-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में नेताओं से अपेक्षा होती है कि वो मतदाओं की मांगें पूरी करेंगे. और ये साफ़ है कि आज का मतदाता जवाबदेही चाहता है.
इन दिनों भारत की राजधानी दिल्ली और आस-पास के शहरों समेत पूरे उत्तर भारत को धुंध ने इस क़दर अपने आगोश में समेटा हुआ है कि लोग सांस लेने में भी दिक़्क़त महसूस कर रहे हैं. इस ज़बरदस्त धुंध के बीच हमें हाल ही में हुए दो राज्यों के चुनाव के नतीजों से पैदा हुए झंझावात को देखने का भी मौक़ा मिला है. महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव के नतीजों से मुख्य़ तौर पर हमें पाँच अहम संकेत मिले हैं. चुनाव के नतीजों से निकले ये ऐसे सबक हैं, जिनका गहराई से अध्ययन कर के हम ये अंदाज़ा लगा सकते हैं कि भारत की राजनीति किस दिशा में जा रही है.
पहला, शायद अब समय आ गया है जब हम ख़राब राजनीति के लिए तकनीक को कसूरवार ठहराना बंद कर दें. अगर हम कुछ और न भी मानें, तो कम से कम ये तो हमें मान लेना चाहिए कि इन चुनावों ने भारत में ईवीएम यानी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को अविश्वसनीयता के दलदल में डूबने से उबार लिया है. क्योंकि इससे पहले तक चुनाव में हारने वाले बार बार ईवीएम पर ही अपनी हार का ठीकरा फोड़ते रहे थे. हां, इस में कोई दो राय नहीं है कि भारत को अपनी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की सुरक्षा को लगातार चाक चौबंद बनाते रहना चाहिए. केवल दो मशीनों के बीच तालमेल ही पर्याप्त नहीं है. भारत को चाहिए कि वो ईवीएम के साथ वीवीपैट यानी वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल के इस्तेमाल का दायरा लगातार बढ़ाता रहे. लेकिन, आज की तारीख़ में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की विश्वसनीयता को लेकर होने वाली परिचर्चा के लिए अब हमारी राजनीति में कोई जगह नहीं बची है. क्योंकि, ऐसी परिचर्चा पूरी की पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर ही प्रश्नचिह्न लगा रही थी. मगर, दो राज्यों में चुनाव के नतीजे आने के बाद अब ईवीएम पर सवाल उठाने वालों को राजनीतिक ऑक्सीजन मिलने की उम्मीद ख़त्म हो गई है. अब जब कि हम बार बार चुनावी प्रक्रिया का सामना करने की दिशा में बढ़ रहे हैं, तो ईवीएम जैसे तकनीकी प्लेटफॉर्म और निजी उपकरणों की उपयोगिता लगातार बढ़ती ही जाएगी.
इस वक़्त सोनिया गांधी के इर्द गिर्द मौजूद नेताओं की चौकड़ी में वो क्षमता नहीं कि वो कांग्रेस को दोबारा मज़बूत बना सकें. सोनिया के क़रीबी नेताओं की क्षमता भी उतनी ही है, जितनी राहुल गांधी के क़रीबी नेताओं ने दिखाई थी.
दूसरा, राज्यों के चुनाव असल में राज्यों के ही चुनाव हैं. सूबों की सियासत में हमारे देश के वोटर ने हमेशा इतनी समझदारी दिखायी है कि वो स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेता की बातों पर प्रतिक्रिया दे. ये बात इस साल की शुरुआत में हुए आम चुनावों के दौरान भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुई थी. जब ओडिशा के बहुत से मतदाताओं ने राज्य स्तर पर तो मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को तरज़ीह दी. मगर, राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को अपनी पसंद बनाया. आज भारत में प्रशासन निश्चित रूप से राज्यों के हाथ में चला गया है. आज विकास और लक्ष्य हासिल करने के मामले में राज्यों के बीच मुक़ाबला हो रहा है. ऐसे में सूबों के क्षत्रप ही उन बुनियादी सुविधाओं के लिए ज़िम्मेदार ठहराए जा रहे हैं, जिन्हें जनता तक पहुंचाने की उनसे अपेक्षा होती है. आज भारत में राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने व्यापक परिचर्चा को तय करने की ज़िम्मेदारी होती है. लेकिन, राज्यों में वही स्थानीय नेता ताक़तवर बन कर उभरते हैं, जो अपने वादे पूरे करते हैं. और, जनता को सुविधाएं मुहैया कराते हैं. फिर चाहे वो योजनाओं की शक़्ल में हों, या फिर वोट जुटाने में. जो राष्ट्रीय दल राज्य स्तर पर क़ामयाबी हासिल करना चाहेंगे, तो ऐसा वो राज्य स्तरीय नेताओं के बूते ही कर सकेंगे.
तीसरा, कांग्रेस को हरियाणा में अपने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन के निष्कर्ष निकालने में सावधानी बरतनी चाहिए. उसे इस बात को भी गंभीरता से सोचना होगा कि महाराष्ट्र में अगर उसका पूरी तरह से सफ़ाया नहीं हुआ, तो उसके क्या असल कारण रहे. इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस के ज़मीनी संगठनों की मज़बूती ने ये साफ़ संकेत दिया है कि 2019 के आम चुनाव से पहले 2018 में हुए राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन के पीछे, ‘राहुल गांधी फैक्टर’ का कुछ ख़ास योगदान नहीं रहा था. हो सकता है कि राहुल गांधी, इन राज्यों में कांग्रेस की वापसी में बाधा न बने हों. लेकिन, ये भी सच है कि कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन में उनका योगदान भी नहीं रहा था. विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन की वजह पार्टी के स्थानीय नेताओं का प्रदर्शन ही रहा.
लेकिन, इसका ये मतलब नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस ये सोच ले कि उस की पुरानी पीढ़ी के नेता ही कांग्रेस की वापसी के एकमात्र संभव विकल्प हैं. इस वक़्त सोनिया गांधी के इर्द गिर्द मौजूद नेताओं की चौकड़ी में वो क्षमता नहीं कि वो कांग्रेस को दोबारा मज़बूत बना सकें. सोनिया के क़रीबी नेताओं की क्षमता भी उतनी ही है, जितनी राहुल गांधी के क़रीबी नेताओं ने दिखाई थी. जो नेता चुनाव जीतने में सक्षम नहीं हैं, उनसे ये उम्मीद करना ही बेमानी है कि वो पार्टी को ज़मीनी स्तर पर वोटर से जोड़ने का काम कर सकते हैं. और दोनों ही मामलों में कांग्रेस के साथ यही दिक़्क़त है. फिर चाहे वो सोनिया गांधी के क़रीबी हों, या फिर राहुल गांधी की युवा चौकड़ी के नेता. आने वाले दिनों में उनके लिए यही इकलौती उम्मीद है कि वो स्थानीय नेताओं को तैयार करें, उन्हें खांटी ज़मीनी राजनीति का तप करने के लिए प्रेरित करें. ताकि स्थानीय कांग्रेसी नेताओं की ये नई पीढ़ी, वोटर के सामने नया विकल्प पेश कर सके. उन्हें लुभा सके. एक अर्थ में इसका यही मतलब होगा कि कांग्रेस को सूबाई क्षत्रपों के उस दौर में दोबारा लौटना होगा, जो कांग्रेस में राजीव गांधी के दौर के पहले का था. तब कांग्रेस के कद्दावर क्षेत्रीय नेताओं ने ही पार्टी की अच्छी सेवा की थी. लेकिन, राजीव गांधी ने इस राजनीतिक विरासत को ख़त्म कर दिया था.
आज बीजेपी ऐसी पार्टी बनने की ख़्वाहिश रखती है कि वो देश के चारों कोनों में राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक हो, तो उसके लिए बेहतर यही होगा कि वो नई पीढ़ी के अलग-अलग स्थानीय और क्षेत्रीय नेताओं को आने वाले वक़्त के लिए तैयार करे.
चौथा, भले ही आज भारत में कोई बड़ा विपक्ष नज़र नहीं आ रहा है. लेकिन, ये साफ़ है कि भारत की राजनीति में छोटे-छोटे विपक्षी दलों की काफ़ी गुंजाईश है. संगठनात्मक रूप से बेहद कमज़ोर हो चुकी कांग्रेस ने इन चुनावों में भी सरकार से नाराज़ लोगों के वोट हासिल करने में क़ामयाबी हासिल की और बहुत सी सीटों में सत्ताधारी दल को कांटे की टक्कर दी. ईमानदारी की बात तो ये है कि ये मुक़ाबला और भी क़रीबी होता, अगर आज़ादी के बाद से पहली बार ‘ब्रैंड मोदी’ के तौर पर इतना बड़ा सियासी लीडर मैदान में न होता. क्योंकि आज मोदी के मुक़ाबले में कोई लीडर खड़ा नज़र नहीं आता. अगर आज बीजेपी ऐसी पार्टी बनने की ख़्वाहिश रखती है कि वो देश के चारों कोनों में राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक हो, तो उसके लिए बेहतर यही होगा कि वो नई पीढ़ी के अलग-अलग स्थानीय और क्षेत्रीय नेताओं को आने वाले वक़्त के लिए तैयार करे. महाराष्ट्र के नतीजों ने इस राजनीतिक नुस्ख़े की उपयोगिता साबित कर दी है.
आख़िर में, बीजेपी को चाहिए कि वो मोदी के करिश्मे और लोकप्रियता का सियासी फ़ायदा उठाने में सावधानी बरते. ख़ास तौर से राज्यों के चुनाव में पार्टी को मोदी के नाम को इस क़दर भुनाने से बचना चाहिए. क्योंकि आने वाले कुछ वर्षों में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. आम तौर पर राज्यों में सामान्य बहुमत की ही ज़रूरत होती है. ऐसे में बीजेपी के लिए हर राज्य में विशाल बहुमत के लक्ष्य के लिए काम करने की कोई ख़ास उपयोगिता नहीं है. क्योंकि ऐसा करने में होता ये है कि पार्टी के समर्थकों और कार्यकर्ताओं की अपेक्षाएं बढ़ कर आसमान छूने लगती हैं. और बीजेपी पर हर बार शानदार चुनावी प्रदर्शन का दबाव बढ़ जाता है. फिर चाहे वो पंचायत के चुनाव हों, या फिर राज्यों की विधानसभाओं के, और इसी से जुड़ा एक मसला ये भी है कि बीजेपी विशाल बहुमत पाने के चक्कर में ऐसे दाग़ी उम्मीदवारों को भी मैदान में उतारती है, जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध होती है. इन नेताओं को तरज़ीह देने के चक्कर में उन नेताओं के टिकट कट जाते हैं, जो वास्तविक रूप से पार्टी के टिकट के हक़दार होते हैं. महाराष्ट्र के चुनावी नतीजों ने दिखाया है कि दाग़ी नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने के जोख़िम ज़्यादा हैं. वहीं, हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों से ये सबक़ मिलता है कि गला काट चुनावी राजनीति के इस दौर में वाजिब उम्मीदवारों के टिकट काटना अच्छा सियासी दांव नहीं है.
परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं में नेताओं से अपेक्षा होती है कि वो मतदाओं की मांगें पूरी करेंगे. और ये साफ़ है कि आज का मतदाता जवाबदेही चाहता है. चुनाव के नतीजों का सबक़ यही है कि मतदाताओं ने अपना दांव चल दिया है. सवाल ये है कि क्या कोई नेता इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार है?
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...
Read More +