Author : Ashok Malik

Published on Aug 16, 2019 Updated 0 Hours ago

इसमें कोई शक नहीं है कि 5 अगस्त के फैसले से कई संभावनाएं व मौके बने हैं, लेकिन इससे कई सवाल भी खड़े हुए हैं.

धारा 370 के बाद — जम्मू-कश्मीर और लद्दाखः एक नए आयाम की तलाश

भूमिका

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली सरकार ने 5 अगस्त को संविधान के अनुच्छेद 370 को लागू करने का अधिकार ख़त्म कर दिया. इस अनुच्छेद की वजह से 1950 से जम्मू-कश्मीर (जेएंडके) राज्य को करीब-करीब स्वायत्तता मिली हुई थी. राज्य को अब दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा जाएगा. इसमें से एक लद्दाख होगा, जिसके पास अपनी विधानसभा नहीं होगी. दूसरा, जम्मू-कश्मीर होगा, जिसके पास अपनी विधायिका होगी. इस फैसले की सांकेतिक अहमियत तो है ही, इसका दूरगामी असर भी होगा.

यह बात भी सच है कि अनुच्छेद 370 समय के साथ कमजोर होता आया था. ख़त्म होने से पहले यह उतना विशिष्ट या ख़ास नहीं रह गया था, जैसा 1953 में था, जब जनसंघ के संस्थापक (इसी से बाद में बीजेपी निकली) श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले इस अनुच्छेद के विरोध में एक प्रदर्शन का नेतृत्व करते हुए मौत हो गई थी. इसके बावजूद एक संकेत के रूप में इसका वजूद बना हुआ था और किसी राष्ट्र के गढ़े जा रहे विमर्श या चिंतन में संकेतों की गहरी भूमिका होती है. घाटी में अनुच्छेद 370 को वापस लिए जाने — या अनुच्छेद 370 के किसी भी रूप में इस्तेमाल पर रोक से — मनोवैज्ञानिक झटका लगा है. सरकार के इस फैसले का न सिर्फ़ देश के अंदर बल्कि इस क्षेत्र और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी असर होगा. ऐसे में इस घटना के किसी भी तरह के विश्लेषण से पहले जम्मू-कश्मीर के इतिहास पर एक नज़र डालना ज़रूरी है.

अक्टूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर की राजशाही का भारत में जब विलय हुआ, तब यह क्षेत्र किसी पहेली की तरह था. उस वक्त राजतंत्र कई क्षेत्रों में बंटा हुआ था. इनमें कश्मीर और जम्मू, पंजाब के करीब थे, जबकि लद्दाख धर्म और एथनिक (जिस मूल के निवासी वहां रहते थे) आधार पर उनसे बिल्कुल अलग था. कथित ‘उत्तरी क्षेत्र’ गिलगिट, बलटिस्तान, हुंजा और आसपास के राज्यों में दूसरे क्षेत्रों से अलग मूल के आए लोग रहते थे. साथ ही, इन क्षेत्रों के लोग खुद को मध्य एशिया से जोड़कर देखते थे, न कि दक्षिण एशिया से. डोगरा राजपूत सेनापति, गुलाब सिंह के उत्तराधिकारी अलग-अलग मूल के लोगों को अपने राज के तहत लाने में सफल हुए थे. गुलाब सिंह सिखों के सबसे महान राजा रणजीत सिंह के सेनापति थे. हालांकि, महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद गुलाब सिंह के परिवार ने उनके उत्तराधिकारियों को धोख़ा देकर ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ समझौता कर लिया था. इसके इनाम में अंग्रेजों से उन्हें जम्मू-कश्मीर की रियासत मिली, लेकिन यह क्षेत्र कभी भी एक इकाई नहीं रहा. [i]

1947 में कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय का फैसला लिया, लेकिन तब तक उनकी पकड़ अपने राज पर काफी कमजोर पड़ चुकी थी. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उस वक्त तक पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर के कुछ क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया था. दूसरी तरफ, गिलगिट-बलटिस्तान/उत्तरी इलाके पर ब्रिटिश सेना क़ाबिज़ थी, जहां से उसकी नजर सोवियत रूस और जल्द ही वामपंथियों के शासन वाले चीन के ‘ग्रेट गेम’ पर थी.

ऐसे में यह सवाल मन में उठना स्वाभाविक है कि अगर हरि सिंह अपना पूरा राज भारत को देने में सफल रहते और उनके शासन वाला जम्मू-कश्मीर हाल में आज़ाद हुए लोकतांत्रिक देश का एक ‘सामान्य’ राज्य बनता, तब क्या होता. यह मानना गलत नहीं होगा कि 1950 के दशक में जब राज्य पुनर्गठन आयोग भारत के अंदरूनी मानचित्र को बदल रहा था, तब जम्मू-कश्मीर का भी बंटवारा हुआ होता. जैसा कि मद्रास या बाद में भारत के अविभाजित पंजाब के साथ हुआ, उसी तरह से जम्मू और कश्मीर में उप-क्षेत्रीय, धार्मिक-सामुदायिक, निवासियों के मूल और भाषाई आधार पर कई छोटे और एक चरित्र वाले राज्य बने होते, जिन्हें संभालना भी आसान होता.

लेकिन यह काम 1947 से 2019 के बीच क्यों नहीं हुआ? राज्य का जो हिस्सा भारत के पास था, वहां तो यह काम किया ही जा सकता था. इसकी दो वजहें हैं. पहली, हाल ही में स्वाधीन हुए देश के नए नेतृत्व को लगा कि कश्मीर विवाद के ख़त्म होने के बाद ही यह काम होना चाहिए, भले ही इसमें हरि सिंह के राज के दौरान आने वाले सारे क्षेत्र शामिल हों या नियंत्रण रेखा (एलओसी) को वैध अंतरराष्ट्रीय सीमा के तौर पर मान्यता मिले. इसका सुझाव बाद के वर्षों में अक्सर दिया गया.

दूसरी वजह अमूर्त है. भारत ने बंटवारे को स्वीकार कर लिया था और उसके साथ जीने की आदत डाल ली थी. हालांकि, अलग-अलग धर्म के जिस आधार पर देश के दो टुकड़े हुए थे, उसने उसे स्वीकार नहीं किया था. भारत यह मानने को तैयार नहीं था कि अलग-अलग धर्मों- मिसाल के लिए हिंदू और मुस्लिम एक देश में मिल-जुलकर नहीं रह सकते. भारतीय सोच और तत्कालीन सरकार को लगा कि हिंदू बहुल जम्मू, बौद्धों की अधिक आबादी वाले लद्दाख और मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी को बांटने से यह संदेश जाएगा कि कश्मीरी मुसलमान दूसरे धार्मिक समूहों से अलग हैं और इससे पाकिस्तान को भारत के खिलाफ़ एक पॉइंट मिल जाएगा.

दूसरी तरफ पाकिस्तान ने कानून या बहुलतावाद को लेकर अक्लमंदी नहीं दिखाई. उसने कश्मीर के जिन हिस्सों पर क़ब्ज़ा किया था, उनसे उत्तरी क्षेत्र को अलग कर दिया और उसके साथ बिल्कुल अलग बर्ताव किया गया. इस क्षेत्र को अब गिलगिट-बलटिस्तान के नाम से जाना जाता है. यहां एक तरह से पाकिस्तान की तानाशाही चलती है. इस क्षेत्र के मूल निवासियों के साथ भेदभाव होता आया है और धार्मिक आधार पर उनका सफाया किया जा रहा है. पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर डेमोग्राफिक बदलाव (पाकिस्तान के दूसरे क्षेत्रों से लाकर लोगों को यहां बसाया गया है) भी किए हैं. इतना ही नहीं, 1963 में उसने इस क्षेत्र के एक हिस्से को चीन को भी सौंप दिया था.

II

लद्दाख और शायद जम्मू को अलग राजनीतिक इकाई नहीं मानने और जिस घाटी से उनका कोई जुड़ाव नहीं था, उससे अलग नहीं करने से जोख़िम भी जुड़ा हुआ था. हालांकि, शुरुआती वर्षों में भारत को इससे यह दिखाने का मौका मिला कि जम्मू-कश्मीर ऐसा राज्य है, जहां अलग-अलग धर्मों और मूल के लोग मिलकर रह रहे हैं और यह एक तरह से ‘मिनी-इंडिया’ है.

समय के साथ लद्दाख और उससे कहीं अधिक जम्मू में एक विरोध पनपता रहा. इन क्षेत्रों के लोग इस बात से नाराज़ थे कि घाटी के भौगोलिक रूप से छोटा इलाक़ा होने और तुलनात्मक रूप से वहां की कम आबादी को उसके हक से कहीं अधिक राजनीतिक अहमियत दी जा रही है और उस पर चर्चा हो रही है.

यह तर्क पहली नज़र में जितना असरदार लगता है, वैसा साबित नहीं हुआ. सिर्फ़ इस आधार पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने कश्मीर पर भारत के हक़ में कोई राय नहीं बनाई बल्कि वैश्विक और द्विपक्षीय धाराओं से तय होता रहा कि कश्मीर पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की राय भारत के पक्ष में होगी या विरोध में. इसका भारत की अपनी गढ़ी हुई छवि या जम्मू-कश्मीर पर काल्पनिक कलाबाज़ी से कोई लेना-देना नहीं था. समय के साथ लद्दाख और उससे कहीं अधिक जम्मू में एक विरोध पनपता रहा. इन क्षेत्रों के लोग इस बात से नाराज़ थे कि घाटी के भौगोलिक रूप से छोटा इलाक़ा होने और तुलनात्मक रूप से वहां की कम आबादी को उसके हक से कहीं अधिक राजनीतिक अहमियत दी जा रही है और उस पर चर्चा हो रही है. घाटी में सरकारी खर्च को लेकर भी उनमें नाराज़गी थी.

जम्मू में पनपे इस असंतोष का सबसे पहले चुनावी फायदा कांग्रेस ने 1980 के दशक में उठाया. हाल में बीजेपी ने इसे सियासी तौर पर भुनाया है. [ii] दरअसल, राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों के बीच राजनीतिक संतुलन कभी नहीं रहा. इस मामले में इस तरह से छल किया गया ताकि घाटी को अधिक फायदा मिले. इसकी ज्वलंत मिसाल परिसीमन यानी डीलिमिटेशन है. हर 10 साल में होने वाली जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा के लिए चुनावी क्षेत्रों में बदलाव किया जाना चाहिए. आदर्श स्थिति में इसका मतलब यह है कि अगर किसी दशक में किसी राज्य की आबादी में काफी बढ़ोतरी होती है तो उसे अधिक लोकसभा सीटें मिलेंगी. वहीं, जिस राज्य की आबादी में गिरावट आई हो, वहां सीटें घटेंगी.

भारत में लोकसभा सीटें और तुलनात्मक तौर पर हर राज्य को दी जाने वाली सीटें 1971 की जनगणना से जुड़ी हैं. ऐसा इसलिए किया गया ताकि दक्षिण भारतीय राज्यों को सीटें न गंवानी पड़ें, जिनका उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल जैसे राज्यों की तुलना में आबादी पर नियंत्रण के मामले में रिकॉर्ड काफी अच्छा रहा है. हालांकि, राज्यों के अंदर चुनावी क्षेत्रों में बदलाव के लिए 2001 की जनगणना को आधार बनाया जाता है. इसका मतलब यह है कि भले ही 1971 के बाद उत्तर प्रदेश की आबादी में भारी बढ़ोतरी हुई हो, लेकिन वहां की लोकसभा सीटें 80 ही रहेंगी. इसमें एक सीट की भी बढ़ोतरी नहीं होगी.

देश में जम्मू-कश्मीर इकलौता राज्य है, जहां यह परिसीमन नहीं हुआ. आख़िरी बार, 1990 के दशक की शुरुआत में यह काम हुआ था. इस वजह से सियासी तौर पर घाटी का दबदबा बना रहा.

वहीं, अगर राज्य के अंदर ‘पॉपुलेशन शिफ्ट’ हुआ हो, तब 2001 की जनगणना के हिसाब से लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में बदलाव किया जा सकता है. इसे एक काल्पनिक उदाहरण से समझते हैं. मान लीजिए कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पूर्वी उत्तर प्रदेश की तुलना में मतदाताओं की संख्या अधिक हो जाती है तो उसे अधिक लोकसभा सीटें (80 सीटों में से ही) और अधिक विधानसभा सीटें (कुल 403 सीटों में से ही) दी जा सकती हैं. देश में जम्मू-कश्मीर इकलौता राज्य है, जहां यह परिसीमन नहीं हुआ. आख़िरी बार, 1990 के दशक की शुरुआत में यह काम हुआ था. इस वजह से सियासी तौर पर घाटी का दबदबा बना रहा. 1990 के दशक के बाद से राज्य के अंदर आबादी में हुए बदलाव की इसमें अनदेखी हुई. इस बीच जहां जम्मू क्षेत्र में आबादी बढ़ी है, वहीं घाटी क्षेत्र में रहने वालों की संख्या में कमी आई है. इसकी एक वजह 1989 के बाद घाटी से हिंदुओं का पलायन के लिए मजबूर होना भी है. इस वजह से इस क्षेत्र में आज लगभग समूची आबादी मुसलमानों की है. इस असंतुलन को दूर किया जाना ज़रूरी था और इसे लेकर जम्मू में नाराज़गी लगातार बढ़ रही थी.

III

ऊपर हमने जिन परिस्थितियों का ज़िक्र किया है, उसमें कुछ भी नया नहीं है. ऐसे में सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार को अनुच्छेद 370 और राज्य के बंटवारे का फैसला अभी क्यों लेना पड़ा? इसका आसान जवाब यह है कि अनुच्छेद 370 को हटाना और जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ एकीकरण बीजेपी के बनने के बाद से उसके लिए प्रमुख मुद्दे रहे हैं. इस जवाब में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन यह मुकम्मल जवाब भी नहीं है. 5 अगस्त के फैसले की कुछ ज़मीन 2014-16 के बीच भी तैयार हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब मई 2014 में सत्ता में आए थे, तब कश्मीर पर उनका खुला नज़रिया था. वह पाकिस्तान के साथ बातचीत करके कश्मीर विवाद का स्थायी हल निकालना चाहते थे. उनके पास इसके लिए अपना फ़ॉर्मूला था. वह व्यापार और विकास का इस्तेमाल दोनों देशों के बीच तालमेल बढ़ाने के लिए करना चाहते थे. मोदी चाहते थे कि सीमा विवाद का हल आगे चलकर निकाला जाए. [iii]

पाकिस्तान की सेना ने सीमा पर भारत के खिलाफ आक्रामक रुख़ अपना लिया था. यह बताना मुश्किल है कि वह अपने प्रधानमंत्री की छवि को नुकसान पहुंचाना चाहती थी या उसकी मंशा भारत के नए प्रधानमंत्री के धैर्य की परीक्षा लेने की थी.

इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने 26 मई 2014 को अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को न्योता दिया था. उन्होंने अपनी तरफ़ से एक कोशिश की थी, लेकिन कुछ ही हफ्तों में उनकी मेहनत पर पानी फिर गया. पाकिस्तान की सेना ने सीमा पर भारत के खिलाफ आक्रामक रुख़ अपना लिया था. यह बताना मुश्किल है कि वह अपने प्रधानमंत्री की छवि को नुकसान पहुंचाना चाहती थी या उसकी मंशा भारत के नए प्रधानमंत्री के धैर्य की परीक्षा लेने की थी. वैसे यह उसकी कोई नई चाल नहीं थी. पाकिस्तानी सेना 1989-90 में वी पी सिंह सरकार और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के साथ भी ऐसा कर चुकी थी. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान ने गोलाबारी बढ़ा दी और उसने भारतीय सीमा के अंदर ख़ासतौर पर हिंदू और गैर-मुस्लिम गांवों को निशाना बनाया. [iv] इसके बाद मोदी सरकार ने भी सुरक्षाबलों को पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने की छूट दे दी.

8 जुलाई 2016 को सुरक्षाबलों की कार्रवाई में आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद घाटी घाटी में उबाल आ गया. वानी और उसकी मौत के बाद कश्मीर में अशांति का एक नया दौर शुरू हुआ. इसमें आज़ादी की मांग की आवाज़, जिहाद की आवाज़ के नीचे दब गई. यह संघर्ष अब कश्मीर की आज़ादी या पाकिस्तान के साथ विलय तक सीमित नहीं रह गया था. अब यहां खलीफ़ा की बातें हो रही थीं. इस्लामिक स्टेट और इसी तरह के अन्य संगठनों की इमेज, नारों और वीडियो ने कश्मीर के नौजवानों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करना शुरू कर दिया था.

बदले हुए हालात में भारत के लिए अनुच्छेद 370 को खत्म करने का फैसला लेने की गुंजाईश बनी. भारत पर कोई अंतरराष्ट्रीय दबाव नहीं था. भारतीय सुरक्षाबलों के निशाने पर वैसे नकाबपोश थे, जिन्हें इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों की याद दिलाते थे. उनके हाथों में वे एके-47 थे और वे इस्लामिक युद्ध की वकालत कर रहे थे. इसलिए कोई भी संजीदा पश्चिमी देश मानवाधिकार के मुद्दे पर भारत को लेक्चर पिलाने को तैयार नहीं था. इससे भारत के सामने एक चुनौती भी खड़ी हुई. बदले हुए हालात का मतलब यह था कि घाटी में अब पारंपरिक राजनेता अप्रासंगिक हो गए हैं. यह बात न सिर्फ़ अब्दुल्ला (नेशनल कॉन्फ़्रेंस) और सईद (पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी) परिवारों के लिए सही थी बल्कि ऑल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ़्रेंस भी बेमतलब हो गई थी.

घाटी में इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी का कोई प्रमाण नहीं मिला है. यह इंटरनेट प्रोपगेंडा के ज़रिये नौजवानों को गुमराह़ करने का मामला था.

हुर्रियत को पारंपरिक तौर पर अलगाववाद समर्थक और पाकिस्तान-परस्त माना जाता रहा है. यह भी कहा जाता था कि हुर्रियत की कश्मीर की नब्ज़ पर पकड़ रहती है. हालांकि, श्रीनगर के नेता खुद को इतनी बार बेच चुके थे कि वे मरने-मारने पर उतारू कश्मीरी नौजवानों को शांत करने के लिए कोई आइडिया, कोई समझौता, किसी रणनीति के तहत कदम आगे बढ़ाने या पीछे हटने की सलाह देने की स्थिति में नहीं थे. यहां यह बात स्पष्ट करना भी ज़रूरी है कि घाटी में इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी का कोई प्रमाण नहीं मिला है. यह इंटरनेट प्रोपगेंडा के ज़रिये नौजवानों को गुमराह़ करने का मामला था. घाटी में जब इस तरह के हालात थे, तब हुर्रियत की तरफ से भारतीय सुरक्षा एजेंसियों और राजनीतिक संपर्क कायम करने की कोशिश भी हुई थी. [v] इसमें सरकार से इन ‘लड़कों’ के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की गई थी, लेकिन साथ ही हुर्रियत से बातचीत करके उसे (हुर्रियत नेतृत्व को) प्रासंगिक बनाने की मांग भी रखी गई थी. तब तक काफी देर हो चुकी थी और वह अध्याय खत्म हो चुका था. इसलिए जो आलोचक आज यह कह रहे हैं कि 5 अगस्त 2019 के फैसले से पहले केंद्र सरकार को कश्मीर के ‘नेताओं’ को भरोसे में लेना चाहिए था, उनकी बात आसानी से ख़ारिज की जा सकती है. अगर सरकार ऐसा करती तो बात लीक हो जाती और उस पूरी पहल से कुछ हासिल नहीं होता.

IV

2016 की घटनाओं का एक और असर हुआ. उससे यूनिवर्सिटी-कॉलेज कैंपसों, मीडिया में होने वाली बहस और सार्वजनिक मंचों पर लेफ्ट-लिबरल समूहों के मोदी विरोधी प्रदर्शनों के केंद्र में कश्मीरी अलगाववाद का आवेग और तल्ख़ी आ गई. ऐतिहासिक तौर पर कश्मीर समस्या का भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं रहा है. कश्मीरी मुसलमान खुद को सभी (अन्य) भारतीयों से अलग मानते हैं, चाहे वे मुस्लिम हों या हिंदू.

हाल के वर्षों में देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ने और काम करने वाले युवा कश्मीरी मुसलमानों की संख्या काफी बढ़ी है. कश्मीरी मुसलमान अब कैंपस पॉलिटिक्स का हिस्सा बन गए हैं. मिसाल के लिए, उनमें से कुछ जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र संघ के लिए चुने भी गए थे. इतना ही नहीं, आपको केरल से लेकर गोवा तक में कश्मीरी काम करते हुए दिख जाएंगे. वैसे, इस बदलाव का मिला-जुला असर भी हुआ है. इसे देखते हुए भारत सरकार को उम्मीद रही होगी कि नौजवान कश्मीरियों को देश की विविधता और आर्थिक मौक़ों का पता चलेगा और इससे वे भारत के और करीब आएंगे. एक हद तक ऐसा हुआ भी है, लेकिन इसके साथ ही अलगाववादी सोच और हाशिये पर पड़े लेफ्ट के बीच भी संपर्क बढ़ा है. भारतीय मुसलमानों का भी एक बहुत छोटा वर्ग इनके साथ आया है, जिन्हें बरगलाना आसान था. 2016 के बाद मोदी और भारत विरोधी सोच रखने वाले इन अलग-अलग समूहों को जिस तार ने बांध रखा था, उन्हें लगता है कि वे मिलकर एक हो गए हैं.

ऐतिहासिक तौर पर कश्मीर समस्या का भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं रहा है. कश्मीरी मुसलमान खुद को सभी (अन्य) भारतीयों से अलग मानते हैं, चाहे वे मुस्लिम हों या हिंदू.

देश के दूसरे क्षेत्रों और लोगों के बीच इस पर बिल्कुल अलग या प्रतिक्रिया में एक राय बनी. उसकी वजह सिर्फ यह नहीं थी कि मोदी के बारे में दुष्प्रचार किया जा रहा था. प्रधानमंत्री की निजी लोकप्रियता के बावजूद इस जटिल परिघटना को सिर्फ एक शख्स़ से जोड़ना ठीक नहीं होगा. देश के दूसरे क्षेत्रों में लोगों की इस प्रतिक्रिया की वजह यह थी कि कश्मीरी नेताओं के मामले में उनका धैर्य जवाब दे चुका था. कश्मीरियों के खुद को पीड़ित दिखाने से वे आजिज़ आ चुके थे. उनकी अलगाववादी प्रवृति, राज्य की सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन और कश्मीर से जुड़े आतंकवाद के ऐतिहासिक चरम पर पहुंचने से देश के दूसरे हिस्सों में लोगों में गुस्सा बढ़ रहा था. इस बात पर भी पूरी तरह ध्यान नहीं दिया गया है कि संघर्ष प्रभावित क्षेत्र के रूप में कश्मीर (और इसी लिहाज से पाकिस्तान) अब सिर्फ उत्तर भारत के विमर्श तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि इस पर पूरे देश में चर्चा हो रही है.

इसकी दो वजहें हैं:

i. टेलीविजन और सोशल मीडिया के ज़रिये कश्मीरी उग्रवाद और भारत विरोधी नारे- चाहे वों घाटी में लगे हों या देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले राजनीतिक आयोजनों में- समूचे देश में पहुंचे. लिहाजा, इस पर प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक थी. कैंपसों और कश्मीर से बाहर दूसरे मंचों पर अलगाववादी राजनीति के लेफ्ट-लिबरल विमर्श का हिस्सा बनने से आज़ादी के पैरोकारों को नए सहयोगी तो मिले, लेकिन इससे उनका सामना मुख्यधारा के लोगों से भी हुआ, जो उनसे अलग सोच रखते हैं.

ii. 1990 के दशक तक भारतीय सुरक्षाबलों को अंदरूनी सुरक्षा के मामले में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था. वे आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार-झारखंड और दूसरे राज्यो में माओवाद और असम, मणिपुर, नगालैंड, पंजाब, जम्मू और कश्मीर में उग्रवाद या अलगाववाद से जूझ रहे थे. आज इन सभी राज्यों में कमोबेश शांति और एक हद तक स्थिरता लौटी है. सिर्फ कश्मीर इसका अपवाद है. इसका पता इस बात से भी चलता है कि हर साल सरकार सेना और सुरक्षाबलों के जवानों को जो वीरता पुरस्कार देती है, वह जम्मू-कश्मीर या पाकिस्तान के साथ सीमा पर बहादुरी के लिए दिया जा रहा है.
इन दोनों वजहों से कश्मीर पूरे देश के लिए एक मसला बन गया है, जिसके बारे में आम लोगों की अपनी एक सोच है. इसके पर्याप्त साक्ष्य भी मौजूद हैं.

फरवरी 2019 में पड़ोसी देश के लड़ाकू विमानों पर जवाबी हमले में विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान को पैराशूट से पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में उतरना पड़ा था, जिसके बाद वहां की सेना ने उन्हें गिरफ़्तार र कर लिया था. [vi] 1 मार्च को उन्हें रिहा किया गया और उसके बाद वह भारत आए. विंग कमांडर की रिहाई पर केरल के एक सीनियर जर्नलिस्ट ने बताया था कि उस दौरान 15 दिनों में उससे जुड़ी खबरों की सबसे अधिक टीआरपी आई थी. उन्होंने बताया था कि न्यूज़ चैनलों ने तब वहां लोकप्रिय धारावाहिकों को भी रेटिंग की रेस में पीछे छोड़ दिया था. पुलवामा कार धमाके से भी इसका सबूत मिला था. विंग कमांडर अभिनंदन वाले मामले से दो हफ्ते पहले यह हमला हुआ था, जिसमें सेंट्रल रिजर्व पुलिस फ़ोर्स (सीआरपीएफ) के 40 जवान शहीद हुए थे, ये जवान देश के 29 में से 16 राज्यों के रहने वाले थे. जब उनका पार्थिव शरीर उनके घर ले जाया गया तो उत्तर प्रदेश और झारखंड से लेकर असम और कर्नाटक तक में आम जनता के आंसुओं के बीच उन्हें भावभीनी विदाई दी गई. पूरे देश के लिए वह भावुक करने वाला क्षण था.

राज्य में यथास्थिति से लोग आजिज आ चुके थे. कश्मीर की हिंसा और खुद को पीड़ित दिखाने की मानसिकता से उनके अंदर खीझ भर गई थी.

एक के बाद एक ऐसी घटनाओं के कारण धीरे-धीरे कश्मीर को लेकर पूरे देश में सख़्त सोच बनती गई. राज्य में यथास्थिति से लोग आजिज आ चुके थे. कश्मीर की हिंसा और खुद को पीड़ित दिखाने की मानसिकता से उनके अंदर खीझ भर गई थी. वे ब्लैकमेल की राजनीति से उकता गए थे. इसका मतलब यह था कि राजनीतिक तौर पर अतीत से हटकर चलने की ज़मीन तैयार हो चुकी थी और एक नई और साहसी पहल उठाने का वक्त आ गया था. प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने जनता के मिज़ाज को भांपा और उन्हें इसमें एक मौका दिखा. जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक 2019 को अलग-अलग राजनीतिक दलों से जो व्यापक समर्थन मिला (भले ही इस पर सर्वसम्मति न रही हो), उसकी वजह यही है.

V

5 अगस्त के फैसले और उसकी टाइमिंग में भारत के पड़ोस यानी पाकिस्तान-अफगानिस्तान में बदल रहे हालात की भी भूमिका रही है. जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि बुरहान वानी के मारे जाने के बाद 2016 में कश्मीर घाटी में अशांति फैल गई थी और वहां कई नौजवान इस्लामिक स्टेट से प्रेरित हो रहे थे. पाकिस्तान ने इस स्थिति का फायदा उठाया और लोगों को धार्मिक आतंकवाद की राह पर धकेलने और सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी के लिए उसने पैसे भी भेजे थे. कश्मीर को लेकर तब इस्लामिक आतंकवादी संगठन, पाकिस्तान की धार्मिक अतिवादी सेनाएं और वहां की सरकार एक हो गए थे. इसमें वैसे तो कुछ भी नया नहीं था. नई बात सिर्फ इतनी थी कि पाकिस्तान सरकार अब आतंकवादियों के हाथ का खिलौना बन गई थी. पाकिस्तान में एक वर्ग इन धार्मिक सेनाओं का इस्तेमाल भारत के खिलाफ करना चाहता था, लेकिन उनका प्रभाव काफी कम हो गया था. यह वर्ग चाहता था कि उसके कहने पर ये लोग भारत के खिलाफ हमले तेज कर दें और रोकने पर रुक जाएं. उनकी जगह पाकिस्तानी सेना के एक वर्ग ने ले ली, जो खुद को वर्दीधारी अंतरराष्ट्रीय जिहादी मानते थे. बेशक इसमें उन्हें लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और इस तरह के संगठनों की ताकत और क्षमता बढ़ने से मदद मिली. इसमें भी कोई शक नहीं है कि कश्मीर की अलगाववादी मुहिम पर धर्म का कुछ प्रभाव हमेशा से रहा है, लेकिन 2016 की घटना से इसके नए और खतरनाक आयाम सामने आए.

काबुल में तालिबान के उभार और कश्मीर में आतंकवाद के बीच कमजोर ही सही, लेकिन सीधा रिश्ता था. रूस को हराने और अमेरिकी हमले के बीच वजूद बनाए रखने में सफल रहे उम्माओं की अंतरराष्ट्रीय सेना के लिए ऐसे में कश्मीर की ‘आज़ादी’ एक लुभावना प्रस्ताव हो सकता था.

दो साल बाद यह भी स्पष्ट हो गया कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने को लेकर गंभीर हैं. इस खबर से भारत भी चौकन्ना हो गया. दिसंबर 2018 में अमेरिका के रक्षा सचिव जिम मैटिस के इस्तीफ़े से ट्रंप सरकार के भीतर सेना वापस बुलाने को लेकर चल रही ऊहापोह खत्म हो गई. [vii] अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने का फैसला हो चुका था. समय कम बचा था और इसलिए पाकिस्तान व तालिबान फिर से अमेरिकी रणनीति के केंद्र में आ गए.

इसका कश्मीर पर भी असर पड़ने की आशंका थी. अफगानिस्तान से एक और सुपरपावर यानी सोवियत रूस के वापस लौटने के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में कश्मीर में आतंकवाद तेजी से बढ़ा था. [viii] उसके बाद अंतरराष्ट्रीय जिहादियों के गठजोड़ के लिए कश्मीर अगला ‘मिशन’ बन गया था. उस वक्त न सिर्फ पाकिस्तानी पंजाबी, बल्कि अफगान और कुछ मध्य एशियाई मूल के आतंकवादी भी कश्मीर में सक्रिय हुए थे. [ix] काबुल में तालिबान के उभार और कश्मीर में आतंकवाद के बीच कमजोर ही सही, लेकिन सीधा रिश्ता था. रूस को हराने और अमेरिकी हमले के बीच वजूद बनाए रखने में सफल रहे उम्माओं की अंतरराष्ट्रीय सेना के लिए ऐसे में कश्मीर की ‘आज़ादी’ एक लुभावना प्रस्ताव हो सकता था.

2019 में सेना वापस बुलाने के लिए अमेरिका ने जैसे तालिबान से बातचीत शुरू की और उसमें पाकिस्तान का सहयोग लिया, उससे भारत की आशंकाएं बढ़ती गईं. प्रधानमंत्री इमरान खान की जुलाई में अमेरिका की यात्रा के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा. अमेरिका को पता था कि भारत इसे तुरंत खारिज कर देगा. इसके बावजूद ट्रंप का बयान यह दिखाता है कि वॉशिंगटन, डीसी, में फिर से ऐसी सोच ने घर बना लिया है. इस बयान का और कोई मतलब हो या न हो, इतना तो साफ है कि अमेरिका का रुख पाकिस्तान के प्रति नरम हुआ है और उसे ऐसा दिखाना जरूरी लगा.

भारतीय सूत्रों ने बताया कि इमरान जैसे ही अमेरिका की यात्रा से वापस लौटे, रावलपिंडी के शीर्ष नेतृत्व ने जश्न मनाना शुरू कर दिया. पाक अधिकृत कब्ज़े से जिन जिहादियों को वापस बुला लिया गया था, वे फिर से लौटने लगे और एलओसी पर गरमागरमी बढ़ गई. पाकिस्तान ने पश्चिमी देशों को फिर से उसी घिसे-पिटे ढर्रे पर ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया. वह उनसे कहने लगा कि वे भारत को कश्मीर पर बाज आने को कहें. अगर ऐसा नहीं हुआ तो अफगानिस्तान में उनकी पहल सफल नहीं होगी. मोदी सरकार ने इसका जवाब सौ सुनार की तो एक लोहार की वाले अंदाज़ में दिया. उसने कश्मीर की पूरी स्क्रिप्ट ही बदल दी. तालिबान की अफगानिस्तान में वापसी का इंतजार करने के बजाय भारत सरकार ने अगले साल आने वाले ख़तरों को भांपते हुए तैयारी शुरू कर दी. उसे यह बात बखूबी मालूम है कि अगर ट्रंप तय समयसीमा पर अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से हटाते हैं तो तालिबान की वापसी तय है.

ट्रंप का बयान यह दिखाता है कि वॉशिंगटन में फिर से ऐसी सोच ने घर बना लिया है.

जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने से इन क्षेत्रों के राजकाज में सरकार का दखल बढ़ेगा. यहां तक कि सुरक्षा, पुलिस संबंधी मामलों, ख़ुफ़िया सूचनाएं जुटाने और इस तरह के दूसरे काम में उसे आसानी होगी. कश्मीर को लेकर इस तरह के मामलों में केंद्र का दखल हमेशा से ज्यादा रहा है, लेकिन अब कमान पूरी तरह से उसके हाथ आ गई है. गिलगिट-बलटिस्तान और चाइनीज सेंट्रल एशिया के करीब होने की वजह से लद्दाख भी उतनी ही अहमियत रखता है.

VI

हालांकि, कश्मीर पर नई पहल का सिर्फ सुरक्षा मामलों से लेना-देना नहीं है. यह बड़ा लेकिन अकेला पैमाना नहीं है. इस कदम के पीछे एक सोच घाटी में राजनीति की प्रक्रिया को नियमित करना है. पहले इसकी कोशिश नहीं हुई है और उलटे पारंपरिक राजनीतिक नेतृत्व इसमें बाधाएं खड़ी करता रहा है. सच तो यह है कि अलगाववादियों और भारत सरकार के बीच खुद को एक पुल की तरह पेश करने से इस नेतृत्व को फायदा हुआ है और इस पर भी उनका रुख़ समय-समय पर बदलता रहा है.

अनुच्छेद 370 को हटाने का मतलब यह है कि जो नियम-कायदा और कानून भारत पर लागू होता है, वह अब जम्मू-कश्मीर पर भी लागू होगा. देश भर में वंचित समुदाय और समूहों — जिनमें महिलाओं से लेकर धार्मिक अल्पसंख्यक और ऐतिहासिक तौर पर पिछड़ा वर्ग शामिल है — को जो लाभ मिलता रहा है, वह अब जम्मू-कश्मीर के लिए भी प्रासंगिक हो गया है. मिसाल के लिए, अनुच्छेद 35ए के खत्म होने से राज्य की किसी महिला के बाहरी शख्स से शादी करने पर विरासत में मिली संपत्ति पर उनके बच्चों को अधिकार मिलेगा. अभी तक राज्य की महिलाओं को गैर-कश्मीरी से शादी करने पर इस अधिकार से वंचित किया जा रहा था.

देश भर में वंचित समुदाय और समूहों — जिनमें महिलाओं से लेकर धार्मिक अल्पसंख्यक और ऐतिहासिक तौर पर पिछड़ा वर्ग शामिल है — को जो लाभ मिलता रहा है, वह अब जम्मू-कश्मीर के लिए भी प्रासंगिक हो गया है.

इस तरह की दूसरी मिसालें भी हैं. देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए काफी पंजाबी शरणार्थी (इनमें से ज्यादातर सिख हैं) 1947 में जम्मू में बस गए थे. आज इनकी संख्या एक लाख से अधिक हो गई है. हालांकि, अभी तक उन्हें राज्य के स्थायी निवासी का दर्जा नहीं दिया गया है और न ही उन्हें डोमिसाइल राइट्स मिले हैं. वे लोकसभा चुनाव में तो वोट दे सकते हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में उन्हें मतदान का अधिकार नहीं मिला है. ये लोग न ही प्रॉपर्टी ख़रीद सकते थे और ना ही उन्हें उच्च शिक्षा में आरक्षण का लाभ मिलता है. उनके उलट, शिनजियांग और तिब्बत से 1950 के दशक में आए मुस्लिम शरणार्थी कश्मीरी समाज में पूरी तरह से घुल-मिल गए हैं. ग़ौरतलब है कि चीन ने इस क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया था, जिसकी वजह से इन लोगों को वहां से भागने पर मजबूर होना पड़ा था.

अनुच्छेद 370 और 35ए के खत्म होने के बाद ऐसे भेदभाव भी मिट जाएंगे. गृह मंत्री अमित शाह पंचायत स्तर के प्रतिनिधियों के जरिये राज्य में विकास कार्यों की पहल कर रहे हैं. इनसे राज्य में नया राजनीतिक नेतृत्व निकल सकता है. यह भी संभव है कि इसका कोई नतीजा न निकले या धीरे-धीरे इस पहल से राजनीति की नई राह खुले और नए मुद्दों को लेकर नए संगठन बनें. इससे कश्मीर में अलगाववादियों की आवाज़ कितनी कमजोर होगी (जिसके नीचे आज सारी आवाजें दब गई हैं) इसका तो बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है. अगर सारी चीजें उम्मीद के मुताबिक होती हैं, तब भी इस मकसद को हासिल करने में कई साल लग सकते हैं. कश्मीर को लेकर पहले हुई सारी पहल नाकाम हो चुकी है, ऐसे में इस नई पहल से नतीजे की उम्मीद करने में कोई हर्ज नहीं है.

VII

5 अगस्त के फैसले का मोदी सरकार पर राजनीतिक असर क्या होगा? लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को शानदार जीत दिलाने के कुछ हफ्ते बाद इस फैसले से मोदी सरकार की साख और मजबूत हुई है. उन्होंने संघ परिवार की मनचाही इच्छा भी पूरी की है, जिसने लोकसभा चुनाव में उन्हें जीत दिलाने के लिए कड़ी मेहनत की थी. इसलिए उसे ऐसे फैसले की उम्मीद भी थी. वहीं, बीजेपी ने इस कदम के जरिये चुनाव में किए गए काम के लिए उसके प्रति आभार जताया है.

बदले हुए हालात में एक दिलचस्प सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार अपनी बढ़ी हुई राजनीतिक साख के मद्देनज़र संघ परिवार से आर्थिक और खासतौर पर ट्रेड रिफ़ॉर्म के लिए जगह बनाने को कहेगी? इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसे सुधारों से घरेलू अर्थव्यवस्था में कुछ प्रभावशाली वर्गों को नुकसान पहुंचेगा, लेकिन लंबी अवधि में इनसे रणनीतिक फायदा मिलना भी तय है.

यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि 5 अगस्त के फैसले से कई संभावनाएं, मौके बने हैं, लेकिन इसके साथ कई सवाल भी खड़े हुए हैं. मोदी इनमें से किन मौक़ों को चुनेंगे? प्रधानमंत्री की ख़ूबी रही है कि वह सही समय आने पर ही ऐसे सवालों का जवाब देते हैं. इसलिए हमें इसके लिए सही समय का इंतजार करना होगा.


ऐंडनॉट्स

[i] रॉबर्ट हटनबैक, ‘गुलाब सिंह एंड द क्रिएशन ऑफ द डोगरा स्टेट ऑफ जम्मू एंड कश्मीर’, द जर्नल ऑफ एशियन स्टडीज वॉल्यूम नंबर 4 (अगस्त, 1961) पेज 477-488

[ii] https://books.google.co.in/books?id=Fi66mjIqR1IC&pg=PA83&lpg=PA83&dq=congress+jammu+elections+1983+indira+gandhi
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[iii] अक्टूबर 2014 को नई दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय में लेखक को एक अधिकारी ने यह जानकारी दी थी.

[iv] रक्षा मंत्रालय के एक बड़े अफसर से मिली थी यह जानकारी.

[v] देश की आंतरिक सुरक्षा मामलों पर आला अधिकारियों से लेखक को निजी तौर पर जानकारी मिली थी.

[vi] India lost one MiG 21, confirms MEA”, बिज़नस स्टैंडर्ड, 29 फरवरी 2019

[vii] जुलियन बॉर्जर “Defence Secretary James Mattis resigns and points to differences with Trump”, द गार्डियन, 21 दिसंबर, 2018.

[viii] की मार्क गेलियोटी “Afghanistan: The Soviet Union’s Last War”, रूटलेज 1995, पेज 1-25

[ix] संजॉय हजारिका, “Afghans joining rebels in Kashmir, न्यू यॉर्क टाइम्स, 24 अगस्त, 1993.

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