हो चुका है. हालांकि संसद और दूसरी सूबाई विधानसभाओं में उनकी मौजूदगी बहुत कम है. ऐसे में पाकिस्तान की फ़ौज के समर्थन वाली इन कट्टरपंथी जमातों के रहते हुए पाकिस्तान कभी भी भारत के साथ शांति बहाली के लिए क़दम नहीं उठाएगा. हमें पाकिस्तान की इस हक़ीक़त को मंज़ूर कर लेना चाहिए.

अब हमें पाकिस्तान के साथ शांति और अमन की संभावनाओं के लिए किसी शॉर्ट कट की तलाश छोड़ देनी चाहिए. पहले हमें इस बात का इंतज़ार करना चाहिए कि पाकिस्तान अपने अंदरूनी हालात सुधारे. इस बीच भारत सरकार को चाहिए कि वो जम्मू-कश्मीर में हालात सामान्य बनाने की कोशिश करती रहे. वहां की आबादी और ख़ास तौर से युवाओं को मुख्य धारा से जोड़े. केंद्र को चाहिए कि वो जम्मू-कश्मीर में निवेश के लिए प्रोत्साहन दे और चीन पर तगड़ी निगाह बनाए रखे. क्योंकि हो सकता है कि चीन अपने पक्के दोस्त पाकिस्तान की मदद के लिए कोई ऐसा क़दम उठाए, जो भारत के हित में न हो.

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