Published on Sep 21, 2019 Updated 0 Hours ago

ये बहुत ज़रूरी है कि नागा नेतृत्व मौजूदा हालात में उन मुद्दों को अच्छी तरह से समझ ले, ताकि संविधान के अनुच्छेद 371 के जिन प्रावधानों की वो हिफ़ाज़त करना चाहती है, वो काम हो सके.

भारत के अलगाववादी समूहों में उठा-पटक

इस वक़्त पूरे देश का ध्यान जम्मू-कश्मीर में बदलते हालात की तरफ़ है, और ये वाजिब भी है. लेकिन, ख़बरें ये भी आ रही हैं कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा देने वाले संवैधानिक प्रावधान को बदलने के बाद से नागा अलगाववादियों के बीच बेचैनी है. इस बेचैनी और नाराज़गी की बड़ी वजह है, उस समझौते को अंतिम रूप दिए जाने में देरी, जो नागा अलगाववादियों के साथ हुआ था. जब इस समझौते पर दस्तख़त हो जाएंगे, तो इससे देश में सबसे लंबे समय से चले आ रहे उग्रवादी आंदोलन के ख़ात्मे की उम्मीद है. हैरान करने वाली बात ये है कि जिस तरह केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को अलग झंडा और अलग संविधान रखने का हक़ देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का क़दम उठाया, वो तरीक़ा ही नागा अलगाववादियों की नाराज़गी की प्रमुख वजह है.

14 अगस्त 1947 को नागा नेशनल काउंसिल (NNC) के प्रमुख ए. ज़ेड फ़िज़ो ने अन्य नागा नेताओं के साथ मिलकर, नागालैंड की आज़ादी का ऐलान कर दिया था. जिसके बाद से ही राज्य में हिंसक उग्रवाद की शुरुआत हुई, जो नागालैंड के कई हिस्सों में आज तक जारी है. 1963 में अलग नागालैंड बनाने जैसी तमाम कोशिशों के बावजूद केंद्र सरकार, नागाओं की बग़ावत को ख़त्म करने में नाकाम रही है. आख़िरकार, 1975 में नागा नेशनल काउंसिल और केंद्र सरकार के बीच शिलॉन्ग समझौता हुआ, जिसके बाद नागा नेशनल काउंसिल ने हथियार डालने और भारतीय संविधान का पालन करने पर रज़ामंदी जताई. एनएनसी के दो प्रमुख नेताओं टीएच. मुइवाह और इसका स्वू ने इस समझौते के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी. उन्होंने नागालैंड और केंद्र सरकार के बीच इस हुए समझौते को नागा संप्रभुता की मांग के सरेंडर और बिक जाने जैसी संज्ञा दी. इसके बाद, 1980 में इसाक और मुइवाह ने एस.एस खापलांग के साथ मिलकर एक अलग उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड (NSCN) की स्थापना की. खापलांग म्यांमार मूल के नागा नेता हैं. 1988 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड दो हिस्सों में बंट गया. इसकी वजह थी नेतृत्व के बीच मतभेद. एनएससीएन (आईएम) के अगुवा इसाक स्वू और टीएच. मुइवाह बन गए. और एनएससीएन (के) का नेतृत्व खापलांग करने लगे.

आज़ाद नागालैंड स्थापित करने में जो चुनौतियां सामने आएंगी, उससे भी नागा समुदाय भलीभांति परिचित हो गया है. इसके मुक़ाबले उन्हें दुनिया की तेज़ी से बढ़ रही प्रमुख अर्थव्यवस्था से जुड़े रहने के फ़ायदे ज़्यादा समझ में आ रहे हैं.

1997 के आते-आते इसाक-मुइवाह का एनएससीएन गुट नागाओं का सबसे प्रभावशाली और बड़ा उग्रवादी संगठन बन गया था. उसी साल जुलाई में इसाक स्वू और टीएच मुइवाह के साथ संगठन के सभी बड़े नेताओं ने केंद्र सरकार के साथ एकतरफ़ा संघर्ष विराम पर दस्तख़त किए. ताकि, नागालैंड में हथियारबंद संघर्ष ख़त्म हो सके. कुल मिलाकर, इस समझौते के तहत उग्रवादी संगठन के हथियारबंद कार्यकर्ताओं के रहने के लिए अलग कैम्प बनाए जाे थे. ये कैम्प सुरक्षा बलों की कार्रवाई के दायरे से बाहर थे. इसके अलावा, दोनों ही पक्षों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हमला न करने पर भी सहमति जताई. न ही अब नागा उग्रवादी ज़बरदस्ती पैसा उगाही कर सकते थे और नागरिकों को डरा कर अपने संगठन में शामिल होने के लिए मजबूर भी नहीं कर सकते थे. युद्धविराम की निगरानी के लिए एक सीज़फ़ायर मॉनिटरिंग ग्रुप भी बनाया गया. जिसमें सुरक्षा बलों के प्रतिनिधियों के साथ-साथ उग्रवादियों के नुमाइंदे बी शामिल थे, ताकि युद्ध विराम को सही तरीक़े से लागू किया जा सके. आख़िरकार, इस समझौते ने राजनीतिक संवाद के लिए जगह बनाई. नागा अलगाववादियों को सीधे प्रधानमंत्री से बात करने का मौक़ा दिया गया, जो किसी तीसरे देश में हो सकती थी. इस बातचीत के लिए कोई शर्त भी नहीं रखी गई थी.

ये समझौता एकतरफ़ा था. क्योंकि, इससे नागालैंड में हिंसक संघर्ष तो ख़त्म हो गया. लेकिन, इस समझौते की शर्तों से साफ़ था कि नागा उग्रवादियों को लुभाने के लिए सरकार बहुत झुक गई थी. इसका नतीजा ये हुआ कि इलाक़े की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई. पहली बात तो ये कि, ये समझौता केंद्र सरकार और उग्रवादियों के बीच हुआ था, जिसमें स्थानीय प्रशासन शामिल नहीं था, न ही स्थानीय राजनेता इस बातचीत का हिस्सा थे, तो इस समझौते से राज्य की लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकार पर बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया. साथ ही एनएससीएन के उग्रवादियों को वैधानिकता भी मिल गई, जो उस वक़्त एक प्रतिबंधित संगठन था. दूसरी बात ये हुई कि समझौते के बाद नागा उग्रवादी खुलेआम गांवों में घूमने लगे और युद्धविराम की शर्तों का खुला उल्लंघन करने लगे. वो सरेआम लोगों को डरा-धमका कर ज़बरदस्ती पैसे की वसूली करने लगे. वहीं, सुरक्षा बलों को लगा कि इस समझौते से उनके हाथ-पैर बांध दिए गए हैं. सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ सुनियोजित तरीक़े से मीडिया में अभियान चलाया गया. खुल कर कार्रवाई करने में असमर्थ सुरक्षा बलों को नागा अलगाववादियों पर मिली बढ़त से हाथ धोना पड़ा. कई इलाक़ों से उनका सुरक्षा बलों का नियंत्रण ख़त्म हो गया. अब वो अपने क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में भी ताक़तवर और नागा अलगाववादियों से मुक़ाबले की हालत में नहीं रह गए थे. इससे नागालैंड में क़ानून और व्यवस्था के मसले खड़े होने लगे. स्थानीय सरकार भी लगातार कमज़ोर होती गई, क्योंकि अब उसकी जवाबदेही नहीं थी, लिहाज़ा भ्रष्टाचार भी बढ़ता गया. इससे राज्य की सरकार की हैसियत लोगों की नज़र में और भी गिर गई. इसका नतीजा ये हुआ कि राज्य में विकास के काम भी ठप हो गए.

बाग में, जून 2001 में, सरकार ने पूर्वोत्तर के सभी नागा बहुल इलाक़ों में युद्ध विराम को लागू करने की कोशिश की. लेकिन, एक महीने के भीतर ही सरकार को दोबारा यथास्थिति बहाल करनी पड़ी. क्योंकि मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश में इसके ख़िलाफ़ हिंसक विरोध होने लगा था. इन राज्यों का मानना था कि नागा समझौते को उनके इलाक़े में लागू करने का मतलब उनकी अपनी संप्रभुता पर सवाल खड़ा करना था. हालांकि, इसके बावजूद केंद्र सरकार ने एनएससीएन से ताल्लुक रखने वाले नागा अलगाववादियों के रहने के लिए मणिपुर में तीन शिविर बनाए. इन नागा अलगाववादियों को अपने हथियार रखने की भी इजाज़त थी. इससे समस्या और भी बढ़ने का अंदेशा था.

आज सैन्य बलों के पास निगरानी और हमले की नई-नई तकनीक, जैसे सैटेलाइट, ड्रोन, इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस और सटीक निशाना लगाने वाले हथियार मौजूद हैं. इससे सुरक्षा बलों के लिए उग्रवादियों के कैम्प का पता लगा कर उन्हें नष्ट करना बहुत आसाना हो गया है. भले ही ये कैम्प दूर-दराज़ के इलाक़ों में ही क्यों न स्थापित किए गए हों.

हक़ीक़त ये है कि 29 जुलाई 2013 को नागालैंड के राज्यपाल आर.एन.रवि ने, ‘नागा इन स्टेट ऑफ़ एनार्की’ नाम से रेडिफ़.कॉम पर एक बेहद तल्ख़ लेख लिखा था. आर. एन.रवि ख़ुफ़िया ब्यूरो में स्पेशल डायरेक्टर रह चुके थे. उन्होंने इस लेख में तमाम केंद्र सरकारों पर आरोप लगाया कि वो उग्रवादियों का तुष्टिकरण कर रही है. रवि ने अपने लेख में लिखा कि,

‘नागा क्रांति पिछले कुछ वर्षों में एक मज़ाक़िया तमाशे में तब्दील हो गई. जहां पर नागा विद्रोही अपने दुश्मन यानी भारत गणराज्य के साथ गलबहिंया डाले छुप कर रह रहे हैं. ख़ुद को बाग़ी कहने वाले ये लोग, अपने किसी भी फ़रमान को मानने से मना करने पर अपने ही लोगों यानी आम नागा जनता से निर्दयता से पेश आते हैं. इस में उनके सनक भरे टैक्स को न अदा करने की बात सबसे ज़्यादा अखरती है….नागा अलगाववादियों से बात करने वाले अपनी नौकरी बचाने से ऊपर सोच ही नहीं पा रहे हैं. के. पद्मनाभैया, जो एक पूर्व गृह सचिव हैं और नागा विद्रोहियं से बात करने वाले पहले वार्ताकार थे. वो नागाओं से समझौते के नाम पर 12 बरस तक अपनी नौकरी चलाते रहे. नागा शांति वार्ता को एक ग़लत रास्ते पर धकेलना उनकी इकलौती उपलब्धि रही. उन्होंने आम नागा जनता के जज़्बातों की अनदेखी की और एनएससीएन-आईएम के विवादित दावों पर यक़ीन किया. यही नहीं, पद्मनाभैया ने तमाम नागा अलगाववादियों की हैसियत प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के दरबार में बढ़ाई और उन तक अलगाववादियों की पहुंच का रास्ता भी खोला. पद्मनाभैया ने ख़ुद को एनएससीएन-आईएम के बहुत काबिल मार्केटिंग मैनेजर के तौर पर साबित किया. केंद्र सरकार की नज़र में नागा अलगाववादियों की हैसियत को पद्मनाभैया ने अच्छे से बढ़ाया. पद्मनाभैया के वारिस रहे आर.एस. पांडेय भी पिछले चार बरस से बख़ूबी आगे बढ़ा रहे हैं.’

इस में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि 2014 के चुनाव में मोदी की जीत और उनके प्रधानमंत्री नियुक्त होने के बाद नागा समस्या की नए सिरे से समीक्षा की गई. इसके बाद आर.एस. पांडेय की जगह आर. एन. रवि को नागा अलगाववादियों से बातची के लिए केंद्र सरकार का वार्ताकार नियुक्त किया गया. अगस्त 2015 तक केंद्र सरकार ने एनएससीएन-आईएम के साथ फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर दस्तख़त कर दिए थे. हालांकि इस समझौते की जानकारी सार्वजनिक नहीं की गई. लेकिन, हम ये मान सकते हैं कि नागा समस्या पर आर.एन. रवि के विचारों को देखते हुए हम ये मान सकते हैं कि मौजूदा समझौता इससे पहले नागा अलगाववादियों के साथ हुए युद्ध विराम के समझौते से अलग ही होगा, क्योंकि तभी आर.एन.रवि अपनी विश्वसनीयता बनाए रख सकेंगे. इसके संकेत हमें पूर्वोत्तर राज्यों में सुरक्षा के हालात पर राज्यसभा में संसद की स्थायी समिति के सामने पेश 213वीं रिपोर्ट से मिलते हैं. इस में केंद्र के वार्ताकार ने जानकारी दी थी कि अभी इस समझौते की विस्तृत बातें अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं. लेकिन, ‘/ये समझौता भारत सरकार द्वारा नागा इतिहास के अनूठेपन को मान्यता देने वाला है.’ इस के अलावा एनएससीएन ने ये बुनियादी बात मान ली थी कि, ‘नागालैंड राज्य की सीमाओं से कोई छेड़-छाड़ नहीं होगी’ और, ‘नागा जहां कहीं भी रह रहे हैं, उनके लिए कुछ ख़ास व्यवस्थाएं की जाएंगी.’

तब से अब तक हालात में कुछ ख़ास बदलाव नहीं आया है. और अगर ख़बरों का इशारा समझें, तो, बात नागा लोगों के अलग झंडे और संविधान पर अटकी हुई है. हालांकि, जम्मू-कश्मीर की स्थिति में बदलाव के बाद, नागा लोगों को ये बात साफ़ तौर से समझ में आ जानी चाहिए कि केंद्र सरकार अगर उनकी मांगों के आगे झुकती है, तो ये उसके लिए बहुत ही ज़्यादा मुश्किल की बात होगी.

इस समय जो सबसे संवेदनशील मसला है, वो है उग्रवादियों को मुख्य धारा में शामिल करना, ताकि उन्हें बिना शर्मिंदगी के दोबारा समाज का हिस्सा बनने का मौक़ा मिले. इस चुनौती से बहुत सावधानी से निपटने की ज़रूरत है.

इन बातों के साथ हमें ये भी देखना होगा कि एनएससीएन और दूसरे नागा अलगाववादी समूहों का नेतृत्व इस वक़्त किन हालात का सामना कर रहा है. पहली और सबसे अहम बात तो ये है कि नागा समुदाय के ज़्यादातर लोग अब समय के हिसाब से आगे बढ़ चुके हैं और उन्हें ये बात अच्छे से समझ में आ गई है कि स्वतंत्र नागालैंड बनाने की उनकी मांग माने जाने का नतीजा क्या होगा. आज़ाद नागालैंड स्थापित करने में जो चुनौतियां सामने आएंगी, उससे भी नागा समुदाय भलीभांति परिचित हो गया है. इसके मुक़ाबले उन्हें दुनिया की तेज़ी से बढ़ रही प्रमुख अर्थव्यवस्था से जुड़े रहने के फ़ायदे ज़्यादा समझ में आ रहे हैं. और, अगर भारत की ‘एक्ट ईस्ट नीति’ क़ामयाब होती है, तो इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में और खुलापन आएगा, जो इसे दक्षिणी-पूर्वी एशिया के दूसरे देशों से जोड़ने का काम करेगा. इस मामले में जिन लोगों के भी हित दांव पर हैं, उन्हें ये बात अच्छी तरह से समझ में आ गई है कि तरक़्क़ी का कोई भी प्रस्ताव क़ामयाब हो, इसके लिए इलाक़े में शांति बहाल होना ज़रूरी है. और दूसरी बात, जो आर. एन. रवि ने अपने लेख में उठाई थी कि पिछले दो दशकों से अपनी क्रूर हरकतों और जबरन चंदा वसूली की वजह से नागा उग्रवादियों ने आम नागा जनता को बहुत नाराज़ कर दिया है. बिना स्थानीय समर्थन के कोई भी उग्रवाद पनप ही नहीं सकता, उसकी क़ामयाबी की बात सोचना तो दूर की कौड़ी है.

एक बड़ा सवाल बूढ़े होते नागा उग्रवादियों के नेतृत्व का भी है. हालांकि दूसरी पीढ़ी के नेता भी तैयार हैं, लेकिन उन में से कोई भी इसाक-मुइवाह के दर्ज़े की हैसियत और लोकप्रियता नहीं रखता. इससे भी बढ़कर ये कि पिछले कई दशकों से नागा उग्रवादी, शहरी और आरामतलब ज़िंदगी के आदी हो गए हैं. ऐसे में, अगर किसी भी वजह से समझौते की वार्ता नाकाम होती है, तो ये नागा उग्रवादी दोबारा जंगल का रुख़ करने को राज़ी होंगे, इस में पूरा संदेह है. और आख़िर में, भले ही साथियों का हौसला बढ़ाने के लिए बाग़ी नेता विएतकॉन्ग की मिसाल दें कि किस तरह इस उग्रवादी संगठन ने तमाम मुश्किलों के बावजूद संघर्ष करते हुए जीत हासिल की. लेकिन, अब हालात बदल चुके हैं. आज तकनीक और विश्व कूटनीतिक परिदृश्य ने उनका काम और भी मुश्किल कर दिया है. आज भारत के म्यांमार और बांग्लादेश से जैसे संबंध हैं, उनकी वजह से इन उग्रवादियों को पड़ोसी देशों में पनाह मिलनी मुश्किल होगी. फिर, आज कोई भी देश सियासी मक़सद के लिए आतंकवाद को हथियार बनाने के प्रति सहानुभूति नहीं रखता है. फिर, आज सैन्य बलों के पास निगरानी और हमले की नई-नई तकनीक, जैसे सैटेलाइट, ड्रोन, इलेक्ट्रॉनिक इंटेलिजेंस और सटीक निशाना लगाने वाले हथियार मौजूद हैं. इससे सुरक्षा बलों के लिए उग्रवादियों के कैम्प का पता लगा कर उन्हें नष्ट करना बहुत आसाना हो गया है. भले ही ये कैम्प दूर-दराज़ के इलाक़ों में ही क्यों न स्थापित किए गए हों.

इन हालात में ये बेहद आवश्यक है कि नागा नेतृत्व ज़मीनी हालात और उन चुनौतियों को अच्छे से समझ ले, जिनका वो सामना कर रहा है. इसके बाद वो संविधान के अनुच्छेद 371 के तहत जिन अधिकारों की रक्षा करना चाहते हैं, उस पर ध्यान दें. गृह मंत्री के उस बयान पर ध्यान देने की ज़रूरत है, जिस में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 371 न तो संशोधित किया जाएगा और न ही ख़त्म किया जाएगा. अब समय आ गया है कि नागा वार्ता में केंद्र सरकार राज्य के चुने हुए प्रतिनिधियों को भी शामिल करे, क्योंकि शांति बहाल करने में उनका रोल भी बहुत अहम है. इस समय जो सबसे संवेदनशील मसला है, वो है उग्रवादियों को मुख्य धारा में शामिल करना, ताकि उन्हें बिना शर्मिंदगी के दोबारा समाज का हिस्सा बनने का मौक़ा मिले. इस चुनौती से बहुत सावधानी से निपटने की ज़रूरत है. इस मसले पर एक विकल्प ये हो सकता है कि उग्रवादियों को पर्याप्त ट्रेनिंग के बाद सुरक्षा बलों में शामिल कर लिया जाए. वहीं, नागा अलगाववादियों के नेतृत्व को मिज़ोरम की तरह मुख्य धारा की राजनीति से जुड़ने का मौक़ा दिया जाना चाहिए. आज ज़रूरत इस बात की है कि जितनी जल्दी समझौते पर दस्तख़त हो जाते हैं, उतना ही ये नागा आबादी के लिए भला होगा. बल्कि इससे पूरे पूर्वोत्तर के हालात पर अच्छा असर पड़ेगा.

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