Author : Harsha Kakar

Published on Jan 20, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत, अफगानिस्तान और अमेरिका को ले कर पाकिस्तान की विदेश नीति को अगर कोई नियंत्रित करता है तो वह पाकिस्तानी सेना ही है। इस पर पाकिस्तानी राजनीति का कोई जोर नहीं है। जब कभी राजनीति की ओर से कोई कदम बढ़ाया जाता है, ये ताकतें भारत में आतंकवादियों को हमला करने के लिए तैयार कर लेती हैं और बातचीत को पलीता लग जाता है।

क्यों बेमानी हैं पाक सेना प्रमुख की बातें

पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल जावेद बाजवा ने राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में और सऊदी अरब की ओर से तैयार किए गए सैन्य गठबंधन सहित हाल की यात्राओं को ले कर जानकारी देने के लिए सीनेट के साथ बैठक की। यह बैठक बंद कमरे में हुई थी। इस बैठक के बाद पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज के जन संपर्क विभाग ने एक बयान जारी किया, जिसमें कुछ ब्योरे दिए गए थे। अपने अधिकारियों की ओर से जानकारी दिए जाने के बाद जनरल बाजवा ने सीनेट के सदस्यों की ओर से पूछे गए सवालों के जवाब दिए।

इस चर्चा के दौरान ही उन्होंने कहा कि अगर सरकार भारत और अफगानिस्तान के साथ रिश्ते बेहतर करने की कोशिश करेगी तो सेना उसका समर्थन करेगी। ऐसा बयान, खास तौर पर जिसमें भारत को भी शामिल किया गया हो, पाकिस्तानी सेना प्रमुख की ओर से संभवतः पहली बार दिया गया था (क्योंकि वे भारत के साथ बाचतीत की बात पर अक्सर चुप्पी ही साधते हैं) और इसे संदेह से परे रख कर नहीं देखा जा सकता। साथ ही बातचीत का समर्थन करना है तो इसके लिए कोरी बयानबाजी की बजाय कुछ कारगर करने की जरूरत है।

पाकिस्तान के अंदर, सेना ही है जो भारत, अफगानिस्तान और अमेरिका से जुड़ी विदेश नीति का नियंत्रण करती है। राजनीति की इसमें कोई भूमिका नहीं होती। राजनीति की ओर से जब भी कदम आगे बढ़ाया जाता है, ये ताकतें आतंकवादियों को भारत पर हमला करने के लिए तैयार कर लेती हैं और बातचीत को पलीता लग जाता है। यह भी पूरी तरह से स्पष्ट हो चुका है कि नई दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग विदेश मंत्रालय की बजाय सेना को रिपोर्ट करता है और इसलिए संबंधों को बेहतर करने की बजाय हमेशा इस रास्ते में रोड़ा ही बना रहेगा।

भारत के साथ बातचीत का समर्थन करने के अगले ही दिन सेना प्रमुख ने हाफिज सईद की तारीफ की, जिसे भारत अधिकांश आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार बताता है और जिस के सर पर अमेरिका ने इनाम रखा है। उसके नेतृत्व में मिल्ली मुस्लिम लीग नाम की राजनीतिक पार्टी के गठन में सेना ही मदद कर रही है। इस पर सरकार एतराज कर रही है। सीमा पर तनाव कम करने की बजाय, इसने चार भारतीय जवानों की जान लेने वाला ऑपरेशन शुरू कर दिया। इससे साफ है कि यह सेना का दोहरा रवैया है और भारत इस टिप्पणी को नजर अंदाज कर के ठीक ही कर रहा है।

इस समय पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव है। अमेरिका के उप राष्ट्रपति माइक पेंस ने कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में कहा है कि पाकिस्तान को आतंकवादी समूहों को काबू करने के लिए चेतावनी जारी कर दी गई है। अमेरिका की नेशनल सेक्यूरिटी स्ट्रेटजी ने भी तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को समर्थन करने में पाकिस्तान की भूमिका के बारे में प्रकाश डाला है। यह भारत के साथ संबंध बेहतर करने के लिए पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने को भी जरूरी बताता है और इसके लिए पाकिस्तान को ही कदम उठाने को जरूरी बताता है।

पाकिस्तान जब भारत पर यह आरोप लगाता है कि वह बलूचिस्तान स्वतंत्रता आंदोलन और अफगानिस्तान की धरती से इसके खिलाफ चलने वाले आतंकवादी समूहों की अफगान खुफिया एजेंसियों के साथ मिल कर मदद करता है तो इस बात को संयुक्त राष्ट्र या ऐसे किसी दूसरे फोरम पर कोई स्वीकार नहीं करता। कश्मीर पर निष्क्रिय हो चुके संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को लागू करने की मांग और इस मामले में दखल देने की इसकी अपील पर कोई ध्यान नहीं देता। भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र के सैन्य पर्यवेक्षक समूह (यूएनएमओजीआईपी) की भूमिका और कार्यक्षेत्र को बढ़ाने की इसकी मांग को भी दरकिनार किया गया है। कश्मीर अब संयुक्त राष्ट्र के एजेंडा में कहीं नहीं और दशकों से इसकी चर्चा भी नहीं की गई है।

दूसरी तरफ, पाकिस्तान से संचालित होने वाले सेना समर्थित आतंकवादी समूहों को प्रकाश में लाने की भारत की कोशिश ब्रिक्स सम्मेलन सहित बहुत से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कामयाब हुई है। इस पर कई अंतरराष्ट्रीय नेताओं ने टिप्पणी की है। संयुक्त राष्ट्र में भारत, अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने आतंकवादी संगठनों की मदद के लिए खुल कर पाकिस्तान का नाम लिया है। ट्रंप और उसके सहयोगियों ने पाकिस्तान से चलने वाले आतंकवादी समूहों और इसके नेताओं को अंतरराष्ट्रीय आकंतवादी करार दिया है। सिर्फ चीन है ऐसा देश है जिसने अपना वीटो लगा कर हाफिज सईद को संयुक्त राष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किए जाने से बचाया।

इसलिए पाकिस्तान या इसके सैन्य प्रमुख जब ऐसा कुछ कहते हैं तो उन पर कोई यकीन नहीं करता। जहां वे एक तरफ बातचीत की बात करते हैं, वहीं दूसरी तरफ भारतीय धरती पर आतंकवाद फैला रहे संगठनों को समर्थन भी करते हैं, ऐसे में बातचीत की अवधारणा का ही कोई मूल्य नहीं रह जाता। इसी तरह जिस हाफिज सईद को भारत अपने ऊपर होने वाले आतंकवादी हमलों का मास्टर माइंड मानता है, उसे राजनीतिक दल के गठन में मदद करना भी बहुत गलत संदेश देता है। जब तक पाकिस्तान की धरती से संचालित होने वाले आतंकवादी संगठन बेधड़क अपना काम कर रहे हैं और संघर्ष विराम का उल्लंघन लगातार हो रहा है, बातचीत जारी नहीं रह सकती। किसी सार्थक बातचीत के लिए जरूरी है कि अनुकूल माहौल बने, जो वास्तव में है नहीं।

अनुकूल माहौल के नहीं होने से विश्वास की कमी रहती है। विश्वास की कमी का मतलब है कि पाकिस्तानी सेना जब चाहेगी बातचीत को पटरी से उतार सकती है। इसलिए भारत का मानना है कि बातचीत का कोई फायदा नहीं, जब तक कि पाकिस्तान पर आतंकवादी समूहों की मदद बंद करने और अपनी धरती पर मौजूद इनके कैंप ध्वस्त करने के लिए दबाव नहीं दिया जाए। ऐसे में भारत पाकिस्तान को जवाब देने की क्षमता विकसित करता रहता है, जिसकी वजह से पाकिस्तान भी अपना कीमती धन खर्च कर के रक्षा तैयारियों को मजबूत करते रहने पर मजबूर होना पड़ता है, जबकि इसके लिए यह खर्च उठा पाना काफी मुश्किल है। ऐसे में पाकिस्तान हमेशा डरा रहता है और भारत पर हथियारों की दौड़ शुरू करने और उप महाद्वीप में तनाव पैदा करने का आरोप लगाता है। इसे लगता है कि यह परमाणु हथियार तैयार कर के और भारतीय सेना को कश्मीर में ही उलझाए रखने के लिए आतंकवादी समूहों को मदद कर के भारत का मुकाबला कर सकता है।

मौजूदा माहौल में, भारत धीरे-धीरे पाकिस्तान पर अपनी बढ़त कायम कर रहा है जैसा कि अमेरिका ने पहले के सोवियत संघ पर किया था। अमेरिका और नाटो की सैन्य शक्ति के बढ़ने के साथ ही सोवियत संघ को अपने रक्षा खर्च को बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा और इसका असर उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ा। पाकिस्तान का भी रक्षा बजट हर साल बढ़ता जा रहा है, जिसकी वजह से सरकार को विकास योजनाओं में कटौती करनी पड़ रही है और इसका आसरा अब चीन के निवेश पर ही रह गया है। ऐसे में यह चीन का ही बंधक बना रहेगा।

दूसरी तरफ भारत अपनी क्षमताओं को बढ़ाने, सीमा पर होने वाले उल्लंघनों का आक्रामकता के साथ जवाब देने और कश्मीर में आतंकवादियों का सफाया करने के अपने प्रयास को जारी रखेगा। एक उभरते सैन्य और आर्थिक शक्ति के तौर पर इसकी दुनिया भर में पूछ हो रही है, जबकि विकास और प्रगति को छोड़ देने वाले पाकिस्तान का साथ घटता जाएगा। भारत बातचीत दुबारा शुरू करने की जल्दबाजी में नहीं, जब तक कि पाकिस्तान विश्वास कायम नहीं करता और आतंकवादी समूहों को ध्वस्त करने की इच्छा नहीं जताता।

बातचीत का ज्यादा फायदा पाकिस्तान को ही मिलना है, क्योंकि इससे यह अपने रक्षा खर्च को कम करने और उस धन को अर्थव्यवस्था को विकसित करने की सोच सकता है, जो इस समय पूरी तरह ध्वस्त है। पाकिस्तान को चीन से सीखना चाहिए, जिसने यह जान लिया है कि भारत के साथ बातचीत के जरिए ही आगे बढ़ा जा सकता है। अगर यह अपने मौजूदा आक्रामक रवैये पर बना रहा तो ज्यादा नुकसान इसी का होगा। भारत के पास खोने को कुछ नहीं है, इसे इंतजार है पाकिस्तान की ओर से बातचीत के लिए सकरात्मक संकेत मिलने का। फिलहाल इसने जनरल बाजवा की बातों को उपेक्षित कर के ठीक ही किया है।

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