संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुमान के मुताबिक़, आज दुनिया के तमाम देशों में क़रीब 1.8 अरब लोग 10 से 24 वर्ष की आयु वर्ग के हैं. आज जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ जंग और स्थायी विकास के प्रयासों के लिए इन 1.8 अरब लोगों की युवा ताक़त का इस्तेमाल करने की ज़रूरत है. ये वो 1.8 अरब लोग हैं, जो धरती के बढ़ते तापमान, संसाधनों की कमी और भयानक मौसम की चुनौतियों से निपटने के लिए किए जा रहे कोशिशों के सबसे बड़े हिस्सेदार हैं. हाल ही में स्वीडन की छात्रा ग्रेटा थुनबर्ग की अगुवाई में हुई स्कूलों की हड़ताल से ये साफ़ ज़ाहिर हुआ था कि युवा इन मुद्दों से ख़ुद को जज़्बाती तौर जोड़ने में सक्षम हैं और ऐसा कर भी रहे हैं. लेकिन, अभी युवाओं का इन मसलों से जुड़ाव विरोध-प्रदर्शन तक सीमित है और इस मामले में अभी युवा संस्थागत प्रयासों से नहीं जुड़ पाए हैं.
आख़िर ऐसा मामला क्यों है? आज स्थायी विकास की नीतियों को लेकर चर्चा की शुरुआत ‘2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवेलपमेंट’ से होती है. ये बहुत व्यापक और पेचीदा मसला है: इस में 17 लक्ष्य और 169 प्रयोजन तय किए गए हैं, जिन्हें हासिल करना है. ये एजेंडा इतना व्यापक है कि इस में ग़रीबी उन्मूलन से लेकर सबको शिक्षा और बेहतर प्रशासनिक व्यवस्था देने तक के लक्ष्य शामिल हैं. अब इन में से कई मुद्दे ऐसे हैं, जो किसी आम युवा की सोच के दायरे से बाहर हैं. हालांकि, वैश्विक मसलों पर जागरूकता फैलाना अच्छी बात है. लेकिन, ये बात समझ से परे है कि युवा किस तरह से मलेरिया के ख़िलाफ़ दुनिया की लड़ाई में शामिल हो सकते हैं या फिर दूर स्थित देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करने में योगदान दे सकते हैं. आज इस बात की ज़रूरत है कि लोगों की व्यक्तिगत पसंद के हिसाब से उन्हें उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया जाए. जैसे कि इस की शुरुआत एजेंडे के लक्ष्य नंबर 12 — यानी टिकाऊ विकास और खपत, से हो सकती है.
1995 के बाद पैदा हुई पीढ़ी, जिसे जेनरेशन Z कहते हैं, वो वर्ष 2020 तक दुनिया के कुल ग्राहकों का 40 फ़ीसदी हिस्सा होंगे. इसका ये मतलब है कि हमारे युवाओं की खपत और ख़रीदारी की आदतों में बदलाव लाने की ज़रूरत है.
अपनी रोज़मर्रा की जीवन शैली से हम कार्बन उत्सर्जन में बहुत बड़ा योगदान देते हैं. दुनिया में ऊर्जा की कुल खपत का 29 प्रतिशत घरेलू इस्तेमाल में काम आता है. जबकि खान-पान के सेक्टर में 30 फ़ीसदी ऊर्जा की खपत होती है. पर्यटन, जिसके तहत यातायात, ख़रीदारी और खान-पान का योगदान शामिल है, वो भी ऊर्जा की खपत के मामले में बहुत बड़ा साझीदार है. पर्यटन की वजह से विश्व भर के कुल ग्रीनहाउस उत्सर्जन का 8 फ़ीसदी हिस्सा होता है. कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में अमेरिका और चीन का योगदान सबसे ज़्यादा है. वर्ष 2015 में अमेरिका ने 904.74 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन किया था. वहीं चीन ने 499.75 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड को वायुमंडल में उत्सर्जित किया था. प्रति व्यक्ति कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में अमेरिका चीन से 89.4 करोड़ टन आगे है. अमेरिका और चीन, दुनिया की सबसे ज़्यादा खपत वाले बाज़ार हैं. और अमेरिका के बारे में ये अनुमान लगाया जाता है कि ग्राहकों की ख़रीदारी की जो पसंद है, उसका कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में 60 प्रतिशत का योगदान है. ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर EPA यानी अमेरिका की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, अमेरिका में सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाने वाला उद्योग ट्रांसपोर्ट सेक्टर है. 2017 में अमेरिका के कुल ग्रीनहाउस उत्सर्जन में इस उद्योग का योगदान 29 फ़ीसदी था. इसके बाद कारोबार और आवासीय सेक्टर आते हैं, जो 12 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस स उत्सर्जित करते हैं. इसके बावजूद आज केवल 53 प्रतिशत अमेरिकी ही ये मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन के पीछे इंसानी गतिविधियों का हाथ है. इस मिथक को तोड़ने की सख़्त ज़रूरत है.
हम पैदाइशी ख़रीदार नहीं हैं. आज मीडिया और असरदार मार्केटिंग की मदद से ग्राहकों का बड़ा बाज़ार खड़ा किया जाता है. इनकी वजह से ही हमारे अंदर कार ख़रीदने, छुट्टी पर जाने और इलेक्ट्रॉनिक सामान ख़रीदने की छटपटाहट और ख़्वाहिश पैदा होती है. 1995 के बाद पैदा हुई पीढ़ी, जिसे जेनरेशन Z कहते हैं, वो वर्ष 2020 तक दुनिया के कुल ग्राहकों का 40 फ़ीसदी हिस्सा होंगे. इसका ये मतलब है कि हमारे युवाओं की खपत और ख़रीदारी की आदतों में बदलाव लाने की ज़रूरत है. ये इसलिए ज़रूरी है कि तभी हम ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के असर को कम कर सकेंगे और जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्य हासिल करने में क़ामयाब हो सकेंगे.
हमें किशोरों का ध्यान खींचने के लिए जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चर्चा को क्लासरूम के दायरे से आज़ाद करना होगा. और इसे उन ऐप और वेबसाइट पर ले जाना होगा, जिनका इस्तेमाल आज की पीढ़ी कर रही है.
नीतियां बनाने वाले इस बात से अनजान नहीं हैं. अमेरिका में स्कूल के साइंस के पाठ्यक्रम में कक्षाओं में जलवायु परिवर्तन की पढ़ाई कराना अनिवार्य है. लेकिन, अगर इस शर्त को भी असरदार तरीक़े से लागू किया जाए, तो भी आज हम ऐसी दुनिया में नहीं रहते हैं, जहां आजकल के बच्चे अपनी सारी जानकारी केवल अध्यापकों से हासिल करें. एक अमेरिकी किशोर औसतन साल भर में 180 दिन 6.5 घंटे प्रतिदिन स्कूल में गुज़ारता है. अगर हम इस में ब्रेक के समय को घटा दें, तो बच्चे बहुत कम वक़्त कक्षा में गुज़ारते हैं. इसकी तुलना में हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, एक औसत अमेरिकी किशोर रोज़ क़रीब 6.5 घंटे ऑनलाइन वीडियो, या संगीत देखने में ख़र्च करता है. ये एक दिन के एक चौथाई हिस्से भी ज़्यादा वक़्त है. अगर हम हफ़्ते के कामकाजी दिनों और छुट्टियों को भी जोड़ लें, तो आज एक अमेरिकी बच्चा स्कूली शिक्षा हासिल करने से ज़्यादा समय ऑनलाइन दुनिया में बिताता है. अगर ये बच्चे अपने हर हफ़्ते के 4 घंटे पूरे के पूरे विज्ञान की पढ़ाई करने में बिताते हैं और ये समय भी केवल पर्यावरण से जुड़े मसलों के अध्ययन में लगाया जाए, तो भी, इस वक़्त से 37.5 घंटे ज़्यादा समय बच्चे ऑनलाइन कंटेंट देखने में लगाते हैं. जो कक्षा की पढ़ाई के उलट ही सबक़ सिखाता है. इससे उन्हें लंबी दूरी के हवाई सफ़र पर जाने और ख़ूबसूरत ठिकानों पर घूमने जाने के लिए प्रेरित करता है. क़ामयाब युवाओं को महंगी कारें ख़रीदने को उकसाता है. और उन्हें ये लगता है कि नया आईफ़ोन आने के बाद उनका पुराना मॉडल बेकार हो जाता है.
इसलिए, ये साफ़ है कि हमें किशोरों का ध्यान खींचने के लिए जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चर्चा को क्लासरूम के दायरे से आज़ाद करना होगा. और इसे उन ऐप और वेबसाइट पर ले जाना होगा, जिनका इस्तेमाल आज की पीढ़ी कर रही है. प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक़ 90 फ़ीसदी अमेरिकी किशोर सोशल मीडिया का प्रयोग करते हैं. इन में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है यू-ट्यूब जिसे 82 प्रतिशत युवा देखते हैं. वहीं, इंस्टाग्राम को 72 प्रतिशत युवा इस्तेमाल करते हैं. संयुक्त राष्ट्र और इससे जुड़े संगठनों को इस बात का अच्छे से अंदाज़ा है कि इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की अहमियत कितनी ज़्यादा है. 2015 के बाद से सोशल मीडिया पर कई ऐसे अभियान चलाए गए हैं, जिनके ज़रिए किशोरों को समुचित विकास के संवाद से जोड़ने की कोशिश होती है. ख़ास तौर से यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम फ़ेसबुक और ट्विटर के माध्यम से. लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि ऐसे अभियान कितने असरदार हैं और इससे समेकित विकास का संदेश किस हद तक लोगों तक पहुंचता है. जिससे आज की युवा पीढ़ी और ख़ास तौर से किशोर आबादी जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ क़दम उठाने के लिए प्रेरित हो.
2030 में 10 से 25 वर्ष की आयु वाली नई पीढ़ी के क़रीब 37 करोड़ लोग भारत में रह रहे होंगे. इससे घरेलू खपत पर बहुत भारी असर पड़ने वाला है. तब तक बड़ी संख्या में लोग ग़रीबी रेखा से ऊपर उठकर मध्यम वर्ग का हिस्सा बनेंगे. और ज़्यादा ख़र्च करेंगे, जिससे सामान की खपत भी बढ़ेगी.
लिटिलएक्सलिटिल (littlexlittle) नाम का अभियान, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने गूगल, विज्ञापन कंपनियों, असरदार लोगों और सेलेब्रिटीज़ के साथ साझेदारी से चलाया था. इसके ज़रिए यू-ट्यूब पर ऐसा प्लेटफॉर्म विकसित किया गया, जिसकी मदद से युवाओं को टिकाऊ विकास की दिशा में योगदान देने को प्रेरित किया गया था. ये एक सही दिशा में उठाया गया क़दम है. इस अभियान से ये ज़ाहिर होता है कि नीतियां बनाने वालों को लोगों की ज़रूरतें और ख़ास तौर से युवाओं के हिसाब से ऐसी चीज़ें बनानी चाहिए, जो उन्हें जानकारी भी दे और ऐसा हो जिसे वो आसानी से हासिल कर सकें. लेकिन, यू-ट्यूब पर आए कमेंट से ज़ाहिर होता है कि जो अभियान चलाया गया उसका कंटेंट युवाओं की उम्मीदों को पूरा नहीं करता. आज इंस्टाग्राम और यू-ट्यूब के आगे फ़ेसबुक की घटती लोकप्रियता से ये इशारा मिलता है कि पुरानी पीढ़ी के मुक़ाबले नई पीढ़ी को तस्वीरों वाला कंटेंट ज़्यादा पसंद आ रहा है. आज जो जलवायु परिवर्तन से जुड़े कंटेंट बना रहे हैं वो इंस्टाग्राम पर ग्राफिक्स और आंकड़े बनाकर कहानी नहीं बता रहे हैं. जबकि संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में चलने वाले वेब पेज जैसे @theglobalgoals में ऐसी जानकारी उपलब्ध कराई जा रही है. अब ऐसी जानकारी को कहानी की शक्ल में ढालकर ऑनलाइन दुनिया में पेश किए जाने की ज़रूरत है, ताकि युवाओं को इस तरफ़ आकर्षित किया जा सके. जो अकाउंट प्रामाणिक तरीक़े से और बेहद ख़ूबसूरती से ये संदेश युवाओं तक पहुंचा सकते हैं, उनके आज हज़ारों की तादाद में फ़ॉलोवर हैं. बहुत से लोकप्रिय सोशल मीडिया अकाउंट उन सेलेब्रिटीज़ के हैं जिनका अपना रहन-सहन जलवायु परिवर्तन में योगदान देता है. इसीलिए आज बहुत से आम लोग भी सोशल मीडिया पर लोकप्रिय हो रहे हैं, जो स्थायी विकास पर आधारित रहन-सहन को प्रचारित करते हैं. मसलन, लॉरेन सिंगर का @trashisfortossers नाम का एकाउंट है जो कचरा न पैदा करने की बात करता है, उसके 3 लाख 44 हज़ार से ज़्यादा फॉलोवर हैं. वहीं, ग्लोबल गोल नाम के सस्टेनेबल डेवेलपमेंट की बात करने वाले ट्विटर अकाउंट के फॉलोवर्स की संख्या महज़ 2 लाख 43 हज़ार है. हालांकि, लॉरेन सिंगर का रहन-सहन अपनाना बहुत से लोगों के बस की बात नहीं है. लेकिन, उसकी कहानियां जिस तरह से पेश की जाती हैं और सरल शब्दों में कचरा न फैलाने का संदेश देती हैं, उससे आम लोगों को अपनी ज़रूरतें कम करने और कचरा कम पैदा करने की प्रेरणा मिलती है.
आज भारत में ग्राहकों के ख़र्च के 1.5 अरब डॉलर से बढ़कर 2030 में 6 ख़रब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद जताई जा रही है. भारत जल्द ही अमेरिका और चीन के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार होगा. 2030 में 10 से 25 वर्ष की आयु वाली नई पीढ़ी के क़रीब 37 करोड़ लोग भारत में रह रहे होंगे. इससे घरेलू खपत पर बहुत भारी असर पड़ने वाला है. तब तक बड़ी संख्या में लोग ग़रीबी रेखा से ऊपर उठकर मध्यम वर्ग का हिस्सा बनेंगे. और ज़्यादा ख़र्च करेंगे, जिससे सामान की खपत भी बढ़ेगी. इंटरनेट का इस्तेमाल भी बढ़ेगा. 15 साल से ज़्यादा उम्र के 90 फ़ीसदी भारतीय ऑनलाइन दुनिया तक पहुंच बना लेंगे. इसका मतलब ये हुआ कि सोशल मीडिया की पहुंच और इसका दायरा भी बढ़ेगा. युवाओं के लिए जुड़ने के नए माध्यम उपलब्ध होंगे. यानी वैश्विक खपत बाज़ार में भारत बड़ा खिलाड़ी बन जाएगा. आज के युवा को अगर हम समय से जानकार बनाएंगे, तो उसका आगे चल कर गहरा असर होगा. ताकि वो पश्चिमी देशों के युवाओं जैसी आदतें नहीं पालेंगे और प्रदूषण कम फैलाएंगे. लेकिन, ऑनलाइन दुनिया की इन संभावनाओं का सही तरीक़े से इस्तेमाल हो सके, इसके लिए ज़्यादा क्रिएटिविटी और नए प्रयोग करने की ज़रूरत है. इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र, असरदार लोगों और युवाओं के बीच तालमेल बढ़ाए जाने की भी ज़रूरत है. सोशल मीडिया इस में अच्छा रोल निभा सकता है और शिक्षा के माध्यम के तौर पर इसका इस्तेमाल होना भी चाहिए. लेकिन, पूरी प्रक्रिया के दौरान हमें ये याद रखना पड़ेगा कि आख़िर युवा सोशल मीडिया का इस्तेमाल क्यों करते हैं. क्योंकि जब तक हम इसे नहीं समझेंगे, हम जलवायु परिवर्तन से जुड़े संदेश नई पीढ़ी तक नहीं पहुंचा सकेंगे.
लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं.
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