Published on Nov 23, 2021 Updated 0 Hours ago

जलवायु परिवर्तन से निपटने के अपने प्रयासों में भारत जैसे विकासशील देश, जंगलों और दरख़्तों के साये का बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकते हैं. इसके ज़रिए वो जलवायु परिवर्तन से निपटने के पूरी दुनिया की कोशिशों में बड़ा योगदान दे सकते हैं.

जंगलों में नई जान फूंकना और जलवायु परिवर्तन के लिए पेड़ों की संख्या बढ़ाने का एजेंडा

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जंगलों का कार्बन और कार्बन संतुलन

जंगल, कार्बन के बड़े उत्सर्जक भी हो सकते हैं और इनमें कार्बन को बड़े पैमाने पर सोख सकने की क्षमता भी होती है. जंगलों से कार्बन उत्सर्जन के क़ुदरती कारण भी हो सकते हैं जैसे कि क्षरण और ऑक्सीडेशन. या फिर जंगल काटने और जंगलों की आग जैसी गतिविधियों से भी कार्बन उत्सर्जन हो सकता है. इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (IUCN) के मुताबिक़, ‘दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का लगभग 25 प्रतिशत ज़मीन से होता है. ये ऊर्जा क्षेत्र के बाद कार्बन उत्सर्जन का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है, और इसमें से लगभग आधा (5-10 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन सालाना) जंगलों की कटाई और उनमें आ रही कमी के कारण होता है.’

जंगलों के दायरे में आने वाली ज़मीन को बढ़ाकर और टिकाऊ तरीक़े से उनकी उत्पादकता को बढ़ाकर, जलवायु परिवर्तन की चुनौती का एक अहम समाधान निकाला जा सकता है.

जंगलों में कार्बन सोखकर उसका भंडारण करने की भारी क्षमता होती है. इसके अलावा वो जलवायु को स्थिर बनाए रखने में भी मददगार होते हैं. इकोसिस्टम को स्थिर बनाने, महत्वपूर्ण जैव विविधता के संरक्षण और लोगों को रोज़ी मुहैया कराने जैसे योगदान से जंगल हमारे अस्तित्व के लिए बेहद ज़रूरी हैं. अगर हम प्राकृतिक जंगलों को हो रहे नुक़सान और इनके क्षरण के साथ साथ वन लगाने को बढ़ावा देने की राह की चुनौतियों से पार पा लें, तो वैज्ञानिक मानते हैं कि  ‘पेरिस जलवायु समझौते के तहत जलवायु परिवर्तन से निपटने के जो उपाय 2030 तक हमें करने हैं, उसमें से एक तिहाई का बोझ जंगल उठा सकते हैं.’ ग्लासगो में हुए COP26 में भारत ने अपने कार्बन उत्सर्जन की सघनता या प्रति व्यक्ति GDP के अनुपात के उत्सर्जन को 2030 तक, 2005 के स्तर से कम से कम 45 फ़ीसद तक कम करने का वादा किया है. IUCN के  अनुमानों में ‘इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि दुनिया भर में क़रीब दो अरब हेक्टेयर ख़राब हो चुकी ज़मीन- जो दक्षिणी अमेरिका महाद्वीप के बराबर है- के संरक्षण का मौक़ा दुनिया के पास है.’ जंगलों के दायरे में आने वाली ज़मीन को बढ़ाकर और टिकाऊ तरीक़े से उनकी उत्पादकता को बढ़ाकर, जलवायु परिवर्तन की चुनौती का एक अहम समाधान निकाला जा सकता है.

भारत में जंगलों के ज़रिए जलवायु परिवर्तन का असर कम करना

जंगलों पर ख़ास तौर से जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर पड़ता है. क्योंकि, मौसम की भयावाह घटनाओं, जैव विविधता के तमम आयामों और ज़मीन के इस्तेमाल के बदले तरीक़ों के चलते जलवायु और जंगल आपस में नज़दीकी तौर पर जुड़े हैं. UNFCCC पर भारत की दूसरी द्विवार्षिक अपडेटेड रिपोर्ट इशारा करती है कि ज़मीन का इस्तेमाल, इसके प्रयोग में बदलाव और जंगलों से ‘साल 2014 में 301,193 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ था. जो भारत के ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन का 18 फ़ीसद है.’ इसी रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि जंगलों में क़ैद कार्बन की मात्रा ‘साल 2011 में 694.1 करोड़ टन से बढ़कर 2013 में 704.4 करोड़ टन हो गई, जो दो साल में भारत के कुल कार्बन भंडार में 1.46 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है.’ भारत में जंगलों के हालात पर 2019 की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश का ‘712,249 वर्ग किलोमीटर इलाक़ा या कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.67 प्रतिशत इलाक़ा जंगलों से ढका है. अनुमान है कि 2019 में भारत के जंगलों का कार्बन भंडार 712.4 करोड़ टन है. भारत के जंगलों में कार्बन भंडार में सालाना 4.26 करोड़ टन की दर से इज़ाफ़ा हो रहा है. जो 9.764 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर है.’ द्विवार्षिक रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि ‘ भारत की कुल जैव विविधता का 80 प्रतिशत हिस्सा जंगलों में ही आबाद है और देश के क़रीब 30 करोड़ लोग अपनी रोज़ी के लिए काफ़ी हद तक जंगलों पर ही निर्भर हैं. ऊर्जा की 40 प्रतिशत और चारे की 30 फ़ीसद ज़रूरत पूरी करने के साथ-साथ बिना लकड़ी वाले कई और उत्पाद भी जंगलों से ही हासिल होते हैं.’ इसी वजह से जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने और नए हालात के हिसाब से ढालने के उपायों में सरकार पेड़ लगाने, जंगलों का दायरा बढ़ाने और काटे गए जंगलों को फिर से लगाने को बढ़ावा देती है, जिससे कि जंगलों में कार्बन के भंडारण के संरक्षण के साथ-साथ उसे बढ़ाया भी जा सके. ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से बचने और ज़मीन में कार्बन सोखने की क्षमता बढ़ाने के लिए ज़मीन के संरक्षण और लकड़ी काटने के प्रबंधन को एक बेहतर विकल्प माना जाता है.

ज़मीन का इस्तेमाल, इसके प्रयोग में बदलाव और जंगलों से ‘साल 2014 में 301,193 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ था. जो भारत के ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन का 18 फ़ीसद है.’ 

जंगलों की उत्पादकता और जलवायु संबंधी वादे

भारत में जंगलों के हालात पर 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में 40 प्रतिशत से कम साया देने वाले- यानी खुले और झाड़ियों वाले जंगल, भारत में कुल जंगलों का 10.67 प्रतिशत हैं. अनुमानों के मुताबिक़, आज से लेकर 2030 तक भारत का, ‘कुल कार्बन उत्सर्जन क़रीब 30-40 अरब टन तक होगा.’ ग्लासगो में हुए सम्मेलन में भारत ने इसी में से एक अरब टन उत्सर्जन कम करने का वादा किया है. इस वादे से भारत को आने वाले दशक में जंगलों का दायरा बढ़ाने की दोहरी रणनीति पर अमल करने का हौसला दे सकता है. इस संदर्भ में जंगल की उत्पादकता को आधार बनाना और उसे बढ़ाना सुनिश्चित करके जंगलों से मौजूदा भंडार का बेहतर मूल्यांकन हो सकेगा. इसके साथ, जैविक अर्थव्यवस्था और टिकाऊ जंगल प्रबंधन और जंगलों से लकड़ी की वर्तमान और भविष्य के लिए आपूर्ति का आकलन करके जंगलों का विकास, लकड़ी और अन्य संसाधन हासिल करने और उपयोग का हिसाब लगाया जा सकता है. फिर इन सबकी मदद से जंगलों के कार्बन चक्र का इस्तेमाल करते हुए जलवायु परिवर्तन से जुड़ी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं (NDCs) और अन्य वादों को पूरा करने में भी मदद मिल सकती है.

COP26 के संदर्भ में भविष्य की संभावनाएं

ग्लासगो सम्मेलन में हुई बातचीत कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर गंभीर वादों और जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बढ़ी है. लेकिन, कोविड-19 महामारी के चलते, कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए पूंजी की कमी ने चुनौती को और बड़ा बना दिया है. ऐसे में दो ऐसे उपाय हैं, जिन्हें अगर सही तरीक़े से लागू किया जाए, तो नीतिगत बातचीत को ज़मीनी स्तर पर असदार ढंग से अपनाया जा सकता है. सबसे पहले तो REDD+ व्यवस्था की अहमियत और प्रासंगिकता का विश्लेषण करने की ज़रूरत है. ये विश्लेषण जलवायु परिवर्तन को लेकर हुई परिचर्चाओं से तय किए गए नए एजेंडे और पेरिस जलवायु समझौते के तहत तय की गई, राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को सख़्ती से लागू करने को ध्यान में रखकर होना चाहिए. इसके लिए ख़ास मगर हासिल किए जा सकते लायक़ नियम और प्रक्रियाएं तय होनी चाहिए, जिनकी मदद से समय पर लक्ष्य हासिल किए जा सकें. दूसरी बात ये कि भविष्य में नेट ज़ीरो या कार्बन न्यूट्रल होने का लक्ष्य हासिल करने के लिए तय योजना और पूंजी निवेश के ज़रिए, सभी देश एक टिकाऊ विश्व की ओर मज़बूती से आगे बढ़ सकते हैं.

कोविड-19 महामारी के चलते, कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए पूंजी की कमी ने चुनौती को और बड़ा बना दिया है. ऐसे में दो ऐसे उपाय हैं, जिन्हें अगर सही तरीक़े से लागू किया जाए, तो नीतिगत बातचीत को ज़मीनी स्तर पर असदार ढंग से अपनाया जा सकता है. 

वादों और उन्हें सख़्ती से लागू करने की व्यवस्थाओं को आपस में जोड़ने से सभी देश अपनी विकास संबंधी प्राथमिकताओं को अपनी सामाजिक आर्थिक अपेक्षाओं के अनुरूप इस तरह से ढाल सकेंगे, जो जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने में भी योगदान दे. इसलिए ऐसे हालात में विकासशील देशों के पास अपने उत्सर्जन कम करने के लिए कई विकल्प होंगे: अव्वल तो वो स्वच्छ तकनीकें अपना सकेंगे; दूसरा तरीक़ा ये होगा कि विकासशील देश अपने कार्बन उत्सर्जन को कार्बन भंडारण के रूप में तब्दील कर सकेंगे. चूंकि बहुत से विकासशील देशों के पास या तो कार्बन भंडारण बढ़ाने की क्षमता है. अगर ये देश, जंगलों की कटाई को सीमित करके और पेड़ों की संख्या बढ़ाना भी चाहें तो इससे वो बहुत कम कार्बन भंडारण कर सकेंगे. इसके बावजूद, जंगलों पर ध्यान देकर ये देश कार्बन क्रेडिट और कार्बन कम करने के अपने लक्ष्य हासिल कर सकते हैं. इससे कार्बन बाज़ार में नई जान फूंकी जा सकेगी. ख़ास तौर से भारत जैसे विकासशील देश कार्बन क्रेडिट और कार्बन ऑफसेट के लिए जंगलों का सहारा ले सकते हैं और इस तरह जलवायु परिवर्तन से जुड़े अपने लक्ष्य ज़्यादा तेज़ी से हासिल कर सकते हैं. इसके लिए कार्बन मार्केट का एक इको-सिस्टम बनाना फ़ायदेमंद हो सकता है. इस बाज़ार में निजी और सरकारी कंपनियां भागीदार हो सकती हैं, जो न केवल इस व्यवस्था को मज़बूती देंगी. बल्कि, ऐसा कार्बन बाज़ार जंगलों को बचाने और पेड़ लगाने वाले समुदायों के लिए अपनी ज़मीन का इस्तेमाल करना फ़ायदेमंद बना सकता है. अगर अपनी निजी ज़मीन पर पेड़ पौधे लगाने को फ़ायदे का सौदा बना दिया जाए, तो इससे आम लोगों के बीच पेड़ लगाने की गतिविधियों को काफ़ी बढ़ावा मिल सकता है. इससे देश में लकड़ी का आयात भी कम होगा. घरेलू स्तर पर ही लकड़ी की मांग पूरी हो सकेगी और किसानों व उद्यमियों को रोज़ी-रोज़गार के नए विकल्प भी मिल सकेंगे.

ऐसे उभरते हुए माहौल में जंगलों और दरख़्तों का  बेहतर ढंग से इस्तेमाल करके भारत जैसे विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से निपटने की अपनी कोशिशों को तो मज़बूती दे ही सकेंगे. वो जलवायु परिवर्तन से जूझ रही दुनिया के लिए भी मददगार साबित होंगे.

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