Author : Kabir Taneja

Published on Jun 09, 2017 Updated 0 Hours ago

क्या क़तर में अस्थिरता का भारत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है?

कूटनीतिक तौर पर अलग-थलग क्यों पड़ गया है क़तर

13 शताब्दियों से खाड़ी की विरासत का उत्सव मनाता आ रहा डाऊ त्योहार

स्रोत: उमर छतरीवाला

खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के अधिकांश सदस्यों और अन्य क्षेत्रीय देशों ने समृद्ध लेकिन छोटे से देश क़तर को कूटनीतिक रूप से अलग-थलग कर दिया है। अभूतपूर्व रूप से और अचानक उठाए गए इस कदम ने पश्चिम एशिया के पहले से ही अशांत राजनीतिक परिदृश्य में हलचल पैदा कर दी है। सुन्नी ताकत के क्षेत्रीय केंद्र सऊदी अरब ने संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), बहरीन और मिस्र के साथ मिलकर दोहा पर कूटनीतिक शिंकजा कस दिया और उनके बाद यमन, लीबिया और मालदीव ने भी उनका अनुसरण किया।

क्षेत्र के मौजूदा संकट के कारण स्पष्ट तो नहीं हैं, लेकिन क़तर और सऊदी अरब के बीच तात्कालिक चिंताओं और उससे भी ज्यादा दीर्घकालिक मांगों की उलझनों के कारण जीसीसी के ज्यादातर सदस्य देशों ने उसे अलग-थलग कर दिया है। आसान शब्दों में कहें, तो क़तर से अपनी स्वतंत्र, घरेलू और सबसे महत्वपूर्ण, विदेशी नीतियों की जगह जीसीसी के विज़न, लक्ष्यों और उद्देश्यों का अनुसरण करने की अपेक्षा की जाती रही है। हालांकि रिपोर्ट्स के अनुसार, महीना भर पहले इराक में शिकार पर गए क़तर के शाही सदस्यों को अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुड़ाने के लिए चुकाई गई फिरौती की मोटी रकम मौजूदा संकट की तात्कालिक वजह हो सकती है। क़तर ने कथित तौर पर अल कायदा से जुड़े सीरियाई गुट तहरीर — अल-शाम और ईरानी शिया मिलिशिया कताएब हिजबुल्ला को 1 बिलियन डॉलर की रकम चुकाई है।

एक राष्ट्र के तौर पर, क़तर की सफलता के लिए उसका बारीकी से अध्ययन किया जाना चाहिए, जो जटिल क्षेत्रीय राजनीति में उसके अलग रवैये को भी दर्शाता है। महज 11,500 वर्गकिलोमीटर के दायरे में फैला एक छोटा सा अमीरात, जिसमें 3,10,000 से ज्यादा क़तर के नागरिक (और 2.3 मिलियन से ज्यादा प्रवासी, जिनमें से 6,50,000 से ज्यादा भारतीय) हैं। दुनिया में प्राकृतिक गैस का प्रमाणित तीसरा विशाल भंडार होने के दम पर पिछले कुछ वर्षों से वह खुद को क्षेत्रीय राजनीति और वैश्विक अ​र्थव्यवस्था में प्रमुख देश के रूप में प्रस्तुत करते हुए इस क्षेत्र के सबसे ब्रेन्ड्स में शुमार हो चुका है। इस कोशिश से यह तो तय हो गया कि क़तर पश्चिम एशिया का कोई अन्य अव्यवस्थित सा देश नहीं है। दोहा 2022 में फुटबाल विश्व कप का आयोजन कर रहा है, जबकि क़तर एयरवेज़ विश्व के प्रत्येक प्रमुख हिस्से में उड़ान भरती है और यूरोप में विश्व की बड़ी स्पोर्ट्स टीम्स की प्रायोजक है। इन सबके अलावा, सीरिया जैसे संघर्ष क्षेत्रों में नियमित रूप से सऊदी अरब की दखलंदाजी का विरोध करने का रुख अपनाने वाला क़तर का न्यूज नेटवर्क अल जजीरा, दुनिया भर में व्यापक पहुंच कायम कर चुका है। पिछले कुछ वर्षों से क़तर और सत्तारूढ़ अल-थानी परिवार को इस तरह की ‘सॉफ्ट पॉवर’ के बारे में भरोसा हो चुका है कि उसके खिलाफ किसी भी तरह के कठोर या सैन्य खतरों को दुनिया के शीर्षतम मंच पर हाइलाइट किया जाएगा। सीधे तौर पर कहा जाए, तो क़तर ने अपनी सॉफ्ट पॉवर पहल के जरिए यमन में जारी, लेकिन भुला दिए गए विद्रोह को नजरंदाज किया है, जहां सऊदी अरब और ईरान से वित्तीय सहायता पाने वाले गुट कभी न खत्म होने वाले छद्म युद्ध में उलझे हुए हैं।

वैसे तो क़तर के साथ जीसीसी के ज्यादातर सदस्य देशों के दीर्घकालिक मसले हैं, लेकिन मौजूदा कूटनीतिक टकराव शुरू होने की वजह क़तर द्वारा क्षेत्रीय राजनीति में अपनी क्षमता से ज्यादा प्रभाव दिखाने की कोशिश है, जिसमें उस खतरे की सीधे तौर पर निंदा करने से बचना शामिल है, जिसे जीसीसी के अन्य देश अपने साझा हितों के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। इसमें ईरान शामिल है। एक अन्य मसला क़तर द्वारा मुस्लिम ब्रदरहुड के सदस्यों को निकालने से इंकार करना है और इसे लेकर क़तर, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र में लम्बे अर्से से टकराव बना हुआ है। विरोध कर रहे जीसीसी सदस्य देशों का मानना है कि क़तर के लोग लगातार अपने हिस्से का दायित्व पूरा करने में नाकाम रहे हैं और राजनीतिक क्षेत्र में जीसीसी के हितों के विपरीत हस्तक्षेप करना जारी रखे हुए हैं।

आने वाले हफ्तो में क़तर की घेराबंदी के दिलचस्प जटिल भू-राजनीतिक परिणाम भी हो सकते हैं। वास्तविकता यह है कि सऊदी अरब से क़तर तक के समुद्र मार्ग और सीमाओं के बंद होने का अर्थ है कि वहां खाद्य आपूर्ति रुक जाएगी। जहां एक ओर ईरान ने कहा है कि जीसीसी को यह मामला बातचीत से हल करना चाहिए, वहीं दूसरी ओर वह क़तर को रिझाने के मौके का फायदा उठाने से भी नहीं चूका है। ईरान ने यह कहकर क़तर को खाद्य आपूर्ति भेजने की पेशकश की है कि अगर जरूरत पड़ी तो अलग-थलग कर दिए गए इस देश तक सप्लाई की पहली खेप 12 घंटे के अंदर पहुंच सकती है। ईरान की इस पेशकश को मंजूर करना, यकीनन इस कूटनीतिक स्थिति को और ज्यादा बिगाड़ देगा।

इस अफरा-तफरी के बीच, अमेरिका भी खुद को बहुत दिलचस्प स्थिति में पा रहा है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि यह कदम उठाने से पहले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के प्रशासन को इसकी चेतावनी दी गई थी या नहीं। इस्लामिक स्टेट आतंकवादियों के खिलाफ हवाई हमले कर रही अमेरिका की केंद्रीय कमान (सेंटकॉम) और मुख्य वायु कमान(अल उदेद एयर बेस) क़तर में है, जबकि अमेरिका का पांचवां बेड़ा बेहरीन में है। अमेरिका की क़तर में भूमिका इससे कहीं बढ़कर है, ऊर्जा के क्षेत्र में उसकी प्रमुख कम्पनी एक्सॉनमोबील क़तर के समृद्ध प्राकृतिक गैस क्षेत्र में सबसे बड़ी विदेशी साझेदार है। एक्सॉनमोबील और क़तर की रासगैस के बीच जब 2001 में सौदा हुआ था, तो अमेरिका के मौजूदा विदेश मंत्री उस समय एक्सॉनमोबील के वाइस प्रेसिडेंट थे। यह अनुमान लगाना आसान है कि टिलरसन क़तर के राजनीतिक परिदृश्य को बखूबी समझते हैं और इस बात को मानना लगभग नामुमकिन है कि वे क़तर के खिलाफ जीसीसी के रुख से पूरी तरह अनभिज्ञ रहे होंगे। विशेषकर तब, जबकि महज दो सप्ताह पहले ही सऊदी अरब में ट्रम्प की ‘ऑर्ब’ कूटनीति ने अरब देशों को ईरान के खिलाफ एकजुट किया हो। टिलरसन का यह बयान कि क़तर के साथ संबंध तोड़ने का आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों पर कोई असर नहीं होगा, इस स्थिति के बारे में अमेरिका द्वारा किसी तरह की सहमति होने को हाइलाइट करता है।

क़तर में अस्थिरता के भारत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। भारत, जापान के बाद क़तर की तरल प्राकृतिक गैस (एलएनजी) दूसरा बड़ा खरीददार है। भारत की पेट्रोनेट एलएनजी, एक दीर्घकालिक सौदे के तहत हर साल दोहा से 8.5 मिलियन टन एलएनजी का आयात करती है। हर 72 घंटे के भीतर 150 करोड़ रुपये मूल्य की एक खेप भारतीय तटों पर पहुंचती है। इसके अलावा, 650,000 से ज्यादा भारतीय क़तर में रहते और काम करते हैं। ऐसे में अगर हालात ज्यादा बिगड़े, तो भारत कठिनाइयों से घिर सकता है। हालांकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इन घटनाओं को ज्यादा अहमियत न देते हुए कहा कि है सभी देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंध सहज बने रहेंगे।

सऊदी अरब और उसके साझेदारों ने क़तर के साथ इन मसलों को बहुत उलझा दिया है, इसलिए इस स्थिति को सुलझाने में वक्त लग सकता है। जैसा कि इस तरह के ज्यादातर मामलों में होता है इस बारे में कोई योजना बना पाना मुश्किल है। क़तर और सऊदी अरब के नेतृत्व वाली जीसीसी के सदस्यों, दोनों को अपनी शिकायतों के लिए सर्वसम्मत आधार तलाशने की जरूरत है, लेकिन इस तरह के कूटनीतिक टकराव के मामलों के लम्बा खिंचने के अन्य देशों की बजाए क़तर पर ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव होंगे।

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