Published on Dec 08, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या यूरोप में कोविड-19 मामलों में अचानक बढ़ोतरी के लिए सिर्फ़ वैक्सीन नहीं लगवाने वाले लोगों को ज़िम्मेदार ठहराना चाहिए?

वैक्सीन विरोधी सोच रखने वाले लोगों की बदौलत महामारी की उम्र को मिल सकता है विस्तार!

नवंबर के दूसरे हफ़्ते में यूरोप के नाम एक ख़राब रिकॉर्ड दर्ज हो गया. दुनिया भर में कोविड-19 के 64 प्रतिशत मामले और कोविड-19 से 57 प्रतिशत मौतें सिर्फ़ यूरोप में दर्ज हुई. यूरोप के अलग-अलग हिस्सों में हम मामले रिकॉर्ड ऊंचाई पर देख रहे हैं और अब भी इसमें तेज़ बढ़ोतरी जारी है. शायद ये कोई संयोग नहीं है कि वैक्सीन को लेकर ज़्यादा झिझक वाले यूरोप के देशों- ख़ास तौर पर जर्मन बोलने वाले देशों– में कोविड-19 के मामलों में सबसे ज़्यादा बढ़ोतरी हो रही है. दो घटनाओं के एक साथ होने- कम टीकाकरण की दर और ज़्यादा संक्रमण/मौत की दर- की वजह से यूरोप में टीकाकरण नहीं कराने वाले लोगों की मुश्किल बढ़ गई है.

ट्विटर पर #PandemicOfTheUnvaccinated ट्रेंड कर रहा है. सिर्फ़ कुछ ही दिन पहले ऑस्ट्रिया ने ख़ास तौर पर टीका नहीं लगवाने वाले लोगों के लिए लॉकडाउन का ऐलान किया. हालांकि कुछ ही दिनों बाद 22 नवंबर से शुरू करके 20 दिनों के लिए इस क़दम को सामान्य लॉकडाउन में तब्दील कर दिया गया. फिर सरकार ने घोषणा की कि 13 दिसंबर से लॉकडाउन सिर्फ़ टीका नहीं लगवाने लोगों पर लागू होगा. दूसरे देश जैसे जर्मनी और इटली भी वैक्सीन विरोधियों के ख़िलाफ़ सख़्त क़दम उठा रहे हैं.

कुछ ही दिन पहले ऑस्ट्रिया ने ख़ास तौर पर टीका नहीं लगवाने वाले लोगों के लिए लॉकडाउन का ऐलान किया. हालांकि कुछ ही दिनों बाद 22 नवंबर से शुरू करके 20 दिनों के लिए इस क़दम को सामान्य लॉकडाउन में तब्दील कर दिया गया. 

हम समझ सकते हैं कि वैक्सीन नहीं लगवाने वाले लोगों को “सज़ा” की इच्छा कहां से आती है. हम सभी इस बात से निराश हैं कि पिछले साल इस समय की तुलना में इस साल कोविड-19 के मामले ज़्यादा आ रहे हैं. नीति निर्माताओं, जिन्होंने उतावलापन दिखाते हुए समय से पहले “अब और लॉकडाउन नहीं” का वादा किया था, को अब इस बात का डर है कि अगर उन्होंने फिर से पाबंदियां लगाई तो लोगों के बीच उनकी छवि ख़राब होगी. ज़्यादातर लोगों के लिए एक समूह- इस मामले में वैक्सीन नहीं लगवाने वाले- पर आरोप मढ़ना आसान है. शायद इस तरह के योजनाबद्ध लॉकडाउन से होने वाली परेशानी और शर्म की वजह से वैक्सीन नहीं लगवाने वाले लोगों में से कुछ लोग आख़िरकार ख़ुद को सुई लगवाने के लिए तैयार हो जाएं. लेकिन कुल मिलाकर ये रुझान ग़लत रास्ते पर ले जाने वाला और मूर्खतापूर्ण है.

सिर्फ़ वैक्सीन से कोरोना वायरस से लड़ने मुश्किल

विषाणु विज्ञानियों और महामारी विशेषज्ञों ने बहुत हद तक लगातार चेतावनी दी है कि वायरस के ख़िलाफ़ एक से ज़्यादा समाधान में वैक्सीन सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. वैक्सीन की दोनों डोज़ लगवाने वालों में भी संक्रमण के पर्याप्त मामले हैं- कभी-कभी तो गंभीर लक्षण, लंबे समय तक और बेहद ख़राब हालात के भी मामले आते हैं. ऐसा कोई भी अभियान जिसमें सिर्फ़ वैक्सीन नहीं लगवाने वाले लोगों पर पाबंदी शामिल है- और बाक़ी लोगों के लिए सामान्य हालात- वो ग़लत ढंग से सुझाव देता है कि सिर्फ़ वैक्सीन से ही वायरस को हराया जा सकता है. हाल की एक समीक्षा में पाया गया कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि अनिवार्य टीकाकरण की वजह से वैक्सीन लगवाने वालों की संख्या बढ़ जाएगी, वहीं कुछ अध्ययनों में बताया गया है कि वैक्सीन लगवाने वालों को “ग्रीन पास” सर्टिफिकेट जारी करने से एहतियाती बर्ताव जैसे सामाजिक दूरी और बार-बार हाथ धोना कम हो सकता है.

इस बात की अच्छी संभावना है कि मास्क लगाने, सामाजिक दूरी बरकरार रखने, ग़ैर-ज़रूरी संपर्क कम करने और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग जैसे उपायों के बिना सिर्फ़ वैक्सीन लगाना बीमारी के फैलने पर नियंत्रण करने में नाकाम रहेगा

इस बात की अच्छी संभावना है कि मास्क लगाने, सामाजिक दूरी बरकरार रखने, ग़ैर-ज़रूरी संपर्क कम करने और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग जैसे उपायों के बिना सिर्फ़ वैक्सीन लगाना बीमारी के फैलने पर नियंत्रण करने में नाकाम रहेगा. ऐसा हम पहले ही बेल्जियम और फ्रांस जैसे देशों में देख रहे हैं जहां वास्तव में सख़्त उपाय लागू किए गए थे जिसके तहत कैफे और रेस्टॉरेंट में जाने की अनुमति टीकाकरण का प्रमाण दिखाने के बाद ही दी गई थी. इसकी वजह से ग़लत ढंग से वैक्सीन पर शक करने वाले ये मानने लगेंगे कि वैक्सीन काम नहीं करती है. साथ ही इसके कारण वैक्सीन लगवाने की झिझक भी बढ़ेगी, ठीक उसी तरह जैसे लॉकडाउन की कड़ी निंदा की गई थी जबकि असली समस्या अनियोजित या ग़लत तरीक़े से बनाई गई लॉकडाउन खोलने की योजना थी. इससे नीचे की ओर जाने की संभावना अधिक होगी.

कोविड-19 के मामलों में तेज़ी से बढ़ोतरी के कई कारण हैं जिनमें बेहद संक्रामक डेल्टा वैरिएंट शामिल है. निस्संदेह स्कूल वायरस के अड्डे हैं. कोविड-19 बच्चों के लिए जानलेवा नहीं भी लगते हों तब भी इस नोवल वायरस के बारे में बहुत कम जानकारी लोगों के पास है: कौन जानता है कि वायरस तक ऐसे अनियंत्रित संपर्क का इन बच्चों पर लंबे समय में क्या असर होगा? इसके अलावा, अगर उनके भीतर कोई लक्षण नहीं हो तब भी वो वायरस को फैलाने का काम करते हैं. कई देशों में और स्थानीय अधिकार क्षेत्रों के भीतर स्कूलों में मास्क, टेस्ट और क्वॉरंटीन के नियम बड़ी गड़बड़ियों के साथ कमज़ोर (या ग़ायब) हैं. उदाहरण के लिए, जब किसी बच्चे की कक्षा में एक मामले की वजह से उसे क्वॉरंटीन के लिए कहा जाएगा तो उसी बच्चे के परिवार के दूसरे बच्चों को स्कूल जाने दिया जाएगा क्योंकि उसके माता-पिता काम पर जाते हैं. घर पर काम करने में लचीलापन लाने के लिए बेहतर समर्थन प्रणाली बनाने की ज़रूरत है, ख़ास तौर पर “ग़ैर-ज़रूरी” क्षेत्रों में, और “ज़रूरी सेवा” में शामिल चीज़ों की ठोस परिभाषा होनी चाहिए. कठोर सीमा नियंत्रण की ज़रूरत होगी, स्वास्थ्य आपातकाल के साथ ईयू के द्वारा सुविधा प्रदान की जाने वाली लोगों के सामान्य (और प्रशंसनीय) मुक्त आवागमन को मात देना होगा. इसके लिए डिजिटलाइज़ेशन महत्वपूर्ण है, न सिर्फ़ बच्चों की पढ़ाई के लिए बल्कि घर पर दफ़्तर जैसी स्थिति बनाने के लिए भी. और सबसे बढ़कर, एक दूसरे की समस्या में संवेदना जताने के लिए भी.

कोविड-19 बच्चों के लिए जानलेवा नहीं भी लगते हों तब भी इस नोवल वायरस के बारे में बहुत कम जानकारी लोगों के पास है: कौन जानता है कि वायरस तक ऐसे अनियंत्रित संपर्क का इन बच्चों पर लंबे समय में क्या असर होगा? 

सोच का ध्रुवीकरण

ये हमें महामारी की कहानी को लेकर बड़ी समस्या तक ले जाता है. राजनीतिक नेताओं के द्वारा शब्दों के आडंबर से भरे इस दावे के बावजूद कि हम लोग एक ही नाव में हैं, महामारी ने हमें बांटा भी है और अलग-थलग भी किया है. ग़रीब देशों की वैक्सीन तक पहुंच की कमी, जो अक्सर अमीर देशों की चूक और ग़लतियों के कारण है, एक और उदाहरण है. एक और उदाहरण पश्चिमी यूरोप के भीतर के देशों का है जिनमें से कुछ देशों में हमने बुजुर्गों और कमज़ोरों को “पराये” के रूप में देखा; इस तरह की ध्रुवीकरण वाली सोच कोविड-19 के फैलाव पर नियंत्रण के लिए देर से और कम सख़्त उपायों के साथ-साथ गई. इस तरह जहां समाज के “कमज़ोर” लोगों को “दुनिया से अलग रहने” या “पनाह लेने” को कहा गया, वहीं स्वस्थ और नौजवान/मध्यम उम्र के लोग अपने जीवन को लेकर बेहद कम रुकावट के साथ चले. साथ ही “दूसरों” की मदद के लिए अपनी गतिविधियों को संयमित करने की उनकी बेहद कम इच्छा थी.

पश्चिमी यूरोप के भीतर के देशों का है जिनमें से कुछ देशों में हमने बुजुर्गों और कमज़ोरों को “पराये” के रूप में देखा; इस तरह की ध्रुवीकरण वाली सोच कोविड-19 के फैलाव पर नियंत्रण के लिए देर से और कम सख़्त उपायों के साथ-साथ गई.  

निशाना साध कर वैक्सीन नहीं लगवाने वालों को बदनाम करना वैक्सीन विरोधियों को वैक्सीन लगवाने के लिए मनाने के बदले हमारे समाज में एक और ख़राबी को गहरा करेगा. इसके बदले हमारे लिए ज़रूरी है कि एक-दूसरे को बचाने के लिए और इस तरह ख़ुद को भी बचाने के लिए हम सभी मिलकर साथ काम करें.

साफ कर दें कि दोनों लेखकों ने वैक्सीन लगवाई है. जैसे ही वैक्सीन तक हमारी पहुंच हुई, हम अपने-अपने देशों में टीका लगवाने के लिए लाइन में लग गए. हम बूस्टर डोज़ लगवाने के लिए इंतज़ार नहीं कर सकते. हमें उन लोगों से बेहद कम सहानुभूति है जो दूसरों के जीवन को ख़तरे में डालते हैं और निस्संदेह वैक्सीन विरोधी ऐसे ही लोग हैं. लेकिन सिर्फ़ वैक्सीन विरोधियों को ज़िम्मेदार ठहराने वाली सोच, जो कोरोना पाबंदियों के साथ अकेले ऐसे लोगों को निशाना बनाती है, गहरे रूप से प्रतिकूल साबित होगी और इसकी वजह से महामारी का जोखिम और लंबा होगा.

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Authors

Amrita Narlikar

Amrita Narlikar

Dr. Amrita Narlikar’s research expertise lies in the areas of international negotiation, World Trade Organization, multilateralism, and India’s foreign policy & strategic thought. Amrita is non-resident ...

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Cecilia Sottilotta

Cecilia Sottilotta

Cecilia Sottilotta is Assistant Professor of International Relations and Global Politics at the American University of Rome and Visiting Professor at the EU International Relations ...

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