श्रीलंका में मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल का नतीजा चाहे जो भी निकले. मगर, एक मज़बूत और सुरक्षित हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) के लिए श्रीलंका में लगातार राजनीतिक स्थिरता क़ायम रहना और अर्थव्यवस्था में सुनिश्चित रूप से नई जान डालना एक अनिवार्य शर्त है. इसकी वजह श्रीलंका की लंबी तटीय रेखा है, जिसके दक्षिणी छोर पर हंबनतोता/ दुंद्रा प्वाइंट है, जो एक तरह से बेहद व्यस्त हिंद महासागर क्षेत्र- समुद्री संचार मार्ग की निगरानी करता है. इसे एक राजनीतिक- कूटनीतिक औज़ार के तौर पर भी देखा जा सकता है. मगर, पिछले कुछ हफ़्तों से श्रीलंका जिस तरह के राजनीतिक और आर्थिक संकटों का सामना कर रहा है, उसमें उसकी सामरिक स्थिति, उसके लिए वरदान के बजाय अभिशाप बन सकती है.
श्रीलंका की अंदरूनी राजनीति चाहे जिस दिशा में जाए. वो किसी भी संवैधानिक और संसदीय विकल्प को चुने. कोई भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बने. मगर उस नेता को भरपूर आत्मविश्वास के साथ एक स्थिर सरकार की अगुवाई कर पाने में सक्षम होना होगा.
श्रीलंका का राजनीतिक संकट उसके लगातार आर्थिक और विदेशी मुद्रा के कुप्रबंधन का नतीजा है. अगर देश का राजनीतिक नेतृत्व बदल भी जाता है, तो भी ये संकट रातों-रात ख़त्म नहीं होने वाला है. ऐसा लगता है कि देश भर में सड़कों पर हो रहे प्रदर्शनों के ज़रिए श्रीलंका की जनता अपना जो ग़ुस्सा ज़ाहिर कर रही है, उसे भुनाने के लिए राजनीतिक विपक्ष ने भी अपना रुख़ बदल लिया है और अब बेहद शक्तिशाली कार्यकारी राष्ट्रपति का पद ख़त्म करने जैसे पारंपरिक संवैधानिक मुद्दों के बारे में बात शुरू कर दी है. इस बदलाव के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी और इसके साथ देश में जनमत संग्रह भी कराना होगा. इन दोनों ही कामों में बहुत वक़्त लगेगा. इसके अलावा आज जब किसी भी सरकार को देश की आर्थिक चुनौतियों पर पहले ध्यान देना होगा, उसमें ऐसा मुद्दा उसका ध्यान ही भटकाएगा. अब इन तमाम मुद्दों का नतीजा चाहे जो निकले. श्रीलंका की अंदरूनी राजनीति चाहे जिस दिशा में जाए. वो किसी भी संवैधानिक और संसदीय विकल्प को चुने. कोई भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बने. मगर उस नेता को भरपूर आत्मविश्वास के साथ एक स्थिर सरकार की अगुवाई कर पाने में सक्षम होना होगा. देश को एक ऐसी दिशा में ले जाना होगा, जिससे वो संस्थागत तरीक़े से देश के सामने खड़ी आर्थिक और विदेशी मुद्रा की चुनौतियों का ठोस समाधान निकाल सके.
ज़रूरी संख्या कैसे जुटेगी?
आज जब श्रीलंका की संसद के सामने ये चुनौती खड़ी है, तो संसद के स्पीकर महिंदा यापा अभयवर्धना ने नेताओं की एक बैठक में बयान दिया कि संविधान में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि सदन, राष्ट्रपति से कहे कि वो अपना पद छोड़ दें. स्पीकर ने सभी दलों से ये अपील भी की कि वो संवैधानिक दायरे में रहते हुए इस मसले का एक ऐसा समाधान तलाशने की कोशिश करें, जो सबको मंज़ूर हो और बेहतर हो कि ये समाधान इसी हफ़्ते के आख़िर तक सामने आ जाए. वैसे तो श्रीलंका में तमाम विपक्षी दल मिलकर भी संसद के एक तिहाई के बराबर नहीं हैं. वहीं, सत्ताधारी गठबंधन के अलग अलग गुटों से जुड़े 42 सांसदों ने तय किया है कि वो अपनी स्वतंत्र भूमिका बनाए रखेंगे. इन सांसदों में श्रीलंका पीपुल्स पार्टी के 12 गठबंधन साझीदारों के नेता भी शामिल हैं. इनमें से राजपक्षे की श्रीलंका पीपुल्स पार्टी के मूल संगठन श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के 14 और 12 बाग़ी सांसदों का गुट अपने विकल्पों पर विचार कर रहा है. 16 सांसदों वाला 11 दलों का एक बाग़ी समूह भी किसी वैकल्पिक सरकार को ‘मुद्दों पर आधारित समर्थन’ देने का प्रस्ताव रख सकता है.
गोटाबया को इस बात का यक़ीन है कि अगर उनके भाई और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के पास सामान्य बहुमत नहीं रह जाता है, तो भी विपक्षी दल एकजुट होकर बहुमत नहीं जुटा पाएंगे. ऐसे राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए संसद के लिए बहुत मुश्किल होगा कि वो मौजूदा सरकार की जगह कोई नया निज़ाम चुन सके.
स्पीकर की बात भी सही है. संविधान के तहत अगर राष्ट्रपति इस्तीफ़ा नहीं देते हैं- और गोटाबाया राजपक्षे कई बार कह चुके हैं कि वो इस्तीफ़ा नहीं देंगे- तो फिर संसद दो तिहाई बहुमत से उनके ख़िलाफ़ महाभियोग चला सकती है. कम से कम अभी तो विरोधी दलों के पास इतनी संख्या नहीं है. अगर राष्ट्रपति पद ख़ाली होता है, तो प्रधानमंत्री और उनकी ग़ैर मौजूदगी में संसद के स्पीकर वो ज़िम्मेदारी संभालते हैं. इसके बाद संसद नया राष्ट्रपति चुनती है, जो पांच साल में बचे हुए कार्यकाल में राष्ट्रपति का पद संभालते हैं. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे पर ये संवैधानिक प्रतिबंध है कि वो राष्ट्रपति का पद संभालें या फिर गोटाबाया की जगह लें. क्योंकि संविधान के मुताबिक़ कोई व्यक्ति दो बार से ज़्यादा राष्ट्रपति नहीं रह सकता है और महिंदा राजपक्षे 2015 में ये सीमा पूरी कर चुके हैं.
जब कई हफ़्तों और महीनों तक गोटाबाया राजपक्षे दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ सके और देश में हंगामा शुरू हो गया, तो उन्होंने प्रस्ताव रखा कि 225 सदस्यीय संसद में जिस दल या गठबंधन के पास 113 सदस्यों का समर्थन हो, वो उसे सत्ता सौंपने को तैयार हैं. इसका मतलब ये है कि या तो सरकार ये मान रही है कि उसके पास संसद में बहुमत नहीं है. या फिर गोटाबया को इस बात का यक़ीन है कि अगर उनके भाई और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के पास सामान्य बहुमत नहीं रह जाता है, तो भी विपक्षी दल एकजुट होकर बहुमत नहीं जुटा पाएंगे. ऐसे राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए संसद के लिए बहुत मुश्किल होगा कि वो मौजूदा सरकार की जगह कोई नया निज़ाम चुन सके. इसी वजह से संसद, नए चुनाव कराने के पक्ष में भी बहुमत से वोट नहीं कर पाएगी. संसद को ये अधिकार तो है कि वो बहुमत से नए चुनाव का फ़ैसला कर सकती है. लेकिन, वो ऐसा तब तक नहीं कर सकती, जब तक मौजूदा सरकार का आधा कार्यकाल पूरा नहीं हो जाता, जो मार्च 2023 में जाकर होगा. पिछले हफ़्ते जब पूरी कैबिनेट ने इस्तीफ़ा दे दिया था, तब भी महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने से इंकार कर दिया था. कैबिनेट ने इस्तीफ़ा तो इसलिए दिया था कि मौजूदा राजनीतिक संकट का हल निकल सके. मगर हुआ ये कि देश नए सियासी संकट में फंस गया.
वैसे तो अराजकता के शुरुआती संकेत देखते हुए ही राष्ट्रपति गोटाबाया ने देश में आपातकाल लगा दिया था और हफ़्ते के आख़िर में कर्फ्यू लगाने का भी ऐलान किया था. लेकिन राजनीतिक विपक्ष द्वारा इसकी खुली अवहेलना करने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना होने के चलते इन क़दमों को तुरंत वापस ले लिया गया.
अर्थव्यवस्था का मुद्दा पीछे चला गया
इन सभी बातों का नतीजा ये निकला है कि विपक्ष जिस अर्थव्यवस्था के बुरे हाल के मुद्दे पर सरकार के ऊपर हमलावर था, आशंका के मुताबिक़ वही मुद्दा पीछे चला गया. पिछले कुछ महीनों से चले आ रहे वित्तीय और विदेशी मुद्रा के संकट के बावजूद, विपक्षी दल इससे निपटने की कोई ठोस नीतिगत योजना सामने नहीं रख सका है. यहां तक कि संसद के भीतर भी विपक्ष के नेता सजिथ प्रेमदासा के नेतृत्व में विपक्षी दलों के सांसद अर्थव्यवस्था से ज़्यादा राजनीति की बातें कर रहे हैं. ख़बर है कि विपक्ष के इस रवैये ने जनता को नाराज़ कर दिया है. जनता चाहती है कि राजपक्षे सत्ता से हट जाएं. इसी में लोगों को अपनी आर्थिक चुनौतियों का हल दिखता है.
संसद और राष्ट्रपति सचिवालय के बाहर, गोटाबाया और महिंदा राजपक्षे और सत्ताधारी पार्टी के लगभग हर सांसद के घर के बाहर जनता के विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. बर्ख़ास्त किए गए मंत्री विमल वीरावांसा जैसे सरकार के बाग़ियों के घर के बाहर भी ऐसे ही हालात देखे जा रहे हैं. इन विरोध प्रदर्शनों के पीछे भी या तो विपक्षी दलों का हाथ है, या फिर उन्होंने जनता के विरोध को हथिया लिया है. श्रीलंका बार एसोसिएशन (SLBA) ने कुछ जगहों पर हुई हिंसा की निंदा की है. इसकी शुरुआत राजधानी कोलंबो के मिरिहाना में राष्ट्रपति गोटाबाया के घर के बाहर विरोध प्रदर्शन से हुई थी. इसके बावजूद, कुछ वकीलों ने अपने अदालत वाले लिबास पहनकर एटॉर्नी जनरल के विभाग के दफ़्तर पर हमला बोल दिया. गोटाबाया के सत्ता में आने के बाद से राजपक्षे और उनके पसंदीदा लोगों के ख़िलाफ़ लंबित मामले वापस लेने का विरोध करने के लिए वकीलों ने हिंसक प्रदर्शन किए.
जनता का भरोसा दोबारा बहाल करने के लिए तमाम दलों के नेताओं को एक साथ आना ही होगा. तभी वो लोगों का विश्वास जीत सकेंगे, क्योंकि आर्थिक संकट सिर्फ़ राजपक्षे परिवार के नाकारेपन का नतीजा नहीं. ये पिछली सरकारों से विरासत में मिला संकट भी है.
वैसे तो अराजकता के शुरुआती संकेत देखते हुए ही राष्ट्रपति गोटाबाया ने देश में आपातकाल लगा दिया था और हफ़्ते के आख़िर में कर्फ्यू लगाने का भी ऐलान किया था. लेकिन राजनीतिक विपक्ष द्वारा इसकी खुली अवहेलना करने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना होने के चलते इन क़दमों को तुरंत वापस ले लिया गया. राजनीति से ख़ुद को परे करने के लिए रक्षा सचिव जनरल (रिटायर्ड) कमल गुणारत्ने ने एलान किया है कि देश के सैन्य बल संविधान के साथ खड़े हैं और दंगाइयों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने में क़तई संकोच नहीं करेंगे. इसी तरह, सेनाध्यक्ष जनरल शावेंद्रा सिल्वा, जिन पर अमेरिका और ब्रिटेन ने ‘प्रतिबंध’ लगा रखे हैं, ने विदेशी कूटनीतिक मिशन के रक्षा प्रतिनिधियों से मुलाक़ात की और यक़ीन दिलाया कि वो संविधान पर चलने का वादा करते हैं. सेनाध्याक्ष ने देश के अहम ठिकानों पर तीनों सेनाओं को तैनात करने का आदेश भी दिया. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सुरक्षा एजेंसियां देश में ऐसे नए और उभरते नेताओं की तलाश कर रही हैं, जो भविष्य में सत्ता में आ सकते हैं.
उलट- पुलट प्राथमिकताएं
आर्थिक संकट जब शीर्ष पर है और देश को चारों तरफ़ भरोसे का माहौल बनाने की ज़रूरत है. दोस्ताना ताल्लुक़ वाले देशों को बड़े क़र्ज़ के भुगतान में रियायत देने और नया क़र्ज़ देने के लिए राज़ी करने की आवश्यकता है और विदेशी निवेशकों से देश में रोज़गार पैदा करने, आमदनी बढ़ाने और सरकार की आमदनी बढ़ाने में मदद मांगने का वक़्त है, तब ऐसा लग रहा है कि श्रीलंका में सब कुछ इसके उलट हो रहा है. इसी तरह से 2019 के ईस्टर बम धमाकों और उसके बाद महामारी से बाद से तबाह हुए पर्यटन उद्योग में नई जान डालने की ज़रूरत है. मगर अगर श्रीलंका के अंदरूनी हालात ऐसे ही रहे, तो पर्यटन उद्योग पर भी इसका बुरा असर पड़ेगा. बदक़िस्मती से राजनीतिक वर्ग की उल्टी प्राथमिकताएं, निराश मगर ज़िद पर अड़े राजपक्षे परिवार और विभाजित विपक्ष मिलकर, श्रीलंका को फ़ायदा से ज़्यादा नुक़सान पहुंचा रहे हैं.
श्रीलंका के आर्थिक हालात स्थिर होने में वक़्त लगेगा और देश की जनता ने पहले ही ये दिखा दिया है कि उसमें अब सब्र नहीं बचा है. वैसे जनता से उम्मीद भी इसी की थी. पड़ोसी के तौर पर भारत द्वारा, रियायती क़र्ज़, निवेश और ईंधन, चावल, दवाओं की शक्ल में दी गई मदद से श्रीलंका की जनता की तकलीफ़ें कम करने में काफ़ी मदद मिलेगी. इस बीच मध्यम अवधि में श्रीलंका पर लदे क़र्ज़ के बोझ को उतारने के लिए नए सिरे से कोशिश करनी होगी और उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के साथ- साथ विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक (ADB) से भी मदद की दरकार होगी, ताकि विदेशी मुद्रा का भंडार बढ़ाया जा सके.
जनता का भरोसा दोबारा बहाल करने के लिए तमाम दलों के नेताओं को एक साथ आना ही होगा. तभी वो लोगों का विश्वास जीत सकेंगे, क्योंकि आर्थिक संकट सिर्फ़ राजपक्षे परिवार के नाकारेपन का नतीजा नहीं. ये पिछली सरकारों से विरासत में मिला संकट भी है. फिर भी राजधानी कोलंबो जैसे शहरों के मध्यम वर्गीय प्रदर्शनकारी, ‘परिवार के राज’, ‘राजपक्षे का भ्रष्टाचार’ और ‘भाई- भतीजावाद’ को मुद्दा बनाकर नारेबाज़ी कर रहे हैं. पर्चे बांट रहे हैं. आर्थिक संकट हल होने के लिए हमें राजनीतिक स्थिरता की ज़रूरत है. मगर ऐसे विरोध से उसमें भी देर हो सकती है.
नई चुनौतियों की आशंका
श्रीलंका में सरकार चाहे किसी भी सियासी दल की रही हो, मगर देश का शासन तंत्र हमेशा इस बात को लेकर फ़िक्रमंद रहा है कि कहीं देश में सिंहल- बौद्ध युवाओं का उग्रवाद दोबारा सिर न उठा ले. श्रीलंका, जनता विमुक्ति पेरामुना के उग्रवाद के दो दौर (1971 और 1987 में) भुगत चुका है. इसके अलावा श्रीलंका ने तमिल उग्रवादी संगठन (LTTE) को भी भुगता है. इसी वजह से देश का शासक वर्ग, शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में जनता के विरोध प्रदर्शनों को बड़ी चिंता भरी नज़रों से देखता रहा है. इन प्रदर्शनों में नई पीढ़ी के युवाओं की मौजूदगी भी उनकी नज़र में आई है. इन युवाओं के रोज़गार छिन गए हैं. इसके लिए सिर्फ़ महामारी ही नहीं, बल्कि चीन के निवेश वाली बड़ी बड़ी परियोजनाएं भी ज़िम्मेदार हैं, जिनमें काम करने के लिए चीनी कामगार लाए गए. इसकी वजह से स्थानीय लोगों के हाथ से रोज़गार के मौक़े छिन गए. विरोध प्रदर्शनों के बाद जब माहौल शांत होगा, तभी सही समीक्षा और विश्लेषण से पता चलेगा कि युवाओं के उग्रवाद की ओर झुकाव की आशंका कितनी सही या ग़लत है.
श्रीलंका की बाहरी सुरक्षा की स्थिति तुलनात्मक रूप से स्थिर लग रही है. ख़ास तौर से LTTE और उनकी समुद्री ईकाई सी टाइगर्स के ख़ात्मे के बाद. श्रीलंका साल 2011 से ही तटीय सुरक्षा के लिए मालदीव्स और भारत के साथ ‘दोस्ती’ युद्धाभ्यास में शामिल होता रहा है, ताकि अपनी तटीय सुरक्षा को मज़बूती दे सके.
वैसे, श्रीलंका की बाहरी सुरक्षा की स्थिति तुलनात्मक रूप से स्थिर लग रही है. ख़ास तौर से LTTE और उनकी समुद्री ईकाई सी टाइगर्स के ख़ात्मे के बाद. श्रीलंका साल 2011 से ही तटीय सुरक्षा के लिए मालदीव्स और भारत के साथ ‘दोस्ती’ युद्धाभ्यास में शामिल होता रहा है, ताकि अपनी तटीय सुरक्षा को मज़बूती दे सके. इसके अलावा वर्ष 2020 में ‘कोलंबो सिक्योरिटी कॉनक्लेव’ (CSC) का भी गठन किया गया था और समुद्री सुरक्षा के मौजूदा समझौते को समुद्री और सुरक्षा के समझौते के रूप में बढ़ाया गया है. हिंद महासागर के इस ‘तालाब’ के मुहाने पर स्थित मॉरीशसन ने भी इस साल मालदीव्स में हुए सिक्योरिटी कॉनक्लेव में पूर्णकालिक सदस्य के तौर पर हिस्सा लिया था. वहीं सेशेल्स और बांग्लादेश, पर्यवेक्षक के तौर पर शामिल हुए थे.
हालांकि, अंदरूनी राजनीतिक और आर्थिक कमज़ोरी का असर बाहरी सुरक्षा पर भी पड़ना तय है. ख़ास तौर से तब और जब हिंद महासागर की सुरक्षा साझा है. इससे तय योजना के तहत कोलंबो सिक्योरिटी कॉनक्लेव को बेहतर बनाने के काम में देरी हो सकती है. फिर इससे उन बाहरी ताक़तों को इस क्षेत्र से दूर रखने का काम भी मुश्किल हो जाएगा, जो श्रीलंका के मुश्किल हालात का फ़ायदा उठाकर हिंद महासागर क्षेत्र में अपना दायरा बढ़ाना चाहते हैं. इस बार ये बाहरी ताक़त निवेश के अपने पारंपरिक रास्ते से आगे बढ़ सकती है. निवेश तो आर्थिक रूप से अच्छा कहा जा सकता है. लेकिन, अगर ये विदेशी ताक़त अपनी योजना और साज़िशों में सत्ता परिवर्तन या फिर ‘अरब क्रांति’ और ‘ऑरेंज क्रांति’ जैसे अराजक विकल्प को भी शामिल कर लेती है, तो इससे हर तरह के स्थानीय कट्टर संगठनों को ही फ़ायदा होगा.
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