Published on Feb 07, 2024 Updated 0 Hours ago
स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए ‘स्वच्छ भारत’ जैसी पहल की जरूरत

मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्किल इंडिया के दौर में, स्कूली शिक्षा की लगातार अनदेखी हो रही है, जो कई मायनों में इन कदमों की बुनियाद है। स्कूली शिक्षा की अनदेखी अंतत: अन्य पहलुओं के अलावा इनमें से कई बड़ी योजनाओं की नाकामी का कारण साबित हो सकती है।

भारत की आबादी का लगभग 27.3 प्रतिशत (35.50 करोड़) 0-14 साल का आयुवर्ग — भारत का भावी जनसांख्यकीय लाभांश है। चिंताजनक बात यह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश समेत मध्यम आयुवर्ग वाले भारतीय राज्यों में साक्षरता की दर बहुत कम और शिक्षा के नतीजे बहुत खराब हैं। शिक्षा की वार्षिक स्थिति (एएसईआर) के आंकड़ों के अनुसार 2016 में उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले ग्रामीण परिवारों के सात प्रतिशत से भी कम बच्चे दूसरी कक्षा की पाठ्य पुस्तक पढ़ पाने की स्थिति में थे। (इसकी तुलना में महाराष्ट्र में ऐसे बच्चों की संख्या 40 प्रतिशत से ज्यादा थी) इसी तरह, बिहार के ग्रामीण इलाकों में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 28 प्रतिशत से भी कम बच्चे साधारण घटा के सवाल हल कर सकते थे। इस बात पर गौर करना उचित होगा कि जहां एक ओर किसी भी राज्य में यह संख्या ऐसी नहीं थी कि उस पर गर्व किया जा सके, वहीं दूसरी ओर बहुत ज्यादा आबादी वाले इन राज्यों की स्थिति खासतौर पर नाजुक थी।


उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश समेत मध्यम आयुवर्ग वाले भारतीय राज्यों में साक्षरता की दर बहुत कम तथा शिक्षा के नतीजे बहुत खराब हैं। शिक्षा की वार्षिक स्थिति (एएसईआर) के आंकड़ों के अनुसार 2016 में उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले ग्रामीण परिवारों के सात प्रतिशत से भी कम बच्चे दूसरी कक्षा की पाठ्य पुस्तक पढ़ पाने की स्थिति में थे।


भारत को बैडमिंटन पॉवरहाउस में तब्दील करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा था कि निरंतरता का वातावरण तैयार करने के लिए “सबसे पहले जनता, उसके बाद कार्यक्रम और सबसे आखिर में बुनियादी सुविधाओं” पर गौर करना होगा। उनकी यह बात स्कूली शिक्षा व्यवस्था के मामले में भी सटीक मालूम पड़ती है, जो दुर्भाग्यवश अच्छे लोगों (शिक्षकों, प्रशासकों) कार्यक्रम (पाठ्यक्रम) साथ ही साथ बुनियादी सुविधाओं के अभाव की समस्या से जूझ रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अन्य दो आवश्यकताओं को पूरा किए बिना बुनियादी ढांचे पर एकतरफा ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, जिससे यह समस्या और भी जटिल हो रही है।

हाल ही में, मणिपुर के शिक्षा मंत्री टी. राधेश्याम ने इम्फाल के खेलाखोंग में एक स्कूल का औचक निरीक्षण करने पर पाया कि दो खाली क्लासरूम्स में बकरियां बंधी हुई थीं। बारीकी से जांच करने पर पता चला कि उस स्कूल में केवल दो ही छात्र पढ़ते थे। स्कूल ने सरकार से मिड—डे मील, वर्दियां, पुस्तकें सहित सब्सीडी आदि बटोरने के लिए स्कूल के बच्चों की संख्या बढ़ा-चढ़ा कर बता रखी थी। एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली (यू-डाइस)के आंकड़ों के अनुसार, देश भर के लगभग 250,000 स्कूलों में 30 या उनसे भी कम बच्चों ने दाखिला ले रखा है, जबकि 7,200 स्कूलों में एक भी बच्चा नहीं पढ़ता है। ऐसी सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था, जिसमें इतनी बड़ी तादाद में सफेद हाथी हों,शायद ही उपयुक्त कहला सकती है।

स्कूली शिक्षा व्यवस्था में शिक्षकों की भारी किल्लत तेजी से गंभीर रूप ले रही है। 6,000 से ज्यादा प्राथमिक स्कूलों में एक भी शिक्षक नहीं है (यू-डाइस)। आईआईटी गांधीनगर के प्राध्यापक शिवकुमार जोलाद ने हाल ही में बेंगलुरु के ग्रामीण इलाके के एक सरकारी स्कूल की स्थिति के बारे में लिखा। इस स्कूल में चार अध्यापक थे, जिनमें से मुख्य अध्यापक प्रशासन में व्यस्त रहता था और इस तरह 82 छात्रों की सात कक्षाओं में पढ़ाने के लिए केवल तीन अध्यापक ही उपलब्ध थे। भारत के विभिन्न भागों के हालात भी इसी से मिलते-जुलते हैं, जहां मुट्ठी भर अध्यापकों से अलग-अलग कक्षाओं के विभिन्न विषयों को पढ़ाने की अपेक्षा की जाती है। साथ ही उन्हें ढेरों प्रशासनिक काम करने के अलावा जनगणना और चुनाव के समय अनिवार्य काम भी करने होते हैं।

स्कूली पाठ्यक्रम अधिकांश भारतीय राज्यों में चिंता का विषय बना हुआ है। वैसे तो बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृ भाषा में उपलब्ध करने के महत्व को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है, लेकिन इसकी व्यवस्था कर पाना बहुत कठिन साबित हुआ है। क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं बनाम अंग्रेजी को सीखने के बीच संतुलन कायम कर पाना कठिन बना हुआ है। खासतौर पर विज्ञान और गणित सहित सभी विषयों की पाठ्य पुस्तकें मोटे तौर पर छात्रों में दिलचस्पी जगाने में विफल रही हैं। और तो और बुनियादी सुविधाओं के संदर्भ में भी, सबसे ज्यादा अहमित स्कूल की इमारतों को मिलती है। जबकि लगभग 40 प्रतिशत स्कूलों में खेलने का मैदान नहीं है, इतने ही स्कूलों में बिजली की सुविधा नहीं है। इसलिए, इस बात पर शायद ही हैरत होगी कि देश के केवल 26.4 प्रतिशत स्कूलों में ही कम्प्यूटर हैं (यू-डाइस)।


स्कूली पाठ्यक्रम अधिकांश भारतीय राज्यों में चिंता का विषय बना हुआ है। वैसे तो बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृ भाषा में उपलब्ध करने के महत्व को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है, लेकिन इसकी व्यवस्था कर पाना बहुत कठिन साबित हुआ है।


इन गंभीर मसलों को सुलझाने के लिए कोई जादुई छड़ी नहीं है। दुर्भाग्यवश, किसी भी भारतीय राज्य में चुनाव घोषणा पत्र स्कूली शिक्षा को प्रचार या शासन का प्रमुख मुद्दा नहीं मानता। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार, जिसने 2017-18 के अपने बजट परिव्यय का 24 प्रतिशत (11,300 करोड़ रुपये) शिक्षा के लिए आवंटित किया था, वह एक अपवाद है।

शिक्षा के क्षेत्र में विकेंद्रीकृत मौद्रिक विवेक के साथ ही साथ नीतिगत हस्तक्षेपों की तत्काल जरूरत है। वर्ष 2017-18 में उत्तर प्रदेश के शिक्षा खर्च में बजट अनुमानों की तुलना में आठ प्रतिशत कमी आने की संभावना है। इसलिए, अगले वित्त वर्ष में इस क्षेत्र के लिए वांछित आवंटन प्राप्त कर पाना मुश्किल है। धन का कारगर उपयोग सुनिश्चित करने के लिए निधियों के हस्तांतरण को ज्यादा सुचारु बनाने की जरूरत है तथा स्थानीय निकायों को व्यापक आर्थिक स्वायत्तता मिलनी चाहिए। स्वायत्तता के साथ-साथ जवाबदेही भी होनी चाहिए, जिसे विभिन्न प्रकार की सब्सीडी के साथ जोड़ा जा सकता है। इसके पीछे तर्क यह है कि जहां एक ओर राज्य तथा केंद्र की सरकारों के लिए स्कूलों पर नजर रखना मुश्किल हो सकता है, वहीं ऐसी सूचना तक स्थानीय समुदाय की बेहतर और सुगम पहुंच है तथा जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अधिकतम प्रोत्साहन हैं। सीएफबीटी एजुकेशन ट्रस्ट ने आंध्र प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में अभिभावकों और समुदाय के साथ जुड़ने के प्रभाव का विश्लेषण करने के लिए एक अध्ययन कराया। उन्होंने स्कूलों की गुणवत्ता का आकलन और मूल्यांकन करने के लिए निरक्षर माताओं को प्रशिक्षित किया। अध्ययन से पता चला कि इन अधिकारप्राप्त स्कूल प्रबंधन समितियों (एसएमसी) का क्लासरूम में ​अध्यापकों द्वारा की जाने वाली काशिशें पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और इस तरह शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हुआ। इस तरह विकेंद्रीकृत स्कूल प्रशासन व्यवस्था के मूलभूत संघटक — स्कूल प्रबंधन समितियों, जो शिक्षा का अधिकार के अनुसार अनिवार्य हैं, को स्कूल के विकास में व्यापक भूमिका निभाने की इजाजत दी जानी चाहिए।

अध्यापक स्कूली शिक्षा व्यवस्था का आधार हैं, लेकिन समस्या शिक्षकों के प्रशिक्षण संस्थानों की संख्या को लेकर नहीं हैं (​अकेले महाराष्ट्र में ही 550 से ज्यादा बीएड कॉलेज हैं)। विभिन्न अध्यापक शिक्षा पाठ्यक्रमों की रूपरेखा और गुणवत्ता में आमूल—चूल बदलाव की जरूरत है। इस व्यवस्था को ज्यादा सुदृढ़ और प्रासांगिक बनाने के लिए इसमें दीर्घकालिक सुधार के अलावा ग्रेड-आधारित प्रमाणन साथ ही साथ नौकरी के लिए प्रशिक्षण को तत्काल रूप से लागू किए जाने जैसे अल्पावधि उपायों की भी जरूरत है, ताकि खतरनाक रूप ले चुकी अध्यापकों की कमी की समस्या को हल किया जा सके। प्रशिक्षण तथा प्रोत्साहन और जवाबदेही पर केंद्रित अध्यापकों की व्यवस्था पर व्यापक बहस आवश्यक तौर पर शुरु की जानी चाहिए।

एक अन्य बड़ा सुधार जिस पर गौर करने की जरूरत है, वह है धीरे-धीरे परिवर्तन लाते हुए ऐसी शिक्षा व्यवस्था लागू करना, जिसमें ज्ञान प्राप्ति के परिणामों का आकलन किया जाता हो। इस संदर्भ में शिक्षा का अधिकार (आरटीई) के अंतर्गत ‘छात्रों को कक्षा में फेल न करने की नीति’ को, निरंतर समग्र मूल्यांकन (सीसीई) के क्रियान्वयन पर फोकस किए बिना, समाप्त करने के आह्वान पर हर हाल में पुनर्विचार किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि वैसे तो सीसीई महज ​ज्ञान प्राप्ति के परिणामों का आकलन करने के मॉडल्स में से एक है। प्राथमिक स्कूलों में सीसीई और टीचिंग एट द राइट लेवल (टीएआरएल) के प्रभाव को समझने के लिए प्रथम और हरियाणा सरकार के सहयोग से 2016 में एक अध्ययन कराया गया। टीएआरएल समान स्तर के छात्रों के समूहों (चाहे उनका पाठ्यक्रम कुछ भी हो) को लक्षित करने पर फोकस करता है और उनके ज्ञान प्राप्ति के परिणामों में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करता है। अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि दोनों पद्धतियां ज्ञान प्राप्ति में महत्वपूर्ण सुधार लाती हैं। इसलिए, इन अलग-अलग मॉडल्स के बारे में कुछ अलग तरह की चर्चा की जानी चाहिए। साथ ही इस बारे में भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या देश में एक समान पद्धति का अनुसरण किया जाना अनिवार्य है।


शिक्षा का अधिकार (आरटीई) के अंतर्गत ‘छात्रों को कक्षा में फेल न करने की नीति’ को, निरंतर समग्र मूल्यांकन (सीसीई) के क्रियान्वयन पर फोकस किए बिना, समाप्त करने के आह्वान पर हर हाल में पुनर्विचार किया जाना चाहिए।


शिक्षा व्यवस्था में निजी स्कूल भी महत्वपूर्ण हितधारक हैं। डाइस के आंकड़ों के अनुसार लगभग तीन लाख निजी स्कूल 8.5 करोड़ छात्रों को शिक्षा प्रदान कर रहे हैं, जबकि 11 लाख सरकारी स्कूल 19.77 करोड़ छात्रों को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा दे रहे हैं। इसलिए, जहां एक ओर सरकारी स्कूलों में सुधार लाने को आवश्यक तौर पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए, वहीं निजी क्षेत्र को सहायता दी जानी चाहिए और उसे समान आकलन से नियंत्रित किया जाना चाहिए।

स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में बाधा पहुंचाने वाले अनेक मसलों को हल करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए), राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) सहित केंद्र सरकार की ओर से अनेक योजनाएं शुरु की गई हैं। भारत के संविधान के अंतर्गत शिक्षा राज्य का विषय है, इसलिए प्रत्येक राज्य में छात्रों की संख्या के अनुसार उसके अपने कार्यक्रम हैं। हालांकि जब समय पर धन आवंटन, वितरण का मामला आता है, तो सरकार के इन दोनों स्तरों, साथ ही साथ अन्य विभागों (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, जनजातीय कार्य मंत्रालय आदि) के बीच तालमेल में अड़चने आ जाती हैं, नतीजतन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन पर असर पड़ता है। ज्यादातर मामलों में, प्रशासनिक लालफीताशाही के बीच किसी की जवाबदेही तय करना मुश्किल होता है। प्राथमिकता वाली परियोजनाओं के लिए एक ही जगह से मंजूरी या सिंगल विंडो क्लीयरेंस, जवाबदेही तय करने के लिए तीसरे पक्ष द्वारा मूल्यांकन साथ ही साथ विकेंद्रीकृत ढांचा जैसे कुछ उपायों से इन रुकावटों को दूर​ किया जा सकता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘स्वच्छ भारत’ के विचार को सफलतापूर्वक सबसे आगे लाए हैं। हालांकि शिक्षा के लिए भी “पढ़ेगा भारत, बढ़ेगा भारत” जैसी शब्दावली मौजूद है, लेकिन इसके लिए भी वैसी ही कोशिश किए जाने की जरूरत है। समस्याओं के फौरी समाधान की तलाश न करते हुए निरंतर और बुनियादी बातों पर बारीकी से गौर करने वाला समन्वित दृष्टिकोण ही स्कूली शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने का एकमात्र रास्ता है। इसके लिए योजना, सभी हितधारकों की सहभागिता और जुनून की जरूरत है। भारत का भविष्य इसकी सफलता या विफलता पर निर्भर है।

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