Author : Omair Anas

Published on Jul 10, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या एर्दोगान देश के विदेशी संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं?

चुनाव के बाद एर्दोगान की विदेश नीति का एजेंडा

तुर्की में राष्ट्रपति पद के चुनावों के बारे में बनी असमंजस की स्थिति अब दूर हो चुकी है। निवर्तमान राष्ट्रपति रेसिप तईप एर्दोगान 24 जून के चुनावों में स्पष्ट बहुमत से जीत हासिल कर चुके हैं। तुर्की के पिछले कुछ चुनावों और खासतौर पर इस चुनाव ने विश्व और क्षेत्र का जितना ध्यान अपनी ओर खींचा है, पश्चिम एशिया के किसी भी देश के चुनावों ने नहीं खींचा। साथ ही हर एक चुनाव के साथ, तुर्की के पश्चिमी सहयो​गी एर्दोगान से निपटने में खुद को और ज्यादा मुश्किल हालात में पाते चले गए, जबकि एर्दोगान अपने नेटो सुरक्षा छत्र से व्यापक रणनीतिक स्वायत्तता बटोरते गए। जैसा कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के डिप्टी नेशनल सिक्योरिटी बेन रोड्स ने हाल ही में कहा था कि ओबामा के लिए एर्दोगान से निपटना बहुत मुश्किल था और ऐसा ही डोनाल्ड ट्रम्प के लिए भी होगा।

ज्यादातर पश्चिमी मीडिया के लिए चुनाव महज लोकतंत्र और कानून के शासन को बनाए रखने के लिए है। विख्यात अर्थशास्त्री, प्रोफेसर और स्तम्भकार, पॉल क्रुगमैन ने तो एर्दोगान को तुर्की का ट्रम्प तक कह डाला। जहां एक ओर मीडिया में घोर ध्रुवीकरण या कानून के शासन की चुनौतियों की चर्चा की गई है, वहीं तुर्की के पश्चिमी सहयोगियों के लिए मुख्य चुनौती अपने प्रति तुर्की का तेजी से बदलता व्यवहार है। इन चुनावों से एर्दोगान को देश के विदेशी संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की दिशा में निर्णायक कदम उठाने के और ज्यादा अधिकार मिल जाने की संभावना है। एर्दोगान के ताकतवर राष्ट्रपति होने के कारण, यूरोपीय संघ और नेटो सहयोगियों को अपने महत्वपूर्ण नेटो सहयोगी के साथ जारी संकट से ​उबरने के लिए रास्ता तलाशना होगा।

पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रपति एर्दोगान द्वारा निर्धारित दिशा ने पहले से ही सहयोग का ऐसा स्पष्ट एजेंडा तय कर दिया हैजिसकी अनदेखी विपक्ष के नेता मुहर्रम इन्स तक नहीं कर सकतेक्योंकि तुर्की की विदेश नीति और उसकी सुरक्षा आवश्यकताएं बढ़ चुकी हैं।

तीन स्वरूप हैं, जिनका इस्तेमाल तुर्की ने अपनी विदेश नीति के लिए अतीत में किया है और भविष्य में कर सकता है। पूरी तरह पश्चिम पर केंद्रित सुरक्षा और विदेश नीति, जिसकी शुरुआत 1950 के दशक में तुर्की के नेटो और सेंटो में शामिल होने के साथ हो गई थी। जब तुर्की को साइप्रस, ग्रीस और आर्मीनिया में सुरक्षा संकट का सामना करना पड़ा, तो इस नीति की कुछ सीमाएं देखने को मिलीं। नेक्मेट्टीन अर्बाकान और एर्दोगान के इस्लामिक तुर्की से पहले के धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रवादी तुर्की ने अपने को अलग-थलग और असुरक्षित पाया। नतीजतन, साइप्रस में 1974 में घोर धर्मनिरपेक्ष सीएचपी प्रधानमंत्री बुलेंत एस्विट द्वारा किए गए तुर्की के एकतरफा सैन्य हस्तक्षेप ने पश्चिम केंद्रित विदेश नीति से ज्यादा देश की सुरक्षा को प्राथमिकता दी। इस सैन्य हस्तक्षेप से यह निर्विवाद तथ्य सृजित हुआ, जिसके बाद अनुकूल निष्कर्षों के लिए बातचीत हुई। यह स्वरूप अभी तक यूरोपीय संघ के बाजार और राजनीति में व्यापक पहुंच, नेटो का सुरक्षा कवर और पश्चिमी छत्र तले पश्चिम एशिया के लिए सीमित भूमिका की मांग करता रहा है। हालांकि “पश्चिमी विदेश नीति वाले स्वरूप” तुर्की में लम्बा अर्सा पहले, 1960 के दशक में डेमोक्रेटिक पार्टी और जस्टिस पार्टी के शासन में इस्लामिस्टों के मंच पर आने से काफी पहले समाप्त चुका है।

दूसरा है यूरेशियाई स्वरूप। इसके लिए जरूरी था कि तुर्की उत्तर का रुख करे और रूस से नया सुरक्षा आश्वासन मांगें तथा वृहद तुर्की एवं मध्य एशियाई परिवार का अंग बन जाए। तुर्की के यूरेशियाई झुकाव की शुरुआत काफी हद तक उसके पश्चिमी स्वरूप की नाकामी से उपजी निराशा का परिणाम थी साथ ही उसे अपनी सुरक्षा संबंधी खामियां भी मिटानी थीं। इतना ही नहीं, तुर्की अपने यूरेशियाई पड़ोसियों की तुलना में एकमात्र धर्मनिरपेक्ष और पारदर्शी लोकतांत्रिक देश है और यूरेशिया में उसकी बढ़ती दिलचस्पी लगातार देखी गई है। तुर्की का रूस के साथ मेलमिलाप अब तक एक चुनौती बना हुआ है, क्योंकि इसके लिए प्रतिस्पर्धात्मक रिश्तों में सामंजस्य स्थापित करने की जरूरत है।

मुख्य विपक्षी उम्मीदवार मुहर्रम इन्स का संबंध केमलिस्ट पार्टी (सीएचपी) से है, जिसने देश की विदेश और सुरक्षा नीति की आधारशिला रखी थी। क्या कोई तीसरा स्वरूप भी है? जाहिर तौर पर, एर्दोगान पर नव-ओटोमन विदेश नीति को आगे बढ़ाने का आरोप मढ़ा जाता है। नव-आटोमन शब्द का इस्तेमाल तुर्की की पश्चिम एशिया महत्वाकांक्षाओं की ओर इशारा करने के लिए किया जाता है। लेकिन वास्तव में नव-ओटोमन कौन है? जब नेक्मेट्टीन अर्बाकान प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने नई विदेश नीति बनाई थी जिसका लक्ष्य मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में उभरते इस्लामिक देशों के बीच तुर्की के लिए नया स्थान बनाना था। लेकिन वह इस स्वरूप के लिए सहायक आर्थिक नीति तलाश पाने में नाकाम रहे। एर्दोगान, हालांकि समस्त एशिया, खासतौर पर पश्चिम एशिया में नए आर्थिक अवसर तलाशने में कामयाब रहे, हालांकि ये अवसर यूरोपीय संघ की जगह लेने के लिए काफी नहीं हैं।

दिलचस्प बात तो यह है कि हाल के चुनाव में, इन तीनों अलग-अलग स्वरूपों की वकालत करने वाली राजनीतिक पार्टियां भी विदेशी नीति के मुद्दों को लेकर ज्यादा मुखर नहीं रहीं। अतीत में जब पूर्व प्रधानमंत्री अहमद दावुतोग्लु ने ”पड़ोस के साथ कतई समस्या न होने” की नीति आगे बढ़ाई, तो सत्तारूढ़ ए. के. पार्टी उन सबको जोड़ने में कामयाब रही।

अब, शुरुआती केवलिस्ट सरकारों द्वारा सृजित तुर्की के विशुद्ध रूप से “पश्चिमी” या “यूरोपीय ताकत” नहीं बने रह सकने के पीछे तीन प्रमुख कारण है। वर्तमान विदेश नीति की दिशा मोटे तौर अपरिवर्तनीय है, य​हां तक कि विपक्षी उम्मीदवार के जीतने पर ही हालात ऐसे ही रहते।

पहला, किसी जमाने में यूरोपीय संघ समर्थक और नेटो समर्थक रहे एर्दोगान अपनी ही सेना, घरेलू राजनीति तथा तुर्की के शहरी केंद्रों में बढ़ते आतंकवादी हमलों के कारण जबरदस्त दबाव में आ गए। अब तक सीरियाई संकट को लेकर टकराव का रुख अपनाते रहे रूस-तुर्की संबंधों में उस समय गतिरोध उत्पन्न हो गया, जब तुर्की ने 2016 में उसके लड़ाकू विमान को गिरा दिया। रूस और ईरान दोनों ने ही, ओबामा प्रशासन के अनिश्चय का इस्तेमाल असद सरकार और सीरियाई राष्ट्र को ध्वस्त होने से बचाने में किया।

एर्दोगान जब रूस के साथ अपने संबंधों को सुधारने का प्रयास कर रहे थे, तभी नाकाम बगावत हुई, जिसमें पश्चिम की संदिग्ध भूमिका थी। उसके बाद तुर्की और रूस के बीच केवल द्विपक्षीय संबंधों में ही नहीं, बल्कि सीरियाई संकट के समाधान तथा सीरिया की क्षेत्रीय अखंडता को बचाने के लिए भी दीर्घकालिक सहमति बनी। इसके बाद तुर्की ने रूस की एस 400 वायु रक्षा प्रणाली को खरीदने का फैसला किया। फिर एर्दोगान ने पश्चिम से तुर्की के पीछे हटने का स्पष्ट संकेत देते हुए शंघाई सहयोग संगठन का पक्ष लिया। अस्ताना शांति सम्मेलन तुर्की, रूस और ईरान को एक मंच पर ले आया, ताकि वे युद्ध की तीव्रता में कमी लाने, राजनीतिक प्रक्रिया और नए संविधान का मसौदा तैयार करने की साझा योजना तैयार कर सकें।

तुर्की का रूस के साथ विश्वास कायम करना या अपने पश्चिमी सहयोगियों के प्रति उसका घटता विश्वास, रूसी मिसाइल प्रणाली को खरीदने के उसके फैसले से ज्यादा स्पष्ट होता है, जबकि नेटो ने इस पर आपत्ति व्यक्त करते हुए इसके नेटो की प्रणालियों के साथ तालमेल न होने की बात कही थी। तुर्की द्वारा विभिन्न कारणों से की गई एफ—35 की खरीद में देरी को भी अलग नजर से नहीं देखा जाना चाहिए।

ट्रम्प प्रशासन ने अमेरिकी नेतृत्व के प्रति तुर्की के घटते विश्वास को नए सिरे से स्थापित करने की वास्तव में काफी कोशिश कीलेकिन उनका बंटा हुआ प्रशासन शायद तुर्की को कुछ ऐसा देने की पेशकश न करे, जो वह रूसी झुकाव के बारे में नए सिरे से विचार करने को बाध्य हो जाए।

इतना ही नहीं, अमेरिका, पश्चिम एशिया में द्विपक्षीय दृष्टिकोण को बढ़ावा दे रहा है और उसने क्षेत्रीय सहयोगियों को साथ जोड़ने वाले अपने क्षेत्रीय दृष्टिकोण को छोड़ दिया है। फारस की खाड़ी, सीरिया और ईरान के प्रति अमेरिका के एकपक्षीय दृष्टिकोण ने तुर्की की अमेरिका को एक सहयोगी समझने की धारणा को परेशानी में डाल दिया है।

तुर्की के मूलभूत सुरक्षा मामलों, विशेषकर सम्प्रभु कुर्दिश राज्य के उदय के बारे में पश्चिम की प्रतिक्रिया, कुछ इस प्रकार की है ​जिसे कोई भी तुर्की नेता या सुरक्षा प्रतिष्ठान स्वीकार नहीं कर सकता। कुर्दिश गलियारे के मामले में तुर्की की सेना शायद राजनीतिक नेतृत्व से ज्यादा निर्णायक थी।

तुर्की की सेना अब भी गैर-संप्रदायवाद और धर्मनिरपेक्ष भविष्य के पक्ष में है, बेशक असद के बगैर, जिसका धीरे-धीरे प्रस्थान अब भी तुर्की की सीरियाई नीति का अंग है। तुर्की की सेना ने नेटो के सामूहिक सुरक्षा छत्र को प्रतिकूल और काफी हद तक कुर्दिश मिलिशिया समूहों के पक्ष में पाया। यहां तक कि विपक्ष और उसके समर्थक इस बात से अवगत थे कि यदि विपक्षी उम्मीदवार राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत भी गया, तो भी नेटो अपनी स्थिति से स्वत: नहीं हटेगा।

अप्रत्याशित अमेरिकी प्रशासन के साथ, तुर्की ने यह सीखा कि ट्रम्प के वादों और ​इरादों के बारे में जरूरत से ज्यादा उम्मीद नहीं रखनी है। सीरिया में कुर्दिश मिलिशिया समूहों की मौजूदगी को सीमित रखने के संबंध में तुर्की ने जितना भी सीमित सहयोग हासिल किया है, वह अस्ताना प्रारूप के तहत काम करना जारी रखेगा। तुर्की भी एशियाई ताकतों के बीच जगह पाने के लिए अपने पड़ोसियों साथ ही साथ चीन और भारत सहित प्रमुख ताकतों के साथ द्विपक्षीय संबंध बनाए रखेगा।


लेखक JNU का पूर्व छात्र हैं। वह तुर्की के अंकारा यिलिदिर बेजित विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं। उनके विचार निजी हैं और अपने नियोक्ता की राय को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।

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