Author : Harsha Kakar

Published on Nov 02, 2017 Updated 0 Hours ago

उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 35 ए के खिलाफ मामले की सुनवाई कर रहा है। ऐसे मौके पर इसके विरुद्ध लिया गया कोई भी फैसला कश्मीर को एक बार फिर अशांति के गर्त में धकेल सकता है।

कश्मीर में वार्ताकार से तेजी से कदम बढ़ाने की दरकरार

सरकार की​ पिछली नीति में अप्रत्याशित बदलाव लाते हुए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने गुप्तचर ब्यूरो (आईबी) के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को केंद्र का वार्ताकार नियुक्त करते हुए कश्मीर में बातचीत की प्रक्रिया को नए सिरे से शुरू करने की घोषणा की है। जनता की इच्छाओं को जानने के लिए शर्मा को समाज के किसी भी समूह या सोसायटी के सदस्य से बातचीत करने की पूरी छूट गई है, ताकि केंद्र इस मसले को सुलझाने की दिशा में कदम बढ़ा सके। केंद्र की पिछली नीति हुर्रियत के साथ बातचीत नहीं करने की थी। इसका कारण यह था कि वह हुर्रियत को राष्ट्र विरोधी मानता था, पर वह आवाम की आवाज मानी जाती थी।

जहां एक ओर केंद्र के इस कदम का राज्य में भाजपा की सत्तारूढ़ सहयोगी, पीडीपी, ने स्वागत किया है, वहीं विपक्षी दल नेशनल कांफ्रेंस ऐहतियात बरतते हुए इंतजार करो और देखो यानी वेट एंड वॉच की नीति अपना रहा है। कांग्रेस का दावा है कि सरकार पिछले कुछ बरसों तक नाकाम कठोर नीति अपनाने के बाद आखिरकार सही रास्ते पर लौट आई है।

शर्मा केंद्र सरकार के लिए न तो पहले वार्ताकार हैं और न ही उनके आखिरी वार्ताकार होने की ही संभावना है। पूर्व रक्षा मंत्री के सी पंत और जम्मू कश्मीर के वर्तमान राज्यपाल एन एन वोहरा केंद्र के पहले वार्ताकार थे। उन्होंने समाज के ​व्यापक वर्गों के साथ संवाद शुरू किया था। डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली यूपीए-1 सरकार ने जम्मू कश्मीर में पांच कार्य समूह नियुक्त किए थे। इनमें से एक की अध्यक्षता उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी कर रहे थे। इन समूहों ने अपनी सिफारिशें केंद्र को सौंप दी थीं।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने दूसरे कार्यकाल में तीन वार्ताकारों — दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एम एम अंसारी की नियुक्ति की थी। उन्होंने भी अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। मनमोहन सिंह ने जम्मू कश्मीर के बारे में कई गोल मेज बैठके भी की थीं। न तो वार्ताकारों की और न ही कार्य समूहों की रिपोर्ट कभी सामने आई और ज्यादातर सिफारिशें कभी लागू ही नहीं की गईं। उसके लिए कभी आधिकारिक तौर पर कोई कारण भी नहीं बताया गया।

इस तरह, यह स्पष्ट है कि आज विपक्ष भले ही कितनी आलोचना करे, लेकिन जब उन्हें मौका मिला था, तो गृह मंत्री केवल सलाह देते रहे और वाजिब कदम उठाने में नाकाम रहे, जबकि समितियों और वार्ताकारों की रिपोर्ट्स पर धूल की परते जमती गईं। यहां तक कि पिछली राज्य सरकारों ने यथा स्थिति बहाल रखने को तरजीह दी, क्योंकि उनके लिए यही बेहतर था। हिंसा और केंद्र विरोधी रवैये ने उन्हें सत्ता में बनाए रखा और सत्ता ही आखिरकार सभी तरह की राजनीति का चरम है,भले ही उसे पाने के साधन अलग-अलग हों।

बदलता वक्त

फिलहाल ऐसा मालूम पड़ता है कि घाटी के मौजूदा माहौल में कोई बीच का रास्ता निकल सकता है, बशर्ते सरकार इस दिशा में आगे बढ़ने और अपनी शक्ति के मुताबिक संसाधनों का इस्तेमाल करने की इच्छा रखती हो। अनेक कारक या फैक्टर्स बदल चुके हैं, इसलिए जरूरी हो गया है कि राज्य के मसलों पर नए सिरे से गौर किया जाए, यहां तक कि वार्ताकारों की पिछली रिपोटर्स तक को नजरंदाज किया जाए।

अशांति के लम्बे दौर के बाद राज्य के हालात धीरे-धीरे सामान्य हो रहे हैं (हालात पूरी तरह सामान्य होना अभी तक दूर की कौड़ी है)। मुठभेड़ में बुरहान हानी के मारे जाने के बाद प्रायोजित हिंसा, घुसपैठ और प्रदर्शनकारियों के हताहत होने की घटनाओं की घटनाएं बढ़ गई थीं। राज्य सरकार घाटी का लगभग पूरा नियंत्रण सुरक्षा एजेंसियों के हवाले कर चुकी थी। आतंकवादियों की जड़े मजबूत होने लगी थीं, जिसके बाद सेना के ऑपरेशन ‘ऑलआउट’ के तहत आतंकवाद-विरोधी कार्रवाइयों और घुसपैठ रोकने के व्यापक उपायों से उनकी ताकत कम की जा सकी।

इससे जहां एक ओर आतंकवादी गतिविधियों में कमी आई, वहीं आतंकवादियों का मनोबल भी कमजोर हुआ, जिसकी वजह से वे अपनी मौजूदगी का आभास कराने के लिए पुलिस और स्थानीय लोगों जैसे अपेक्षाकृत कमजोर लक्ष्यों को निशाना बनाने के लिए मजबूर हो गए। आतंकवादियों के रुख में आई तब्दीली उन्हें जनता से दूर ले गई, यह इस बात से साबित हो रहा है कि सुरक्षा एजेंसियों तक सूचनाएं ज्यादा पहुंच रही हैं। इससे सफल मुठभेड़ों का आंकड़ा भी बढ़ रहा है। अकेले इसी साल लगभग 165 आतंकवादियों का सफाया किया जा चुका है। गांवों में रहने वाले लोग भी आतंकवादियों से दूरी बना रहे हैं और वे सुरक्षा एजेंसियों के साथ सहयोग करना चाहते हैं। सीमा पार हो रही धन की किल्लत की वजह से आतंकवादी अपने साथियों के खर्च उठाने के लिए बैंकों को निशाना बनाने के लिए मजबूर हो रहे हैं।


इससे जहां एक ओर आतंकवादी गतिविधियों में कमी आई, वहीं आतंकवादियों का मनोबल भी कमजोर हुआ, जिसकी वजह से वे अपनी मौजूदगी का आभास कराने के लिए पुलिस और स्थानीय लोगों जैसे अपेक्षाकृत कमजोर लक्ष्यों को निशाना बनाने के लिए मजबूर हो गए।


हुर्रियत, जिसके पास पाकिस्तान की दरियादिली की बदौलत धन की कोई कमी नहीं​ दिखाई देती थी वह अपनी मर्जी से हिंसा की साजिश रच सकती थी। वह सरकार को मात देते हुए प्रभुत्वशाली स्थिति में दिखाई देती थी। दशकों तक वे लोग अछूते बने रहे तथा केंद्र और राज्य इसी उम्मीद पर उन्हें सुरक्षा और धन देते रहे, कि वे कभी न कभी अपना रुख बदलेंगे, जिससे उन्होंने इंकार कर दिया और अपनी मांगों के प्रति अपना रुख कड़ा करते चले गए। नोटबंदी, हवाला पर एनआईए और ईडी के छापों से उनके नियंत्रण पर गहरा असर पड़ने लगा। यह खबर हर एक न्यूज चैनल पर लीक हो गई कि हताहत होते स्थानीय लोगों की कीमत पर उनके और उनके रिश्तेदारों के पास गैर कानूनी और बेनामी संपत्तियां हैं, नतीजतन लोगों की नजरों में उनकी अहमियत घट गई।

जांच एजेंसियां उनके रिश्तेदारों को तलब करने लगीं, तो उनके समर्थन में किए जाने वाले बंद के आह्वान की लोग अनदेखी करने लगे। बहुत से लोग सलाखों के पीछे पहुंच चुके हैं, बहुत से पहुंचने वाले हैं इसके साथ ही उनकी ताकत घटने लगी ​है। सारा धन ब्लॉक हो जाने के कारण उनके पास हिंसा या आतंकवाद का प्रायोजन करने के लिए पैसा नहीं बचा है, इसलिए इन घटनाओं में भी कमी आई है। वे इस बात से बखूबी वाकिफ हैं कि उनके अपराधों का पर्दाफाश हो चुका है और उन्हें उनके प्रभाव क्षेत्र से कहीं दूर जेल में ठूंस दिया जाएगा।

एनआईए और ईडी के छापे, उसके बाद की जांच-पड़ताल, कसते शिकंजे और कैद ने उन्हें इस बात का बखूबी अहसास करा दिया है कि उनके दिन अब लदने वाले हैं। उनमें कुछ लोग अब सजा कम होने की उम्मीद में मुखबिरी करने लगे हैं, उनके आका भी जान चुके हैं कि अगला नम्बर उन्हीं का है। इसलिए शायद वे संघर्षविराम करने के लिए सरकार के साथ संपर्क साधने की कोशिश कर सकते हैं और अपनी कड़ी मांगों की जगह अब अपने रुख में थोड़ी नरमी ला सकते हैं। हुर्रियत और उसे मिलने वाले धन की जानकारी रखने वाले वार्ताकार, पूर्व आईबी निदेशक से बेहतर और कौन होगा, जिसके सामने अब वे अपनी मांगों को नरमी से रख पाएं ।

हाल के दौर तक, राज्य में ऐसा बदला माहौल कभी नहीं रहा। पहले हुर्रियत केवल संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के बारे में ही चर्चा करती थी, युवा आजादी की बात करते थे और स्थानीय लोग भारतीय सेना को कब्जा करने वाली सेना की नजर से देखते थे। हुर्रियत की ताकत अब कम हो चुकी है और आतंकवादियों के व्यवहार और शोषण से आजिज आ चुके स्थानीय लोगों के रवैये में धीरे-धीरे बदलाव आ चुका है। युवाओं की आजादी की मांग में भले ही कमी न आई हो, मुठभेड़ वाली जगहों पर युवाओं की हिंसा में कमी आई है। इसलिए शर्मा को तेजी से कदम बढ़ाने होंगे और ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ संवाद करके ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाने होंगे ताकि सरकार लोहे के गर्म रहते-रहते ही उस पर वार कर सके।

युवाओं से संवाद आवश्यक

 जिस समुदाय को व्यापक रूप से अपने साथ जोड़ने की जरूरत है, वह है युवा वर्ग। उन्होंने बंदूक के साए तले जन्म लिया है, केवल एक धर्म की इबादत के आह्वान के गवाह रहे हैं, उन्होंने सुरक्षा बलों के गुस्से का सामना किया है, उन्हें यह यकीन करने के लिए बरगलाया गया है कि सिर्फ आजादी ही एकमात्र हल है और उनके पास आगे बढ़ने के लिए पथराव करने और सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों का विरोध करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। अगर आजादी की मांग से उनका ध्यान हटाया जा सके, तो उन्हें अवसरों की बड़ी शिद्दत से तलाश है,खासतौर पर राज्य से दूर। इतना ही नहीं, उन्हें केवल संवाद के जरिए ही समझाया जा सकता है कि उनकी बाकी मांगें भले ही उनके लिए लाभदायक हों, आजादी की मांग संभव नहीं है।


उन्होंने बंदूक के साए तले जन्म लिया है, केवल एक धर्म की इबादत के आह्वान के गवाह रहे हैं, उन्होंने सुरक्षा बलों के गुस्से का सामना किया है, उन्हें यह यकीन करने के लिए बरगलाया गया है कि सिर्फ आजादी ही एकमात्र हल है और उनके पास आगे बढ़ने के लिए पथराव करने और सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों का विरोध करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।


अन्य महत्वपूर्ण समूह जिन्होंने राज्य में आर्थिक रूप से सबसे ज्यादा नुकसान उठाया है, उनमें कारोबारी और राज्य के मुख्य आधार — पर्यटन पर आश्रित लोग शामिल हैं। उन्हें इस बात का भरोसा दिलाने की जरूरत है कि उनकी कठिनाइयों पर गौर किया जाएगा और केंद्र सरकार उनकी समस्याएं दूर करने की दिशा में काम करेगी। इसी तरह का आश्वासन छोटे ह​स्तशिल्प निर्माताओं को भी देना आवश्यक है, जो इस समय अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

गांव के बुजुर्ग, राजनीतिक दल और हुर्रियत हमेशा प्रक्रिया में हितधारक या स्टेकहोल्डर्स रहेंगे और उनकी जानकारी भी उतनी ही महत्वपूर्ण होगी। सरकार सकारात्मक कदम बढ़ाने के लिए विलय दस्तावेज के भीतर कुछ मांगों को पूरा करने पर विचार कर सकती है।

अड़चनें

अड़चने अपार हैं। उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 35 ए के खिलाफ मामले की सुनवाई कर रहा है, जो स्थानीय कश्मीरियों के लिए बहुत भावनात्मक मुद्दा है। इस मौके पर इसके विरुद्ध लिया गया कोई भी फैसला घाटी को एक बार फिर अशांति के गर्त में धकेल सकता है। केंद्र को इस पर विचार करना होगा। आतंकवादियों या सुरक्षा बलों की कोई भी कार्रवाई, जिसकी वजह से बड़ी तादाद में लोग हताहत हों, वह इस अनुकूल वातावरण का रुख बिल्कुल पलट सकता है।

जहां एक ओर यह काम बहुत जटिल है, वहीं दूसरी ओर समय भी बहुत महत्वपूर्ण है। सर्दियों का मौसम आने वाला है, उससे पहले ही सुरक्षा बल आतंकवादी नेताओं का सफाया करने का प्रयास करेंगे, ताकि शांति और विकास के लिए और ज्यादा अनुकूल माहौल तैयार किया जा सके। इसी समय, नए वार्ताकार का लक्ष्य भी यही होना चाहिए कि वह केंद्र की गंभीरता को प्रदर्शित करे।

स्थानीय लोगों के जहन हमेशा से यह संदेह रहा है कि केंद्र सही मायनों में गंभीर है भी नहीं या फिर वह फैसले को टालने के लिए एक और विकल्प अपना रहा है। पिछले वार्ताकारों की रिपोर्ट पर धूल जम चुकी है, क्या इस बार भी ऐसा होगा? शर्मा जिस रफ्तार से आगे बढ़ेंगे, उसी से केंद्र की संकल्पबद्धता की झलक मिलेगी। ​फिलहाल, तो बस इंतजार करो और देखो।

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