Author : Aarshi Tirkey

Published on Sep 22, 2021 Updated 0 Hours ago

किसी सरकार को मान्यता देना हमेशा स्वार्थ निर्देशित राजनीति से होता आया है, न कि इसका आधार अंतरराष्ट्रीय नियम-कानून हैं

सरकारों को आख़िर किस आधार पर मान्यता देता है चीन: इसे समझने के लिये तालिबान सबसे बेहतर उदाहरण

तालिबान की अंतरिम सरकार बनाने की घोषणा से दूसरे देशों के लिए दुविधा खड़ी हो गई है कि क्या उन्हें इसे मान्यता देनी चाहिए? चीन ने एक तरह से हाल में इस पर मुहर लगा दी. उसने कहा कि तालिबान का सरकार बनाना ज़रूरी था. इससे अराजकता खत्म होगी. उसने अफ़ग़ानिस्तान के लिए 3.1 करोड़ डॉलर की वित्तीय मदद का ऐलान भी किया. अब ज़रा कुछ पीछे जुलाई की ओर लौटें तो विदेश मंत्री वांग यी ने मुल्ला अब्दुल गनी बारादर के नेतृत्व में अफ़ग़ान तालिबान राजनीतिक आयोग के एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की थी. यह भेंट तियानजिन में हुई थी. तब वांग यी ने तालिबान को ‘अफ़ग़ानिस्तान की सैन्य और राजनीतिक ताकत’ बताया था. उन्होंने फरमाया था कि तालिबान देश में शांति, पुनर्निर्माण और देश के अंदर अलग-अलग लड़ाके गुटों के बीच सुलह कराने में ‘अहम भूमिका’ निभाएंगे. वे सबको साथ लेकर चलेंगे. चीन ने स्पष्ट कहा था कि वह ‘अफगानिस्तान की संप्रुभता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता’ का सम्मान करेगा. इस तरह से उसने इशारा किया कि वह नई तालिबान सरकार को औपचारिक रूप से मान्यता दे सकता है. 

अफ़ग़ानिस्तान पर सुयंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में लाए गए हालिया प्रस्ताव पर वोटिंग में भी चीन शामिल नहीं हुआ था. इस प्रस्ताव के ज़रिये मांग की गई थी कि अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल किसी देश को धमकी देने के लिए ना हो. न ही वहां आतंकवादियों को पनाह दी जानी चाहिए. प्रस्ताव में आशा की गई थी कि तालिबान अपने वादे पूरे करेगा और वह अफ़गान और विदेशी नागरिकों को सुरक्षित निकलने में मदद करेगा. चीन ने ‘इस प्रस्ताव की ज़रूरत, उसे जल्द पास कराए जाने और उसमें दी गई बातों’ पर संदेह जताया था. चीन ने इस पर ऐतराज़ जताया था कि उसने प्रस्ताव में जिन संशोधनों का सुझाव दिया था, उन्हें अंतिम मसौदे में जगह नहीं दी गई. इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के रिकॉर्ड्स में चीन के प्रतिनिधि जी शुआंग ने तालिबान के ‘समावेशी इस्लामिक सरकार’ बनाने के बयान की भी तरफ़दारी की थी. उन्होंने आशा की थी कि तालिबान ‘अफ़ग़ानिस्तान के सभी दलों और नस्लीय समूहों को साथ लेकर एक व्यापक और समावेशी राजनीतिक ढांचा’ तैयार करेगा. 

अफ़ग़ानिस्तान पर सुयंक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में लाए गए हालिया प्रस्ताव पर वोटिंग में भी चीन शामिल नहीं हुआ था. इस प्रस्ताव के ज़रिये मांग की गई थी कि अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल किसी देश को धमकी देने के लिए ना हो. न ही वहां आतंकवादियों को पनाह दी जानी चाहिए.  

किसी भी सरकार को मान्यता देना एक औपचारिक पहल है. इसके ज़रिये एक संप्रभु राष्ट्र दूसरे देश के गवर्नेंस या राष्ट्र निर्माण के दावे को मंजूरी देता है. जब किसी सरकार को मान्यता दी जाती है तो उससे पहले द्विस्तरीय पड़ताल की जाती है. पहली, क्या संबंधित सरकार का उसकी सीमा पर प्रभावशाली नियंत्रण है? दूसरी, क्या वह जायज़ सरकार है और संवैधानिक रास्तों से सत्ता में आई है? अंतरराष्ट्रीय कानून की मानें तो सिद्धांत यही कहता है कि सिर्फ़ जायज़ सरकारों को ही मान्यता दी जानी चाहिए. यानी वैसी सरकारें जो लोकतांत्रिक संस्थानों के जरिये सत्ता में आई हों. ऐसे लोकतांत्रिक संस्थान जो अवाम के सरकार चुनने के अधिकार का सम्मान करते हों. उनके मतदान के अधिकार को मानते हों. यह तो हुई सिद्धांत की बात, जिसपर शायद ही अमल होता है. सच पूछिए तो मान्यता राजनीतिक सुविधाओं को देखते हुए दी जाती है या उसके पीछे कूटनीतिक या आर्थिक एजेंडा होता है. दूसरी ओर, ऐसी अवैध सरकारें जिनका देश पर नियंत्रण हो, उन्हें अस्थायी मान्यता दी जा सकती है या उन्हें वैध भी करार दिया जा सकता है. इसका पैमाना राजनीतिक प्राथमिकताएं और संबंधित सरकार के साथ द्विपक्षीय रिश्ते होते हैं. 

चीन का बदला सुर, तालिबान से बेहतर रिश्ते की कोशिश

एक दिलचस्प बात यह है कि तालिबान का जब 1996 से 2001 के बीच अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण था, तब चीन ने उसकी सरकार को मान्यता नहीं दी थी. सच्चाई यह है कि तब तालिबान सरकार का अफ़ग़ानिस्तान के बड़े हिस्से पर पूरी तरह नियंत्रण था. इसके बावजूद उस सरकार को सिर्फ़ पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई से ही मान्यता मिली थी. इस बार अगर चीन का रुख़ बदला हुआ है तो उसकी वजहें भू-रणनीतिक और आर्थिक हैं. चीन को लगता है कि अगर वह तालिबान से अच्छे रिश्ते रखता है तो उसे बेल्ट और रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) से जुड़ने के लिए मनाया जा सकता है. 

किसी देश की सरकार को मान्यता देने के लिए ‘वैध’ होने की जो शर्त है, क्या चीन उस पर ग़ौर करता है? पहली बात तो यह है कि वह इसे दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दख़ल मान सकता है. पंचशील समझौते के वक्त से ही चीन इस सिद्धांत को मानता आया है. इस समझौते में एक दूसरे की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करने की बात कही गई है. दूसरी बात यह है कि चीन अक्सर अंतरराष्ट्रीय कानूनों को संदेह की नज़र से देखता है. उसका मानना रहा है कि इन नियमों का इस्तेमाल पश्चिमी देश अपने हितों को बढ़ाने के लिए करते आए हैं. असल में, 1945 में सरकारों को मान्यता देने के जो नियम थे, उसके आधार पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने माओ त्से तुंग की पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता देने से इनकार कर दिया था क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में उसके आधिकारिक प्रतिनिधि को चीन की सीट नहीं दी गई थी. पश्चिमी देशों के नेतृत्व में च्यांग काई शेक की सरकार, जो उस वक्त निर्वासित थी और ताइवान से चल रही थी, उसे 1971 तक संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक रूप से मान्यता मिली हुई थी. 

पंचशील समझौते के वक्त से ही चीन इस सिद्धांत को मानता आया है. इस समझौते में एक दूसरे की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करने की बात कही गई है. दूसरी बात यह है कि चीन अक्सर अंतरराष्ट्रीय कानूनों को संदेह की नज़र से देखता है. उसका मानना रहा है कि इन नियमों का इस्तेमाल पश्चिमी देश अपने हितों को बढ़ाने के लिए करते आए हैं.

तीसरी, लोकतांत्रिक चुनावों के नव-उदारवादी आदर्शों और आत्मनिर्णय के अधिकार से मान्यता के लिए किसी सरकार की वैधता वाली बात जुड़ी हुई है. चीन के लिए घरेलू परिस्थितियों के कारण इन शर्तों पर जोर देना भी मुश्किल हो सकता है. खासतौर पर चीन के स्वायत्त क्षेत्रों को लेकर. उदाहरण के लिए, क्या तिब्बत का अलग देश का दावा वैध है और आत्मनिर्णय के अधिकार की बुनियाद पर क्या वहां अलग सरकार बन सकती है? जो देश तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता देंगे, उनके लिए कानूनी और राजनीतिक परिणाम क्या होंगे? लोकतंत्र को लेकर चीन का अपने यहां स्वायत्त क्षेत्रों में जो रवैया रहा है, उसके साथ ‘वैधता’ वाली शर्त फिट नहीं बैठेगी. 

म्यांमार और वेनेज़ुएला का उदाहरण

लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला में कुछ साल पहले की राजनीतिक उथलपुथल को लेकर चीन ने जो प्रतिक्रिया दी, उससे भी उसके इसी रुख़ का पता चलता है. वेनेजुएला की नेशनल असेंबली के अध्यक्ष युआन गुआइदो ने 2019 में खुद को देश का अस्थायी राष्ट्रपति घोषित कर दिया. उन्हें लोकतांत्रिक वैधता तो मिली हुई थी, लेकिन देश पर उनका प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था. अमेरिका सहित तब कई देशों ने गुआइदो की अंतरिम सरकार को मान्यता दी, लेकिन चीन जैसे कई अन्य देश उस वक्त निकोलास मादुरो की सरकार के लिए मान्यता बनाए हुए थे. चीन ने तब कहा था कि गुआइदो सरकार को मान्यता देकर पश्चिमी देश वेनेजुएला के अंदरूनी मामलों में दखल दे रहे हैं. मादुरो से पहले ह्यूगो शावेज वेनेजुएला के राष्ट्रपति थे. उनके राजकाज के दौरान चीन ने वेनेजुएला के साथ मजबूत राजनीतिक और आर्थिक रिश्ते कायम किए थे. चीन ने दो वजहों से गुआइदो सरकार को मान्यता नहीं दी थी. पहली, यह वेनेजुएला के अंदरूनी मामलों में दख़ल होता. दूसरी, मादुरो सरकार के साथ चीन के मजबूत द्विपक्षीय रिश्ते थे. लेकिन उस वक्त चीन के मादुरो सरकार को समर्थन देने की आलोचना हुई थी. कहा गया कि वह ऐसी सरकार को समर्थन दे रहा है, जो भ्रष्ट और अक्षम मानी जाती है. 

फरवरी 2021 में म्यांमार में नेशनल लीग ऑफ डेमोक्रेसी (एनएलडी) सरकार का तख्त़ापलट हुआ. तब दुनिया के सामने यह सवाल पैदा हुआ कि क्या उसे म्यांमार की सैन्य सरकार को मान्यता देनी चाहिए? म्यांमार की सेना हमेशा चीन को संदेह की नजर से देखती आई है. चीन ने म्यांमार की आंग सान सू ची की सरकार के साथ कई वर्षों में राजनीतिक और आर्थिक रिश्ते कायम किए थे, तख्त़ापलट के कारण यह सब बेमानी हो गया. दूसरी तरफ, सेना ने जो हिंसा की, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई. इस तरह की खबरें भी आईं कि अमेरिका और चीन ने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को संबोधित करने से म्यांमार की सैन्य सरकार को रोका. चीन इस बात को समझता था कि उसके लिए एनएलडी सरकार कहीं भरोसेमंद पार्टनर थी. फिर भी उसने धीरे-धीरे सेना की स्टेट एडमिनिस्ट्रेटिव काउंसिल (एसएसी) को मनाना शुरू किया ताकि वह म्यांमार में अपने हितों की रक्षा कर सके. चीन ने एक तरह से एसएसी को मान्यता दे दी है. उसने म्यांमार में परियोजनाओं की फंडिंग के लिए हामी भी भरी है. चीन ने ज़ोर देकर कहा है कि म्यांमार में स्थिरता उसकी प्राथमिकता बनी रहेगी. इसके साथ वह उसके घरेलू मामलों में दखल देने का भी विरोधी है. 

चीन इस बात को समझता था कि उसके लिए एनएलडी सरकार कहीं भरोसेमंद पार्टनर थी. फिर भी उसने धीरे-धीरे सेना की स्टेट एडमिनिस्ट्रेटिव काउंसिल (एसएसी) को मनाना शुरू किया ताकि वह म्यांमार में अपने हितों की रक्षा कर सके. चीन ने एक तरह से एसएसी को मान्यता दे दी है.

सरकारों को मान्यता देने का अंतरराष्ट्रीय कानून बहुत अस्पष्ट है. यही इसकी बदनामी का भी सबब है. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर जो परंपरा रही है, चीन भी उसे ज्यादातर मामलों में मानता आया है. कुछेक मामलों, जैसे अफ़ग़ानिस्तान में वह इस बारे में फैसला भू-रणनीतिक और दूसरे हितों को लेकर भी करता आया है. अफगानिस्तान अभी स्थिरता से दूर है. यह बात सही है कि तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान के भू-भाग पर नियंत्रण है, लेकिन अभी यह देखा जाना बाकी है कि वहां कोई वैकल्पिक सरकार बनती है या नहीं. अगर चीन वहां तालिबान सरकार को मान्यता देने में दिलचस्पी दिखा रहा है तो इसके पीछे उसके अपने स्वार्थ हैं. इसीलिए वह तालिबान के साथ रिश्ता कायम कर रहा है. इन रिश्तों और तालिबान सरकार को मान्यता देने की बुनियाद अंतरराष्ट्रीय नियम-कानून नहीं हैं. 

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