Published on Dec 01, 2018 Updated 0 Hours ago

शहरीकरण के इस दौर में सांस्कृतिक संदर्भों में पुस्तकालय व सामूकि अध्ययन का क्या महत्व है और सामाजिक दृष्टि से इसका कैसे सदुपयोग किया जा सकता है?

क्यों ज़रुरी हैं शहरों में सामूहिक अध्ययन स्थल

साफ्टवेयर डेवलपमेंट के मामले में दुनिया के अव्वल देशों में शामिल होने के बावजूद, भारत को अभी लोक सूचना के क्षेत्र में इसकी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल करना बाकी है।

भारत के शहरीकरण की कहानी का आगाज तेजी से करीब आ रही चौथी औद्योगिक क्रांति और तेजी से सर्वव्यापी हो रहे सूचना युग के साथ ही हो रहा है। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि नागरिकों को इस सूचना युग में भ्रमण करने के लिए पूरी तरह से तैयार किया जा सके और साथ ही वे अपनी पहचान भी कायम रख सकें। ऐसे में मौजूदा और भविष्य के शहरी प्रकल्पों में शिक्षा और अध्ययन को ले कर अलग तरह की योजना बनाने की जरूरत है। सीखने की प्रक्रिया को तकनीकी और डाटा किन-किन तरीकों से प्रभावित करने वाले हैं यह तो आने वाले समय में पता चलेगा, लेकिन यह तय है कि शहरों के भौतिक वातावरण में इसका प्रारूप अलग और गतिमान होना चाहिए। इसमें क्लासरूम, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, लोक परिवहन, मनोरंजन केंद्र, म्यूजियम और यहां तक कि कार्यस्थल के बारे में भी अलग सोच को शामिल करने की जरूरत है और जरूरी नहीं कि यह सोच इन्हीं विषयों तक सीमित हो।

चूंकि अध्ययन का माहौल अब स्थिर नहीं रहा है, इसलिए जरूरी है कि इसके व्यापक होते दायरे का अधिकतम उपयोग किया जाए और यहां तक कि पुस्तकालय जैसे शिक्षा के पारंपरिक स्थान को ले कर भी आत्ममंथन और नवाचार की जरूरत है। शहरी केंद्रों में पुस्तकालयों को पढ़ने की एक जगह के साथ ही ‘मुलाकात’ और ‘चर्चा की जगह’ के तौर पर भी विकसित करने की जरूरत है। इसके लिए मौजूदा ढांचागत संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने के साथ ही संभावनाओं को नए तरीके से टटोलने की जरूरत भी शामिल है। सेमिनल पेपर ‘पब्लिक लाइब्रेरीज इन द नॉलेज सोसाइटी’ में लेखक ने 31 इंफोर्मेशनल वर्ल्ड सिटीज (इनमें कोई भी भारतीय शहर शामिल नहीं) का विश्लेषण किया है। साथ ही पाया है कि 77 फीसदी में मुलाकात की जगहें हैं। इसके अतिरिक्त 97 प्रतिशत में बच्चों के लिए सीखने की विशेष व्यवस्था है। दिलचस्प बात है कि उपयोगकर्ताओं के आने-जाने का ध्यान रखते हुए 70 फीसदी पुस्तकालयों में उपयोकर्ताओं को यह विकल्प दिया गया है कि वे ‘पुस्तकालय से लिए गए मीडिया’ को शहर में किसी भी जगह पर वापस कर सकें। इसलिए ऐसे में सूचना हासिल करने के लिहाज से नाकरिकों को आने-जाने के साधन की कोई खास जरूरत नहीं रह जाती है।


दुनिया भर में शहरों ने ऐसे प्रयास शुरू किए हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि तेजी से होता शहरीकरण सभ्यता में हो रहे बदलाव के अनुरूप हो।


इनमें से ज्यादातर उपाय वित्तीय रूप से काफी समझदारी भरे हैं और मौजूदा ढांचागत संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए शहर की इमारतों की मौजूदा इमारतों में एक नया आख्यान जोड़ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर 2013 में बोस्टन ने ‘बोस्टन वन कार्ड’ परियोजना का प्रयोग शुरू की। इसके तहत सार्वजनिक स्कूलों के छात्रों को एक ही कार्ड का उपयोग कर स्कूल के संसाधनों और शहर के सभी पुस्तकालयों के साथ ही सामुदायिक अध्ययन केंद्रों का भी उपयोग करने की सुविधा मिल जाती है। इसके पीछे विचार यह है कि शहर भर के छात्रों को बिना किसी रुकावट के अध्ययन की जगह मिल सके। नतीजे के तौर पर शहर के विभिन्न हिस्सों में अध्ययन केंद्र स्थापित करना नीतिगत अनिवार्यता बन गया। इसके प्रभाव को सार्वजनिक स्कूलों के छात्रों के अध्ययन संबंधी परिणाम से सीधा जोड़ा जा सकता है। इसी तरह, अर्जेंटीना में विला मारिया (77,000 की आबादी वाला) सभी नवजात बच्चों और उसके परिवार को निगम पुस्तकालय कार्ड देता है ताकि वह कम उम्र से ही अध्ययन के लिए प्रोत्साहित हो सकें और सामुदायिक स्थलों पर पारिवारिक अध्ययन के लिए आगे आएं। इसके अलावा शहर के विभिन्न भागों में मोबाइल पुस्तकालय भी पहुंचते हैं।

साफ्टवेयर डेवलपमेंट के मामले में दुनिया के अव्वल देशों में शामिल होने के बावजूद, भारत को अभी लोक सूचना के क्षेत्र में इसकी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल करना बाकी है। जहां दुनिया पुस्तकालय विज्ञान तकनीक में आगे बढ़ रही है, भारत के ज्यादातर प्रयास केंद्र से वित्त पोषित शैक्षणिक संस्थानों तक सीमित हैं। उदाहरण के तौर पर, एनआईआईटी मेंगलोर, कर्नाटक ने हाल ही में ई-लाइब्रेरी सेक्शन शुरू किया जिसमें डिजिटल रीडिंग और चर्चा के लिए रूम हैं। यहां छात्रों को किसी भी इंटरनेट-फ्रेंडली जगह से 20 डेटाबेस और 11,000 पत्रिकाएं पूरे दिन उपलब्ध हैं। इसके अलावा इसने छात्रों के लिए प्रशिक्षण सत्र भी शुरू किए हैं, जिनमें उन्हें बताया जाता है कि वे डिजिटल पुस्तकालय की संरचना में अपने लिए जरूरी सूचना कैसे हासिल करें। इसके उलट 1889 में रबिंद्रनाथ टैगोर सहित कई प्रतिष्ठित व्यक्तियों की ओर से कोलकाता में शुरू किया गया चैतन्य पुस्तकालय आज भी एक हद तक अतीत में ही अटका है। यहां कई ऐतिहासिक पत्रिकाएं रखी हैं जो अब दीमक और बरसाती पानी का शिकार हो रही हैं। यह कहने की जरूरत नहीं कि धन की कमी की वजह से इसका आधुनिकीकरण संभव नहीं हो पा रहा। दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय पुस्तकालयों की स्थिति का प्रतिनिधित्व एनआईआईटी मेंगलोर की बजाय चैतन्य ज्यादा करता है।

सर्वप्रथम, भारत में सार्वजनिक पुस्तकालयों का कोई विश्वसनीय संपूर्ण आंकड़ा नहीं है। विभिन्न स्रोत इस संख्या को लगभग 70,000 बताते हैं जो देश भर में यत्र-तत्र फैले हैं। जहां देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सौ से भी कम ऐसे पुस्तकालय हैं, दक्षिण के राज्यों में हजारों की संख्या में ये उपलब्ध हैं।

दूसरी बात, राज्यों का मामला होने के बावजूद कई राज्यों में अब तक पुस्तकालय संबंधी कानून नहीं हैं। इसकी वजह से पूरे इलाके में समान प्रक्रिया और नीति बनाने में समस्या आती है। इसका नतीजा यह है कि भारत सरकार की संस्था राजा राममोहन राय पुस्तकालय फाउंडेशन के पास काफी धन होने के बावजूद राज्यों से इसके पास पर्याप्त प्रस्ताव नहीं आ रहे।

अंतिम बात, डिजिटल ड्रीम के कई छोटे-छोटे प्रयोग भी दिखते रहते हैं, लेकिन इनमें से कोई भी व्यापक स्तर पर काम नहीं कर रहा। राष्ट्रीय स्तर पर पुस्तकालय के कई पोर्टल के लिए धन का उपयोग किया गया है। इनमें आईआईटी-खड़गपुर के साथ मिल कर नेशनल डिजिटल लाइब्रेरी (39 करोड़ रुपये) और आईआईटी-बंबई के साथ मिल कर नेशनल वर्चुअल लाइब्रेरी (72 करोड़ रुपये)। लेकिन वर्चुअल लाइब्रेरी अब तक प्रयोग के स्तर पर ही और कुछ चुनिंदा उपयोगकर्ताओं के लिए ही उपलब्ध है, डिजिटल लाइब्रेरी का पायलट प्रारूप काम कर रहा है लेकिन इसमें काम की चीज खोजना बहुत मुश्किल है। वास्तविक पोर्टल जो दावा करता है कि इसके 35 लाख रजिस्टर्ड उपयोगकर्ता हैं, वह इस लेख को लिखे जाने के दौरान काम ही नहीं कर रहा।

शहरीकरण से जुड़े सांस्कृतिक मुद्दों में पुस्तकालय बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ज्यादा शहरी इलाके वाले देशों ने भौतिक चर्चा से आगे जा कर ऐसे स्वरूप पर विचार करना शुरू कर दिया है जिसका सभ्यता पर व्यापक प्रभाव पड़े। चीन के जेजियांग सूबे की राजधानी हांगजाऊ (आबादी लगभग एक करोड़) ने खुद को वास्तविक अर्थों में अध्ययन नगरी बनाने के लिए ‘15 मिनट सांस्कृतिक सर्कल अवधारणा’ तैयार की है। इसके तहत प्रस्ताव किया गया है कि प्रत्येग नागरिक के घर के 15 मिनट के पैदल की दूरी पर एक म्यूजियम, एक थियेटर और एक पुस्तकालय जरूर होना चाहिए। इसके अलावा 111 ऐतिहासिक इमारतों, म्यूजियमों और गैलरियों को ‘एक्टिविटी साइट’ में बदल दिया गया है जहां स्कूल के छात्रों के लिए गतिविधियां आयोजित की जा सकें। इस तरह के विभिन्न प्रयासों की मदद से इस शहर को चीन की सबसे प्रसन्न नगरी के तौर पर कई बार पुरस्कृत किया जा चुका है।

जर्मनी में गेलसेंकिर्चन का उदाहरण भी इस लिहाज से काफी दिलचस्प है। कोयला खानों के बंद होने के बाद, इस औद्योगिक शहर में आबादी घटने लगी और राष्ट्रीय अनुपात के मुकाबले बेरोजगारी बढ़ने लगी। इसके बाद शहर ने आपस में मिल कर (120 संगठनों ने) यह तय किया कि इसे अध्ययन नगरी के तौर पर विकसित किया जाएगा ताकि वे भविष्य के लिए खुद को तैयार कर सकें। इसके अलावा खदान के अपने ऐतिहासिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए शहर ने पर्यावरण संबंधी मुद्दों और सतत विकास को अपने अध्ययन स्थलों का अभिन्न हिस्सा बनाया। उदाहरण के तौर पर ‘बायोमासेनपार्क ह्यूगो’ जो पहले एक कोयला खान थी, अब एक सस्टेनेबल पार्क है जो शैक्षणिक स्थल के तौर पर भी उपयोग में लाया जाता है (इसमें 20 शैक्षणिक संस्थान भागीदारी कर रहे हैं)। यहां की अध्ययन संबंधी गतिविधियों में पौधों का इतिहास, पीएच मूल्य की माप और दूसरे रसायनीक संकेत आदि का अध्ययन शामिल है।


भारतीय संदर्भ मेंअब तक नीतिगत स्तर पर अध्ययन को बढ़ावा देना महज सरकारी काम है और इस लिहाज से शहरीकरण से जुड़े दूसरे प्रकल्पों में इसे पर्याप्त जगह नहीं दी गई है। बिना किसी तय ढांचे वाला अनौपचारिक अध्ययन एक अवधारणा के तौर पर अब भी बहुत शैशव अवस्था में है।


सिविल सोसाइटी की ओर से ‘सिटी एज लैब’ जैसे कई प्रयोग तो किए जा रहे हैं जहां स्कूली छात्रों के अंदर पानी की कमी, सड़कों पर भीड़ जैसे स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रखते हुए शोध केंद्रित मानसिकता विकसित करने पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पारंपरिक तरीकों से बाहर जा कर अध्ययन का माहौल बनाने की योजना बनाने को ले कर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है, जिसका कई तरह का लाभ मिल सकता है।

आखिर कोई भी शहर उतना ही स्मार्ट होता है जितने उसके लोग। आज शहरी योजना के अंदर ही नए विचारों का उपयोग करना, भविष्य के आर्थिक बदलाव के लिए तैयारी करना और साथ ही ठोस सामाजिक ढांचा सुनिश्चित करना आदर्श स्थिति है। ऊपर जितने भी उदाहरण दिए गए हैं, उनमें से अधिकांश सरकार, निजी क्षेत्र, सिविल सोसाइटी और नागरिकों की भागीदारी से ही हो सके हैं। सभी को उस शहर की भौगोलिक और स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है। ऐसे सभी प्रयास अध्ययन का साझा माहौल बनाने की दिशा में एक कदम हैं, जिनमें योजना और तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है ताकि सभी आयु, आय और सामाजिक स्थिति व पेशे के लोग शामिल किए जा सकें। ऐसे प्रयोगों को जस का तस दूसरी जगहों पर कर पाना हो सकता है संभव नहीं हो, लेकिन मौजूदा और भविष्य के सभी शहरों में इस लक्ष्य को हासिल करने की ओर सतत संवाद बेहद जरूरी है।

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