Published on Jan 24, 2022 Updated 0 Hours ago

एक ‘वैश्विक महामारी’ उसे कहा जाता है जो जलवायु परिवर्तन, कुपोषण और मोटापे से प्रभावित लगती है. एक साथ मिलकर वो मानवीय और भू-मंडलीय सेहत के लिए बड़ा ख़तरा प्रस्तुत करते हैं, विश्व के हर क्षेत्र पर असर डालते हैं.

जलवायु परिवर्तन का मुक़ाबला: टिकाऊ खाद्य प्रणाली के हथियार से ही हो सकता है मुक़ाबला

पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाए बिना दुनिया के लोगों के लिए टिकाऊ पौष्टिक खाद्यान्न प्रदान करना 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती है. दुनिया भर में भूखे लोगों की बढ़ती संख्या कृषि भूमि के ज़्यादा उपयोग, मवेशियों के लिए चरने की ज़्यादा ज़मीन, उर्वरक और जेनेटिकली मोडिफाइड यानी आनुवांशिक तरीके से परिष्कृत फसलों के ज़्यादा उपयोग की मांग करती है. इससे पर्यावरण को नुक़सान होगा क्योंकि दूसरे परिणामों के अलावा ग्रीन हाउस गैस का ज़्यादा उत्सर्जन होगा, पर्यावरणीय प्रदूषण बढ़ेगा और जैव विविधता से समझौता करना होगा. जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करना और सबके लिए पौष्टिक खाद्य सुनिश्चित करना दुनिया और अपने आप को बचाने के लिए हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है. 

वर्तमान में 821 मिलियन लोग कुपोषित हैं, पांच वर्ष से कम उम्र के 151 मिलियन बच्चे अविकसित हैं, 15 से 49 वर्ष के बीच की 613 मिलियन महिलाओं एवं लड़कियों में खून की कमी है और 2 अरब से ज़्यादा वयस्क ज़्यादा वज़न के या मोटे हैं. 

खाद्य सुरक्षा चार पहलुओं पर आधारित है- खाद्य की उपलब्धता, शारीरिक एवं आर्थिक सुलभता, उपयोग और इन तीन पहलुओं को बनाए रखना. एक अरब से ज़्यादा लोग अपनी आजीविका के लिए मौजूदा खाद्य प्रणाली पर निर्भर हैं. बढ़ती पौष्टिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए 1961 से प्रति व्यक्ति खाद्य उत्पादन में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इसके साथ-साथ नाइट्रोजन उर्वरकों के उपयोग में 800 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि सिंचाई के लिए जल संसाधनों के उपयोग में 100 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इसके बावजूद वर्तमान में 821 मिलियन लोग कुपोषित हैं, पांच वर्ष से कम उम्र के 151 मिलियन बच्चे अविकसित हैं, 15 से 49 वर्ष के बीच की 613 मिलियन महिलाओं एवं लड़कियों में खून की कमी है और 2 अरब से ज़्यादा वयस्क ज़्यादा वज़न के या मोटे हैं. 

खाद्य उत्पादन प्रणाली और खाने की आदत जलवायु परिवर्तन में बड़े योगदानकर्ता हैं और जब तक इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं होता है तब तक पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पाना नामुमकिन है. वनस्पति आधारित खाद्य ज़्यादा खाने से लोगों के द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन साफ़ तौर पर कम हो जाएगा. लेकिन व्यक्तिगत खान-पान की आदत की जटिलताओं पर विचार करते हुए इस बदलाव को हासिल कर पाना इतना आसान नहीं है. हर कोई बदल नहीं सकता. इसके अलावा शाकाहारी होने से पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाए बिना टिकाऊ खान-पान सुनिश्चित नहीं हो सकता क्योंकि खेती, फसल काटने, भंडारण, परिवहन और खाना बनाने समेत खाद्य उत्पादन प्रक्रिया के हर क़दम पर ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन होता है. 

ब्राज़ील के इस अध्ययन ने पता लगाया कि 30 वर्षों के दौरान घर में बने खाने से अधिक प्रसंस्कृत खाद्यों की खपत में इस बदलाव से ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 21% की बढ़ोतरी हुई है. साथ ही देश में ताज़ा पानी की खपत में 22% ज़्यादा योगदान इसका है जबकि ज़मीन के इस्तेमाल में 17% ज़्यादा योगदान

कृषि, खाद्य प्रणाली और आधुनिक खान-पान का पर्यावरणीय असर

संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के अनुसार खाद्य, ऊर्जा और पानी टिकाऊ विकास के तीन खंभे हैं. दुनिया की बढ़ती आबादी के कारण इन तीनों की मांग में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है. एक-चौथाई से ज़्यादा (26%) वैश्विक ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन की वजह खाद्य है. कृषि के काम में लोगों के रहने के योग्य, जिनमें बर्फ़ और रेगिस्तान मुक्त क्षेत्र शामिल हैं, आधे से ज़्यादा ज़मीन और दुनिया में ताज़ा पानी के 70% हिस्से का इस्तेमाल होता है. साथ ही कृषि विश्व भर में 78% यूट्रोफिकेशन यानी पोषक तत्वों से भरपूर प्रदूषकों के साथ जलमार्गों के प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार है. ( रेखाचित्र 1). 

रेखाचित्र 1: खाद्य और कृषि का पर्यावरण पर असर

2018 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में दुनिया भर के 119 देशों की 38,000 कृषि भूमि के आंकड़ों का मूल्यांकन किया गया और इसमें पता लगा कि परिवहन और वन कटाई समेत कृषि प्रक्रिया के कारण 13.7 अरब मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पादन हुआ जो प्रति वर्ष 26% ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन के बराबर है. इस अध्ययन से ये भी उजागर हुआ कि मांस, मछली, अंडे और डेरी का उत्पादन विश्व की 83% कृषि भूमि की जगह लेता है और ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 56-58% का योगदान करता है. इस अध्ययन का एक चित्रांकन दूसरे रेखाचित्र में किया गया है जो 29 खाद्यों से ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को दिखाता है. इस सूची में गाय का मांस सबसे ज़्यादा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करता है जबकि अखरोट सबसे कम. 

रेखाचित्र 2: खाद्यों से सप्लाई चेन में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन

वैसे तो ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में पशु मांस का सबसे ज़्यादा योगदान होता है लेकिन कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि सिर्फ़ मांस को हटा देने से काफ़ी ज़्यादा असर नहीं होगा. ब्रिटेन की सार्वजनिक स्वास्थ्य पोषणविद जेनी आई मैकडियारमिड के मुताबिक़ ज़रूरी नहीं है कि स्वास्थ्य के लिए लाभकारी आहार ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम करता है और अस्वास्थ्यकर खाद्य को मिलाने से भी पर्यावरण पर असर कम हो सकता है. 2021 में एक समीक्षा में आहार विशेषज्ञ सारा फोर्ब्स ने बताया कि ऑस्ट्रेलिया में ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 67-73% का योगदान मुख्य खाद्यों का है यानी फल एवं सब्ज़ी, अनाज, बिना चर्बी का मांस, मछली, अंडा, अखरोट, दाना, बीन्स, फलीदार पौधा, दूध और दूसरे डेरी उत्पाद. बाक़ी 27-33% ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में दूसरे खाद्यों जैसे चीनी वाले पेय पदार्थ, अल्कोहल, केक, पेस्ट्री और प्रसंस्कृत मांस का योगदान है. इस तरह पर्यावरणीय नुक़सान के लिए केवल मांस की खपत को ज़िम्मेदार ठहराना वैज्ञानिक तौर पर अपरिपक्वता है. 

दुनिया की आबादी का एक हिस्सा अपने आहार की वजह से होने वाले ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए वनस्पति आधारित भोजन की तरफ़ रुख़ कर रहा है लेकिन शाकाहारी बनना हर किसी के लिए उपलब्ध विकल्प नहीं है. वनस्पति आधारित खाद्य हमेशा किफ़ायती नहीं होते हैं और इसे जारी रखना मुश्किल है.

लेकिन इसके साथ-साथ अधिक प्रसंस्कृत खाद्यों के उत्पादन और खपत में बढ़ोतरी को भी ज़्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के साथ जोड़ा गया है. द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ में प्रकाशित एक अध्ययन में ये बताया गया है. इस अध्ययन ने लोगों के खान-पान में बदलाव पर 30 वर्षों तक नज़र रखी. ब्राज़ील के इस अध्ययन ने पता लगाया कि 30 वर्षों के दौरान घर में बने खाने से अधिक प्रसंस्कृत खाद्यों की खपत में इस बदलाव से ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में 21% की बढ़ोतरी हुई है. साथ ही देश में ताज़ा पानी की खपत में 22% ज़्यादा योगदान इसका है जबकि ज़मीन के इस्तेमाल में 17% ज़्यादा योगदान. इस अध्ययन में ये उल्लिखित है कि अधिक प्रसंस्कृत खाद्यों में पाम और सोया तेल होता है जो सेहत और पर्यावरण पर काफ़ी असर डालता है. इसके अतिरिक्त पर्यावरण पर पशु उत्पादों का असर कम करने के लिए वनस्पति आधारित मांस तेज़ी से लोकप्रिय हो रहे हैं. ये वनस्पति आधारित मांस पर्यावरण के लिहाज़ से पशु मांसों के मुक़ाबले ठीक हैं. इसके बावजूद कुछ वनस्पति आधारित विकल्प, जैसे कि सोयाबीन से निकलने वाले, पर्यावरण के लिहाज़ से ठीक नहीं हैं. इसके अतिरिक्त सोयाबीन अक्सर जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) होते हैं और रिसर्च से पता चला है कि ऐसी फसल ज़्यादा खरपतवार नाशकों का इस्तेमाल करती हैं और ये कृषि पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक असर डालती हैं. 

टिकाऊ खाद्य प्रणाली स्वास्थ्य सहयोगी और पर्यावरण अनुकूल होती है

वैश्विक तौर पर कुपोषण और अस्वास्थ्यकर आहार बीमारी का बोझ बढ़ाने में योगदान देने वाले 10 बड़े जोख़िम के कारणों में से हैं. टिकाऊ आहार के साथ जलवायु परिवर्तन के समाधान में सभी तरह के कुपोषण– जिनमें उचित पोषण की कमी, छुपी हुई भूख या सूक्ष्म पोषकों की कमी शामिल हैं- से मुक़ाबला करने की रणनीतियां, और आहार से जुड़ी ग़ैर-संचारी बीमारियां जैसे मोटापा, टाइप-2 डायबिटीज़, दिल से जुड़ी बीमारियां शामिल है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार टिकाऊ खान-पान में उन खाद्यों की खपत शामिल हैं जिनका पर्यावरण पर बेहद कम असर होता है या जो कार्बन डाइऑक्साइड का कम उत्सर्जन करते हैं लेकिन इसके साथ-साथ जो पोषण ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं. खाद्य और कृषि संगठन की परिभाषा के अनुसार टिकाऊ खान-पान सुलभ, किफ़ायती, अलग-अलग प्रकार के, पोषण से पर्याप्त, सुरक्षित, सेहतमंद और सांस्कृतिक तौर पर स्वीकार्य होते हैं. दुनिया की आबादी का एक हिस्सा अपने आहार की वजह से होने वाले ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए वनस्पति आधारित भोजन की तरफ़ रुख़ कर रहा है लेकिन शाकाहारी बनना हर किसी के लिए उपलब्ध विकल्प नहीं है. वनस्पति आधारित खाद्य हमेशा किफ़ायती नहीं होते हैं और इसे जारी रखना मुश्किल है. इसके अलावा निरामिष या शाकाहारी अधिक प्रसंस्कृत खाद्य में कार्बोहाइड्रेट और वसा होते हैं जो हमारी सेहत और पर्यावरण- दोनों के लिए टिकाऊ नहीं हैं. टिकाऊ खान-पान के हिस्से के रूप में निम्नलिखित उपायों की गिनती की जाती है जो जलवायु परिवर्तन का भी समाधान करेंगे. 

ज्वार, बाजरा, रागी और जौ जैसे मोटे अनाज दुनिया भर में अच्छी तरह उपजते हैं; उनकी देखरेख काफ़ी कम करनी पड़ती है; साथ ही वो ग्लूटेन मुक्त होते हैं और प्रोटीन, फाइबर और आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे आयरन, कैल्शियम, मैग्नेशियम, विटामिन बी इत्यादि से भरपूर होते हैं. 

स्थानीय खाना खाओ  मौसम के मुताबिक़ स्थानीय, ताज़ा, घर में पैदा खाद्य को चुनें. स्थानीय खाद्य खाने से कार्बन डाइऑक्साइड का कम उत्सर्जन होता है क्योंकि ऐसी स्थिति में खेत से उपभोक्ता तक खाद्य को ले जाने में ज़्यादा दूरी तय नहीं करनी पड़ती. उदाहरण के लिए मां के दूध की वजह से शून्य कार्बन उत्सर्जन होता है और ये कृत्रिम फॉर्मूला आहार के मुक़ाबले बेहतर है. 2020 के एक अध्ययन से पता चला कि 2016 में शिशुओं और नन्हे बच्चों के जन्म से लेकर 3 साल पूरा होने तक उत्तरी अमेरिका में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम-से-कम 59.06 किग्रा कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है. इस प्रकार मां के दूध को प्रोत्साहन देना जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ बच्चों में कुपोषण के समाधान के सबसे अच्छे तरीक़ों में से एक है. टोरंटो से 2005 की एक रिपोर्ट के अनुसार किसानों के बाज़ार से स्थानीय उत्पाद उपभोक्ताओं तक पहुंचने के लिए औसतन 101 किमी की दूरी तय करते हैं जबकि आयातित उत्पाद औसतन 5,364 किमी की दूरी तय करते हैं. स्थानीय उत्पादों की टोकरी के मुक़ाबले आयातित उत्पादों ने 11,886.867 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया जो कि स्थानीय उत्पादों के मुक़ाबले 100 गुने से भी ज़्यादा है. 

लाल मांस खाने में धीरे-धीरे बदलाव– लाल मांस की खपत कम करने और मुर्गा, टर्की, सीफूड, मछली और घोंघा खाना कई लोगों के लिए एक टिकाऊ तरीक़ा है. 2019 में डियेगो रोज़ और उनके साथियों की एक समीक्षा में 16,800 आहारों का मूल्यांकन किया गया और इससे पता चला कि गो मांस आधारित आहार का पर्यावरण पर 52% असर हुआ जबकि घोंघा आधारित आहार का पर्यावरण पर सिर्फ़ 10% असर हुआ. इसलिए हम आहार की गुणवत्ता से समझौता किए बिना पर्यावरण को जागरुक करने वाले खाद्य को चुनकर भी कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम कर सकते हैं. 

जलवायु के अनुसार फसल को चुनना– मांस को चुनने में बदलाव के अलावा ये भी महत्वपूर्ण है कि जलवायु के अनुसार फसलों जैसे मोटे अनाज को चुना जाए ताकि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने के साथ-साथ टिकाऊ खान-पान को सुनिश्चित किया जा सके. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने साल 2023 को मोटे अनाज के लिए अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया है. इसका उद्देश्य ये है कि मोटे अनाज के स्वास्थ्य संबंधी फ़ायदों, ख़राब जलवायु की स्थिति में भी उनके टिके रहने, और तेज़ी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में ‘भविष्य के खाद्य’ के रूप में उसकी संभावना के बारे में लोगों को जागरुक किया जा सके. ज्वार, बाजरा, रागी और जौ जैसे मोटे अनाज दुनिया भर में अच्छी तरह उपजते हैं; उनकी देखरेख काफ़ी कम करनी पड़ती है; साथ ही वो ग्लूटेन मुक्त होते हैं और प्रोटीन, फाइबर और आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे आयरन, कैल्शियम, मैग्नेशियम, विटामिन बी इत्यादि से भरपूर होते हैं. मोटे अनाज सूक्ष्म पोषक तत्वों में कमी को दूर कर, टाइप-2 डायबिटीज़ विकसित होने का जोख़ि रोक कर और उचित पोषण का जोख़िम कम कर कुपोषण के तीन तरह के बोझ का समाधान कर सकते हैं. भारत में 2018 के एक तुलनात्मक अध्ययन से पता चला कि चावल की खेती के बदले मकई, रागी, बाजरा या ज्वार की खेती करने से सिंचाई के लिए पानी की ज़रूरत 33% कम हो गई. 

सारांश – लोगों के खान-पान की आदत को प्रभावित करने वाले कारण स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं से आगे हैं जैसे कि स्थानीय उपलब्धता, मौसम, क़ीमत और प्राथमिकता. शून्य या न्यूनतम कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले खाद्य का इस्तेमाल जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करने का सबसे बेहतरीन तरीक़ा है. किसी भी खाने-पीने की चीज़ को रोज़ाना के आहार से पूरी तरह हटाना अव्यावहारिक और कम टिकाऊ उपाय है. पर्यावरण अनुकूल टिकाऊ खान-पान के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि अगर आपके लिए संभव है तो अपना खाद्य ख़ुद पैदा करें; पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य चुनें; परिशोधित कार्बोहाइड्रेट, वसा और अधिक प्रसंस्कृत खाद्य की खपत कम करें; स्थानीय दुकानदारों से ख़रीदें; बर्बाद कम-से-कम करें; और वनस्पति आधारित खाद्य ज़्यादा-से-ज़्यादा खाएं. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Subhasree Ray

Subhasree Ray

Dr. Subhasree Ray is the Lead - Nutrition & Wellness (Corporate Medical Services), at Reliance Industries Limited. She writes on nutrition policies, sustainable food systems ...

Read More +
Shoba Suri

Shoba Suri

Dr. Shoba Suri is a Senior Fellow with ORFs Health Initiative. Shoba is a nutritionist with experience in community and clinical research. She has worked on nutrition, ...

Read More +