21 जून 2022 को उग्रवादियों की एक नाराज़ भीड़ ने मालदीव की राजधानी माले में योग दिवस के जश्न में ख़लल डाल दिया. मालदीव की पुलिस को शक है कि इस हिंसक घटना के पीछ स्थानीय इस्लामिक उलेमा और विपक्षी दल प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ़ मालदीव (PPM) का हाथ है. ये नाख़ुशगवार घटना उन ख़तरों की तरफ़ इशारा करती है, जो मालदीव द्वारा लगातार शह दिए जा रहे उग्रवाद के चलते पैदा हो रहे हैं. हालांकि, मालदीव की कई सरकारों ने हाल के वर्षों में बढ़ते कट्टरपंथ को लेकर चिंता ज़ाहिर की है. लेकिन, अभी भी मालदीव के राजनीतिक दल अपने सियासी फ़ायदे के लिए उग्रवाद के इकोसिस्टम को बढ़ावा दे रहे हैं और उसे मज़बूत बना रहे हैं.
मालदीव में उग्रवाद का एक विश्लेषण
पारंपरिक रूप से मालदीव में इस्लाम के नरमपंथी स्वरूप को ही माना जाता रहा है. हालांकि, 1970 के दशक के आख़िरी और 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में सऊदी वहाबी और देवबंदी विचारधारा ने मालदीव के समाज में अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी थीं. ये हालात दो कारणों से और बिगड़ गए: कॉलेज, शिक्षा और सऊदी अरब से मस्जिदों को मिलने वाला फंड, और विदेशों में मज़हबी तालीम हासिल करके लौट रहे छात्रों द्वारा इस्लाम की कट्टरपंथी विचारधारा की व्याख्या करना. इन्हीं इस्लामिक कट्टरपंथियों ने बाद में मालदीव की सरकारों पर दबाव बनाना शुरू किया कि वो उनकी कट्टरपंथी व्याख्या पर आधारित नीतियों को देश में लागू करें.
पारंपरिक रूप से मालदीव में इस्लाम के नरमपंथी स्वरूप को ही माना जाता रहा है. हालांकि, 1970 के दशक के आख़िरी और 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में सऊदी वहाबी और देवबंदी विचारधारा ने मालदीव के समाज में अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी थीं.
मामून अब्दुल गयूम के तानाशाही राज (2008 तक) ने मालदीव में इन संगठनों की गतिविधियों और प्रभाव को सीमित करके रखा था. लेकिन, गयूम की पर्यटन को बढ़ावा देने वाली नीतियों और उग्रवादियों के ख़िलाफ़ सख़्ती ने इन इस्लामिक चरमपंथियों को एकजुट करने का भी काम किया. दार-उल-ख़ैर मस्जिद, मालदीव के तानाशाह गयूम का विरोध करने वाले कट्टरपंथियों और उग्रवादियों का ठिकाना बन गई. इन इस्लामिक चरमपंथियों की लगातार चलाई जा रही गतिविधियों और संगठनों ने ही पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान जाकर जिहाद में शामिल होने वाले मालदीव के विदेश जाकर लड़ने वाले जिहादियों (FTF) की तादाद में काफ़ी इज़ाफ़ा कर दिया. इसके अलावा, इन उग्रवादियों ने मालदीव में भी हिंसा और आतंकवाद की कई घटनाओं को जन्म दिया. लेकिन, 2008 में मालदीव में लोकतंत्र के आग़ाज़ के साथ ही इन उग्रपंथी तत्वों के लिए एक सियासी गुंजाइश पैदा की, जिसके ज़रिए ये संगठन अपनी विचारधारा का प्रचार करने लगे और समर्थन जुटाने लगे. इन संगठनों ने उग्रवाद के प्रचार- प्रसार के लिए इस्लामिक परिचर्चा और तालीम को अपना सहारा बनाया.
कट्टरपंथी बन चुके युवाओं की नज़र में मालदीव काफ़िरों का मुल्क है. इसी वजह से मालदीव के इन उग्रवादियों ने अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, इराक़ और सीरिया जैसे देशों में अपनी गतिविधियां चलाने, जिहाद लड़ने और उसके नाम पर मरने को तरज़ीह दी. इसी वजह से प्रति व्यक्ति विदेशी आतंकवादी (FTF) के मामले में मालदीव, दुनिया में पहली पायदान पर है, जहां से बहुत से उग्रवादी दूसरे देशों में जिहाद करने जाते हैं. मालदीव के इन चरमपंथियों ने अल क़ायदा और इस्लामिक स्टेट (ISIS) जैसे आतंकवादी संगठनों से भी नज़दीकी संबंध विकसित कर लिए हैं और इनकी तरफ़ से लड़ने के लिए मालदीव के युवकों को भेजते रहे हैं.
शायद विदेश पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करने की फ़ितरत के चलते ही मालदीव के लोगों ने अपने देश में मौजूद उग्रवाद के इकोसिस्टम को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया है. इसके बजाय, मालदीव के राजनीतिक दल और सियासी लीडरों ने मज़हब और उग्रवाद का इस्तेमाल अपने सियासी फ़ायदे के लिए किया है (देशें Table 1). सच तो ये है कि हाल के वर्षों में मालदीव की पुलिस ने आकलन किया है कि देश में केवल 1400 उग्रवादी मौजूद हैं.
Table 1: मालदीव के भीतर उग्रवादी/आतंकवादी हमले
वर्ष |
घटना |
2007 |
मालदीव में पहला आतंकवादी हमला, बम धमाके में 12 लोग ज़ख़्मी |
2007 |
दार उल ख़ैर मस्जिद में मालदीव के सुरक्षा बलों और उग्रवादियों के बीच भयंकर संघर्ष |
2012 |
मालदीव के राष्ट्रीय संग्रहालय में बौद्ध धर्म के कई अवशेषों के साथ तोड-फोड़ |
2012 |
एक सांसद और उदारवादी धार्मिक विद्वान डॉक्टर अफराशीम अली की हत्या |
2014 |
पत्रकार अहमद रिलवा अगवा |
2015 |
सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने लोकतंत्र का विरोध किया और इस्लामिक स्टेट व अल नुसरा फ्रंट के झंडे लहराए |
2017 |
ब्लॉगर यामीन रशीद की चाकू मारकर हत्या |
2020 |
हुलहुमले में तीन विदेशी नागरिकों पर चाकू से हमले |
2020 |
एक बंदरगाह में कई नावों पर हमला करने उन्हें नुक़सान पहुंचाने की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली |
2021 |
एक बम हमले के ज़रिए देश में लोकतांत्रिक तरीक़े से चुने गए पहले राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद को निशाना बनाने की कोशिश |
2022 |
उग्रपंथियों की भीड़ ने योग दिवस के कार्यक्रम में डाला ख़लल |
उग्रवाद का फलता- फूलता इकोसिस्टम
मालदीव में इस्लाम को सियासी हथियार बनाना और उग्रवाद से संबंध रखना कोई नई बात नहीं है. देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों और भागीदारों ने ऐसा करके सियासी फ़ायदा हासिल करने और अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की कोशिश की है. 1997 में राष्ट्रपति गयूम ने तो एक ऐसे संविधान का ख़ाका तैयार किया था, जिसके तहत मालदीव में सुन्नी इस्लाम के अलावा बाक़ी सभी धर्मों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव था. आगे बढ़कर जब हम 2008 में पहुंचते हैं, जब देश में लोकतंत्र का उदय हुआ. उसके बाद से तो राजनेताओं और उग्रवादियों के बीच का गठजोड़ और मज़बूत ही हुआ है.
ये संगठन कई बार (साथ मिलकर या अकेले) ये मांग करते रहे हैं कि मालदीव की सरकारें शराब का सेवन सीमित करें. कोड़े लगाने, गर्भपात रोकने के लिए सख़्त क़ानून बनाएं. मसाज पार्लर बंद करें और कंटेंट को सेंसर करें. अन्य धर्मों की कला और संस्कृति पर प्रतिबंध लगाएं. संगीत और गायन को पूरी तरह से प्रतिबंधित करें, और लोकतंत्र व मानव अधिकारों को बढ़ावा देने वाले संगठनों पर रोक लगाएं.
आज अदालत पार्टी (AP) जैसे सियासी दलों और जमीयथु सलाफ़ (JS) और इस्लामिक फाउंडेशन ऑफ़ मालदीव जैसे संगठन कई राजनीतिक दलों के साथ मिलकर काम करते हैं या फिर उन पर उग्रवादी नीतियों और नज़रियों को बढ़ावे देने के लिए दबाव बनाते हैं. ये संगठन कई बार (साथ मिलकर या अकेले) ये मांग करते रहे हैं कि मालदीव की सरकारें शराब का सेवन सीमित करें. कोड़े लगाने, गर्भपात रोकने के लिए सख़्त क़ानून बनाएं. मसाज पार्लर बंद करें और कंटेंट को सेंसर करें. अन्य धर्मों की कला और संस्कृति पर प्रतिबंध लगाएं. संगीत और गायन को पूरी तरह से प्रतिबंधित करें, और लोकतंत्र व मानव अधिकारों को बढ़ावा देने वाले संगठनों पर रोक लगाएं.
कई बार ये देखा गया है कि अलग अलग सरकारों ने इन उग्रवादी संगठनों की कुछ मांगें मानकर इन्हें फुसलाने बहलाने की भी कोशिश की है. 100 फ़ीसद सुन्नी मुसलमानों वाले मालदीव के लोकतांत्रिक प्रतिनिधि अपने ऊपर ‘ला-दीनी’ (काफ़िर) होने की तोहमत लगने से बचने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं, जबकि इसके लिए उन्हें अक्सर भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है. यही कारण है कि घरेलू राजनीति ने अक्सर मालदीव के सियासी दलों को लोकतंत्र, मानव अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी की क़ीमत पर कट्टरपंथियों के साथ सहयोग करने को मजबूर किया है. आज हालात इतने गंभीर हैं कि मालदीव की सबसे लोकतांत्रिक और उदारवादी कही जाने वाली मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी ने 2019 में मालदीव डेमोक्रेटिक नेटवर्क पर प्रतिबंध लगा दिया था और अपने सहयोगी दल अदालत पार्टी (AP) और अन्य उग्रपंथी संगठनों की कट्टरपंथी मांग के आगे झुकते हुए 2021 में नफ़रत वाले अपराध से जुड़े क़ानून में संशोधन भी किया था.
सियासी दलों और कट्टरपंथियों के इस फलते-फूलते गठजोड़ को बढ़ावा देने में लोकप्रियता हासिल करने की कोशिशों ने भी काफ़ी योगदान दिया है. मालदीव में पहले लोकतांत्रिक चुनावों के बाद से ही तमाम सरकारों ने अदालत पार्टी (AP) जैसे कट्टरपंथी संगठनों के साथ सत्ता साझा की है, ताकि ख़ुद को मज़हबी दिखा सकें और विरोध व हंगामे से बच सकें. मिसाल के तौर पर साल 2008 से ही सत्ता किसी भी दल की रही हो, अदालत पार्टी (AP) या इसके पुराने सदस्यों को ही अक्सर इस्लामिक मामलों के मंत्रालय पर नियंत्रण करने की ज़िम्मेदारी मिलती आई है. इसी वजह से मालदीव में और उग्रवादी विचारधारा और नीतियों को बढ़ावा मिलता रहा है.
मालदीव में राजनीतिक अस्थिरता और लोकतांत्रिक संस्थानों के कमज़ोर होने के चलते ही, सत्ता में इन उग्रवादियों को भागीदार बनाने को बढ़ावा दिया है. अदालत पार्टी समेत बाक़ी कट्टरपंथी आज भी मौक़ापरस्ती के आधार पर सत्ता में शामिल होने और उससे बाहर होने का खेल खेलते हैं और इससे सरकार पर दबाव बनाकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं.
मालदीव में राजनीतिक अस्थिरता और लोकतांत्रिक संस्थानों के कमज़ोर होने के चलते ही, सत्ता में इन उग्रवादियों को भागीदार बनाने को बढ़ावा दिया है. अदालत पार्टी समेत बाक़ी कट्टरपंथी आज भी मौक़ापरस्ती के आधार पर सत्ता में शामिल होने और उससे बाहर होने का खेल खेलते हैं और इससे सरकार पर दबाव बनाकर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हैं. इसी वजह से, कम सीटें जीत पाने के बाद भी ये इस्लामिक कट्टरपंथी कई बार सरकारें बनाने और बिगाड़ने के खेल में ज़्यादा असरदार साबित हुए हैं. वर्ष 2012 में अदालत पार्टी ने अन्य उग्रवादी संगठनों के साथ मिलकर ‘इस्लाम की हिफ़ाज़त’ का अभियान चलाकर नशीद सरकार को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका निभाई थी. इन्हीं कट्टरपंथियों ने 2015 में अब्दुल्ला यामीन के ख़िलाफ़ मई दिवस पर हुए विरोध प्रदर्शनों में भी शिरकत की थी. दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही मामलों में अदालत पार्टी, पहले सत्ताधारी गठबंधन सरकार का हिस्सा थी. लेकिन, उसने सरकार से ख़ुद को अलग कर दिया और विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा बन गई. आख़िर में, मालदीव के राजनेता और इस्लामिक कट्टरपंथी कई अपराधियों और आपराधिक संगठनों से भी जुड़े हुए हैं. राजनेता हों या कट्टरपंथी, दोनों ही अक्सर इन अपराधियों को भाड़े पर लेकर, धमकियां देने, राजनीतिक विरोधियों को धमकाने, उदारवादी लोगों को ख़ामोश कराने, विरोध प्रदर्शन में शामिल होने और हिंसा को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं. इनमें से ज़्यादातर अपराधियों को कट्टरपंथी अपने निशाने पर भी लेते हैं, ताकि अपने उग्रवादी मक़सद को आगे बढ़ा सकें. इसका नतीजा ये हुआ है कि सीरिया में लड़ रहे मालदीव के उग्रवादियों में से 48 फ़ीसद का कोई न कोई आपराधिक इतिहास या पहले किसी अपराध से संबंध रहा है. सरकारों के इस्लामिक कट्टरपंथियों और अपराधियों के साथ रिश्ते, अक्सर उग्रवाद के इकोसिस्टम का ख़ात्मा करने और इंसाफ़ करने की राह में बाधा बन जाते हैं. यही कारण है कि मज़हबी कट्टरपंथ के 188 मामलों में से साल 2019 में केवल 14 में आगे की कार्रवाई की सिफ़ारिश की गई थी.
भारत बाहर? उग्रवाद का क़ब्ज़ा?
योग दिवस पर हुई हिंसा भी दिनों-दिन मज़बूत हो रहे मालदीव के उग्रवादी इकोसिस्टम की ही एक मिसाल है. ये कोई राज़ नहीं है कि कई उग्रवादी संगठनों ने योग को ग़ैरइस्लामिक बताकर योग दिवस के जश्न का विरोध किया था. लेकिन, जब अब्दुल्ला यामीन ने भारत के ख़िलाफ़ मज़हबी कट्टरपंथ वाले तीर छोड़ने शुरू किए, तो इस विरोध में सियासी तेवर भी जुड़ गए.
11 जून को मालदीव में एक विशाल बाइक रैली हुई थी, जिसमें हज़ारों लोग शामिल हुए थे. ये लोग बीजेपी कुछ बीजेपी नेताओं द्वारा पैग़ंबर के बारे में दिए गए बयान का विरोध कर रहे थे. शायद इस रैली की सफलता से उत्साहित होकर ही यामीन ने मालदीव में भारत के ख़िलाफ़ गोलबंदी मज़बूत करने के लिए मज़हब का सहारा लिया. इस घटना के बाद, अब्दुल्ला यामीन ने अपनी रैलियों में भारत की घरेलू समस्याओं और सांप्रदायिक उथल-पुथल का ज़िक्र करना शुरू कर दिया था. यामीन के लिए ये सियासी गियर बदलना ज़रूरी था, क्योंकि उनका ‘इंडिया आउट’ अभियान बहुत ज़्यादा लोकप्रियता हासिल न कर पाने की वजह से नाकाम साबित हो चुका था.
इस संदर्भ में देखें- तो ये महज़ इत्तिफाक़ नहीं जब PPM के नेता और ‘इंडिया आउट’ अभियान को बढ़ावा देने वाली अहम शख़्सियत मोहम्मद इस्माइल को अन्य स्थानीय इस्लामिक नेताओं के साथ योग दिवस पर हुई हिंसा में शामिल होने के आरोप में हिरासत में लिया गया था. पीपीएम ने तो प्रदर्शनकारियों को वो झंडे और दूसरे सामान भी मुहैया कराए थे, जो दूसरी रैलियों में इस्तेमाल किए गए थे.
आज जब अब्दुल्ला यामीन अपनी भारत विरोधी छवि और लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मज़हब का सहारा ले रहे हैं, तो उग्रवादियों को इसमें एक मौक़ा नज़र आता है, जिसका फ़ायदा उठाकर वो मालदीव के समाज को भारत का भय दिखाएं और उसका ‘इस्लामीकरण’ करके उसे कट्टरपंथी बना सकें
कट्टरपंथियों और नेताओं के बीच इस गठजोड़ और साझा हितों के चलते आज मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका है या शायद इसने और कट्टरपंथी रुख़ अख़्तियार करना शुरू कर दिया है. आज जब अब्दुल्ला यामीन अपनी भारत विरोधी छवि और लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मज़हब का सहारा ले रहे हैं, तो उग्रवादियों को इसमें एक मौक़ा नज़र आता है, जिसका फ़ायदा उठाकर वो मालदीव के समाज को भारत का भय दिखाएं और उसका ‘इस्लामीकरण’ करके उसे कट्टरपंथी बना सकें; या फिर ये भी हो सकता है कि अगर यामीन अगला चुनाव जीतते हैं, तो ये इस्लामिक उग्रवादी उनकी सरकार और उसकी नीतियों पर अपना प्रभाव डालने की कोशिश करें और इस तरह ये साबित करें कि मालदीव में उग्रवाद का जो इको-सिस्टम है वो आने वाले समय में भी फलता फूलता रहेगा.
इसका ये मतलब नहीं है कि मालदीव की तमाम सरकारों ने इस्लामिक उग्रवाद के ख़तरे की तरफ़ से आंखें मूंद रखी हैं और इससे पैदा हो रही चुनौतियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की है. लेकिन, कामयाबी की बुनियाद डालने के लिए भी मालदीव के सत्ताधारी तबक़े को इस्लामिक उग्रवाद की आपूर्ति श्रृंखलाओं और इसके इकोसिस्टम को ख़त्म करना होगा. हालांकि, इसकी उम्मीद कम ही दिखती है. क्योंकि, इस इकोसिस्टम को चलाने वालों को भविष्य की क़ीमत से ज़्यादा निकट भविष्य का फ़ायदा ज़्यादा लुभा रहा है.
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