Published on Sep 21, 2020 Updated 0 Hours ago

वीगरों को लेकर अर्दोआन का मौजूदा रवैया उनके पहले के दृष्टिकोण से मेल नहीं खाता. इस बदलाव के पीछे की वजह? व्यापार

तुर्क राष्ट्रपति अर्दोआन का भारत-चीन के प्रति बदला व्यवहार साबित हो सकता है घातक

2019 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक के दौरान तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का मुद्दा उठाया और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से कश्मीर की तरफ़ ध्यान देने का अनुरोध किया. दुनिया भर के मुसलमानों के स्वयंभू चैंपियन अर्दोआन तीन महीने पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिले थे और चीन के प्रेस ने ख़बर दी थी कि अर्दोआन ने कहा कि ‘शिनजियांग के लोग ख़ुशी से रह रहे हैं.’

प्रधानमंत्री के तौर पर वीगरों और हान समुदाय के बीच उरुमक़ी दंगों की आलोचना करते हुए तो वो इस हद तक चले गए थे कि उन्होंने कहा कि ‘आम बोलचाल की भाषा में कहें तो ये नरसंहार है.

हाल के दिनों तक अर्दोआन दुनिया में अकेले ऐसे मुस्लिम नेता के तौर पर जाने जाते थे जो शिनजियांग में चीन के मानवाधिकार उल्लंघन पर चुप नहीं रहते थे. 2019 में उन्होंने शिनजियांग में नज़रबंदी शिविरों को ‘इंसानियत के लिए बड़े शर्म की वजह’ बताया था और चीन से अपने ‘बंदी शिविरों’ को बंद करने का अनुरोध किया था. 2009 में प्रधानमंत्री के तौर पर वीगरों और हान समुदाय के बीच उरुमक़ी दंगों की आलोचना करते हुए तो वो इस हद तक चले गए थे कि उन्होंने कहा कि ‘आम बोलचाल की भाषा में कहें तो ये नरसंहार है. इसे किसी और तरह से परिभाषित करने का मतलब नहीं है.’ वीगरों को लेकर अर्दोआन का मौजूदा रवैया उनके पहले के दृष्टिकोण से मेल नहीं खाता. इस बदलाव के पीछे की वजह?  व्यापार. चीन के साथ आर्थिक संबंधों को बढ़ाने के लिए उन्हें चीन के मुताबिक़ चलना होगा और मानवाधिकार के मुद्दों पर चुप रहना होगा. जहां अर्दोआन देश में अपनी छवि को बढ़ाने के लिए इस्लाम को सुविधाजनक औज़ार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं वहीं वो ये भी चाहते हैं कि इस्लाम के इस्तेमाल से तुर्की की अर्थव्यवस्था को चोट नहीं पहुंचे.

परंपरागत पश्चिमी सहयोगियों के साथ तुर्की के कमज़ोर होते संबंधों के बीच वो इस बात की कोशिश कर रहा है कि अर्थव्यवस्था में लगातार बढ़ोतरी के लिए वैकल्पिक दोस्तों की तलाश करे. राष्ट्रपति शी जिनपिंग की प्रमुख परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) ने तुर्की के मिडिल कॉरिडोर प्रोजेक्ट के साथ समझौता किया जो मध्य एशिया और कॉकेसस के ज़रिए तुर्की को चीन से जोड़ेगा. तुर्की में चीन का निवेश इतना ज़्यादा है कि चीन तुर्की का तीसरा सबसे बड़ा व्यापार साझेदार बन गया है. 2019 की शुरुआत में जब अर्दोआन ने वीगरों के समर्थन में आवाज़ उठाई तो चीन ने महत्वपूर्ण तटीय शहर इज़मिर में अपना वाणिज्य दूतावास बंद कर दिया. तब से अर्दोआन वीगरों को लेकर ख़ामोश हो गए हैं. उनकी पार्टी ने संसद में उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिसके तहत शिनजियांग में मानवाधिकार उल्लंघन की जांच के लिए एक अस्थायी कमेटी की स्थापना होनी थी. इससे भी बढ़कर टेलीग्राफ की एक विस्फोटक रिपोर्ट में बताया गया कि किस तरह तुर्की वीगर असंतुष्टों को वापस चीन भेजने में मदद के लिए उन्हें पहले मध्य एशिया के किसी तीसरे देश भेज रहा है.

तुर्की ने कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह का समर्थन किया. ये भारत की नीति के ख़िलाफ़ है जो पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय बातचीत के ज़रिए मुद्दे के समाधान की बात करता है.

अर्दोआन को ऐसा ही रुख़ भारत को लेकर लेने से कौन रोकता है? मतलब ये कि वो भारत के साथ आर्थिक संबंधों को प्राथमिकता देने के बजाय कश्मीर में भारत की आंतरिक गतिविधियों की निंदा क्यों करते हैं?  इसका जवाब पाकिस्तान है. पाकिस्तान और तुर्की बहुत पुराने सहयोगी हैं. शीत युद्ध के दौरान पश्चिमी देशों के गुट में होने की वजह से दोनों देशों के बीच बग़दाद समझौते (जिसे बाद में केंद्रीय संधि संगठन के नाम से जाना गया) और क्षेत्रीय विकास सहयोग (RCD) के ज़रिए सुरक्षा और सामरिक मुद्दों पर सहयोग कायम हुआ. पाकिस्तान ने जहां साइप्रस के साथ तुर्की के विवाद के दौरान तुर्की का समर्थन किया वहीं कश्मीर में संघर्ष को लेकर तुर्की ने पाकिस्तान का साथ दिया. तुर्की ने कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह का समर्थन किया. ये भारत की नीति के ख़िलाफ़ है जो पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय बातचीत के ज़रिए मुद्दे के समाधान की बात करता है.

इससे भी बढ़कर भारत के गुटनिरपेक्ष रवैये ने तुर्की का भारत के नज़दीक आना मुश्किल कर दिया. 1986 में तुर्की के प्रधानमंत्री तुर्गुट ओज़ल ने भारत का दौरा करके आर्थिक संबंधों की शुरुआत करने की कोशिश की थी. इस दौरे के बाद भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1988 में तुर्की का दौरा किया लेकिन इससे द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिली. शीत युद्ध ख़त्म होने के साथ उम्मीद बढ़ी कि संबंधों में सुधार होंगे. लेकिन इन उम्मीदों को उस वक़्त झटका लगा जब 1991 में इस्लामिक सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन के दौरान तुर्की ने कश्मीर में भारत की तरफ़ से सेना के इस्तेमाल की आलोचना की. 2000 के दशक की शुरुआत में तुर्की भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत के ज़रिए कश्मीर संघर्ष के समाधान का समर्थन करने के लिए तैयार हुआ जो कि भारत की नीति के मुताबिक़ है. क़रीबी रिश्ते में बड़ी दिक़्क़त दूर होने से दोनों देशों के बीच आर्थिक संबंधों का विस्तार हुआ. दोनों देशों के बीच क़रीब 10 अरब डॉलर का व्यापार होता है जिसमें तुर्की भारत को निर्यात करने से ज़्यादा आयात करता है. अर्थव्यवस्था को सबसे आगे रखने से सुरक्षा और राजनीतिक मोर्चों पर भी संबंधों में नज़दीकी आने की उम्मीद थी लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर को लेकर भारत की आंतरिक नीतियों के ख़िलाफ़ बयान देकर अर्दोआन ने इस पर पानी फेर दिया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अर्दोआन के भाषण के जवाब में शिखर सम्मेलन के दौरान तुर्की के विरोधी देशों ग्रीस, अर्मेनिया और साइप्रस के नेताओं से मुलाक़ात की. मोदी ने नवंबर 2019 में तुर्की के प्रस्तावित दौरे को भी रद्द कर दिया और तुर्की की एक कंपनी के साथ 2.3 अरब डॉलर के नौसैनिक समझौते को रोक दिया. इस समझौते का मक़सद भारत और तुर्की के बीच व्यापार असंतुलन को दूर करना था. इसके बदले मोदी ने तुर्की के दुश्मन देश अर्मेनिया के साथ 40 मिलियन डॉलर का समझौता किया. अर्दोआन ने तनाव बढ़ाते हुए फरवरी 2020 में इस्लामाबाद के दौरे में बयान दिया कि कश्मीर ‘जितना पाकिस्तान के दिल के क़रीब है, उतना ही तुर्की के क़रीब भी है.’

तुर्की के लिए आदर्श रणनीति होगी कि वो पाकिस्तान के साथ अपनी दोस्ती को भारत के साथ संबंधों में बाधा न बनने दे.

गिरती अर्थव्यवस्था और परंपरागत पश्चिमी सहयोगियों के साथ संबंधों में खटास के बीच तुर्की के लिए भारत और चीन जैसे देशों के साथ संबंधों में मज़बूती लाना ज़रूरी है. पाकिस्तान को ख़ुश करने के लिए भारत को बदनाम करने से तुर्की को भारत से नज़दीकी आर्थिक और सामरिक साझेदारी का फ़ायदा नहीं मिलेगा. तुर्की के लिए आदर्श रणनीति होगी कि वो पाकिस्तान के साथ अपनी दोस्ती को भारत के साथ संबंधों में बाधा न बनने दे. इसके अतिरिक्त अमेरिका और यूरोप से दूर होने की अर्दोआन की कोशिशों के बावजूद तुर्की अभी भी पश्चिमी गठबंधन का हिस्सा बना हुआ है. वो न तो ख़ुद को पश्चिमी देशों से पूरी तरह अलग करने की हालत में है, न ही ये उसके हित में है. इसलिए अमेरिका और चीन के बीच दुश्मनी की हालत में उसे अमेरिका का साथ देना होगा. जब तुर्की ऐसा क़दम उठाएगा तो पाकिस्तान पूरी तरह चीन के कैंप से बंध चुका होगा. ऐसी हालत में चीन की घुसपैठ का ज़ोरदार विरोध करने वाले भारत के साथ दोस्ती से तुर्की को ही फ़ायदा होगा.

भारत के दृष्टिकोण से मध्य-पूर्व इलाक़े में तुर्की एक प्रमुख सामरिक सहयोगी हो सकता है. भारत और तुर्की दोनों ही धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और मध्यम आय वाले देश हैं और जैसा कि तुर्की के एक सांसद ने पिछले साल कहा था ‘स्वाभाविक सहयोगी’ हैं. अर्थव्यवस्था, रणनीति और सुरक्षा के मामले में साझेदारी को बढ़ाने के लिए दोनों देशों के पास भरपूर अवसर है और कश्मीर को लेकर अर्दोआन की सनक इस साझेदारी की राह में सबसे बड़ी रुकावट है. अगर अर्दोआन भारत को परेशान करेंगे तो भारत के पास तुर्की के दुश्मन देशों ग्रीस, साइप्रस और अर्मेनिया से संबंधों को बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. मिसाल के तौर पर, 1974 में उत्तरी अर्मेनिया में तुर्की के आक्रमण को लेकर भारत ने कोई ख़ास बयान नहीं दिया था लेकिन अक्टूबर 2019 में सीरिया में तुर्की की घुसपैठ की भारत ने निंदा की और तुर्की से संयम बरतने का अनुरोध किया. इस तरह के क़दम भारत-तुर्की द्विपक्षीय संबंधों में अपवाद हैं या स्थायी तौर पर बने रहते हैं ये भविष्य में अर्दोआन के रुख़ पर निर्भर करता है. इसका जवाब इसी महीने वर्चुअल तरीक़े से होने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र में मिल सकता है. अगर अर्दोआन कश्मीर का मुद्दा फिर से उठाने से बचते हैं तो ये भविष्य में भारत और तुर्की के संबंधों के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा.

भारत के दृष्टिकोण से मध्य-पूर्व इलाक़े में तुर्की एक प्रमुख सामरिक सहयोगी हो सकता है. भारत और तुर्की दोनों ही धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और मध्यम आय वाले देश हैं और जैसा कि तुर्की के एक सांसद ने पिछले साल कहा था ‘स्वाभाविक सहयोगी’ हैं.

इसके साथ-साथ तुर्की को चीन के साथ अपने गहरे संबंधों को लेकर भी सावधान रहना होगा. चीन की ‘कर्ज़ जाल वाली कूटनीति’ का एक अहम हिस्सा है दूसरे देशों को दरियादिल बनकर कर्ज़ देना और जब वो देश कर्ज़ चुकाने में नाकाम हो तो उसका राजनीतिक और आर्थिक फ़ायदा उठाना. अलग-अलग देशों से संबंध बनाना फ़ायदेमंद हैं लेकिन तुर्की को पश्चिमी सहयोगियों से इतना दूर नहीं जाना चाहिए कि उसे अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष की हालत में दोनों देशों में से एक को चुनना कठिन लगे. वीगर को लेकर अर्दोआन की ख़ामोशी राजनीतिक फ़ायदे और व्यावहारिक राजनीति की मजबूरी है लेकिन चीन के साथ जटिल संबंधों में फंस जाना तुर्की को घातक नतीजे दे सकता है.

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